Monday, October 10, 2011

एक दुहस्वप्न

मैं देख रही हूँ
दो सभ्यताओं का द्वंद युद्ध
दो संस्कृतियों की टकराहट
दो धाराओं का जीवन
दो आचार
दो विचार
एक तरफ दिशाहीन किन्तु प्रगति
एक तरफ मृत्यु किन्तु अंतहीन

मैं देख रही हूँ
एक दुह्स्वप्न
एक अन्धकार
घुप्प अँधेरा
मन मे उपजते कई सवाल
किन्तु परिभाषा से परे
एक विकास
और उसके पीछे भागते लोग

मैं देख रही हूँ एक शहर
चकाचौंध
उसका फैलना
रफ़्तार
जश्न
लूट - खसोट
महंगाई
और मरते हुए बच्चे
बेबस ऑंखें
भूख से तड़पते लोग
और एक बड़ी सी लाचारी


मैं देख रही हूँ
मरता हुआ एक गाँव
एक पेड़
सिसकती हुई गाय
बागीचे
कठपुतली चौपाल
हर रोज खेतों का कटता अंग
लहलहाते खेतों पर रोज़ रोज़
नए प्रतिबन्ध

उसे छटपटाते, चिघारते और लाचारी से
नतमस्तक होते
खेतिहर से मजदूर बनते
चौराहे पर रोज खुद को बेचते
चूल्हा जलाने का इंतज़ार करते
थाली मे भोजन की आस मे बैठी ऑंखें
विकास की भेंट चढी
एक एक थाती


मैं देख रही हूँ
एक शहर
एक गाँव
अपना देश
दो जीवन
एक मरता
एक किलकता
एक लंगड़ा एक भगाता
एक कंगाल
एक मालामाल
मैं देख रही हूँ निःशब्द , मौन
इतना बड़ा व्यभिचार
दो नीतियाँ
एक देश

मैं देख रही हूँ


मैं देख रही हूँ
ऐसा ही कुछ हर पग
कितने ही रंग कितने ही बदरंग
पर
नहीं देख पायी खुशहाल कोना
किलकता बचपन
हर रोज बढ़ते पांव
एक प्रतिकार

मैं देख रही हूँ
एक मल्ल युद्ध
.......................................अलका

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