मैं देख रही हूँ
दो सभ्यताओं का द्वंद युद्ध
दो संस्कृतियों की टकराहट
दो धाराओं का जीवन
दो आचार
दो विचार
एक तरफ दिशाहीन किन्तु प्रगति
एक तरफ मृत्यु किन्तु अंतहीन
मैं देख रही हूँ
एक दुह्स्वप्न
एक अन्धकार
घुप्प अँधेरा
मन मे उपजते कई सवाल
किन्तु परिभाषा से परे
एक विकास
और उसके पीछे भागते लोग
मैं देख रही हूँ एक शहर
चकाचौंध
उसका फैलना
रफ़्तार
जश्न
लूट - खसोट
महंगाई
और मरते हुए बच्चे
बेबस ऑंखें
भूख से तड़पते लोग
और एक बड़ी सी लाचारी
मैं देख रही हूँ
मरता हुआ एक गाँव
एक पेड़
सिसकती हुई गाय
बागीचे
कठपुतली चौपाल
हर रोज खेतों का कटता अंग
लहलहाते खेतों पर रोज़ रोज़
नए प्रतिबन्ध
उसे छटपटाते, चिघारते और लाचारी से
नतमस्तक होते
खेतिहर से मजदूर बनते
चौराहे पर रोज खुद को बेचते
चूल्हा जलाने का इंतज़ार करते
थाली मे भोजन की आस मे बैठी ऑंखें
विकास की भेंट चढी
एक एक थाती
मैं देख रही हूँ
एक शहर
एक गाँव
अपना देश
दो जीवन
एक मरता
एक किलकता
एक लंगड़ा एक भगाता
एक कंगाल
एक मालामाल
मैं देख रही हूँ निःशब्द , मौन
इतना बड़ा व्यभिचार
दो नीतियाँ
एक देश
मैं देख रही हूँ
मैं देख रही हूँ
ऐसा ही कुछ हर पग
कितने ही रंग कितने ही बदरंग
पर
नहीं देख पायी खुशहाल कोना
किलकता बचपन
हर रोज बढ़ते पांव
एक प्रतिकार
मैं देख रही हूँ
एक मल्ल युद्ध
.......................................अलका
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