Monday, December 24, 2012

सदियों से दुनिया में आदमी है, सडके हैं, गाडी है, घोडा है पर एक भय भी है सब यूं ही साथ साथ शह और मात का खेल खेलते चलते रहे हैं आदमी आदमी से डरता रहा है पर ‘वो’ वो जो सबसे पीछे है सेनानियों के बीच कौन है वो ? वो जो बिल्कुल अकेली हिरनी सी कांप रही है कौन है वो ? वो लुटेरों के हाथ पड गयी घबरायी सी सिमट रही आक्रांत, आतंकित सी, कौन है वो ? सडक के किनारे चित्कार करती वो ना जाने कब से टकटकी लगाये इंतज़ार करती कि आयेगा एक राजकुमार बाटने उसका सुख - दुख कौन है वो ? इस सारे सवालों के जवाब में हर जगह , हर बार खुद को देखती हूं एक आंसू जो सदियों पहले मेरी आंख की कोरों से बह गया था आज भी अनवरत वहीं से बह रहा है वो चित्कार जो निकली थी सदियों पहले आज भी गूज रही है अनवरत एक आस लेकर जो मैं खडी थी राजा के पास मंत्री के पास सारे दरबार के सामने आज भी उसी चौखट पर दम तोड रही है सोचो ना, सदियों से दुनिया में मैं हूं तुम हो हमारा साथ है फिर भी मैं भयभीत हूं तुमसे , तुम्हारे होने से और तुम्हारे ना होने से भी ये सडके अकेले नहीं डराती मुझे जब भी कोई परछाई उसके साथ चलने लगती है डराने लगती है मुझे पर यह परछाई उस आदमी को भी डराती हैं जो आदमी अकेला है जो दूसरों के लिये परछाई है और जो दुनिया को लूट अकेले खाता है सुनसान सडको को दोष देने से पहले उस परछाई को खोजो जो उन सबसे मिलती है जो हम जैसे हैं ......................................................अलका ..............................

Thursday, September 27, 2012

मेरे आँखों की नीद उड़ गयी है जैसे चिंदी चिंदी हो बिखर गयी है यहाँ वहां कल से कल से कुछ डरी सहमी आँखों की दुनिया उससे परिचय के बाद नीद का बिखरना बिखर कर उड़ जाना जैसे तै था शब्द खोज रही हूँ परिभाषा तलाश रही हूँ इधर उधर नज़रें दौड़ा रही हूँ कि क्या शब्द दूं उसे जिसकी आँखों में भाई था क्या नाम दूं जिसकी आँखों में चमक थी क्या लिखूं जो ठुमक ठुमक कर चाय पिला रही थी जिस दुनिया को देख कर आयी हूँ वह सब समझ लेने की कोशिश में उचट कर दूर दूर घूम आयी है नीद एक आँख बस मुझे ही तक रही है लाचार , बेबस , अनजान और डरी सहमी और ले उडी है नीद लिखूँगी एक व्यथा , एक कथा , एक दर्द औरत होने की सजा वो कमरा , वो लोग और वो दुनिया जहाँ संस्कृति , सभ्यता और मां मर्यादा की सारी परिभाषाएं मुह छुपाती हैं और सिसकती रहती है एक औरत और उसकी देह ......................अलका (लिखी जा रही कविता से )

Tuesday, June 19, 2012

‘तुम’ मेरे अबोध मन पर हर रोज़ लिखे जाते रहे हो कभी सुन्दर राज कुमार के नाम से कभी खूबसूरत अहसास के नाम से कभी प्यार के नाम से ‘तुम’ अक्सर छापे जाते रहे हो मेरे मन की स्लेट पर मेरे सम्मान और सुरक्षा का हवाला दे मेरे हर डर और भय की दवा के रूप में ‘तुम’ बिना देखे ही मुझसे अधिक मेरी माँ की आंख के तारे हो वह ख्वाब में भी तुम्हें देख किसी -किसी दिन खुश हो जाती है और मुस्कुराती है इस तरह जैसे नगीना पा लिया हो उसने ‘तुम’ मुझसे अधिक नसीब हो मेरे पिता के मेरे जन्म के पहले दिन से वह कल्पना करते हैं तुम्हारे पदचाप की जैसे प्रभु को पा लेंगे उस दिन जब तुम आओगे ‘तुम’ इसीलिये , एक अनगढ सा, अनूठा सा खाब थे आते जाते बाद्लों में जिसे तलश कर बडी हुई पत्ते पत्ते पर जिसे लिखा और पढा हर दिन एक अहसास को जिया बीन बीन अंजुरी में भरा ‘तुम’ कौन हो ? एक अनाम अहसास किस दुनिया के हो ? अनजान रह्ते कहाँ हो ? खोजता रहा है ये मन बोध हुआ है जब से अपने होने का कि एक लडकी हूँ उस अबोध मन की स्लेट पर लिखी इबारत के साथ ‘तुम’से मिलने का जब वह दिन आया तो जैसे पासा ही पलट गया माँ की मुस्कुराहट झरती रही पिता का नसीब रोता रहा और ‘तुम’ किसी बहुमूल्य हीरे की तरह रख दिये गये एक शीशे के जार में जिसे मैं बस लालची आंखों से देख ख्वाब में पाने की कल्पना कर निहार सकती थी तुम मुस्कुराते रहे ‘तुम’ आज भी गढे जाते हो हर लडकी के मन में उसके अपनो के बनाये खाब के सहारे और सजाये जाते हो राजकुमार की तरह जाने क्यों और लडकियाँ अपनी जमीन पर अंखुआने से पहले ही धान की रोप का अहसास कर तलाशने में लग जाती हैं ‘तुम’ को मुझे कुछ स्याह पन्ने दिखते हैं कुछ सजल आंखे जो इस तुम की तलाश का सबसे स्याह इबारत है इसलिये इस तलाश की जगह कुछ नया रोपा जाना जरूरी है उस अबोध स्लेट पर जिसकी हर इबारत अबतक ‘तुम’ को खोजती रही है .............................अलका

Monday, June 11, 2012

मैं नहीं भूल पाती सालों जीया जिन्दगी का वह खण्ड जहाँ हिरनी की तरह दौडती मेरी टागों को देख माँ मंत्रमुग्ध हो जाया करती थी... पट पट चलती मेरी जुबान पर पिता को गर्व होता था मेरी कलम पर कईयों को नाज़ था मेरे जवान होते बदन को माँ अपलक निहारा करती थी उसको सज़ाने के सारे संसाधन जुटाती थी कुछ सहेज़ती थी और कुछ निकालती थी ..........जैसे कहानी लिखती थी भाईयों के साथ खेली छुपम छुपायी भी नहीं भूलती छीना – झपटी , लडना झगडना भी कहाँ भूल पायी हूँ नहीं भूल जाने वाले वो पल जैसे कैद हो गये हैं यादों के बद दरवाज़ों में या फिर जबरन बन्द होने को मजबूर कर दिये गये हैं सच कहूँ तो कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन परायी हो जयेंगी वो दीवारें जिस पर मैने कई इबारतें लिखीं थीं परायी हो जयेगी वो देहरी जहाँ पैर रखते ही अपनेपन का अहसास होता था पराये हो जायेंगे वो रिश्ते जिनके खून में मैं रची बसी हूँ कभी सोचा भी नहीं था कि हक से हर रोज लडने वाला वो भाई ‘मेरे’ कहे जाने वाले इस घर के कोने में किसी और की ‘हाँ’ के इंतज़ार में खडा रहेगा बेबेस , अधिकार हीन , लाचार सा पिता जिसे रोज रोज बना के खिलाया था , आज मेरे यहाँ पानी पीने में भी संकोच से हाथ उठायेंगे रोज मेरा रोज़नामचा जानने को आतुर आज आंख नीची कर वक्त का इंतजार करेंगे ऐसे हालात देखे थे पहले भी पर तब वहाँ किरदार वहीं थे पर चेहरे अलग थे पीडा वही थी किंतु लोग अलग थे कई बार अपने घर की औरतों की आंखों की गीली कोरें देखी थीं किंतु अहसास अलग थे कई बार सुना था पर जाना नहीं था आज वही दृश्य , वही भाव और वहीं एक चेहरा बदली भूमिका में मेरे सामने खडा है सोच रही हूँ औरत के आंख के पानी को परम्परा के पानी में बन्धे लोगों ने कब देखा ? कब जाना ? कब समझा? कि हर दिन दूसरे के घर को अपना कहने और बनाने की लाचारी क्या होती है तिनका तिनका जोडने और बिना हक उसे अपना कहने की बेबेसी क्या होती है पुत्र के सहारे घर में जगह पा लेने की जिद्दोजहद क्या होती है प्यार के नाम पर हर रोज कुछ रिसने की लाचारी क्या होती है दूसरों के बल पर जीने की हकीकत क्या होती है जब भी सोचती हूँ अपनी मजबूरी के नाम एक खत लिखने का खयाल आता है माँ के नाम माफीनामा लिखने का खयाल आता है अपनी चाहरदीवारी पर अपना नाम लिखने का खयाल आता है इन बेपरवाहों के बीच परवाह की एक नयी कहानी लिखूँ अक्सर खयाल आता है .........................................अलका

Sunday, April 29, 2012

एक कविता अपने शहर के नाम......................आप सब से साझा कर रही हूँ ............उम्मीद है आप अपनी प्रतिक्रिया के साथ पसन्द भी करेंगे ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; सोचती हूँ ऐसे वक्त पर जीवन में एक शहर रौशनी का नुमाइन्दा बन अपने पूरे वजूद के साथ प्रवेश करता गया अंतर तक जब मन तमाम अठखेलियाँ करता कभी मचलता , कभी भटकता , आवारागर्दी करता गुजर रहा था कई ठिकानों से तब किसी पितामह की तरह सख्त हो अच्छे बुरे के फर्क को साझा करता सामने खडा समझाता रहा बरसों वह सब जो मन की स्लेट पर लिखी सबसे उम्दा इबारत है जानती हूँ पिता नहीं था वह फिर भी स्नेह वैसा ही था जानती हूँ माँ नहीं था वह फिर भी ममत्व से भरा तमाम नसीहतों के साथ एक अज़ीज़ दोस्त सा वो शहर आज भी है दिल के करीब अपनी तमाम रौशनी के साथ भाषा, संस्कृति और संस्कार के बहाने जीवन के कई रंग , अर्थ और जटिलतायें उसके साथ ने ही समझा दिये थे जाने - अनजाने आज भी उसके साथ का दम मजबूत करता है मेरा संकल्प, मेरी दृष्टी और बढने के हौसले को कई बार सोचती हूँ सलाम करूँ वहाँ के देवी देवताओं को माटी को और संगम को सलाम करूँ बटवृक्ष को और बेणीमाधव को पर अचनाक याद आते हैं वहाँ के लोग, दोस्त –यार याद आते हैं बडे - बुजुर्ग और वो वटवृक्ष जिसकी शाखायें बने हम फैले हैं चारो ओर बस झुक जाती हूँ मन ही मन करोडो धन्यवाद के बोल ले बढ जाती हूँ उस तरफ जहाँ के लिये वादा किया था ‘उससे’ बरसों पहले मन ही मन अनवरत खुश नसीब हूँ कि पली हूँ वहाँ खुश नसीब हूँ कि बढी हूँ वहाँ सच ! खुश नसीब हूँ कि पढी हूँ वहाँ जहाँ से सब ओर आदमीयत की परिभाषा जाती है संस्कार की भाषा जाती है सच कहूँ तो इस खुश नसीबी पर फखर करने से बेहतर इसे बोना चहती हूँ बंजर ज़मीनों में एक आस्ताना उगाने के लिये आदमियत का .........................................अलका

Monday, April 16, 2012

पुतुल की कविता अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ?

देश की अंतरिक सुरक्षा खतरे में है यही कारण है कि आज इसी मुद्दे पर दिल्ली में सभी मुख्य मंत्रियों की बैठक बुलायी गयी. अब सवाल है कि देश की अंतरिक सुरक्षा को खतरा किस बात से है ? प्राप्त सूचना के अनुसार भारत के अन्दर 19 बडी इंसर्जेंसीज चल रही हैं. यानि कि देश के भीतर ही बडे बडे खतरे पैदा हो गये हैं. आज की इस पूरी मीटिंग में जिन खतरों को गिनाया गया उसमें नक्सालवाद की तरफ इशारा करते हुए उसे आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बडा खतरा बताया गया. अभी कोई दो तीन दिन पहले एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश ने एक कार्यक्रम पेश किया था. इस कार्यक्रम का शीर्षक था ‘’क्या नक्सल्वादियों के आगे झुक गयी सरकार ?’’
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -
अगर तुम मेरी जगह होते

जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?


कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?


कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!


कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.


जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए


बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.


सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल




निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. मेरे लिये यह जटिल इसलिये हो रहा है क्योंकि देश का प्रधान कहता है कि नक्सलवाद सबसे बडी समस्या है,,,,,,,,,,,, देश का एक पूर्व जनरल कहता है कि नक्सल्वादियों को अब चीन हथियार देने की योज़ना बना रहा है............. और देश अब सभी राज्यों को लेकर आंतरिक सुरक्षा के मद्दे नज़र अब इस नक्सलवाद से जुडे लोगों के खिलाफ एक बडी रणनिति बनाने की योज़ना बना रहा है क्योंकि बकौल पूर्व जनरल ’ कि इस पूरे इलाके में आज तक कोई पेनीट्रेट नहीं कर पाया’’किंतु इन सभी के बीच निर्मला कुछ सवाल रखती हैं और कहती हैं कि –
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?

मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. पर क्या टी.वी पर चर्चा में शाम्मिल होने वाले उतनी ही सवेदना और चश्में से उस समस्या को देख पाते हैं जिस सम्वेदना की जरूरत होती है उस इलाके के लोगों को ? आप देखें कि एक तरफ देश की आंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल, एक तरफ नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने की रणनीति और एक तरफ उस पूरे इलाके के लोगों के मूलभूत सवाल.... सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर इस सभी की नज़र नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते तो उनकी चर्चाओं में समस्या को समझने का नज़रिया और इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती. निर्मला की कविता महज़ एक कविता नहीं है. यह कविता देश के उस बडे हिस्से की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि उसकी नाक चिपटी है, वह काला है, उसके पावों में बिवाई है और् इसलिये वह देश के विभिन्न सुविधाओं के लिये लगने वाली कतार में सबसे पीछे खडा होता है. लोग उसके पावों की बिवाई को समझने की जगह फब्ती कसते हैं .जोरदार ठहाका लगाते है ...........निर्मला की इस आवाज़ में एक दर्द है और यह प्रश्न भी कि यदि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्ता करते?
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है किंतु जब इस प्रकरण का जिक्र अभिज्ञान प्रकाष के कार्य्क्रम में एक प्रोफेसर करने की कोशिश करता है जिसने 8 साल सरकार और उन लोगों के बीच सेतु बनने का काम किया जो आज सरकार के लिये समस्या बन गये हैं .....तो उसे एक नेता द्वारा यह कहकर चुप रहने के लिये कहा जाता है कि ‘’ प्रोफेसर साहब उपदेश ना दें’’ म्मतलब यह कि इस देश की राजनिति यह समझने के लिये तैयार नहीं है कि इस देश के गरीब और आदिवासी जीवन की मूल्भूत आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हैं. वह यह समझने के लिये तैयार नहीं है इस समस्या के पीछे के कारण से निपट्ने के लिये उन लोगों की बात को भी सुनना जरूरी है जो इस समस्या पर अपने महत्व्पूर्ण विचार संजीदगी से रख सकते हैं..
दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर कई स्वाल पैदा किये. वह कुछ ऐसे मूल भूत सवाल हैं जिसे हर उस नागरिक का पूछने का हक बनता है जो इस देश में इस देश के सम्विधान के मतलब को समझता है. किंतु बात जब आदिवासी जन की आती है तो वह हमारी दोहरी नीति, दोहरे आचरण और सामंत्वादी तौर तरीकों की तरफ इशारा करता है. हमारे विकास, विकास की अवधारणा और इस विकास के खांचे से दूर लोगों की आकंक्षाओं की टकराट की भी बात उठती है. इसीलिये जब निर्मला कहती है कि -
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?


सच कहूँ तो अभिज्ञान के कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे झकझोर कर रख दिया....
इसीलिये मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......लेकिन इस देश में उस आदिवासी की बात सुनना तो दूर उसकी तरफ ध्यान से देखा नहीं जाता जिसकी परम्परा में कभी भीख नहीं मांगना जैसे एक मिशन है, जिसकी परम्परा में मेहनत एक इबादत है .......और अपने आस पास की प्रकृति की रखवाली करना एक पूजा है..............लेकिन आज़ादी के 65 सालों बाद एक एक कर उनकी संस्कृति को तोडा है, उनके मिशन को तोडा है और उनकी इबादत गाह को नष्ट किया है .तो ऐसे में क्या सरकारों , नेताओं, पार्टियों को उन सवालों पर सोचना नहीं चाहिये जहाम वह कह रहे हैं कि -.

“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”

मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? या देश के उस प्रधान से जो आज भषण दे रहा था ? या प्फिर देश के उन नागरिकों से जो देश के बडे शहरों में बडी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए कहते हैं कि ‘ जो जाति देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकती वह तो इसी स्थिति में ही रहे गी ना ? या फिर उन कुछ बेहद स्वार्थ से भरे लोगों से जो कहते हैं कि देश के विकास के लिये बाक्साईट जैसे खनिज़ के लिये उनकी जमीन पर सरकार पर कब्ज़ा तो करना ही पडेगा ? किससे ? या फिर सभी से ? सीधे तौर पर देखा जाये तो यह सवाल पुतुल सबसे करती हैं कि जो देश अपनी जीडीपी को 8 प्रतिशत दिखाने का दावा कर वाह्वाही पा रहा है उस देश में आज़ादी के 65 साल बाद भी अगर एक तबके का जीवन इस हाल में है तो अगर यह जीवन आप जी रहे होते तो क्या करते? हाँलाकि देखा जाये तो इस देश में यह सवाल एक शास्वत सवाल है किंतु यह सवाल जब अपनी जमात की तरफ से पुतुल करती हैं तो इन सवालों की त्रासदी दोगुनी हो जाती है क्योंकि वह इन सवालों के साथ साथ हालात का भी बयान करती हैं -

कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!

------------------------और देखा जाये तो जो हालात पुतुल ने अपनी कविता के माध्यम्म से रखे हैं वह आज भी ज्यों के त्यों हैं ..................चाहे रांची का नम्कुम हो, मध्यप्रदेश का बेतुल और छोन्दवादा हो, छत्तीसगढ का दंतेवाडा हो या उत्तर प्रदेश का शंकरगढ हर जगह सवाल यही हैं पर समाधान कुछ नहीं, हर जगह उनके जनजीवन की मांसलता को ही नापा जा रहा है और देखे जा रहे हैं छाती के उभार . चाहे वो बाम्क्साईड के रूप में हों , चाहे जंगल के रूप में -
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.

किंतु अब वह बेखबर नहीं रह गया है क्योंकि वह सवाल करने लगा है कि ‘’अगर तुम मेरी जगह होते’’ सोचो क्या करते


.............................डा. अलका सिह

Friday, April 13, 2012

क्या निर्मला पुतुल के सवाल आदिवासी जीवन के मूल भूत सवाल हैं

(यह लेख एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम, उससे उपजे मंथन और एक तरह की गहरी खीझ जिसे मैं नाराज़गी कह रही हूँ से उपजा है. सच कहूँ तो अभिज्ञान के इस कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे इस बीमारी की हालत में भी अपने लैपटाप पर बैठने को मजबूर कर दिया. दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के इस कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर सवालों की जैसे झडी लगा दी. उसने इस देश की कई त्रासदियों को ही नही बल्कि यह भी समझने में मेरी मदद की कि देश की सेना, पुलिस और नेता जनता की समस्या और मांग को कैसे देखते हैं इस पूरी चर्चा ने मुझे निर्मला पुतुल की कई कविताओं की याद दिला दी. खासकर उस कविता की जिसमें वह आदिवासी जमात की तरफ से कुछ सवाल करती हैं और कहती हैं कि : अगर तुम मेरी जगह होते ? )
मित्रों ,
आज मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......आदिवासी कभी भीख नहीं मांगता, वह मेह्नत करता है और अपने आस पास की प्रकृति का रखवाला है .............ऐसा आदिवासियों का अपने बारे में विचार है किंतु आज़ादी के बाद के 65 साल में इस देश की पूरी जनजाति के जीवन उसकी संस्कृति और सभ्यता के साथ जो कुछ हुआ है उसने आदिवासी जन के मन में मनो सवाल लादे हैं.............. यही वज़ह है कि आदिवासी जन की बात करते हुए मुझे पुतुल की कवितायें बेतरह याद आती हैं............. खासकर तब जब वह सवाल करते हुए कहती हैं कि:
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”

मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कल के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. इसी लिये आज मैं निर्मला पुतुल और उनकी एक कविता की बात करूंगी. यह इसलिये नहीं कि मैं उनकी कविता की कोई बहुत महान समीक्षा करूँगी या फिर इसलिये नहीं कि निर्मला पुतुल को एक बहुत महान कवियत्री साबित करने का इरादा है यहाँ मैं उनकी कविता और उसमें उठाये गये मुद्दे को इसलिये रख् रही हूँ क्योंकि कल देश के कुछ ख्यातनाम लोगों ने टी वी के एक् कार्यक्रम में बैठ्कर देश के एक बहुत बडे हिस्से में रहने वाले लोगों की समस्या पर अपनी राय व्यक्त की जिसमें जिसमें इस देश के एक पूर्व सेनाध्यक्ष आदिवासी बहुल इलाके के सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते है कि ‘इस पूरे इलाके में आज तक कोई भी पेनीट्रेट नहीं कर पाया है’ मैं संजय निरुपम जो कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सदस्य है की भाषा को समझने के प्रयास में हूँ जब वो प्रो. गोपाल को चुप कराने के लहज़े में कहते हैं कि प्रोफेसर साहेब इस तरह के उपदेश ना दें और इसके साथ ही मैं देश की दूसरी बडी पार्टी भाजपा का भी मंतव्य समझने का प्रयास कर रही हूँ क्योंकि इस चर्चा में उनका सुर कांगेस के सुर से अलग नहीं था जबकि वो पार्टी वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी जीवन के बहुत करीब होने का लगातार दावा करती रही है.
देखा जाये तो इस पूरी चर्चा में प्रो. हरगोपाल को छोड्कर चर्चा में भाग लेने वाला कोई भी दिग्गज़ उस बडे हिस्से में रहने वाले लोगों के सवालों का कोई भी जवाब देने में ना केवल अक्षम था बल्कि उन सीधे साधे सवालों के पास भी नहीं पहुंच पाया था . मैं निर्मला की कविता को यहाँ इसलिये रख रही हू क्योंकि आज भी आम आदिवासी के वही सवाल हैं जो निर्मला उठा रही हैं और इन्हीं कुछ मूल प्रश्नो को भी इस चर्चा में रखने का प्रयास किया गया था जिसे एक नेता ने कुछ इस तरह दबाने का प्रयास किया जैसे उस प्रोफेसर ने उन मूल सवालों को उठाकर गुनाह कर दिया हो? पढिये निर्म्मला की कलम से आदिवासी जमात के कुछ मूल सवाल ---------

अगर तुम मेरी जगह होते

जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?


कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?


कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!


कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.


जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए


बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.


सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल

निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? किससे ?क्योंकि जब भी इस कविता को ध्यान से पढा है और समझने की कोशिश की है तो लगा है जैसे कि यह सवाल तो इस देश का अधिकांश नागरिक पूछ रहा है. जरा गौर से पढिये पुतुल को ............क्या यह सवाल उत्तर प्रदेश के उस गाँव के किसानों के नहीं हैं जिसके खेत का सरकार अधिग्रह्ण कर बिल्डर्स को देती है ? क्या यह सवाल सुदूर हिमांचल में रहने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गवाँर सम्मझे जाने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गरीब हरिजन के नहीं हैं ? हाँलाकि देखा जाये तो यह सभी सवाल पुतुल अपनी जमात की तरफ से कर रही हैं किंतु यह सवाल एक शास्वत सवाल है
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है . आप इस कविता की निम्न पंक्तियों को पढे कई बातें और उसकी परतें साफ साफ खुलती जातीं हैं -
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?

पर यहाँ मैं इस कविता को सिर्फ और सिर्फ आदिवासी जीवन, उसके सवाल और उसके आक्रोश से जोडकर ही देखने की कोशिश करूंगी ताकि हम आदिवासी सवाल से उसके आक्रोश और फिर नक्सल वाद तक के उनके सफर और साथ ही साथ दिल्ली दरबार , उसकी फितरत और वहा बैठे साझ्दारों की समझ के भी सफर की झलक देख सकने की कोशिश कर सकें...... यह इसलिये भी कि यह आलेख कल की चर्चा के आलोक में लिख रही हूँ

............... शेष अगले भाग मे^







.

