Monday, October 17, 2011

नए घर का जश्न

पच्चीस की उम्र के बाद
बद्ल लिया था मैने
घर
उनकी मनुहार पर जिन्होंने
जन्म दिया था, पाला था और लाडली
कहकर परायों के लिये सहेज़ कर रखा था मुझे
एक दिन बहुत दुलार से
करीब आकर कहा के
मेरे लिये अब जरूरी है
बदलना घर
क्योंकि यही है दस्तूर
मैने सब मान लिया एक कुलीन पिता और संस्कारी माँ के लिये जो याचक थे मेरे सामने
उस रोज


घर बदलना भी जश्न था सबके लिये
पर
घर बदलने के इस जश्न में कहां शामिल् थी मैं कहां शामिल थी मेरी अत्मा
अगर कुछ शामिल था तो
सुर्ख लिबास वाला अस्थि पंजर
और एक मरा हुआ मन
ये घर और वो घर
दोनों की जरूरतें
पिता की तरफ से
मुझे दान कर देने का
दृढ़ संकल्प
मैं ठीक उसी वक्त पिता की आखों की चमक देख बैठी
और गहरे विशाद में डूब
स्तब्ध सोच रही थी
जैसे जीवन का
एक अध्याय खत्म




किसको अह्सास था मेरी पीर का
अरे एक पत्ता भी कराहता है छू लेने भर से
मैं तो जडों से उखडी थी
और
चली आयी थी एक पीर ले
उस घर से इस घर
दस्तूर निभाने
अगला पिछला सब भूल के
चली आयी थी इस उम्मीद से
के
एक घर होगा
मैं हूंगी
कुछ सपने होंगे लाल गुलाबी नीले पीले
जहां कुछ रिश्तों की पग्डंडियां मेरी तरफ आयेंगी
सहेज कर रखेंगी कुछ हम चलेंगे और कुछ वो
और
रखेंगे एक नीव बद्लाव की
पर ये क्या? घिर गयी हुँ रिश्तों के जाल में
जो बदलने पर आमदा हैं मुझे ही रोज थोडा - थोडा




............................ अलका

4 comments:

  1. अंतरात्मा से निकली कविता... स्वागत है!

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  2. कराह यहाँ तक पहुँच रही है…………यही है स्त्री का जीवन्।

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  3. एक वैदिक विधि से विधान कि रचना करने की इस मार्मिक घडी में जो अनुभव आप ने लिखा हे वो कोई नया नहीं हे किसे को तो घर छोड़ना ही हे विधान का नियम हे बात सिर्फ इतनी हे की इस मामले में महिला ही क्यों ............

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  4. मन का दर्द सहजता से अभिव्यक्त होता चला गया आपकी इस रचना में....!

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