Sunday, October 30, 2011

इक शब्द

इक शब्द
जिसे जीना चाहती थी साथ साथ
उम्रभर लम्हा लम्हा
क्योंकि यही जाना था और सीखा भी
के यही इक शब्द जीवन को
गति देता है औरत को रंग और रूप देता है
आँख मूँद कर उस शब्द को पकडे
बिना सवाल किये , सोचे
इसी के सहारे उस हाथ को थाम
चली आयी थी इस दहलीज़
कुछ रूमानी सपनो के साथ
इक घर बनाउंगी
अपना
पर वो शब्द और वो साझे सपने
सफ़र के बीच ही बिखरकर
टूट गए
जैसे छन् कोइ शीशा चटक गया हो
मैं उसकी बनाई लकीर पर खडी
बस देखती रह गयी
मेरे ही फर्श पर कतरे गए मेरे ही
कुछ ख्वाब


उस इक शब्द और उसके जाल से
बचते निकलते समझ आया
थोड़ी देर के बाद के
बहुत कुछ और भी है उस ख्वाब और उन सपनो के आगे
उतरकर सपनो की मखमली जमीन से
आसन नहीं होता
सच के दलदल को जीना
ना ही
आसान होता है उस इक शब्द के बुने जालों को साफ़ करना
जुटी हूँ
के साफ़ कर डालूं इक इक रेशा
उस जाल का और फिर से
बुन सकूँ
खुद बनाये इक ख्वाब का घर
जिसमे मैं विचार सकूँ बेखटक
और दे सकूँ पनाह
इक नए शब्द को
नयी डगर के लिए



................................अलका

1 comment:

  1. शब्द को नयी डगर देने की चाहत!
    सुन्दर!

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