Thursday, April 5, 2012

मेरी कलम भी बोलती है निरंतर

मैं उससे कहना चाह रहा था कि -

‘’हम किसी विषय पर बोल देंगे
बुलाओ तो सही
हम किसी विषय पर लिख देंगे
छापो तो सही
सिलसिला बस यूँ ही चलते रहना चाहिये
ताकि जिन्दा रहें हम
सिलसिला बस यूँ ही बने रहना चाहिये
ताकि मिलते रहें हम
आगे बढना अब मवाकों का तकाज़ा है
यह इंतज़ार करने का वक्त बचा नहीं
कि कोई आमंत्रित करेगा मेरी बात सुनेगा और वाह वाह कर
सम्मानित करेगा .....’’

वह आवाक, अपलक मुझे ऐसे निहार रहा था
जैसे जमाने से आदमजात को देखा ही ना हो
ना ही देखा हो मेरे जैसे लालची को
जिसे छपने की इतनी ललक थी
जिसे बोलने की इतनी इच्छा ?

मैने उससे फिर कहा

तुम सोच रहे हो ना कि यह कैसा लेखक है सोच रहे हो ना कि यह कैसी ललक है
बिना रीढ का नहीं हूँ मैं
किंतु शराफत के साथ इस इंतज़ार में
लिखता रहा कि
कभी तो किसी की नज़र पडेगी
कोई बुलायेगा एक मौका देगा
पर
अब बिना कहे नहीं रहना चाहता
और ना ही
बिना छपे क्योंकि
अपनी कलम भी
बोलती है , कुछ कहती है
उसे पहुंचाने के लिये
सब तक
लेना चाहता हूँ एक रिस्क
क्योंकि
मेरी कलम भी बोलती है निरंतर
शब्द शब्द तोडती है किला
और हर गुजरते साल के साथ
मजबूत हो कमर कस लेती है
बहुत कुछ कहने को
बहुत कुछ लिखने को


.........................................एक लम्बी कविता का अंश

Wednesday, March 14, 2012

बेटे ने माँ से पूछा है

आज बेटे ने माँ से पूछा है
ये तुम्हारे चेहरे पर निशान कैसे हैं? कैसी है ये पीठ पर सांठ ? कल तो नहीं थी?
कल तुम्हारी आंखें सूजी भी नहीं थी ? ना ही कल तुम कहीं गिरी थी
फिर ?
रात धुत्त शराब में वह जल्लाध थे यह तो देखा था मैने
थाली पटकते भी देखा था
तुम्हारी कलाईयों को मडोड्ते भी देखा था
पर
ये चेहरे के निशान, ये सांठ , आंखों की ये सूजन? अचम्भे में हूँ
दुखी हूँ , असहनीय पीडा में हूँ
क्रोधित भी
क्या करूँ? तोड दूँ म्रर्यादा ?
तान दूँम भृकुटियाँ उनपर ?

दर्द में सुबकती सन्नाटे को भेदती एक आवाज गरजी
मैन निपट रही हूँ विरासत में दी गयी
अपने हिस्से की त्रासदियों से
बना रही हूँ एक ब्लू प्रिंट अगली पीढी को
टीपनुमा कुछ देने के लिये

अगर चाहता है कि
मेरे चेहरे से ये निशान जायें तो याद रख कि
आने वाली पीढियाँ इस घर में
ऐसा कोई दृश्य ना देखें
किसी माँ से फिर से तेरे जैसे सवाल ना पूछें
सुन
यह अकेले जिम्मेदारी तेरी है ऐसा मैं नहीं कहती
तू इसे गुन यह जरूरी है
तू इसे सुन ये भी जरूरी है
तस्वीर तो बदल ही जायेगी
एक दिन



.......................अलका

Tuesday, March 13, 2012

प्रेम की परिभाषाओं के बीच

एक बहुत पुरानी रचना ..........................आप सबकी नज़र


‘प्रेम’ करती रही थी
हर उस से जो मेरे आस पास था
हर पल जिनके साथ महसूस करती थी
अपनापन, दिल के करीब होने का मतलब
माँ-बाबा, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, दादा-दादी और भी बहुत थे
इस प्रेम के दायरे में


अपने नन्हें हांथों से बडी हो गयी इन हथेलियों तक
सालों उनके आस पास बनी रही
बिना यह जाने कि इस परिधि के परे भी
प्रेम की परिभाषायें हैं
बिना यह जाने कि उस प्रेम का पडाव
हर किसी के जीवन में आता है
हौले से .
बिना यह जाने कि एक दिन
बडे हो गये इन हाथों से लिपटा वो प्रेम
मेरे विरोध में खडा हो जायेगा
जब अनुभूति बन वह प्रेम
दबे पाँव आयेगा

एक वो राजकुमार आयेगा
घोडे पर चढकर जिसके सपने होंगे राजकुमारी के मन में
वो ले जायेगा उस परी सी राजकुमारी को
ऐसा नानी कई बार सुनाया था
एक कहानी कह बचती रही थी
राजकुमार और राजकुमारी की प्रेम कहानी
सुनाने से
पर इस कहानी ने रोप दिया था
एक राजकुमार मेरे मन में भी


अज़ीब इंतज़ार था उस राजकुमार का
एक अज़ीब कसमसाहट उस प्रेम को जानने की
ना जाने कब
मुझे उसका आस पास होना अच्छा लगने लगा
उसका मुझे देखना अच्छा लगने लगा
प्रेम की नयी अनुभूति की आहट पर मुग्ध
समझने की कोशिश करने लगी थी
तमाम परिभाषा के बीच लिखने की मैं भी कोशिश करने लगी थी
एक अपनी परिभाषा प्रेम के समझ की
मेरे छत की मुडेर, बाहर वाला दरवाज़ा, खिडकियाँ
सब पर मेरी आंखें जैसे बैठ गयी थीं
साथ ही साथ
कुछ सवाल होंठों से चिपक गये थे
कि यही है वह प्रेम ?


एक दिन प्रेम की गहरी अनुभूति के बीच
साहस कर कह बैठी उससे –
अच्छे लगते हो मुझे तुम
बहुत अच्छे
प्यार करती हूँ तुमसे,,,,,,,,बहुत
यह एक उल्टा पहल थी एक स्त्री के मुँह से
प्रेम का कबूलनामा
आश्चर्य में डाल गया था उसे
आंखे चौडी कर पहले उसने मुझे पूरी आंखों से देखा
और खडा हो गया जैसे चलने को हो
पर अचानक पलट कर बोला
अच्छी तो तुम भी लगती हो मुझे
लेकिन दोस्त कहते हैं यह कहना तो
मर्द का काम है
लडकियाँ यह कहते अच्छी नहीं लगतीं
उन्हें इस बात का इंतज़ार करना चाहिये
कि कब कोई उसे
आई लव यू . कहता है
जब कोई जो उसे प्यार करता है – कहे कि
आई लव यू..
तो उसके चेहरे पर शर्म की चादर होनी चाहिये
यही तो भारतीय नारी की गरिमा है
प्रेम की इस नयी परिभाषा में
यह पहली गेंद थी
औरत की तरफ फेंकी गयी पहली बात
कि बोलना तुम्हारा काम नहीं
यह मेरे प्रेम की परिभाषा का राज कुमार नहीं था
ना ही यह मेरी परिभाषा के शब्द थे


वो जो मेरी आंखों में आंखे डाल
मेरे शब्दों को अपना कह
हाथ पकड लेगा
उसी के इंतज़ार में हूँ





......................अलका

Saturday, March 3, 2012

प्रेम चंद गांधी की 'नास्तिको की भाषा' का मतलब

प्रेम चन्द गान्धी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ हलांकि फेसबुक पर मैने उनकी कोई कविता इससे पहले नहीं पढी थी. यह पहली कविता थी उनकी जिसे फेसबुक के माध्यम् से मेरे द्वारा समालोचन पर पढी गयी. इस कविता को सामालोचन के सम्पादक अरुण देव ने फेसबुक पर शेयर किया था. प्रेमचन्द गान्धी की कविता एक बार फिर भाषा पर ही बात करती हुई? रोचक विषय था. रोचक इसलिये भी कि पहली बार एक ऐसी भाषा की व्याख्या पढ रही थी जिसे मैनें आस्थाओं के इस देश में टुकडे –टुकडे में कभी कभार ही सुना होगा. दरअसल आज तक नास्तिक होने का मतलब आस्तिकों की जमात के सामने विरोध का परचम लिये खडे किसी एक आध व्यक्ति को ही देखा और समझा था और यह कविता उसे एक जमात के रूप में चित्रित कर उसकी भाषा पर बात कर रही थी इसलिये इसकी रोचकता निरंतर बनी हुई थी इसलिये इसे पढने और इसपर लिखने से खुद को रोक नहीं पायी. वैसे भी यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जिसमें व्यक्ति के नास्तिक होने और उसकी अपनी भाषा का अपना ही मतलब है. प्रेम चन्द गाँघी की कविता ‘ ‘नास्तिकों की भाषा’ को समझने का प्रयास इस समीक्षा के माध्यम से कर रही हूँ. प्रेम चन्द गांघी का नाम हिन्दी जगत में जाना पहचाना है फिर भी यहा एक औपचारिक परिचय देना आवश्यक है: .


प्रेमचंद गांधी

जन्म : २६ मार्च, १९६७,जयपुर
कविता संग्रह : इस सिंफनी में
निबंध संग्रह : संस्कृरति का समकाल
कविता के लिए लक्ष्म ण प्रसाद मण्डंलोई और राजेंद्र बोहरा सम्माून
कुछ नाटक लिखे, टीवी और सिनेमा के लिए भी काम
दो बार पाकिस्ताखन की सांस्कृ तिक यात्रा.
विभिन्नप सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी.
ई पता : prempoet@gmail.com


बहरहाल ‘नास्तिकों की भाषा’ को पढ्कर तो मेरी पेशानी पर जैसे बल पड गये. थोडी देर के लिये दिमाग जैसे एक कोने में बैठ्कर आराम से सोचने की मांग करने लगा ताकि नास्तिकों की दुनिया और उनके शब्द और सम्प्रेषण को समझा जा सके. कविता ने नास्तिकों के दुनिया और उनकी भाषा को लेकर जो वक्तव्य सामने रखे उसे आसानी से समझ पाना बेहद कठिन था क्योंकि इतनी सरल और छोटी है नास्तिकों की भाषा ? जितनी बार इसपर नज़र गयी कुछ गूढ प्रश्न एक एक करके सामने आने लगे. कविता एक ही साथ दर्शन, मानव विकास और मनोविज्ञान जैसे विषयों के पायों पर खडी नज़र आ रही थी. एक संकट था मेरे सामने कि मैं कविता के दर्शन पर बात करूं या फिर कविता के मनोविज्ञान पर बात करूँ? या फिर कविता के साथ मानव विकास , भाषा के विकास और के कालखन्ड जिसमें यह कविता लिखी जा रही है उस परिवेश की बात करूँ या फिर इससे जुडे कुछ अन्य विषयों पर बात करूं? इस तरह एक घनीभूत सोच के साथ एक लम्बी खामोशी की स्थिति थी दिमागी स्तर पर. वहीं दूसरी तरफ प्रश्नो की एक श्रृंखला भी इस कविता ने सामने रखी थी. जो पहला मूल प्रश्न खडा किया वो था कि आस्था क्या है ? दूसरा जो बडा सवाल था वो था नास्तिक होने का मतलब क्या है ? और इन सबसे जुडे कई सवाल जैसे विकास और आस्था का रिश्ता क्या ? भाषा की उत्पत्ति के पीछे का सच क्या है ? और यह भी कि मौन की भाषा ही क्यों बची रह गयी है एक नास्तिक के पास ? पर मेरे सामने सबसे बडा सवाल था कि कवि क्यों इस मनोदशा में है कि उसे इस दौर में अपने नास्तिक होने का सबूत भी देना पड रहा है और बताना भी पड रहा है कि हमारी भी एक भाषा है जिसमें शब्द जाल नहीं हैं. इस कविता को लेकर यह भी बडा कठिन है कि बात कहां से शुरु की जाये पर बात कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी. बात की शुरुआत से पहले प्रेमचन्द गान्धी की ‘नास्तिकों की भाषा’को पढ लेते हैं :




हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.

::

दुनिया की तमाम
ताकतवर चीजों से
लड़ती आई है हमारी भाषा
जैसे हिंसक पशुओं से जंगलों में
शताब्दियों से कुलांचे भर-भर कर
जिंदा बचते आए हैं
शक्तिशाली हिरणों के वंशज

खून से लथपथ होकर भी
हार नहीं मानी जिस भाषा ने
जिसने नहीं डाले हथियार
किसी अंतिम सत्ता के सामने
हम उसी भाषा में गाते हैं

हम उस जुबान के गायक हैं
जो इंसान और कायनात की जुगलबंदी में
हर वक्त
हवा-सी सरपट दौड़ी जाती है.

