Tuesday, September 20, 2011

ए आदमी

ए आदमी,
सुना कौन हो तुम?
क्या है तुम्हारी जात ?
कैसे रचते हो तुम अपना संसार ?
संबंधों का ताना और वो रिश्ते
जिसमे कभी पगी तो कभी फंसी हूँ मैं

ए आदमी,
आज अकेली हूँ
सोचती हूँ इतिहास में विचर लूं
अपना तुम्हारा पलट क़र कल देख लूं
मेरे हिस्से क्या आया क्या पाया
बटोर लूं
पर
बबूर सा
चुभता है कुछ, रिसता है कुछ
असंख्य घाव और अनकही
सोचती हूँ आज बांच दूं
मन पे लिखा, तन पे सहा, तनहा, सूना
और प्यार में पगा वो पल - छल
सब का सब

ए आदमी
कल का इतिहास देखोगे ?
कैसे गुजरा है कल देखोगे ?
मेरा संत्रास देखोगे ?
एक बूँद और दर्द देखोगे ?
तुम और हम अनजान
और उस सपने की बिसात
देखोगे?

ए आदमी
तुम शिव थे मैं शिवा
तुम आदम थे और मैं हव्वा
एडम और इव भी कह लो
सभी कहानियों में हम और तुम
नदी के दो पाट से
तुम इस पार मैं उस पार
कभी असमंजस लिए दुविधा में खड़े तुम
कभी साथ चलने को बेक़रार तुम
और मैं ?
कभी शिवा, कभी इव कभी वैदेही सी
कभी इंतज़ार लिए
कभी बस संसार रचते
अनुगामिनी
लोग़ बेचारी सी कहते हैं मुझे


ए आदमी
देखो ना
पाट ही तो हैं हम सदियों से
मैं स्त्री तुम पुरुष
तुम गूढ़, पुरातन और मालिक
मैं अनुगामिनी, चंचला और ऐसे ही
तुम चिरंतन सत्य और मैं माया
तुम सृष्टी के सर्जक और मैं?
शायद तुम्हारी ही सर्जना
कहा गया ऐसा ही कुछ
तुम्हारा अस्तित्व पृथ्वी के जन्म से और मैं तुम्हारे बाद आयी
अकेले ही रच लिया तुमने संसार ?
एक व्यभिचार ?

ए आदमी
तुम शिव हो सत्य हो और सुन्दर भी
तप में लीन?
क्योंकि तुम्हारे तप की तुम्हारी ही परिभाषा है
और मैं
जीने की राह में
अकेली, बेचारी, अतृप्त और पथराई
इस आस में,
भूखी - प्यासी बैठी
कि तुम आँख खोलोगे
पर तुम्हारी तीसरी आँख ही
खुलती है बार - बार
अरे!!
तुम अशांत, अस्थिर चित्त, क्रोधित से ?
क्यों?
मैंने अभी कहाँ कहा सब ?
तुमने अभी कहाँ सुना कुछ ?
तुम कहते आये
मैं चुप रही
तुम करते आये
मैं चुप रही
यह क्रम था मुझे मारने का
और मैं मरती रही


ए आदमी
तुम पति और संगिनी मैं
तुम राम वैदेही मैं
कितना अविरल प्रेम बरसा था उस पल
के मैं करोडो देवों के पैरों तले जा बैठी
पाने के लिए तुम्हे
कितना स्नेह बरपा था एक क्षण
जब तुलसी के हजारों चक्कर काट आयी
वो सिन्दूर, एक विश्वास सा
तुम्हारी बाहें विशाल वटवृक्ष सी लगी थीं
प़र चुप्पी को तोड़कर
सोचती हूँ
तुम्हारा साथ प्रश्नचिन्ह है ?
प्रेम छल
और सिन्दूर टूटा हुआ भरोसा
हर रोज़ डूबती उतराती
एक चिता प़र बैठ परीक्षा देती हूँ
पास होती हूँ और फिर बैठ जाती हूँ
उसी चिता पर
यही सिलसिला जारी है
सदियों से

ए आदमी
माँ थी मैं तुम पिता
मैं ममता और तुम पालनहार
मैं सृष्टी तुम रचनाकार
कहते हैं सब किन्तु
है ना विद्रूप ? और अहं तुम्हारा ?
जबकि
गर्भ मेरा, रचना मेरी और पालन भी मेरा
प़र संताने तुम्हारी
देह मेरी किन्तु शासन तुम्हारा
कष्ट मेरा किन्तु
सारा श्रेय तुम्हारा
मैं खाली हाथ
माँ हूँ बस ममता की मूर्ती
एक कृती और एक किर्ती

ए आदमी
आज बस इतना ही
कल के लिए कुछ बाकी रख लूं
यही एक धरोहर है मेरी
और धन भी
हम नदी के दो पाट है
दो किनारे
एक इस पार एक उस पार
दो कथाएं हैं
एक इस पार एक उस पार
कभी हाथ धरते हैं साथ के लिए
पाटने को नदी
फिर
खोजाते हैं दोनों दोनों को
पर मैं पति हूँ तुम्हे अधूरा सा ,
सच
मैं स्त्री और तुम पुरुष
मैं शिवा और शिव तुम
एक उस पार एक इस पार
ए आदमी
मिलेंगे फिर, कई कथाओं के साथ
कभी कहने को कभी सुनने को




........................ अलका

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