सोचती हूँ,
औरत और कलम आखिर क्यों
दूर दूर चलते रहे सदियों तक
दो किनारों से
क्यों कलम के विषयों मे
औरत
केंद्र बिंदु रही है
और लिखती रही कलम
वो पूरा पुलिंदा
औरत पर, औरत के लिए, औरत का
और वो
पूरा का पूरा धर्म ग्रन्थ, नियम कायदे और एक रणनीति
जिसपर चलेगी औरत् अनवरत
सोचती हूँ
कलम का औरत से रिश्ता कितना पुराना है
पर औरत का कलम से ?
अजीब विडम्बना है औरत की
जब भी मांगती थी कलम
सोचती थी लिख दूं
अपना भी दर्शन
अपना विज्ञान
अपना इतिहास
मन के उदगार
रिश्ता , दर्द
और जीवन के
तमाम बिंदु
कलम दूर खडी
उनके हाथ में
मुस्कुराती रही
जो उसे टापू बनाते रहे
आज कलम जब औरत के हाथ में है
एक सन्नाटा है
जब लिखती है वो अपना इतिहास
विरोध के स्वर भी हैं
जब उकेरती है अपने दर्द
अब भी तनती हैं भृकुटियाँ
जब परम्पराओं पर कलम तोड़ती है
धर्मग्रंथों की समीक्षा पर
उखड जाता है समाज
दिशायें ठिठक जाती हैं शब्द शब्द सहस पर
आज
ऐसी है औरत की कलम
सोचती हूँ,
औरत से कलम का नाता
दिन पर दिन रंग लायेगा
वो रचेगी अपना इतिहास
लिखेगी प्रेम गीत
उकेरेगी अपने भाव
और जरूर पूछेगी
को क्यों नहीं दी गयी कलम
सदियों तक उसके हाथ
कहेगी
गर दी गयी होती तो
शायद
संसार और औरत का अभिलेख ही
कुछ अलग होता
...............................................................................अलका
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