::

प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.

::

सबसे बुरे दिनों में भी
नहीं लड़खड़ाई हमारी जुबान

विशाल पर्वतमाला हो या
चौड़े पाट वाली नदियां
रेत का समंदर हो या
पानी का महासागर

किसी को पार करते हुए
हमने नहीं बुदबुदाया
किसी अलौकिक सत्ता का नाम

पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.

::

झूठ जैसा शब्द
नहीं है हमारे पास
सहस्रों दिशाएं हैं
सत्य की राह में जाने वाली
सारी की सारी शुभ
अपशकुन जैसी कोई धारणा
नहीं रही हमारे यहां
अशुभ और अपशकुन तो हमें माना गया.

::

हमने नहीं किया अपना प्रचार
बस खामोश रहे
इसीलिए गैलीलियो और कॉपरनिकस की तरह
मारे जाते रहे हैं सदा ही

हमने नहीं दिए उपदेश
नहीं जमा की भक्तों की भीड़
क्योंकि हमारे पास नहीं है
धार्मिक नौटंकी वाली शब्दावली.

::

क्या मिश्र क्या यूनान
क्या फारस क्या चीन
क्या भारत क्या माया
क्या अरब क्या अफ्रीका

सहस्रों बरसों में सब जगह
मर गए हजारों देवता सैंकड़ों धर्म
नहीं रहा कोई नामलेवा

हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.

::

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

इसलिए हमारे कवियों ने रचे
उत्कट और उद्दाम आकांक्षाओं के गीत
जैसे सृष्टि ने रचा
समुद्र का अट्टहास
हवा का संगीत.

::

भले ही नहीं हों हमारे पास
पूजा और प्रार्थना जैसे शब्द
इनकी जगह हमने रखे
प्रेम और सम्मान जैसे शब्द

इस सृष्टि में
पृथ्वी और मनुष्य को बचाने के लिए
बहुत जरूरी हैं ये दो शब्द.

::

हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद

दुनिया की सबसे छोटी और पुरानी
हमारी भाषा
और क्या दे सकती थी इस दुनिया को
सिवाय कुछ शब्दों के
जैसे सत्य, मानवता और परिवर्तन.

( कोई भी कवि जब कविता लिखकर लोगों को समर्पित कर देता है तो वह कविता कवि के साथ उन सबकी हो जाती है जो इस कविता से किसी भी तरह खुद को जोडते हैं किंतु फिर भी इस कविता पर कोई बात करने से पहले कवि के बारे में यह बात स्पष्ट कर दूँ कि प्रेम चन्द गान्धी अपने को नास्तिक कहते है और इस तरह यह कविता एक नास्तिक व्यक्ति का वक्तव्य है किंतु बकौल प्रेम चंद गांघी नास्तिको की भी कुछ आस्था होती है .....) बहर हाल अब बात कविता की.
कुछ मूलभूत सवालों से पहले हमें इस कविता के कवि , उसके काल खंड और उस परिवेश पर बात करनी होगी /चाहिये जिसमें यह कविता लिखी गयी है. यह कविता, कवि और इस कविता के पीछे के भाव के साथ न्याय करना होगा जिस सन्दर्भ को ध्यान में रखकर यह कविता लिखी गयी लगती है. हालांकि कविता ने जो मूल और गूढ प्रश्न छोडे हैं उसपर बात किये बिना कविता पर बात अधूरी ही रहेगी.
दरअसल जब मैं इस कविता को एक पाठक की तरह पढती हूँ सवालों के कीडे कुलबुलाने लगते हैं. मन कविता के हर वक्तव्य पर पहले सोचने और सवाल करने को मजबूर हो जाता है यही कारण है कि मैं इस कविता के उस नास्तिक की जगह खुद को रख कर देखती हूँ ताकि उस् मन:स्थिति और इस कविता की उपज को उसी स्तर पर समझा जा सके. यह जाना जा सके कि एक व्यक्ति की मन:स्थिति क्या और क्यों होती है जब वह ‘नास्तिक’ जैसे खयालों के इर्द गिर्द अपने को पाता है. ऐसा करते ही मेरे सामने कई बिम्ब अचानक उभर आते हैं. पहला चित्र जो उभरता है वह कविता के आरभ से बनता है. आप देखें जब बात शुरु होती है कि .
’हमारी भाषा में बहुत कम हैं
सांत्वना के शब्द
किसी भी दिवंगत के परिजनों को
हम सिर्फ मौन से ही बंधाते हैं ढाढ़स
शोकसभा के मौनकाल में हम
नहीं बुदबुदाते किसी ईश्वर का नाम.’’
इस वक्तव्य की शुरुआत से ऐसा लगता है कि जैसे किसी शोक सभा से लौट रही जमात में किसी ने उस चुप रहने वाले व्यक्ति जो पूरी शोक सभा में उस समय मौन था जब सारे लोग दिवंगत के परिजनों को सांतवना दे रहे थे से जैसे पूछा हो कि, ‘’मित्र तुमने उन्हें ढाढ्स नहीं बधाया परिजनों को? तुम नहीं गये उनके पास जब सब ढाढ्स बधा रहे थे उन्हें? ...............और ऐसे में व्यक्ति एक साथ कई मन:स्थितियों से गुजरता है. यह कविता उन्हीं मन:स्थितियों से गुजरते हुए एक व्यक्ति की उस पूछने वाले व्यक्ति को दी गयी सफाई सी लगती है कि वह क्यों मौन रहा जब सब अपने अपने ईश्वर के खाने में खडे हो सांत्वना दे रहे थे जैसे कि अब ईश्वर को यही मंजूर था’’ ‘हम तुम तो माटी के पुतले हैं’ ‘अब चुप हो जाओ वह लौट कर नहीं आयेगा’ ‘भगवान ने उसे भेजा था और वह भगवान् के पास चला गया’ ..........आदि आदि जैसा कि अमूमन समझाया जाता है और होता है. ऐसे समय में जब कोई चुप हो कोने में खडा मौन हो तो लोगों की नज़र म्में आता ही है और बहुतों की नज़र में सवाल होते हैं .........कई चुप रहते हैं किंतु कुछ यह सवाल कर ही बैठते हैं.....

वहीं इस कविता को यदि व्यक्तिगत स्तर पर महसूस करते हुए देखा जाये तो यह एक अत्मसम्वाद भी करती सी लगती है. जैसे अकेले में एक व्यक्ति खुद से सम्वाद कर रहा हो और कह रहा हो यह सोचते हुए कि उस दिवंगत के परिजन को सांत्वना देने वाले सभी के पास एक ईश्वर था किंतु मेरे पास नहीं........ और तब वह गहरी सम्वेदना में विचार करता है इसीलिये यह खुद से सवाल पूछते व्यक्ति का वक्तव्य सी भी लगती है क्योंकि पूरी कविता खुद को एक अलग खाने में पाते हुए एक खोज सी है.

उपरोक्त दोनो चित्रो के अलावा भी एक चित्र है जो इस कविता को इस दौर की समाजिक स्थिति में फंसे एक सम्वेदंशील व्यक्ति की आत्म्ध्वनि को सामने रखती है. देखा जाये तो यह कविता एक ऐसे दौर में लिखी गयी है जब आस्था और धर्म के घाल मेल से बने छोटे छोटे टापुओं ने दुनिया में सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति या यूँ कहें कि इस पृथ्वी के हर जीव को परेशानी में ही डाला है. जहाँ तक इंसान का सवाल है उसका जीवन तो कई बार ना केवल दूभर सा होता रहा है बल्कि मनुष्य होने और उसके जीवन के कुछ मूल प्रश्नो पर सोचने को बार मजबूर किया है. 1984 के दंगो, गुजरात के दंगे और इन दंगों में ईश्वर के खाने में बंटे उनके अनुयाइयों ने जो दृश्य प्रस्तुत किये है उसने एक सम्वेदंशील मनुष्य को इस सोच में प्रतिदिन डाला है कि यदि ईश्वर और उसकी सत्ता है तो फिर यह क्या है ? क्यों आस्थओं में बटा मनुष्य मनुष्य के लिये सबसे घातक हथियार सा हो गया है? इस तरह के प्रश्न में फंसे व्यक्ति के ऐलान की तरह लगती है ये कविता और इसी कारण कवि उस पूरी जमात के लिये जो ईश्वर की सत्ता पर सवाल करता है के लिये एक भाषा की भी बात करती है ताकि अपनी सम्वेदना के साथ अपनी भाषा भी ना केवल गढी जाये किंतु उसे बताया भी जाये. कविता के अंत की कुछ लाईने इस बात का समर्थन करती हैं कि:

हमें कभी जरूरत नहीं हुई
दूसरी जुबानों से शब्द उधार लेने की
औरों ने हमारे ही शब्दों से बना लिए
नए-नए शब्द और पद




जैसे जैसे कविता आगे बढती है वह अपने जमात की खासियत का विस्तार करती जाती है. धर्म, आस्था और भाषा के विकास के बरक्स अपने शब्दों की खोज करती आगे बढती है इस कविता में इसी कारण एक संकट भी नज़र आता है वह है नास्तिक की परिभाषा का संकट और नास्तिक की भाषा के दायरे का संकट. आप कविता के विस्तार में कुछ प्रमुख अंशों को देखें-


‘प्रार्थना जैसा कोई शब्द
हमारी भाषा में नहीं समा सका
मौन ही हमारा ध्येय वाक्य रहा( हमेशा) ‘’

दुनिया की सबसे सरल सभ्यताओं की तरह
हमारे पास भी थे सबसे कम शब्द
मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी
जहां कुछ ही शब्दों की ज़रूरत थी
जैसे ‘संघर्ष’.


मनुष्य को किसी का दास बनाने के लिए ही
ईजाद की जाती है लंबी-चौड़ी शब्दावली
हमने दासता से मुक्ति की राह चुनी



पीढि़यों से जानते हैं हम
जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.


हमारे पास नहीं है
मजहब और देवता जैसे लफ्ज
इसीलिए बचे हुए हैं हम और हमारी जुबान.

::

याचना और प्रार्थना के गीत
नहीं संभव हमारे यहां
हम नहीं रच सकते
जीवन से विरक्ति के गीत

.................
पूरी कविता मनुष्य की आस्था से गढे गये समाज और उसके तरीकों के विरोध में खडी है जैसे नास्तिक की दुनिया में प्रार्थना जैसे शब्द नहीं हैं याचना नहीं है मजहब और देवता नहीं हैं लम्बी चौडी शब्दावली नहीं है इसीलिये वह और उनकी जुबान बचे हुए हैं और वो जानते हैं कि :

‘’जैसे पृथ्वी के दूसरे जीव
पार कर लेते हैं प्राकृतिक बाधाएं
बिना किसी ईश्वर को याद किए
मनुष्य भी कर लेगा.’’

कविता के रूप में यह रचना जरूर आपका ध्यान खींचती है किंतु जो सवाल सामने रखती है और सोचने के लिये बाध्य करती है वह भी उतने ही महत्व्पूर्ण हैं जैसे कि मनुष्य के इतने बडे समूह ने आस्था जैसे शब्द क्यों बनाये? ईश्वर की सत्ता को क्योंकर बनाया? मजहब और देवता क्यों बनाये? कैसे बनते बनते गये मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे और गिरिजाघर ? क्या मानव और मानव का विकास जो हम्मारे सामने है वह मानव के पक्ष में है? इसके साथ ही कुछ मूल सवाल भाषा के विकास , उसके कारण और भाषा की परिधि पर भी हैं क्योंकि मनुष्य के विकास और भाषा का बहुत गहरा नाता है. मानव ने एक ही साथ दोनो काम शुरु किये. जिस समय वो पत्थर से पत्थर रगड कर आग जला रहा था , जमीन से ताम्र लोहा खोद कर युग बना रहा था ठीक उसी के साथ अक्षर, शब्द और वाक्य भी बना रहा था. तो क्या वास्तव में आस्थायें भी गढ रहा था ? अगर गढ रहा था तो किस तरह की आस्था ? और किसके प्रति ? क्या ईश्वर का अस्तित्व विकास की निरंतर प्रक्रिया का परिणाम्म है ? ऐसे कई सवाल हैं जो उपजते हैं.

