Thursday, October 13, 2011

घर

घर !
एक पूरा का पूरा रण था
मेरे लिए
और घर के लोग दूसरे पाले में खड़े सिपाही
वो पहरुए थे
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
दूसरी ओर खड़ी मैं
अपनी चाह और इच्छा से
मजबूर, अडिग
हर रोज उनसे टकराने को तैयार
कभी तन के सवाल पर
कभी मन के सवाल पर
कभी कपड़ों पर
तो कभी अपने इरादों पर
फिर
कभी इस बात पर
कभी उस बात पर
जैसे तय था
टकराना हर रोज
अपने लिये


माँ !
पहली पहरेदार थी
जैसे एक दीवार
पर
कभी समझती सी
कभी समझाती सी
कभी लाल लाल आँखों से
धमकाती सी
कभी अपने ही बरसों पुराने सपनो को लेकर
खुद से लड़ती सहमी आंखे लिए
सामने खडी
दुविधा में हर पल जीती
चिंतित, व्यथित
कभी सख्त , बेहद सख्त
मेरे लिए
वही एक ताना थी जहाँ से
हर रोज तोड़ती थी
मैं वो एक् घेरा
कभी लड़कर
कभी अधिकार से
कभी चुपचाप उसे अनदेखा कर
मेरे लिये वही एक ताना थी
जहाँ नव जाती थी
अक्सर
खुद को उसकी जगह
रख कर

भाई दूसरे पहरुए
पिता सरीखे
इरादों में पक्के
सख्त बुलंद हौसलों के साथ
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
नए पहरेदार
जैसे सारा बोझ उनके कन्धों पर आन पड़ा हो
पर
फिर भी एक दुविधा
उनकी आँखों में हर पल तैरती
एक बड़े आकार का भय भी
शायद
पुरुषों की दुनिया का
जहाँ की हर आँख में
नाखून दिखते हैं
पैने और तीखे
उन नाखूनों से बचाने के लिए
रक्षा में खड़े
भाई
बिफर उठते थे
कभी इक्षाओं की उड़ान पर
कभी इरादों की दृढ़ता पर
और कभी मेरी चपलता
और ठिठोली पर

पिता !
जैसे किले की दीवार
चप्पे चप्पे पर नज़र रखने वाला
सबसे सजग पहरेदार
घर जैसे उसकी जागीर
और मैं उस घर की सबसे कमजोर कड़ी
बहनें उसके खूंटे की गाय
उसके सामने जैसे हिरनी
आपकी इक्षाएं क्या है
बेमतलब
आपके इरादे
बेमानी
और घर एक मंदिर
जो सुरक्षित है
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा को बनाये रखने से
पर
मैं हर रोज़ फांदती
उस किले की दीवार
हर रोज टकराती
उन गर्वीली आँखों से
अनंत इक्षाओं के साथ
कई बार सन्नाटे चीरते
क्रोधित शब्दों की अवहेलना कर


घर के बाकी सब चौकस
चौकीदार
मेरी गलतियों की तलाश में भटकते
इधर - उधर
ताकि परोस सकें कुछ ऐसा
जो पहरे लगा सके मुझ पर
उमर भर के,
घर में बसना आज भी
एक प्रण है
मेरे लिए
हर पल एक रण
पूरा का पूरा रण
................................................ अलका

1 comment:

  1. बहुत पसंद आई आपकी ये कविता

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