आज माँ की निशानी बेंच दी
पिता का तोहफा भी
जतन से रखा था सहेज कर
के दूँगी उसे
निशानी के तौर पर
क्या करूँ
आज़ाद नहीं हूँ ना मैं
बेबस हो जाती हूँ उसके लिए
जिसका भविष्य और मेरे सपने
दांव पर है
इस कैद में मेरा कहाँ है कुछ
मेरे हिस्से का सब ना जाने कितने की
लालसाओं मे बह गए
और मैं
यहाँ पडी रही ठूंठ सी
मन और हांथों को बाँध
आज सोचती हूँ क्या होगी वो धरोहर
जो उसको भी ऐसे ही रुलाएगी
वो भी सहेजती रहेगी
मेरा दिया और
दे देगी किसी को
मा का है
कह
इसीलिए बेच दी आज माँ की निशानी
और पिता का तोहफा
एक खलिश के साथ
उसके कल के लिए
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