Thursday, September 29, 2011

मेरी कविता पर उठे सवालों के बहाने से

पिछले दो दिनों तक मेरे एक मित्र ने फेस बुक पर मेरी दो कविताओं " पांचाली और वैदेही संवाद'’ और ‘'ई जिनगी अकारथ हो गईल'’ पर लम्बी चर्चा चलाई थी. मुझे इस बात की ख़ुशी है के यह चर्चा न केवल लम्बी थी बल्कि कविता की बारीकियों से इतर महिला और उसके अस्तित्व और उससे जुडे सवलों पर ठहर गयी. इस चर्चा में कुछ पाठक कविता के विषय और भाव की सरहना करते हुए कविता के पक्ष मेँ खडेँ थे और कुछ तीखे कटाक्षोँ के साथ कविता विशेष कर कविता के विषय के विपक्ष मेँ खड़े थे. जाहिर है कविता के पक्ष मे खड़े लोग उस संवेदना से जुड़े थे जो स्त्री को और उससे जुड़े सवालों को समझने और समझाने मेँ लगे हैं किन्तु एक बड़ा वर्ग आज भी महिला मुद्दोँ पर वही खड़ा है जहाँ एक अबाध संवेदनहीनता का राज है.
यहाँ मेरा कहने का मतलब यह बिल्कुल नहीँ है कि महिला मुद्दोँ और उससे जुडी सम्वेदन् हीनता के दरवाजे पर सिर्फ और सिर्फ पुरुष खड़े हैं. बेशक वहाँ महिलाएं भी उतनी ही तादात मेँ हैँ. और यहीँ से समाज, परिवार और महिलओँ के इससे सम्बन्ध को समझना जरूरी है. यहाँ यह जरूर कहूँगी के कि महिलाएं समाज, परिवार और इन दोनोँ संस्थाओँ के साथ अपने सम्बन्ध मेँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत बनाये गए पदानुक्रम और समाज मे गढ़े गयी परंपरा का हिस्सा हैं. यह समाज और परिवार् द्वारा गढा और तैयार किया गया उंनका उंनका चरित्र है जिसे हम आगे समझने का प्रयास करेंगे.
बाहर हाल, यहाँ मैं अपनी कविता और उसपर आये कमेन्ट के कुछ अंश और सभी का सार आप सबके सामने रखने का प्रयास करती हूँ. मेरी पोस्ट की गयी पहली कविता -
पांचाली!!
सवालों के भंवर में तो मैं भी फंसी हूँ
दो युग बीत गए
प्रायश्चित की इच्छा भी है और एक खंजर भी
जो धंसा है ठीक मन के फाड़ में
पर तुमसे मैं भी सवाल करूँ क्या ?
पूछूं के भरी सभा मे अपनों के ही बीच
नग्न कर दी गयी तुम ?
पूछूं के
सारा पुरुषार्थ कहाँ मर गया था
जब बिलखती रही तुम ?
पूछूं के
एक साथ पांच पांच शौर्यों की क्या थी तुम ?
पूछूं के
तुम्हारे संकल्प को उसी सभा में क्यों नहीं पूरा कर पाए भीम
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
अर्जुन के बाण कैसे रहे शांत
तुम्हारी हृदय विदारक गुहार पर
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
कहाँ मर गया था धर्म राज का धर्म
तुम्हारी असहायता पर
बताओ
यदि पत्नी थीं तुम ?
कहाँ थे नकुल ?
और
कहाँ थे सहदेव?
और तात श्री उनकी तो आँखों का पानी ही मर गया था
चेतना सुप्त थी और भीष्म प्रतिज्ञा की चमक फीकी
कैसे वचन और कैसी मर्यादा मे बंधे थे
क्या धरती तब नहीं हिला सकते थे
जब हो रहा था इतना बड़ा अनाचार ?
क्या सभा में विरोध का भी साहस नहीं जुटा पाए
इस व्यभिचार पर ?
हे पांचाली!
मुझे भी चाहिए बहुत से सवालों के जवाब
उन सभी कथ्यों से इतर जो बचाते रहे हैं धर्म, राज और व्यवस्थाएं
उन छद्मों से अलग जो रचते हैं मार्यादा का जाल
क्या दे पाओगी जवाब?



दूसरी कविता थी -
कल ललमतिया की माई
बुखार में जलती
लाल लाल आंख लिये
कहंर रही थी
मैली कुचैली परदनी पहने
दरवाजे पर
मैने कहा रोज बोखार , बेमारी
और पांच पांच गो बच्चा और फेर ई पेट में?
