Monday, September 12, 2011

हसरतें

मेरी किशोर वस्था दो शहरों मे बीती. इस उम्र का पहला पड़ाव आगरा मे बीता और शेष इलाहाबाद में . दोनों ही मेरे प्रिय शहर हैं. पर इलाहाबाद एक ऐसा शहर है जिससे मुझे नाराजगी भी है और अपनापन भी. शिकायतें भी हैं और इसी से प्यार भी. जब इससे दूर होती हूँ तो जैसे हूक उठती है इसे देख लेने की पर जब यहाँ आती हूँ तो यहाँ के लोंगों और शहर की व्यवस्था से ढेर सारी उम्मीद करने लगती हूँ. जो भी हो ये शहर पूरी तरह मेरे दिल दिमाग मे रचा बसा शहर है जिसका अपना ही एक व्यक्तित्व है अपनी शख्सियत. इस शहर और मुझमे ये दोस्ती इतनी आसान नहीं थी. बिलकुल अच्छा नहीं लगा था ये शहर जब हम आगरा से पहली बार यहाँ आये थे. कुछ नहीं भाता था इस शहर का मुझे. न खाना , न पहनना, न रहने का तरीका, न ही बोलने का लहजा. बहुत कोफ़्त होती थी मुझे, एक तरह की घुटन जो मुझे सांस लेने नहीं देती थी.
यह पापा का फैसला था. उन्हें ये डर था के अगर हम बच्चे आगरा मे रह गए तो अपनी संस्कृति, अपने गाँव और अपने लोंगों से दूर हो जायेंगे और उन्होंने अगर से इलाहाबाद ट्रांसफर करा लिया. हम चोरो भाई बहनों को ये कुछ अच्छा नहीं लगा पर मन मार कार आना ही पड़ा. हालाँकि आगरा मे मेरे ऊपर बंदिशों का कारोबार शुरू हो चुका था किन्तु फिर भी उस शहर से मेरा काफी लगाव था. ६ महत्वपूर्ण साल गुजारे थे हमने यहाँ. यहीं हमारे बचपन ने किशोरावस्था मे प्रवेश किया. यही वज़ह थी के हम दिल से ये शहर नहीं छोड़ना चाहते थे.
हम चूँकि यहीं पर बड़े हुए थे इसलिए यहं की संस्कृति और लोग हमें अच्छे लगते थे. हम जिस कालोनी मे रहते थे वो उस समय नयी बस रही थी. ये जयपुर हाउस के आगे प्रतापनगर कालोनी थे. जब हम वहां रहने गए थे तो कोई ४ - ६ परिवार ही वहां रहते थे. आये दिन वहां चोरियां और डकैती की ख़बरें आती रहती थीं. उस घर मे जब भी हम रात मे सोते अक्सर कराहने और चिल्लाने की आवाजें आतीं. कभी कोई किसी को चाकू मरता कभी कोई किसी को लूट लेता. कई बार महिलायेंहिलाएं दुर्घटनाओं का शिकार बनतीं. अम्मा जब सहम के पापा से कुछ कहती तो वो कहते हमारे घर मे है ही क्या जो कोई हमारे घर में चोरी करेगा? पर अम्मा डरती थी क्योंकि आगरा मे बच्चों की चोरी की बहुत ख़बरें आती थी. वो हर समय मेरे हम भाई बहनों को लेकर बहुत चिंता करती थी.
जब हम आगरा मे शुरू शुरू मे आये थे तब हमें आगरा भी नहीं भाता था. हम पहाड़ों से आये थे. पिथोरागढ़ से. बचपन का बहुत सा हिस्सा वहां बीता था इसलिए पहाड़ों का बहुत असर था हमारी सोच और पूरे आचरण मे जो इस नयी इस नयी सोहबत मे सुखी नहीं महसूस करता था किन्तु बचपन और उसकी सरलता अपने तरह की अनूठी होती है. बहुत सहज, सरल, सुकोमल और सिधी सच्ची.और हम भी ऐसे ही दौर से गुजर रहे थे इसलिए आसानी से बेरीनाग (पिथौरागढ़) को भूलने लगे और नयी संस्कृति को आत्म सात करने लगे. पर ये दो संस्कृतियों का फर्क था एक पंजाब प्रभावी संस्कृति और दूसरी वादियों की शफ्फाक संस्कृति. मन तो दूसरी मे ही रमता था.

