Friday, September 2, 2011
हसरतें
किशोर मन बहुत अजीब - अजीब सपने देखता है, उसपर भरोसा करता है और उसे जीने की कोशिश करता है. इस उम्र के सपने सचमुच एक परी कथा की तरह होते हैं, मचल मचल क़र बाहर आने को बेताब रहते है. कभी कभी इतना चंचल के हवा की रफ़्तार भी धीमी लगाने लगे. मन होता है पूरी दुनिया को बता दिया जाये के उनके मन मे क्या है.कोई बार इन सपनो का मजाक उडाता है , चुटकियाँ लेता है , ताने कसता है या फ़िर तड़ी लगता है तो मन मे गुस्सा, दुःख और आक्रोश एक साथ उठ कड़े होते हैं. कई बार मन इतना मजबूत भी होता है के दूसरों की बात सुनाने को तैयार नहीं होता मेरा मन ऐसे ही कुलांचे भरता था, बार बार मन मचला करता था पर बड़े लोंगों की अनदेखी जो बेरूखी सी लगती थी. एक अजीब से डर पैदा करती थीइकल भर. जबान से कुछ भी निकल भर पाने भर से जैसे हवा मे कई तरह के भाव तैरने लगते थे. ओखे किसी की त्योरियां टेढ़ी दिखाती तो किसी के होटों पर तिरछी मुस्कान और किसी की मुठ्ठियाँ भींच जाती. माँ की बीमारी और काम के बोझ के बीच मेरे ये अनोखे सपने ही मेरे सबसे अच्छे साथी थे. मैं हर पल इनको सहेजे रहती क्योंकि मैं जिन्दा ही इसी से रहती थी.
मैं जो अपनी छोटी छोटी हसरतें पाल रही थी उसका घर मे विरोध भी था. उसे मेरा बचपना नाम देकर कभी टालने की कोशिश होती कभी उसीपर डाट पड़ने लगती. ये करो, वो किया के नहीं वहां जाओ. आदि आदि. पापा तक मेरे इस विकास की खबर नहीं पहुंची थी. अब मैं उनसे अपने मन की बात छुपाने लगे थी. एक ख़ास तरह का डर पापा से लगाने लगा था क्योंकि जैसे जैसे मैं बड़ी हो रही थी वो दोस्त और पापा की दहलीज पार क़र पिता बनते जा रहे थी ठीक वैसे ही जैसा पिता उन्होंने अपने बचपन से लेकर आज तक अपने आसपास देखा था. गुर्राई आन्खोवाला दमदार पिता जिसके सामने सबकी घिघ्घी बंध जाये. मेरे लिए अब उनका ये नया अवतार था.
सच क्या उम्र होती है ये - नया नया शौक चर्राया था उर्दू लिखने बोलने और पढ़ने का. ग़ालिब और मीर तकी मीर और फ़राज़ को पढ़ना, सुनना और गुनगुनाना मुझे एक ऐसी रंगीन दुनिया मे ले जाता जहाँ अपने सपनो की मै ही हीरोइन होती. जहाँ मैं अपने आप पर ही मुग्ध रहती. पहली बार जब चार लाइन लिखीं तीन तो माँ के रोंगटे खड़े हो गए. कड़क आवाज़ मे बिस्तर पर से ही पूछा - ये क्या है बुलबुल ? मैंने मचलते हुए कहा - पढो न अम्मा मैंने लिखा है. पढो न कैसा लिखा है ? अम्मा से मैं डरती बहुत थी पर लिखने -पढ़ने की दुनिया मे नहीं वहां मुझे उससे बहुत प्रोत्साहन मिलाता. जब कक्षा ३ मे थी तभी उसने 'स्वप्न वासवदत्ता' पढ़ा दिया था मुझे. हर रोज मुझे निशान लगाकर देती और समझ न आने पर बैठ क़र समझाती मुझे. एक एक करके उसने मुझे संस्कृत के कई ग्रन्थ पढ़ा दिए