उसकी बडी बडी आखें
दर्द से कराह उठीं
बोली -
बोटी है औरत के देह बोटी
आद मी के खतिर
का कहें ए मलकिन
रोज मजूरी करत, मांग मांग खात - पहिनत
अकेल्ले जीयत
ई जिनगी अकारथ हो गयील
मलकिन
ई जिनगी अकारथ हो गयील
( दोनों लम्बी कविता है अलका-सिंह .ब्लागस्पाट.कॉम पर देखें )
इन दोनोँ कविताओँ को मेरे फेसबुक मित्र राघवेन्द्र अवस्थी द्वारा अपने वाल पर चर्चा के लिए शेयर किया गया था इस कविता पर जो कमेन्ट आये वो बेहद महत्वपूर्ण थे. दोनोँ ही कवितओँ के केन्द्र मेँ औरत थी. एक इतिहास प्रसिद्ध पात्र और दूसरी एक मजदूर जिसका इतिहास मे कोई स्थान नहीं पर दोनों के पास कहने के लिये बहुत है और वो कह भी रही हैं और उनकी अभिव्यक्ति समाज और एक बडे वर्ग के लिये विवाद और प्रश्ंवाचक कल भी थी और आज भी है. क्यों ? यह एक बडा और बेहद महत्वपूर्ण् प्रश्न रहा है. यह प्रश्न आज भी कितना अपने उसी रूप में विध्यमान है जैस की कल था.
इन कविताओं पर अपनी बात शुरु करने से पहले सबसे पहले मैं यहाँ यह कहना चाहूंगी के "महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार हैं" इसे बस समझने की जरूरत है.
इन कवितओं पर आज के सवाल देखें जो फेसबूक -
1. अल्का जी मैने संजय की बात से सहमत न होते हुए भी यह नहीं मानता कि सीता और द्रोपदी किसी भी तरह से प्रताडित महिलयें थीं.
2. Alka Ji, dukh ki baat yah hai ki mahilaon ko purush se zyada mahilayein hi pratadit karati hain... santaan na ho to sabase zyada taane mahilaon se hi sunane padate hain kisi bhi stri ko aur atyachar bhi mahilayein hi karati hain ek dusare par. (सुनील ठाकुर एक फेसबुक पाठक)
1. हमने पुरे सम्मान के साथ जूझे रखा ...ये तुझे बुरा लगा ..तुमने आज़ादी मागी ...वह हमने खुसु खुसी दी ...अब तेरे लब आज़ाद है ....तेरे चोलियो के दस्त्बर तेरे ..तेरे उरोजो की गरमिया तेरी ..तेरा हुस्न तेरा ..ये कातिलाना अंदाज़ तेरा ......मै तो आईना हू केवल बोलता हू ................
2. द्रौपदी कविता पर अपनी बात रखते हुये संजय राय ने कहा था के – द्रौपदी तो पांच तक ही सीमित थी. आज तो औरत ने अपने शरीर को बाजार बना दिया है. दुनिया का सब्से बडा बाज़ार देह बाज़ाज ही है. (संजय राय - एक पाठक फेसबुक पर )
जब से मैं महिलाओं के विषय को लेकर संवेदनशील हुई तब से ही एक सवाल बार बार लोंगों ने मेरे सामने रखा जो यहाँ सुनील ने भी रखा के महिलाओं को पुरुषों से अधिक महिलाएं ही सताती हैं, ताना मरती हैं आदि आदि.
एक स्कूल् छात्रा के रूप में शायद मैंने भी कई- कई बार उठाये थे कई - कई बार मंच पर बैठे विद्वानों के सामने सुनील की ही तरह इन स्थितियों को रखा भी था . अपने आस पास बहुत बार औरतों को ऐसी अभिव्यक्तियों से लड़ते देखा था. लगता भी था के महिलाओं को सबसे अधिक महिलाओं द्वारा ही सताया जाता है. लम्बे समय तक मैं भी इन विचारों की पक्षधर रही. इसलिए जब सुनील ने बहुत तीखे अंदाज मे अपनी बात रखी तो यह लगा के समाज का एक बड़ा वर्ग ठीक उसी तरह औरत और उसकी परेशनियों के दुश्चक्र को नहीं समझ पाता जैसे सुनील और खुद मैं लम्बे समय तक समझ पाने मे असमर्थ थी. इसलिए यहाँ बात पुरुष बनाम महिला न होकर सिर्फ मुद्दा समझने की है और ये भी के हमारा समाज कैसे बनता और शक्ल लेता है.