जब हम आगरा मे नए नए आये थे तो शाहगंज मोहल्ले में एक मकान मे किराये पर रहते थे. उस माकन मे एक किरायेदार पहले से था कुलमिलाकर हम उस माकन में दो ही किरायेदार रहते थे. आधे मे एक पंजाबी परिवार रहता था और आधे मे हम. वह एक रेफूजी परिवार था जो ८० तक आगरा मे पूरी तरह बस नहीं पाया था .उस पंजाबी परिवार मे ३ बहन और २ भाई थे और बूढ़े माता - पिता. उनकी शाहगंज बाज़ार मे एक छोले चावल की दुकान थी. दोनों छोटे भाई बहन और बोधा बाप उस दूकान पर बैठते थे बूढी माँ दिन भर बड़ियाँ बनाती रहती. बड़ा भाई बाहर कहीं नौकरी करता था. मैंने पहली बार देखा था घर मे बड़े भाई की हैसियत क्या होती है और कैसे वो घर मे छोटे भाई बहनों के लिए पिता की तरह फैसले लेने लगता है. कठिन आर्थिक स्थितियों मे जीने वाले इस परिवार की त्रासदी दो बेटियां थीं. जो दिनभर सदियों में सलमा सितारे टांका करती थीं. पर अम्मा उस परिवार को देखकर हमेशा सहमी रहती थी और मुझे उसकी तरफ से एक सख्त हिदायत थी के मैं उस परिवार के किसी सदस्य से बात न करूँ. मुझे माँ पर रोज़ गुस्सा आता.

एक रात जब हम सो गए तो आंगन के उस पार से खूब आवाजें आने लगीं झगड़े की. एक अनजान आदमी उस परिवार की बड़ी लड़की का नाम लेकर गलियां दे रहा था उसे घसीट रहा था और कहीं चलने को कह रहा था और वो लड़की रोये जा रही थी और अपने ही माँ बाप के सामने हाथ जोड़ कर कह रही थी " मेनू नयी जाना बेबे, मनु नयी जाना'' वो इतनी जोर जोर से चिल्ला रही थी के हम सब जग गए. पापा ने खिड़की से देखा और बाहर आये बोले " क्या इतनी रात मे शोर मचा रखा है आप लोंगों ने ? क्यों रो रही है बच्ची?" उसी समय उसके बड़े भाई ने बीच मे दखल दिया और बीच बचाव करने लगा. बाद मे मोहल्ले वालों ने बताया के उस परिवार ने एक हफ्ते के लिए अपनी बड़ी लड़की को किसी के हवाले कर दिया था पैसे लेकर. पता नहीं ये बात सच थी के नहीं पर ऐसी लड़ियाँ उस घर मे रोज़ होतीं.
उसी समय पापा ने फैसला किया के वो नया माकन खोजेंगे और हम प्रताप नगर कालोनी में आ गए. एक दम सुनसान वीरान कालोनी.

1 comment:

  1. Mera Waqt ho chala... Alka ji...! kya likh diya yaar aapne... ! us beti ki aawaz suna di... jiska gala ghota jaata hai aksar... aur bebas maa... sisakne k siva kuch bhi nai kar sakti.. peedhi dar peedhi.. yeh chala aa raha hai.. ! kya is beti ki aawaz ko ham buland kar paayengay... ! pata nahi... sharm aati hai ki iska jawab kisi k paas nahi... ! aap ka yeh prayas... yeh zazbaat kuch aur logo tak pahunche toh jeete jee meri aatma ko shanti milegi..

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