थे. जैसे किरात अर्जुनियम, बाण भट्ट की 'कादंबरी' आदि. संस्कृत साहित्य मे अन्य बातों के साथ प्रेम का रंग बहुत ही गहरा है. स्वप्न वासवदत्ता मे यह और भी उभर क़र आता है. संस्कृत साहित्य की रूमानियत से मैं अभिभूत रहती. इसलिए जब लिखना शुरू किया तो उसका साया मेरे एक एक शब्द मे झलकता था . माँ ने ये बात समझ ली थी इसलिए उसने मुझे उर्दू और हिंदी साहित्य की तरफ मोड़ा वो बंगला साहित्य की भी दीवानी थी सो आशा पूर्णा देवी की 'प्रथम प्रतिश्रुति' मेरे सामने पटक दी और बोली औरतों की दुनिया की हकीकत को समझो. फ़िर 'बकुल कथा' वो सपनो की रंगीन दुनिया से मुझे हकीकत के जंगल मे ले जाना चाहती थी जहाँ औरत वासवदत्ता जैसी नहीं थी ना ही शकुंतला की तरह थी जहाँ उसका दुष्यंत उसे लेने आता है. अम्मा ने अपने आस पास की औरतों को मेरा विषय बनाने का काम करना शुरू क़र दिया. पर मन था की मानता नहीं था मैं रूमानियत की दुनिया से बाहर ही नहीं आना चाहती ही नहीं थी. बड़ा मज़ा आता था सपने देखने और सोचने मे.
माँ की बीमारी के दौरान नानी लम्बे समय तक हमारे साथ रहीं. नानी एक अलग दुनिया की जीव थी. अलग संसार और अलग तहजीब की. उनकी दुनिया मे तो मुझे सांस लेने मे भी घुटन होती थी. वो बिहार के एक जमीदार परिवार मे पैदा हुई थी जहाँ के संस्कार हमारे शहरी जीवन और सोच से मेल नहीं खाते थे. कहने को तो वो पढ़ी लिखी थी पर औरतों को लेकर उनके ख्याल बहुत ही पारंपरिक थे. जोर से बोलना, हँसाना - खिलखिलाना, बहस करना, तन क़र चलना और पिता के सामने खड़े होना उनकी डिक्सनरी मे नहीं था और मैं हर रोज उनके नियम तोड़ती. कभी कभी वो माँ पर बिफर उठतीं - पाल रही हो ना बेटी पता नहीं किस घर मे बसेगी ? ना खड़े होने का सलीका ना बोलने का सलीका ना ही कपडे पहने का सलीका ? इससे ज्यादा सलीकेदार तो हमारे घर मे काम करने वाली लड़कियाँ हैं. अम्मा चुप होकर सो जाती. दरअसल ये एक जेनेरेसन गैप था. नानी का जमाना उन्हें कई बातों की इज़ाज़त नहीं देता था. पर मैं कहाँ उनके ज़माने और उनकी बात मानने वालों मे थे. मुझे उनकी एक नसीहत अच्छी नहीं लगती थी. वो जब मुझे कंधे झुका के चलने की बात करतीं मैं उनके सामने से हट जाती. कई बार उनकी अनसुनी करके अपना विरोध भी जाहिर क़र देती. अम्मा से अक्सर पूछती कैसे जीती थी तुम इस तानाशाही मे ? वो चुप चाप मुझे निहारने लगती. कभी कभी जब अपने सपने मुझसे बाँटती तो मन झूम जाता. आने आकाश मे उड़ने लगता और आश्चर्य से कहता अम्मा भी तो ऐसी ही थी मैं कोई गलत नहीं क़र रही. आज सोचती हूँ तो लगता है अज्ज़ब तरह से बड़ी हो रही थी मैं. एक अजीब तरह का सम्बल तलाशती रहती थी मैं अपने सपनो को पर देने के लिए.
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