सुनील द्वारा रखा गया दूसरा सवाल भी उतना ही महत्व पूर्ण है कि सीता और द्रोपदी किसी भी तरह से प्रताडित महिलायें नहीं थीं.आखिर सुनील ने इस सवाल पर बल क्यों दिया के महिलाओं के अत्याचार में पुरुष का कोई हाथ नहीं और उसकी प्रताड़ना के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं. क्या सुनील और संजय अपनी जगह सही हैं? क्या वास्तव में महिलायें ही महिलओं को प्रताडित करती हैं? क्या द्रौपदी और सीता का चरित्र प्रताडित नहीं था? बडे महत्वपूर्ण सवाल हैं ये. इन सवालों के जवाब खोजने की प्रक्रिया औरत और उसकी वस्तविक स्थिती को सहज ही सबके सामने रखते चलेंगे. ये सभी सवाल उठाने वाले भी इसी समाज के पुरुष हैं जो किसी स्त्री के पुत्र, किसी के भाई, पिता और पति हैं. जाहिर है स्त्री – पुरुष अलग –अलग टापू के जीव नहीं हैं आपस में उनके सम्बन्ध भी हैं तो अखिर क्या है कि स्त्री – पुरुष के प्रश्न पर पुरुष के एक बडे वर्ग के पास मानव आधारित सम्वेदना की कमी हो जाती है?
सबसे पहले थोडा स्त्री पुरुष के जीवन को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में या यूं कहें मानवशास्त्र के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं.
ऐसा इतिहास में दर्ज है और मानव शास्त्र भी कहता है कि स्त्री पुरुष अपने जीवन के आरंभिक दौर में एक समान जीवन व्यतीत करते थे (शिकार युग ). तमाम साक्ष्यों के आधार पर इतिहास और मानव विज्ञान इस बात को मानता है कि शिकार युग में स्त्री – पुरुष के जीवन और समजिक चर्या में कोई अंतर नहीं था. दोनों जंगल में शिकार पर जाते थे और अपनी अपनी जरुरतों के हिसाब से अपना काम करते थे. काम का ऐसा कोई बटवारा नहीं था जिसमें स्त्री - पुरुष के विभाजन को स्पष्ट किया जा सके सिवाय anatomycal biological structure के. यह एक ऐसी स्थिती थी जहाँ घर, परिवार जैसी संस्थाओं का गठन नहीँ हुआ था. मनुष्य ने शिकार युग के बाद कई युगोँ को पार किया. साथ जीने और शारीरिक सम्बन्धोँ और उससे पनपे अनुभव ने दोनोँ को कुछ व्यवस्थायेँ बनाने की अवयश्यकता पर बल दिया. इसलिये जैसे जैसे समय बीता स्त्री पुरुष दोनों ने मिलकर तय किया के स्त्रियाँ (विशेष कर गर्भवती ) शिकार पर नहीं जाएँगी. ऐसा इसलिए था क्योंकि अब धीरे धीरे एक संरचनात्मक व्यवस्था का गठन होने और बनाने की सम्भवना न केवल बलवती होने लगी थी अपितु बनने की प्रक्रिया अरम्भ हो गयी थी. यह इसलिये था कि इसमे स्त्रियों को गर्भ कल में शिकार के खतरों से बचाया ज सके. एक नयी संरचना के क्रिया ने सभी मानव समुदाय के बीच् इसको सर्वोपरी माना गया. स्त्रियाँ गर्भकाल मेँ घर मेँ रहकर एक नयी व्यवस्थ को जन्म देंगी और उसके पश्चात बच्चोँ का पालन करेंगी यह स्त्री-पुरुष दोनो की सहमती से तय हुआ. स्त्रीयोँ की यह स्वीकरोक्ती मानव सभ्यता को सुरक्षित रखने और उसके विकास के लिये हुआ. कालंतर मेँ स्त्री द्वारा की गयी इस स्वीकारोक्ति को विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया से इतर उसका धर्म बन दिय गया. किंतु स्त्रियोँ की रचनशीलता और खाली समय को व्यतीत करने का सबसे रोचक उदहरण भी इसि दौर मेँ देखने को मिलता है क्योंकि इसी दौर में स्त्रियों ने कृषि की खोज की और प्रयोग के तौर पर खेती करने लगीँ. अपने गर्भकाल के दौरान घर बैठने के समय मेँ स्त्रियों ने जंगलों को समझा और उन् बीजों की खोज की जो मनुष्य के उपयोग के थे. उन्होनेँ जंगलोँ मेँ जमीन के छोटे छोटे टुक्डोँ को साफ किया और उसमेँ प्रयोगतम्क खेती करने लगीँ. धीरे-धीरे यह सिधद हो गया कि खेती मनव जीवन का अभिन्न अंग बन सकती है और जिसे उपजा कर खाया जा सकता था. यहीं से स्त्री और पुरुष के जीवन दो धाराओं में विभाजित हो गए. कृषि में स्त्रियों के अभिनव प्रयोग ने एक नए युग को जन्म दिया और अब मानव जीवन कृषि और उसके अधिशेष पर चलने लगा. यहाँ जीवन शिकार युग से आराम दायक और सभ्यता के विकास के लिए समय देने वाला बन गया था.
