कल पड़ोस की चौखट पर
नरक चतुर्दशी का दिया ले
एक माँ की
जलती हुई दो आँखों को
राह अगोरते और
ढलक आये आंसुओं को पल्लू में समेट
शून्य में ताक़
कुछ बुदबुदाते देखा
जैसे कह रही हो
मोह , माया और स्नेह का बंधन तोड़
कहाँ चले गए सब
कहां चले गये सब अकेला छोड्
घर की चौखट पर एक दीया हाथ में ले
वो याद करती है
उस बेटे का चेहरा जो कहता था'तोहके छोड़ के कहाँ जाब माई '
और लिपट्कर पुचकारता
'तोहरा सिवा के बा हमरा जिनगी में'
गालों तक ढलके आये आंसुओं को पोंछ
दीये की लौ उसकाते उसकाते
बेटी की फोटो से अपना दुःख दर्द
बतियाने लगती है
और फिर पति की
तस्वीर से धूल हटा
सिसक कर लड़ पड़ती है
'तुहूँ चल गईल अक्केले छोड़ के'
सिसक कर मेरे करीब आ
मेरा हाथ थाम अपना संयम जैसे खो देती है
उसके स्पर्श और नज़रों की भाषा
उतरने लगती है
एक गाथा की तरह मेरे अन्दर
और सोचती हूँ मैं
उम्र गुजार दी उसने
ये घर बनाते बनाते
और आज उम्र के इस पड़ाव पर
इस दीये के साथ भटक रही है
यहां - वहां उदिग्न
खोजती है कुछ खोया सा
कभी अपने ही घर की बैठक में
कभी दालान में और
कभी
अपने बिस्तर की सलवटों में
लगता है जैसे खोजती है
वो वक्त ,वो साथ
वो तिनका तिनका जोड़ना
रोज रोज बनाना
सहेजना, संवारना
बस घर और बच्चों के लिए जीना
बुझाते हुए दीये को खूब तेज कर ठिठक जाती है
कुछ सोचते सोचते
धम्म से बैठ् कर जैसे विचरने लगती है यादों के साये में
जैसे खोजती है वो उजाला
जो रोज बटोर के लाती थी बादलों को चीर
सबके लिये
होठों तक आ गयी पीर को आंचल से दबा
कह देती है है
आज इस दिए की लौ में
सब गुम है
वो बेटा, वो साथ , वो वक्त
पर इस रौशनी
में नहा
सब खुश रहें अपनी अपनी राह
कल पड़ोस की चौखट पर
नरक चतुर्दशी का दिया ले
एक माँ की
जलती हुई दो आँखों को
राह अगोरते देखा ..............................
............................... अलका
भावों को मार्मिकता से बुना है!
ReplyDeleteशुभ दीपावली!