आज बीस बरस पीछे
अपने ही इतिहास की मुडेर पर खडी
अपने ही अतीत की झोली से एक एक पल
निकाल कर
गहरे मौन में खुद को खोजती रही
बीस बरस के नीले समुद्र सा मेरा इतिहास
खुद में मुझे समेटे
मेरे ही अन्दर बार बार झांकता
ऐसे निकल रहा था कुछ् जैसे
सीप से मोती निकलता हो कोई
आज अजब है मेरा मौन
जैसे गहरी तली में बैठा
भारी मन
जैसे नीरव जंगल
उसका आभास
इतिहास कुरेदता है
मौन पर जैसे एक कंकरी फेंकी हो
और सामने तैरती है
एक कथा
ये आज किसको देख लिया अपने इतिहास में
मेरी ही मुडेर पर जैसे फिर बोल गया कागा
बीस बरस पुराना
वही कागा
पर आज मैं चहकी नहीं
और इतिहास मेरी ही छत पे चढ़ मुझे देख रहा है
मेरे मौन और उसकी प्रतिक्रिया को पढ़ रहा है
बस अश्चर्य से कहता है
वाह !!!
....................................................अलका
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