कविता में बात उन सब बिन्दुओं पर की गयी है जिससे आज मनुष्य परेशान है. वह परेशान है झूठ से , ईश्वर से, मजहब से , आस्था से और आज की भाषा से. और यदि वह इस सब्से परेशान है तो वह आज की सामाजिक आर्थिक और राजनितिक स्थितियों से परेशान है. झूठ को यदि भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में देखें, ईश्वर मजहब और आस्था को राजनिति के एक सब्से कुत्सित रूप में दें और भाषा को को उसके सम्प्रेष्ण के रूप में देखें और परिभाषित करें तो पूरी दुनिया का हर इंसान इसकी सजा भुगत रहा है ............... औए ऐसे में वो जो समाधान देखता है उसमें मौन उसकी भाषा से अधिक उसकी मजबूरी है और वह चुप रहना ही श्रेयष्कर समझता है. और सोचने को मजबूर होता है कि मनुष्य भी तो दुनिया के आम जीव की तरह एक जीव है तो क्या सभी संकटों से निपटने के लिये वह बिना ईश्वर की याचना के नहीं जी सकता ?


कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज की सामाजिक स्थिति में फंसे आदमी की कविता है. आज के आदमी का मनसिक द्वन्द कविता और उसके विस्तार में खूब उभर कर आता है. इसीलिये यह् मनुष्य के जटिल दर्शन , जटिल जीवन , विकास और इन सबसे उपजने वाले द्वन्द और मारकाट के बीच एक सम्वेदंशील मनुष्य की कविता है. जो एक अलग परिभाषा और शब्दावली खोज रहा है ताकि दुनिया को बचाया जा सके किंतु फिर भी आस्था की दुनिया के बरक्स खडा अपनी परिभाषा में अभी उलझा हुआ सा है .....................आने वाले समय में इस दौर के आदमी की उलझन और उसका दर्शन जब भी समझने की कोशिश की जायेगी .यह कविता उसमें मदद अवश्य करेगी


...............................................डा. अल्का सिन्ह

Thursday, March 1, 2012

अज्ञात - वास में है वह

जब भी लिखने बैठती हूँ कोई कविता
चुनती हूँ कोई विषय
बदहवास सी वह खडी हो जाती है सामने
आधी दुनिया का हरकारा बन
थम्हा देती है एक रुक्का और सदी भर का अखबार
‘अज्ञात - वास’ में है ‘वह’ कह

सबसे पहले उसके रुक्का पर नज़र गयी
‘मैं अज्ञात - वास में हूँ’
इस ‘मैं’ में हम सब शामिल हैं
लिखा है उसमें
मेरे अवचेतन पर जैसे कंकडी पड गयी हो रुक्के से
जैसे तन्द्रा से उठी होऊ अभी अभी
उचाट मन से अन्दर तूफानी हलचलों को ले
खडी हूँ सपाट
गुम हैं सारे शब्द

वह फिर सामने है इस बार खाली हाथ मौन की सशक्त भाषा ले
चुपचाप
मैं भी अंतस में एक गहरे सन्नते के साथ
खडी हूँ चुपचाप
दोनो के मौन आपस में बातें करते हैं
टकराते हैं प्रश्न
फूट पडता है एक प्रवाह
और वह शुरु हो जाती है घारा प्रवाह
‘अज्ञात वास’ के अर्थ के साथ
कहती है :

वह ‘अज्ञात वास’ में है
एक बरस से नहीं
कई सदी से
एक अंत हीन अज्ञात वास में
युद्धरत
और मैं


संतुष्ट नहीं हुई हूँ
अब तक लिखी किसी कथा से
संतुष्ट नहीं हुई हूँ
किसी व्याख्या से
बिल्कुल
संतुष्ट नहीं हुई हूँ
किसी भी तर्क-वितर्क से
आज तक


आज भी देखना है ये अज्ञात वास
तो देख लो
हर घर की खुली खिडकी से
घर के अन्दर का हाल
पढ लो यह अखबार
मिल जायेगा कच्चा चिट्ठा
एक एक सदी का और
एक एक पल का
पढ लो आकडे हत्या के, बलात्कार के
छले जाने के, घुटन के
रोज रोज बात बात पर पिटने के
हर जगह मिल जायेगा तुम्हें
एक अज्ञात –वास
जबरन दिया हुआ

क्या यह साहित्य और दुनिया का
सन्नाटा नहीं जब
एक हिस्से की कलम चुप रही हो
सदियों से और लिखा जाता रहा हो
उसका हिस्सा भी ‘उसकी’ कलम से
जो हिमयत में खडा हो
उसको दिये गये अज्ञात वास के ? ऐसे में तुम कैसे कर सकती हो विष्यांतर
जब सब कुछ बचा हो
तुम्हारे हिस्से का कहने को जब गाडी का एक पहिया
चलना ही नहीं सीख पाया हो
एक सदी से


देखना हो तो मुड कर देख लो
सारा का सारा वांग्मय
देख लो कथा कहानी
काव्य – महाकाव्य
सब जगह तुम हो पर तुम्हारी कलम नहीं
सब जगह तुम हो किंतु अपने गढे शब्दों से वंचित
सब जगह तुम हो किंतु .........अभी शेष है तुम होना
ऐसे में कैसे दे सकती हो प्रथमिकता
अपनी हिस्सेदारी के एवज में ?



किसी पिता ने नहीं पूछा
अपनी बेटी का अज्ञात वास
किसी भाई ने नही पूछा
अपनी बहन का अज्ञात वास
ना ही किसी पति ने कभी पूछा
अपनी पत्नी से उसका अज्ञात वास
क्या पूछा किसी पुरुष ने
प्रकृति से
कि कहा हो तुम ?
खडी है आधी आबादी लिखे जाने के इंतज़ार में
फिर कैसे ‘तुम्हारे हाथ’ की कलम
पहले कोई और गाथा ?


सुन रही हूँ सारे तर्क
हर बिन्दु पर सोच में हूँ
और
अभी हमारा सम्वाद जारी है
वक्त – बेवक्त ये चलता रहेगा
अनवरत
पर
मेरे हिस्से का
कहना अभी बाकी है
एक एक कर कहूँगी
इस
अज्ञात वास की कहानी
इस लम्बे
अज्ञात वास के बाद

.......................................अलका

Sunday, February 26, 2012

ऊँचे ओहदे पर बैठी वह

1.

दफ्तर के सबसे ऊँचे ओहदे पर बैठी वह
कई आंख को चुभती है दिन - रात
लोग अक्सर कहनियां सुनाते हैं
एक दूसरे को उसके अतीत की
और बताते हैं राज
उसके ऊपर वाली कुर्सी पर बैठने के
किंतु वह निरंतर काम में लग्न
तोडती जाती है हर बाधा और बनाती जाती है
नया मुकाम
अभी कल ही जब उसे एक नया ओहदा मिला
बन गयी है फिर से
एक नयी कहानी

2.

जब वह नयी नयी दफ्तर में आयी थी
हर रोज लोग उसके इर्द गिर्द
घूमते थे
हौले हौले मुस्कुराते थे
नयी बास मैडम है
एक दूसरे को सूचना देते थे
जैसे समझाते थे कि
महिला है तो काम कम ही जानती होगी
यह भ्रम धीरे धीरे टूटने लगा
जब
काम में माहिर इमानदार बास ने
हर रोज अपनी समझ का परिचय दे
काम का हिसाब देना और लेना शुरु किया
और बस तब से
किस्से ही किस्से और हज़ारों कहानियां
कभी उसके चरित्र की, कभी आदतों की
और कभी उसके मुस्कुराने के मतलब की

3.

आज उसके ही चरित्र पर गढे गये
किस्सों की कुछ चिन्दियाँ
उड्कर उसके कान तक पहुँची
हैरान नहीं है फिर भी
खडी है चुप सोचती
कि इतने किस्सों के बीच
क्या मैं ही अकेली हूँ ?
या वो सब हैं जिनके परों ने
अभी अभी फड्फडाना सीखा है ? क्या जडों पर वार करने वाली इन कुल्हाडियों के बीच
निढाल हो जाना होगा ?
या फिर इन कुल्हाडियों की धार को
हर रोज भोथडा करना होगा
मजबूती से ?
डरना –घबराना तो नहीं ही होगा
इन स्थितियों के बीच
तेज़ ना ही सही किंतु
चलना तो होगा ही इन छींटों से अने सने
बढने के लिये

4.

आज दफ्तर में मीटिंग रखी है
उसमें कुछ सवाल रखे हैं
सामने सबके
कि
कौन हूँ मैं?
क्यों हूँ यहां?
क्या करती हूँ ?
यह तौहीन किसलिये ? ये किस्से किसलिये ?
और मांग रही है जवाब
एक सन्नाटा पसरा है
मीटिंग खत्म है और सब
व्यस्त हैं सवाल का जवाब
खोजने में
एक दूसरे से पूछ्ने में
सवालों के जवाब ...........

.......................................अलका

Monday, February 20, 2012

चल आज से अपने मन की दुनिया शुरू करें

औरत हूँ , एक जहमत हूँ, फसाना हूँ सुना है
चल आज से अपने मन की दुनिया शुरू करें

वो कहते हैं अज़ीब जात है समझा नहीं कोई
चल आज उनकी नासमझी पर बातें शुरू करें

गुण जो भी है अपने वो दोष नहीं है
लगते हों कुछ को छोड अब रस्ता नया करें

पाप और प्रेम के गोलों में उलझने से बेहतर
इंसां हैं इस फितरत से रहना शुरु करें

कह दी है अपनी बात जितनी थी जरूरी
अब हक से ‘मेरा हक’ भी है कहना शुरु करें

कहती नहीं कि अब अपना ही सिक्का चलेगा
क्या होगी कहानी ये लिखना तो शुरु करें

पाया है जो भी अब तक अच्छा –बुरा वो भूल
आंखों में आंखें डाल आ अब चलना शुरु करें








...........................अलका

Wednesday, February 15, 2012

खुद को बटोरती हुए स्त्री की कविता

मैं लिखना चाहती थी एक कविता
मन के सबसे खूबसूरत भावों को समेट
खोजती रही उन्हें
कुरेद कुरेद
कहीं गुम हो गये थे
मिले ही नहीं
रात
चांद के साथ बैठ
पूछ रही थी उससे
कि कितनी रातें गुजारी थीं उससे बात करते
कितनी रातें सोयी नहीं
उससे साझा करते हुए
अपने भाव कि
कर सकूँ एक गुणा गणित
वो चुप सा मुझे देखता रहा
जैसे पहचता ही ना हो
सांझ भी मुकर गयी थी
मेरी जिन्दगी के
सबसे जरूरी पहरों को चुरा
बताने से कुछ भी
फिर तो
टहल आयी थी शहर का हर कोना
पूछ आयी थी चौक चौबारों से
पर
उसी तरह खाली हाथ लौट कर
यह सोचते सोचते
अपनी ही दहलीज़ पर
खडी हूँ विचारमग्न
कि
आत्म्विश्व्वस
खुद को बटोरते आदमी के
सिरहाने खडा
जीवन से कडी टक्कर के लिये
तैयार करता
एक बडा बल है
और
खुद को बटोरते हुए स्त्री की कविता
बिल्कुल
अधूरी है इस बल के बिना
.....................................अलका

Sunday, February 12, 2012

क्या है आलोचना के संकट से जुडे सवाल ....

