Saturday, October 29, 2011

माँ की निशानी

आज माँ की निशानी बेंच दी

पिता का तोहफा भी

जतन से रखा था सहेज कर

के दूँगी उसे

निशानी के तौर पर

क्या करूँ

आज़ाद नहीं हूँ ना मैं

बेबस हो जाती हूँ उसके लिए

जिसका भविष्य और मेरे सपने

दांव पर है

इस कैद में मेरा कहाँ है कुछ

मेरे हिस्से का सब ना जाने कितने की

लालसाओं मे बह गए

और मैं

यहाँ पडी रही ठूंठ सी

मन और हांथों को बाँध

आज सोचती हूँ क्या होगी वो धरोहर

जो उसको भी ऐसे ही रुलाएगी

वो भी सहेजती रहेगी

मेरा दिया और

दे देगी किसी को

मा का है

कह

इसीलिए बेच दी आज माँ की निशानी

और पिता का तोहफा

एक खलिश के साथ

उसके कल के लिए

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