सम्झने वाली बात ये है के यहीं से संगठित पारिवारिक संरचना का विकास आरम्भ हुआ और परिवार का गठन हुआ. अपने आरंभिक दौर में परिवार इतने अलोकतांत्रिक नहीं थे किन्तु कालांतर में एक पूरी पूरी सोच विक्सित हुई जिसे हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहते हैं. इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक सबसे मजबूत अंग बाज़ार भी बना कालांतर में क्योंकि अब स्त्रियों ने अपने को घर तक सीमित कर दिया था और पुरुष बाहर की दुनिया में व्यस्त हो गया.
यहाँ पहले समझते हैं की परिवार क्या है ?
कई परिभाषाएं ये मानती हैं के परिवार समाज की पहली इकाई है जो मनुष्य की पहली पाठशाला है और जहाँ मनुष्य को पहली शिक्षा मिलती है तो अब बहुत से लोग कहेंगे के माँ ही पहली गुरु है. बात भी बिलकुल सच है . तो समझना होगा के ये पहली इकाई कहाँ से संचालित होती है और कैसे ? क्या यह पूरी तरह लोकतान्त्रिक इकाई है? या फिर इस पहली इकाई से ही हम दो मानसिकताओं और दो समाज के लोग बना दिए जाते हैं- स्त्री और पुरुष ? अब यहीं से पितृसत्ता और समाज में उसकी पकड़ को समझाना होगा.
परिवार के गठन ने अभी स्त्री की नैसर्गिक स्वतंत्रता को खतम नही किया था. अपने आरम्भिक दौर मेँ परिवार दो व्यक्तियोँ यनि एक स्त्री और एक् पुरुषद्वारा उत्पन्न संतानोँ की सुरक्षा के लियी बनयी गयी संस्था थी ताकि स्त्री की गर्भ्काल मेँ तथा शिशुओँ की शैशव काल मेँ सुरक्षा हो सके. किंतु विवाह जैसी संस्था अभी तक नदारद थी. यहाँ मैन एक घट्ना का उल्लेख करन चहूंगी.
संस्क्रित सहित्य मेँ उल्लेख है कि एक रिशि जो अपने मित्रोँ के साथ सन्ध्या ध्यान के लिये बैठे थे के समक्ष के रिशि ने माता से प्रण्य निवेदन किया उनकी माता की स्वीकरोक्ती रिशि को अच्छी नहीँ लगी और उन्होनेँ विवाह् संस्था को जन्म दिया. यह भारत के सम्बन्ध मेँ बात है किंतु अश्चर्य है कि ऐसा हर मानव सभ्यता मेँ हुआ. और इस तरह पितृसत्ता जैसी सोच का बीज बोया गया जिसने स्त्री के उपर प्रतिबध की शुरुआत की. यह स्त्री की योनिकता पर नियंत्रण की शुरुआत थी.अब जब पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया तो वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ इस पूरी व्यवस्था और सोच के तहत रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश की गयी.