इधर एक लम्बे समय से कई पत्र पत्रिकाओं में हिन्दी साहित्य में आलोचना के पक्ष को लेकर कई लेख पढे और कई टिप्पणियां भी देखीं. ‘समालोचन’ पर इस विषय को एक क्रमिक बहस के रूप में पढती आ रही हूँ. आज इसका आठवा अंक पढा. एक साहित्य प्रेमी सामन्य पाठक की हैसियत से जब मैं इस तरह की बहस से दो चार होती हूँ तो मेरे मन में कई तरह के सवाल उठते हैं. मैं उन सवालों के उत्तर तलाशती हूँ ना मिलने पर थोडी देर के लिये बेचैन होती हूँ और फिर चुप हो जाती हूँ क्योंकि पाठक के रूप में वह मेरे जीवन और चिंतन की प्राथमिकता नहीं है किंतु जैसे ही एक आलोचक की नज़र से इस बहस को देखती हूँ और पूरी बात को समझने की कोशिश करती हूँ तब वही सवाल मेरे आलोचक मन के सामने जैसे यक्ष प्रश्न से खडे हो जाते हैं, मन को उद्वेलित करते हैं, मन में उठने वाले सभी प्रश्नो पर गहनता से सोचने को मजबूर करते हैं और अक्सर प्रेरित करते हैं कि पूरी तठ्स्थता से इस बात को समझा जाये कि आलोचना आखिर है क्या? क्या महत्व है हिन्दी साहित्य में आलोचना का ? और आज क्यों अलोचना का संकट है जैसी बहस हो रही है ? यह भी कि क्या यह एक जरूरी बहस है ? यदि हां तो नये समय में आलोचना की दिशा क्या होनी चाहिये?
ऊपर के सवाल कुछ मूलभूत सवाल हैं आलोचना के संकट पर बात करने के लिये, उसे समझने के लिये और संकट है तो इस संकट से निपटने के लिये इन सवालों पर बात करना बेहद जरूरी है किंतु इन सवालों के साथ ही कुछ सवाल और हैं जो किसी पाठक मन में उठते है और जो उत्तर ना मिलने पर गुम हो गये से लगते हैं किंतु वह सवाल आलोचना के संकट पर बात करते हुए बेहद सार्थक और सारगर्भित भी लगते हैं यही कारण है कि इस पूरी बहस में कूदते हुए मैं कुछ और सवाल रखने की इच्छुक हूँ क्योंकि यह सवाल मुझे उतने ही महत्वपूर्ण लगते हैं जितने महत्वपूर्ण मेरे लिये ऊपर रखे गये सवाल हैं क्योंकि आलोचना और उसके संकट पर कई लेखों को पढ्कर एक पाठक के रूप में जिन सवालों ने मुझे घेरा उसमें सबसे पहला सवाल था कि किसी भी रचना की आलोचना अखिर क्यों की जानी चाहिये? फिर जैसे सवालों की झडी लगती चली गयी कि क्या इसलिये कि किसी भी रचना की आलोचना उसका जरूरी हिस्सा है? अगर हां तो किसलिये की जानी चाहिये ? और किसके लिये की जानी चाहिये? क्या उस लेखक और कवि के लिये जिसने अमुक कविता , लेख, कहानी या कुछ और लिखा है ? या फिर साहित्य की उस बिरादरी के लिये जो लेखक कवि या किसी संघ , संगठन का सदस्य हो? या फिर उस आम पाठक के लिये जिसका साहित्य से लगाव है और वह एक अच्छा साहित्य पढना चाहता है? या फिर यूँ ही की जानी चाहिये स्वांत: सुखाय के लिये ? तो यहीं से सवाल खडा होता है कि आखिर आलोचना है क्या? क्यों इस विधा का राज है हिन्दी साहित्य में ? और यहीं से सवाल यह भी कि आलोचना का संकट क्या है? अगर है तो यह संकट क्यों है और क्या इस संकट से उबरा जा सकता है और अगर उबरा जा सकता है तो उसकी दिशा अब क्या होगी क्या होनी चाहिये.
अपनी बात कहने से पहले मैं कुछ बातें इस बहस में पहले बात रखने वाले लोगों की करना चाहती हूँ पिछ्ले 8 अंकों में जिन लोगों ने अपनी अपनी बात रखी है उसमें जिन तीन लोगों का जिक्र मैं यहां विशेष रूप से करना चाहूंगी उसमें गोपाल प्रधान, जगदीश्वर चतुर्वेदी और मीणा की. इन तीनो ने आलोचना के संकट को लेकर जो विचार रखे हैं वो उसके कुछ बिन्दु एक आलोचक के रूप में अनायास ही मेरा ध्यान खीचते हैं. गोपाल प्रधान अपने लेख में आलोचना के संकट पर बात करते हुए इसे ‘इवेंट मैनेजमेंट सा है’ कहते हैं. जगदेश्वर चतुर्वेदी स्त्री सन्दर्भ से जुडे सवाल की बात करते हैं और मीणा आलोचना के इतिहास के सवाल पर पैने प्रहार करते हैं और मुझे तीनो बातें आलोचना के लिहाज़ से मार्के की लगती हैं. गोपाल के इवेंट मैनेजमेंट वाला आरोप हिन्दी में आलोचकों की साहित्यिक जमात पर एक बहुत गहरा आरोप है और अगर इस आरोप का कायदे से विश्लेष्ण किया जाये तो बात बहुत दूर तलक जाती है किंतु मीणा की बात का मतलब समझने पर हिन्दी आलोचना के पूरे परिदृश्य के पुनर्विचार पर बात अटक जाती है. यदि गंभीरता से देखा जाये तो इस पुनर्विचार की कवायद आलोचना क्या है की पड्ताल से ही आरभ होती है. यही वजह है कि सबसे पहले मैं उस मूल सवाल पर बात करना पसन्द करूँगी कि आलोचना आखिर है क्या ? और साहित्य में इसका महत्व क्या है ? यह बहुत ही महत्व्पूर्ण सवाल है हर पाठक और हर आलोचक के लिये.
अगर आलोचना को समझने की कवायद के साथ बात अपनी समझ से शुरु करूँ तो लम्बे समय तक मैनें एक पाठक के तौर ही साहित्य को समझा और जाना है. कई बार किसी आलोचक की नज़र से ही रचनाओं को समझने की दृष्टि पैदा की है , उसी समझ से रचना और उसके अंदर के बिन्दुओं को विस्तार से समझा है इसलिये समझ पाती हूँ कि आलोचना और पाठक का रिश्ता क्या है और एक रचना , पाठक और आलोचना का त्रिकोण क्या है. अपने स्कूल के दिनो में पाठ्य क्रम की कविता का अर्थ, कहानी का अर्थ लिखने और समझने से इसकी शुरुआत हुई थी. उस समय प्रसाद की कामायनी के अंश , महादेवी की कविताओं के अर्थ और निराला को जिन आलोचनाओं से समझा और अन्दर उतारा था उसने कविता , कहानी, रेपोर्ताज़, नाटक आदि विधाओं को समझने का प्राथमिक ज्ञान दिया था मुझे. किंतु जैसे जैसे बडी होती गयी साहित्य की विधाओं पर आलोचना को लेकर मेरी अपनी दृष्टी विकसित होती गयी और आज जीवन के 20 25 साल के बाद मेरी दृष्टि जब किसी कविता , कहानी , किताब आदि पर पडती है तो मैं उसे अपनी नज़र और अपनी समझ से देखने की कोशिश करती हूँ इसी लिये विवेचना का मेरा नज़रिया और तरीका भी अपना है. अब जब हिन्दी आलोचना जगत पर एक पाठक के तौर पर निगाह डालती हूँ तो लगता है कि हिन्दी आलोचना उस रफ्तार से नहीं बदली जितनी रफ्तार से दुनिया, कविता और हम बदल गये. आप देखें कि पिछले 20-30 सालों में कविता की दुनिया, कहानी दुनिया में जिस तेजी से बदलाव आया है , उसके विषय जिस तेजी से लोगों के सामाजिक आर्थिक सन्दर्भों और दुनिया के अन्य विष्य्पं से जुडे हैं उसने कई तरह के संकट आलोचकों के सामने पैदा किये हैं. सबसे पहला और बडा संकट है कई तरह के पूर्वाग्रह. दूसरा बडा संकट है बदलते सामाजिक आर्थिक सन्दर्भ के साथ आलोचना की दिशा और गति को साथ लेकर चलना. स्त्री, दलित विमर्श जैसे विषयों पर आलोचकों की सतही समझ और सबसे महत्वपूर्ण है और बडा संकट है रचना के काव्य पक्ष के इतर जुडे अन्य विषय के साथ उसे जोड पाने में आलोचक की मंशा / ज्ञान का संकट जिसने आलोचकों को कटघरे में खडा किया है. हिन्दी आलोचना पर बात करते हुए कई लोग कहते हैं कि, हिन्दी आलोचना ने अपनी कलम की धार में उस पैनेपन को धारण नहीं किया और उस विस्तार को समझने की या तो कोशिश नहीं की है या फिर उस कूवत को पैदा करने से वंचित रह गये बदलते वक्त में जिसकी जरूरत थी. हिन्दी के पाठकों की यह आम धारणा है कि हिन्दी आलोचना पिछले कई दशक से न केवल एक तरह की एकरसता का शिकार रही है बल्कि उसकी अपनी एक खास सोच और समझ रही है. जिसे हम एक तरह की जकडन कह सकते हैं. यह जकडन कई बार एक तरह की जडता का भी आभास कराता है. यह जडता आलोचना के पूर्वाग्रहों का ही एक रूप है. मैने एक समय तक कई बार मह्सूस किया है कि हिन्दी आलोचना में भाषा के पान्डित्य का कुछ खास दबदबा रहा है जो सामान्य पाठक को साहित्य से दूर करने के साथ साथ आलोचकों की बिरदरी को एक तरह के दम्भ से भर देता रहा है. अक्सर् रचना, रचना पर लिखी गयी आलोचना/समीक्षा पाठक को विषय वस्तु से इतर अपनी गूढ भाषा और उसके लालित्य में उलझाती रही है. अक्सर आभास कराती रही हैं कि आलोचक जो भाषा लिख रहा है वो किसी खास वर्ग , पाठक और दुनिया के लोगों के लिये है. आभास यह भी होता रहा है कि आलोचना का दायारा बहुत छोटा और नीरस है जिसे आवश्यक विस्तार की आवश्यकता है.
मेरे हिसाब से पाठक अगर यह अनुभव करते हुए कहने का साहस करता है तो यह अनायास नहीं है बल्कि यह ध्यान से सोचने और समझने वाला विषय है क्योंकि हिन्दी साहित्य के सामने जो संकट है उसमें आलोचना के संकट से बडा संकट पाठ्क के कम होने का भी संकट है और यह संकट कहीं ना कहीं आलोचना के संकट से जुडा हिस्सा ही है क्योंकि आलोचना का मतलब एक पाठक के तौर पर जो मैं देखती हूँ वह मुझे इस बात के लिये खोजी बनाता है कि कविता या कोई भी रचना क्या लेकर हमारे सामने खडी है? जब मैं एक आलोचक के रूप में किसी रचना से जुडती हूँ तो मैं उस रचना के कई बिन्दुओं पर निशान लगाती हूँ और समझने की कोशिश करती हूँ कि अमुक कविता , कहानी या कोई किताब किन – किन बिन्दुओं को लेकर पाठक के सामने है, रचनाकार किस मंशा और किस भाषा के साथ हमारे सामने है. और तब एक आलोचक या समीक्षक के तौर पर अपनी समझ के साथ उन बिन्दुओं को विस्तार देने का प्रयास करती हूँ ताकि साहित्य से प्रेम करने वाला वर्ग उस रचना तक ना केवल पहुंचे बल्कि उसे मेरी कलम से पढते हुए अपनी तरह से भी समझे. किंतु इसके साथ ही मेरे लिये आलोचना के कई मायने और भी हैं और कई उत्तरदायित्व भी. यह उत्तरदायित्व बोध मुझे पाठक , रचनाकार और भविष्य की रचना प्रक्रिया सभी से जुडा हुआ लगता है. जब भी मैं किसी रचना हाथ में लेती हूँ तो सबसे पहले उस वक्त के लिये रचनाकार से अपना मानसिक सम्बन्ध तोड सिर्फ रचना, उसके कथ्य और उस रचना की विषय वस्तु और उस रचना विशेष से जुडे कई तत्व और तथ्य पर अपने को केन्द्रित करती हूँ. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, विज्ञान,इतिहास भूगोल और राजनिति समाज जैसे तमाम अन्य विषयों के सन्दर्भ यदि रचना के वितान में छुपे हैं तो उसे सामने लाने की कोशिश होती है किंतु मेरी आलोचना का सबसे मुख्य बिन्दु रचना और समाज से उसके सम्बन्ध को ध्यान में रखकर होता है क्योंकि कोई भी रचना का भाव समाज और उसके लोगों से इतर नहीं होता. यही वज़ह है कि कई मित्र कहते हैं कि आप कविता में समाजशास्त्र देखती हैं. इमानदारी से कहू तो मुझे हिन्दी आलोचना में भाषा लालित्य की प्रधानता , उसके गूढता की प्रमुखता से कोई ऐतराज नहीं है किंतु जब भी किसी कविता या कहानी की कोई आलोचना उस रचना के साथ न्याय नहीं करती और सिर्फ कथ्य, उसके शिल्प और भाषा लालित्य की बात करती है तो एक तरह की खीझ होती है. कई बार आलोचक और उसके ज्ञान पर सवाल खडा करने को मन होता है. कई बार विचार आता है कि क्या आलोचना करने का कोई और भी तरीका होता है ? क्या किसी रचना को देखते –समझते हुए उसके साथ सम्झौता किया जा सकता है ? और अगर है तो क्या गोपाल प्रधान उसी की बात कर रहे हैं? अगर हां तो निश्चय ही यह आलोचना का बडा संकट है जिसने आलोचना की धार पर वार किया है.
ऐसे में गुस्ताखी करते हुए अगर कहूँ तो मुझे लगता है कि हिन्दी जगत के आलोचक कई बार या तो आलोचक के रूप में उस दृष्टी से महरूम रहे हैं जो आवश्यक है या फिर वह उस दृष्टि से बचना चाहते हैं/या दृष्टि को उतना विस्तृत नहीं कर पाये जो हिन्दी की समीक्षा/ आलोचना के संसार को अधिक अर्थवान, आकर्षक और सार्थक बनाता. साथ ही वो आलोचना को पाठक से अधिक विद्वानो की चीज जैसे नजरिये से देखते रहे जो आलोचना को नीरस, कम उपयोगी और पाठक विरक्त बनाता है. तो अगर निर्भीकता से कहा जाये तो यह हिन्दी आलोचना का पहला और बडा संकट है कि उसने अपने दायरों से अभी तक उन विषयों को दूर रखा है जिसे समाहित करने से न केवल हिन्दी साहित्य बल्कि आलोचना के क्षेत्र उसकी दिशा और दशा में बदलाव आयेगा बल्कि वो पाठक भी इस तरफ आयेंगे जो कुछ विशेष के लालच में अन्य भाषाओं की तरफ मुखातिब होते हैं. दूसरी महत्व्पूर्ण बात जो मुझे यहां कहते हुए संकोच नहीं है वो ये कि आलोचना के क्षेत्र ने तठस्थता और निर्भीकता के साथ समझौता कर अपनी मूल प्रवृत्ति पर कुठारा घात किया है जिसने हिन्दी आलोचना को दोयम दर्जे पर ला खडा किया है. इतना ही नहीं हिन्दी के समीक्षकों/आलोचकों ने स्त्री और दलित विमर्श को कभी उस रूप में नहीं लिया जिस रूप में लेने की आवश्यकता थी.
