Saturday, October 22, 2011

मुक्त होना चाह्ती हुँ.

नीड की अपनी स्नेहिल इन छतों से
मुक्त होना चाह्ती हुँ इन रुपहले तंतुओं के पाश से
मुक्त होना चाहती हुँ
पंख मेरे ही नहीं फड्के बहुत के और भी हैं
पांव मेरे ही नहीं उट्ठे बहुत के और भी हैं वर्जनओं के कटीले देश से
मुक्त होना चाहती हुँ

हर चितेरा जिन्दगी में रंग भर देता
कितने सुर्ख और सन्दल सरीखे किंतु उसकी तुलिका के
अन्क से बाहर निकर कर
मुक्त होना चहती हूँ
चाहती हुँ मैं बिखर कर
जिन्दगी को सींच दूँ सीपियों के सब फलक को
तोड्कर बाहर निकल लूं चेतना की ओर् चलती
भवना के तंतुओं से
मुक्त होना चाह्ती हुँ.

........................................ अलका

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