कल,
बौखलाई सी भाग रही थी
एक माँ
सडकों पर इधर- उधर
अपने ही जाये दो बेटों की तलाश में
और बुदबुदा रही थी मन ही मन
चल पड़े हैं दोनों
बाप के रस्ते
बरसों परेशां रही हूँ उस करमजले से
रोज रात का देर से आना
पूरी कमाई को शराब मे उड़ाना
घर के खाने की थाली फेंकना
और
बाहर दुकान पर छुछुआना
सारी उम्र यही आदत रही है
मुए की
पर आज ये दोनों भी बाप के रस्ते
निकल पड़े ?
अचानक ट्रक चालकों के झुण्ड में
दिख गए बेटे पर
लात घूंसों से टूट पडी
उस माँ का
स्वर तेज़ हो जाता है
उबल पड़ती है -
नहीं बनने दूँगी करम्कूटों शराबी- कबाबी
तुमको
ना हीं रहने दूँगी अनपढ़ गवांर
काट दूँगी ये जबान
जो लालच से लदे है
काट दूँगी ये हाँथ जो
ठेंगा दिखाते हैं
काट दूँगी ये पांव
जो बाप के रस्ते निकल पडे हैं
बाबू बहुत देह तोड़ी है
इन कमीनो को जनने मे
जाने कितनी बार
कितनो से और
कहाँ कहाँ लड़ी हूँ
कि ये संवर जाएँ
क्यों सिखाते हो इन्हें माँ के सपनों को
आँख दिखाना
क्यों बैठाते हो इन्हें जूठी गिलास के इंतज़ार मे
मेरे दोनों हाथ तुम्हारे पांव पड़ते हैं
लौटा दो इन्हें मेरी नाव पर
और टूट पड़ती है फ़िर वो उनको सवांरने
के लिए
अपने ही दोनों जायों पर
जो निकल पड़े हैं बाप के रस्ते
............................................ अलका
उफ़ क्या खूब चित्रण किया है …………तस्वीर का एक रुख ये भी होता है।
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