गोपाल प्रधान की इस बात के मद्देनज़र मुझे बरसों पुरानी एक बात याद आती है जिसका जिक्र यहां मुझे बहुत प्रासंगिक लगता है. सन 1999 में जब मैने अपनी थीसिस विश्वविद्यालय में सबमिट कर दी तब एक फैसला लिया कि अपना खर्च खुद उठाउंगी और भोपाल चली गयी काम खोजने . वहां काम के नाम पर मुझे एक संस्था से किताबों पर छोटे –छोटे नोट लगाने का काम मिला , 400 पन्ने की एक किताब पर 2 पेज के नोट के लिये मात्र 3 – 4 घंटे का समय और देखा जाये तो 10 से 5 के बीच 2 किताबें निपटाना . मुझे यह काम आसान नहीं लगा और मैनें मना कर दिया. मेरे मना करने पर मेरे उपर जिन लोगों ने काम का दबाव डाला उनके शब्द थे: अरे ! तुम्हारा क्या जा रहा था. कुछ भी लिख देतीं. तुमको अच्छे भले पैसे मिल रहे थे . ले लेतीं...... पर मैं नहीं मानीं क्योंकि अपने हुनर के साथ समझौता मुझे पसन्द नहीं था किंतु आज जब आलोचना के संसार पर नज़र जाती है तो लगता है शायद इसी तरह की स्थितिओं ने आलोचना के क्षेत्र पर राज करना शुरु कर दिया है जिसने जैसे एक नेक्सस बना दिया है किंतु इन सबके बीच आलोचना का संकट आज सिर्फ इतना ही नहीं है. कई और तत्व हैं जिसने आलोचना के संसार को आज के दौर में बौना किया है. यह सोचने वाला विषय है कि और क्या क्या शामिल है इस संकट में?
मुझे लगता है आलोचना के क्षेत्र में पुराने आलोचकों के आलोचना के तरीके, उनके काल खंड की सोच का दबदबा आज भी कहीं ना कहीं बना हुआ है जिसने आलोचक की क्षमता, उसके ज्ञान और उसकी मंशा पर बडा सवाल खडा किया है यही कारण है कि आलोचना के दायरे के साथ आलोचक के नज़रिये और उसके ज्ञान के दायरे पर भी शक और सुबहा आलोचना के संकट को बहुत बडा कर देती है मेरे कहने का मतलब आलोचना में ना तो वह विस्तार आया ना ही वह गति और ना ही नये विषयों को सजग और सम्वेदंशील दृष्टि से देखने की जिद्दोजहद ही हुई और इस सबके पीछे बात आलोचक की मंशा और ज्ञान पर ही आकर अटक जाती है. आलोचना के इस खित्ते पर बात करने से पहले जरूरी है हम थोडा सा ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ की पुरानी बात को नये अन्दाज में समझ लें और इस रिश्ते के प्रकाश में आलोचना और साहित्य को देखें. यदि बीसवीं सदी पर ध्यान से नज़र डालें तो यह पूरे तौर पर बदलावों की सदी रही है. राजनीतिक बदलाव भी इस सदी में कम नहीं हुए पर साथ ही साथ य हिन्दी साहित्य के लिहाज़ से भी बदलाव की सदी रही है. इस सदी के प्रारम्भ में जहां देश में सामाजिक आन्दोलन हो रहे थे वहीं प्रमुखता से आज़ादी की लडाई भी देश एं चल रही थी और अंतर्राश्ट्रीय परिदृश्य भी उतना ही विकट था. दो दो महायुद्ध , उसके बाद के बदलाव. किंतु अगर गौर करें तो इस दौर का सामाजिक बदलाव सब्से क्रंतिकारी था. यह भारत के अन्दर ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर होने वाले आन्दोलन और् बदलाव ध्यान खीचने वाला था. भारत के अन्दर जो अन्दोलन सबका ध्यान खीच रहे थे वो थे नारी अन्दोलन और दलित आन्दोलन. इस दो अन्दोलनो जैसे पूरे भारत की दिशा और दशा बदल दी. मिल के व्यक्ति वादी सिद्धांत ने इस दौर में अपने पूरे प्रभाव के साथ का करना शुरु किया था इसलिये समाज में व्यक्ति के महत्व उसके अधिकार और उसकी व्यक्तिगत स्थिति पर भी समाज में बात होने लगीं थीं. मसलन स्त्रियों के दुख पर प्रेम चन्द ने खूब बात की है यह अलग बात है कि उसपर अपने समाधान भी दिये हैं किंतु साहित्य में बात होने लगी है. बटवारे की बात करते हुए उस दौर के अधिकतम कहानी कारो जैसे कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम और मंटो ने युद्ध काल में औरत की स्थितियों का चित्रण किया है. आप देखें कि इस सदी के उत्त्रार्ध तक आते आते सभी आन्दोलन अपना असर दिखाने लगे और समाज को यह मजबूर करने लगे कि वो एक बडे मानवीय आलोक में समाज, मनुष्य और उनके सम्बन्धों को देखें. यही कारण है कि हिन्दी साहित्य में कहने के तरीके बदले, तेवर बदला और नयी – नयी विधायें आयीं. पर आलोचना ?
अभी ‘बहसतलब’ के कल आये लेख में अविनाश ने बहुत विस्तार से इस सदी की आलोचना का गहरा और संजीदा विश्लेषण किया है इसलिये मैं अपनी बात सिर्फ स्त्री विमर्श और स्त्री लिखित रचनाओं की आलोचना के सन्दर्भ में ही कहूँगी. इस पूरी सदी के हिन्दी लेखन का विश्लेषण किया जाये तो इस सदी में बहुत सी लेखिकाओं और कवियत्रियों ने इस पूरे काल में हिन्दी को समृद्ध किया है, मैं कुछ बहुत बडी लेखिकाओं और कवियत्रियों की बात यदि यहां करूँ तो उसमें तीन नाम मुझे बहुत आकर्षित करते हैं- महादेवी, अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती. (नाम और भी हैं किंतु उनपर बात किसी अन्य स्त्री केन्द्रित लेख मे.) इस तीन का नाम इसलिये क्योंकि यह तीनो ही सबसे चर्चित और सबसे अधिक पढी जाने वाली लेखिकायें रही हैं हिन्दी महिला पाठकों के बीच. यहां नाम आशापूर्णा देवी का लिया जा सकता है जिनके प्रथम प्रतिश्रुति और बकुल कथा के अनुवाद को हिन्दी महिला पाठक उतना ही पसन्द करती आयी हैं जितना उपर जिक्र की गयी तीनो रचनाकारों को. पर बात अगर इन महिला रचनाकारों की रचना पर की गयी आलोचना पर की जाये तो शायद ही किसी आलोचना ने इनकी रचनाओं को ठीक से समझा और विश्लेषित किया है. यहां सिर्फ यदि एक उदाहरण लूं महादेवी का तो बात को आसानी से समझा जा सकता है किंतु बटवारे का दर्द अपनी कलम से उकेरने वाली दोनो अन्य लेखिकाओं पर भी किसी ने उतनी शिद्दत से कोई आलोचना नहीं लिखी जितनी संजीदगी से रचनायें हमारे समने अपने दृष्य, जटिलता और उस वक्त विषेश का साक्ष्य लेकर हमारे सामने आती हैं. आखिर ऐसा क्यों हुआ ? क्या हिन्दी के आलोचकों ने जानबूझकर ऐसा किया ? या फिर आलोचक रचनाकार की क्षमता के आगे नतमस्तक हो हार मान गये?
बात को अगर समझने की कोशिश की जाये और तीनो प्रश्नो के उत्तर तलाश किये जायें तो कुछ बातें सामने आती हैं. पहली बात तो यह कि हिन्दी आलोचना समाज जनित पूर्वाग्रहों से अपने को मुक्त करने में अक्षम रही है. यह पूर्वाग्रह स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को लेकर साफ साफ दिखता है. दूसरी बात जो समझ में आती है कि आलोचना के क्षेत्र में ना केवल पुरुष वर्चस्व रहा है बल्कि सोच के स्तर पर यह एक तरह से पूरी तरह हावी भी रहा है. इतना ही नहीं हिन्दी आलोचना में आज तक स्त्री को लेकर आपेक्षित समझ का भी पूरा अभाव रहा है. सच्चाई यह भी है कि हिन्दी जगत की अलोचना ने स्त्री के पूरे विषय को या तो समझने की जरूरत नहीं समझी या फिर उसे नजरन्दाज किया है. मुझे याद है मैने अपने अध्ययन काल में सुरेन्द्र वर्मा लिखित एक बहुचर्चित उपन्यास पढा था ‘’ मुझे चांद चाहिये’’ उसकी जितनी भी समीक्षायें एक पाठक के रूप में मैनें पढी किसी से संतुष्ट नहीं हुई क्योंकि सभी समीक्षायें इस उपन्यास के सन्दर्भ को लेकर जो माँग करती थीं उसके विपरीत स्त्री के प्रति कहीं ना कहीं एक परम्परागत सोच से लिखी गयी थीं जबकि इस किताब की आलोचना वास्तव में एक ऐसी अलोचना हो सकती थी जो स्त्री विमर्श को लेकर मील का पत्थर साबित होती. इसको महादेवी की रचनाओं पर लिखी गयी समीक्षा से भी समझा जा सकता है. आप देखें कि एक जीवित स्त्री जिसके जीवन में अकेला पन है ............ कहती है कि ‘मैं नीर भरी दुख की बदरी उमडी कल थी मिट आज चली’ ........... को आलोचक आधुनिक मीरा कह देते हैं. अगर बात हो रही है तो मीरा की भी बात कर लेते हैं क्या मीरा का कान्हां प्रेम एक स्त्री के जीवन की सामन्य अवस्था थी? क्या मीरा के साहित्य को एक अलोकिक प्रेम का साहित्य कह उसकी वास्त्विकता को नकार देना चाहिये? क्या मीरा का पूरा सहित्य उस दौर की स्त्री की जकडन का चित्र उपस्थित नहीं करता? और आप देखें कि मीरा के कितने सौ साल बाद भी एक स्त्री के प्रेम के उद्गार को नकार कर उसे मीरा कह देना आलोचक के स्त्री सन्दर्भों की समझ पर बहुत बडा सवाल नहीं खडा करता ? यह आभास नहीं कराता कि समाज के साथ साथ प्रबुद्ध कहा जाने वाला साहित्यिक समाज भी औरत की स्थिति से अपने को जोड पाने में अक्षम रहा है? कुछ इसी तरह की स्थिति दलित सन्दर्भों की भी रही है. आलोचकों की कलम ने दलित विमर्श के हिस्से को भी उस तरह से समझने से इंकार कर दिया जिस तरह से स्त्री विमर्श को. हमारी सामाजिक विसंगतियों, दलित समाज के सामाजिक अर्थिक सन्दर्भ, उनकी अपेक्षायें, और उनके राजनीतिक समझ और चिंतन को जानने साझने में भी हिन्दी के आलोचकों से चूक हुई है जो कहीं ना कहीं आलोचना की समाजिक समझ पर सवाल उठाता है. पर मजे की बात यह है कि दलित विमर्श के आलोचको के यहां भी स्त्री विमर्श उपेक्षित ही रहा है.
इस सभी बातों के बीच जो एक महत्वपूर्ण सवाल है जिसपर साथ साथ चर्चा कर ही लेनी चाहिये कि आलोचना किसके लिये होनी चाहिये ? इस सवाल को मैं इस लिये महत्वपूर्ण समझती हूँ क्योंकि मुझे रचना, आलोचक और पाठक का एक गहरा त्रिकोण हमेशा नज़र आता है और मैं उस त्रिकोण को सहित्य का सबसे जरूरी पक्ष मानती हूँ और इस त्रिकोण के एक स्तम्भ में किसी भी तरह की कमजोरी पूरे साहित्य की चूल को हिलाने के लिये मुझे काफी लगती है तो उसे बचाने या फिर यों कहें कि उस संकट को समझने के लिये इस प्रश्न पर भी चर्चा करनी ही होगी.
पिछले दिनो हिन्दी को लेकर जो एक गहरी चिंता जाताई जाती रही है वह है हिन्दी में लगातार पाठकों की संख्या के कम होने को लेकर है. यह सच भी है कि हिन्दी के पाठक लगातार कम हो रहे हैं. इसके बहुत से कारण हैं किंतु एक कारण जो आलोचक कर्म से गहरे जुडा है वो है बदलते वक्त के साहित्य को सही तरीके से और सही सन्दर्भ में पाठको के सामने रखना. आप यदि अकेले कविता के संसार को देखें तो आज की कवितायें पाठक के सामने लच्छेदार भाषा से अलग बहुत बौद्धिक और प्रेम से इतर विषयांतर के साथ आपके सामने आती हैं. नये परिवेश, नये बिम्बों और नयी शैली में लिखी जा रही इन कविताओं को पाठक के साथ सम्वाद बैठाने में कई दिक्कतों का समना करना पड रहा है. अब ऐसे में आलोचक की भूमिका ना केवल एक सेतु सी है बल्कि ऐसे भाष्य्कार की है जो ना केवल रचना से पाठक का सम्वाद बैठाने में मदद करता है बल्कि कविता के सही रहस्य को भी खोलता है किंतु दुर्भाग्य से ऐसा बहुत कम ही देखने को मिल रहा है. ऐसा नहीं है कि पाठक रचनाओं को समझने में अक्षम है किंतु कहीं ना कहीं तमाम पाठकों से कविता को जोडने के लिये यह जरूरी है. यही वज़ह है कि आलोचना साहित्य के क्षेत्र का एक मजबूत सतम्भ है.
कुलमिलाकर देखा जाये तो हिन्दी आलोचना का क्षेत्र कई कारणों से लगातार सवालों के घेरे में रहा है. यह सभी सवाल उसे जहां एक तरफ कमजोर दर्शाते हैं वहीं इस बात का आभास भी कराते हैं कि आलोचना हिन्दी की एक मजबूत कडी है और से अपने सभी प्रश्नो से जूझने की आवश्यकता है और यदि इन प्रश्नो से सही तरीके से निपटा गया तो आने वाले दिनो में हिन्दी को ना तो पाठको की कमी का सामना करना होगा और ना ही बेहतर लेखन और रचनाओं का.

