कल रात
माँ मेरे सामने खड़ी थी
शांत चुप और सहमी सी
पर मैं दृढ थी
अपने इरादों के साथ
मरने के बाद भी मेरे सपनो में आना
चुप रहना और सहमी नज़रों से निहारना
उसकी आँखों के सवाल और मांगते जवाब
बरछी की तरह बींधते है मुझे
उसको रोज़ देखा था मैंने
मरते हुए ,
अपने स्वाभिमान को सबके पैरों में रखते हुए
हंसने को तरसते हुए
हर दिन उधेड़बुन में लगे
अपनी व्यथा को छुपाते हुए
बात बात पर झिड़की खाते
सिसकते हुए
आज वो चुप सी
निहारती है मुझे कई सवालो, डर और बेचैनी के साथ
पर
मैं शांत थी समुद्र की तरह
और चट्टान थी
अपने संकल्पों के साथ
उसके सवालों पर
क्योंकि मैं सहम नहीं सकती
उस तुनक मिजाजी से न ही चुप होकर
रख सकती हूँ अपना स्वाभिमान उसके पैरों पर
सच
मैं"माँ" नहीं बनना चाहती
न ही सहम के जीना चाहती हूँ
और ना ही सिसकना
किसी बदमिज़ाजी के साये तले
क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती
क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती
----------- अलका
No comments:
Post a Comment