पिता !!
इंसान से अधिक एक चरित्र है,
जिसे गढ्ता है समाज अपने सांचे मे
सिखाता है उसे,पुरुष होने के अदब्,कायदे,क्रोध
और एक तरह की सम्वेदन हीनता
एक भरम के लिये, एक पखण्ड् के नाम पर,
पिता !!
रिश्ते से अधिक एक डर है,
जिसका रौद्र रचता है कई इतिहास
खींचता है एक लकीर
कभी समाज के सम्मान के लिये, जाति के गर्व के लिये
और कभी अपने दंभ और अभिमान के लिये
पिता !!
पिता पूरी की पूरी एक व्यवस्था है
एक आचार सहिता
जिसे आंख खोलने से लेकर पैरो पर खड्रे होने तक
जीना ही पड्ता है घर और बाहर दोनो
कभी अपने लिये कभी घर के लिये
और कभी उस बडे से डर के लिये
जो छुपा बैठा है अनजाने
पिता !!
एक प्रतिबन्ध है
जिसे पसन्द नही^ बगावत, बहस और स्वतंत्रता
क्योंकि वह् एक पूरी सत्ता है
उसे चहिये सम्मान, अधिकार और बल
व्यवस्थाये बनाये रखने के लिये
घर और बाहर दोनो
पिता !!
एक मुखिया है,
सम्मान है, आदर है और अंत मे एक परम्परा
जो दे जाता है
सब कुछ आने वाले कल को
बनाये रखने के लिये एक व्यवस्था
ताकि बची रहे अस्था पिता के चरित्र में
और बना रहे खौफ घर के मुखिया का
जीता रहे घर इसके साये मे
खुश रहे समाज और बने रहें कायदे
पिता !!
एक पूरा का पूरा मौन है
एक रहस्य एक चुप्पी,
देश के प्रधान की तरह जो तलशता है रास्ते
बच निकलने के सवलो से, जबाबो से
तकि बनी रहे व्यवस्था
जब पूछती हूं बहुत कुछ
और
करती हूं सवाल के -
पिता क्यों है ये साये तुम पर,
तुम्हारे चरित्र और चेतना पर?
क्यो फैला है ये डर, ये दह्शत
तुमहारे आस – पास
क्यो डरते है तुम्हरे ही अपने तुम्हरी
एक नज़र से
उड्ना चाहते है जो आकाश में तलाशते हैं जो रास्ता
डर जाते हैं तुम्हारे
अस्तित्व, आशा और बनाये गये
कायदों से?
कहती हूं -
पिता
मुझे खुशी चहिये, प्यार भी और
मा की ममता सा सुकोमल अह्सास भी
मुझे आत्म् विस्वास चहिये और सुरक्षा का
अंत हीन अकाश भी
मुझे तुम्हारे चरित्र के डरावने सायो से
घुट्न होती है,
चुभते है तुम्हरी सन्हिता के आचार
क़्या बदलोगे इन्हे?
क्या मिल पयेगा मुझे कभी
मागी हुई खुशियो का सन्सार ?
नहीं मिलता है
जवाब
ना आशा, ना आश्वाशन और उम्मीद्
बस दिखता है
आंखों मे जकडा समाज, व्यव्स्था और धधकता सा एक क्रोध अनवरत,
कभी – कभी उससे ना निकल पाने की लाचरगी
पर मैं देख पाती हूं
उसकी कोरों में मरी हुई दो बूदें
इसीलिये
पिता एक अंतर्द्वन्द है, एक सवाल
---------------------------------------- अलका
nice
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