दूसरी तरफ पुरुषों को उसी समाज में व्यवस्था सञ्चालन का कार्य सौंपा गया.इसीलिए वो परिवार का मुखिया बना या फिर बनाया गया. उसके मन को भी इस बात के लिए तैयार किया गया के स्त्री पर नियंत्रण बनाये रखने से व्यवस्था में व्यवधान नहीं आयेगा. इस काम में उसकी मदद धर्म जैसी संस्थाओं ने खूब दिया.एक बात जो और यहाँ सम्झने लायक है कि यह व्यवस्था पुरुष के समर्थन मेँ और एक सोच के तहत थी किंतु जब भी इस व्यवस्था से इतर किसी पुरुष ने भी महिलओं के पक्ष् मेँ अपनी बात की है उस समय उस पुरुष का भी इस व्यवस्था से जुडे लोगोँ ने परम्परा और सभ्यता बचाने के नाम पर पुरजोर विरोध किया है. ईश्वर चन्द विद्या सागर इसका सबसे बडा उदाहरण हैँ.
अब बात रही के औरतें ही औरतों को सताती है की -परिवार एक व्यवस्था और एक सोच पर चलने वाली संस्था है और वह सोच है पितृसत्ता. इस सोच का हिस्सा अकेले पुरुष नहीं हैं इस सोच से महिलाओं का भी गहरा सम्बन्ध है. और यदि गौर से देखा जाये तो वही इस संस्था की संचालक और शक्ति हैं. दरअसल धर्म पितृसत्ता का सहोदर है. दुनिया के लगभग सब्हि देशोँ के इतिहास मेँ धर्म ने पितृसत्ता और उससे संचलित होने वलि सभि संस्थओँ क साथ दिया है. मजे की ब्आत ये है कि धर्म की सलीके से पह्रेदारी का पूरा जिम्मा महिलओँ को ही दिया गया है तकि उंनकी उर्जा को पुनर्जन्म और अध्यत्म मेँ लगाकर दुनिया के तमाम मुद्दोँ से दूर रखा जा सके.
जैसा मैंने ऊपर कहा के " पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश की गयी"यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी और दूसरी बात बिना महिलाओं के सहयोग के इस पूरी व्यवस्था को लागु करना बेहद मुश्किल था. इसलिए दुनिया के लगभग हर देश में ऐसे ऐसे साहित्य की रचना की गयी जिसे आदर्श बनाया जा सके और जिसके माध्यम से इन व्यवस्थाओं को लागू किया जा सके. इसी क्रम में भारत में पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गए.
अब यहीँ से संजय का प्रश्न शुरु होता है कि औरत ने अपने देह को बाज़ार बना दिया हैउनका कमेंट देखेँ
हमने पुरे सम्मान के साथ जूझे रखा ...ये तुझे बुरा लगा ..तुमने आज़ादी मागी ...वह हमने खुसु खुसी दी ...अब तेरे लब आज़ाद है ....तेरे चोलियो के दस्त्बर तेरे ..तेरे उरोजो की गरमिया तेरी ..तेरा हुस्न तेरा ..ये कातिलाना अंदाज़ तेरा ......मै तो आईना हू केवल बोलता हू – संजय राय्
संजय कहते हैं तुमने आज़ादी मांगी. उनका ये मानना इस बात का सबूत है के समाज परिवार और उससे संचालित सभी गति विधियाँ अंतिम रूप से पुरुष द्वारा ही संचालित होती हैं. समाज मेँ बसने वाला हर पुरुष स्त्री की स्वतंत्र गतिविधि को लेकर सतर्क है इसलिए वो अपने को मालिक समझ कह बैठता है के उसने आज़ादी दी जबकि वास्तव में आज़ादी देने का हक़ उसे भी नहीं है. यह आज़ादी या तो औरत खुद ले सकती है या फिर पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव और परिस्थितियों के कारण परिवार और समाज देगा.
संजय एक बडा सवाल और उठाते हैँ देह व्यपार की बात कह कर. यह हलंकि एक बहुत विशद् और वयापक विषय है और यह औरत की योनिकता और उस पर नियंत्रन से ही जुडा है साथ की यह युग परिवर्तन औरत् की मांग और व्यक्तिगत स्वतंत्रत से भी जुडा सवाल है. इस सम्बन्ध में यहाँ बस इतना ही के इस समाज ने स्त्री की योनिकता को नियंत्रित करके भी उसे अप्ने तरीके से इस्तेमाल किय है.
आगे गणिकायेँ इस विषय् पर एक लेख जल्द ही
----------------------------------------------डा. अलका सिंह

1 comment:

  1. Alaka, I agree with all the points. patriarchy prescribes certain qualities for men and women in such a way that ultimately we start thinking these are natural qualities of each gender. Institution of marriage and family are bureaucratic and exploitative for women ,and for all per say. Now that women have started questioning evrything is being dumped on her being defiant.

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