.......................................... डा. अलका सिंह

Friday, February 10, 2012

भूल गयी थी कुछ तुमसे प्यार करते करते

तुमसे प्यार करते करते
भूल गयी थी कुछ कूट विचार
माँ के
जो याद आये हैं बरसों बाद आज
पीछे मुड्कर देखते हुए कि -
डांटती नहीं हूँ मैं
ना ही रोकती हूँ दुनिया देखने से
बस आगाह करना चाहती हूँ एक औरत को
जो बनाने जा रही है एक रिश्ता
घर के बाहर और उडने की कोशिश में है
एक घोसले के जिसके तिनके तिनके को वो
खोजेगी, बुनेगी और सहेजेगी
बताना चाहती हूम उस औरत को कि
ये घर से बाहर बनता हुआ एक ऐसा
रिश्ता है जो
अनुभूति के साथ हर रोज बढता है
सवंरता है , आकार लेता है और गुम हुए से लगते है
कई अर्थ
पर सच में ऐसा होता तो क्यों कुरेद कर कुरेद कर
पूछती तुमसे और बार बार सवाल करती ?
समझाती रही है वह मुझे कि
यह शीतल है जैसे चांद की रोशनी
कोमल है जैसे गुलाब की पंखुडी
मदमादा है जैसे महुए का नशा
किंतु चांद के दाग , गुलाब के कांटों और
महुए के नशे का भी एक सह है
और यही सच धीरे- घीरे
सामने आता है
यह बताने के लिये खडी हूँ तेरे आस पास
कि जब भी तू दहलीज़ के बाहर
कहीं जुडेगी तो जीयेगी कुछ वैसा ही
जिससे गुजरती रही हूँ मैं
इसलिये उतरने को बेताब हूँ तुझमें विचार बन
कि हुनर सिखा सकूँ
नये समय में स्त्री होने का
बता सकूँ कि जना है जिसको औरत ने
वह मालिक बन जाता है एक वक्त के बाद
क्योंकि औरतें खोजाती रहीं हैं अपने उस मालिक को
कभी चांद से बातें कर
कभी शाम में अकेले खुद से बुदबुदाते हुए
और कभी प्रेम गीत गाते हुए
डूब जाती हैं एक ऐसी दुनिया में
जहां सब प्रेम में डूबा उसका
अपना संसार है
जानते हो –
तुमसे प्रेम करने की यात्रा में
माँ के कूट वचन को बेमानी समझ
झटक आयी थी उसी के द्वार
पर आज सच में गुलाब के उस कांटे ने
डसा है पहली बार
सोच रही हूं उठा लाऊँ वो पोटली
और बीन लूँ सारे कूट
अपनी बची यात्रा को नया कर जीने और
अपनी जवान होती बेटी के अन्दर
विचार बन उतरने के लिये

..................................अलका

Friday, February 3, 2012

हो रहा है सच का सामना

एक देश बंटा
बंटकर दो हो गया
लोग बंटे और
बंटकर दूर खडे हो गये
जैसे दुश्मन हों आमने – सामने
फिर
भाषा बंटी, कानून बंटा तोप बंटी तलवारें और बन्दूकें भी बंटी
बित्ते बित्ते का हिसाब हो गया
और
खिंच गयी एक लकीर
बन गयी एक सरहद
खिंच गयीं तलवारें , तन गयी संगीने

पर
उस सरहद पर आज भी कुछ दिखता है
लगता है जैसे
कुछ सुर्ख आंखें इस पार से उस पार तक
खोजती हैं रिश्ते,घर और यादों से बिन्धा अपना
बचपन
और अल्लाह की शान में गाती हैं नातिया

कुछ हाथ दिखते हैं उठे हुए सलामती के लिये
सर झुके हैं बहुत से
और लब तरबतर आंसुओं से
बुदबुदाते
न जाने कब से वहीं के वहीं हैं
वो आंखें वो हाथ वो लब वो आंसू
उस दुनिया की हैं
जो सरहदों के पार भी एक सी पसरी पडी है
जी हाँ, उस औरत की दुनिया
जो नहीं बंटी और
पडी है पहले सी साबूत
खंड खंड टूटती बूद-बूँद रिसती और
छन्न –छन्न बिखरती

कल दस्तक दी थी
मेरे कमप्यूटर पर
सरहद पार की जिन्दगी का खाका लेकर आयी
सखियों ने
पहली दुआ सलाम के साथ एक हो गयी थीं हमारी बातें
एक हो गया था जीवन, एक हो गयी थी भाषा, एक हो गयी थी जिन्दगी हम चाहते थे
एक सा कानून
एक सी भाषा
और एक ऐसा देश जो हमारा हो

वह रूबिना थी ब्याह के गयी है सरहद पार
बडी हसरत से आयी थी इस पार
पर क्या पता था कि
जिन्दगी कुछ और उलझने लेके आयेगी
क्योंकि वो हर वक्त तिरंगे पर ठहर कर सोचती है
के क्या करूँ इसका जो दिल में बसा है
क्या करूँ ?
वह फातिमा है जो बार – बार
चांद सितारे वाले उस हरे झंडे को अपलक निहारती है
और कभी कभी फफक फफक कर रोती है
और सरहद पार से
कबूतरों के आने का इंतजार करती है
कबूतर भी धोखेबाज आते ही नहीं

सईदा तलाकशुदा है अकेली इसपार इंतज़ार में है अपने बच्चों के
जाने कब देखेंगी उसकी आंखें अपने ही जनों को
क्योंकि कानून से वो बच्चे उसके नहीं
उसपर उसका हक कम और देश का ज्यदा है

सफिया और रूबी दोनो ननद भावजें हैं
दोनो के बच्चे उनके नहीं हैं एक इस पार का है
एक उस पार का
दोनो सरहदों के सिपाही हैं
उनकी आंखें झुकी हैं अल्लाह की शान में

मैं कब से सुन रही हूँ ये अंत हीन कथायें
अंतहीन दुख
स्क्रीन कहे जाने वाले इस यंत्र पर
जान रही हूँ सरहद पार का सच


और समझ रही हूँ औरत और देश होने का सच
कल एक और बच्ची ने खटकाया था दरवाजा
क्लिक कर के
वो एक और सरहद की दास्तान लेकर आयी थी
अपनी जुबान में
हम दोनो ने बातें की
अपनी जुबान में
जी हाँ अपनी जुबान में
उसने बांटा अपना बहनापा
कि वो रोज लाठियों से पीटी जाती है कमप्युटर छूने के कारण वो लोज गाली खाती है
पढने के कारण
और वो रोज मारी जाती है
बेह्तर ढंग से
रहने के कारण
पर जीती है आंखओं में सपने ले
कि एक दिन बदलेगी उसकी भी दुनिया

सच कहूँ तो मैं जान रही हूँ
औरत की दुनिया को
हर रोज
करीब से जैसे
हो रहा हो सच का सामना
हर पल, हर दिन
बार – बार

.................... अलका

Friday, January 20, 2012

एक नदी का जख्म

माना कि
हम
उसे पूजते रहे हैं सदियों
पर
अब भी सब अनजान हैं
कुछ बातों से
और सबके नाम लिखी उसकी एक पाति से
जिसमें लिखा है
उसका बचपन , यौवन और सुनहरे दिन
अंतिम अध्याय
अथाह दर्द और
अग्रह से भरा है
यह वसीयत है एक नदी की
जिसे पढकर
गयी थी उसके पास मिलने
हुलस कर नहीं आयी वो
मेरे पास पहले की तरह
दूर से ही
घुटनों पर खडी हुई
निहारा
और वहीं पसर गयी
इतनी वेदना !!
इतना अश्य दर्द !!!!
सोच ही रही थी कि उसने
बुलाया, कहा कि
फुर्सत से आओ
तो कभी बात हो
दिल खोलकर
तो दिखाऊँ अपना जख्म
मुझे पूजने से पहले इसे
देखना जरूर
एक बार
यह भी देखना कि
इतने साल कैसे रही हूम मैं
और कितना सहा है
व्यवभिचार
माँ थी मैं ऐसा सब कहते थे
फिर भी बालात होता रहा ये
अत्याचार
मुझे पूजने से पहले
सुनना जरूर एक बार
जानती हूँ मृत्यु के कगार पर हूँ अपनी पीडा से अधिक इस पीडा में हूँ
कि मेरे जाने के बाद फिर जुलसेगी ये भूमि
और इंतज़ार करना होगा
सगर के पुत्रों को
सदियों एक भगीरथ का
.......................... अलका

Thursday, January 19, 2012

अदम होने का मतलब

अदम को श्रद्धांजलि देते हुए एक लेख लिखने की कोशिश कर रही हूँ और सोच रही हूँ कि क्या विषय चुनूँ जो उनके रचना संसार का सबसे शानदार पक्ष हो सबसे जानदार पहलू. सच कहूँ तो हज़ारों बार उनकी कविताओं को पढा है, दिल से पढा है. खूब वाह- वाही भी की है. दोस्तों को उनके शेर सुनाकर उनके बीच अदम गोंडवी को जानने पर काँलर खडा किया है किंतु आज जब उनकी कविताओं से गुजरी रही हूँ तो सोच में पड गयी हूँ कि उनके काव्य संसार से उनका कौन सा पक्ष सबसे मजबूत है जिसे विस्तार दूँ इस लेख में. आज मह्सूस हो रहा है कि कितना मुश्किल होता है एक कवि के न रहने पर उसकी कविताओं पर कलम चलाना.
अदम मेरे कुछ बेहद पसन्दीदा शायरों में से रहे हैं इसलिये मैं इस समय दोहरी कठिनाई से गुजर रही हूँ. ऐसा इसलिये नहीं कि मैं उन्हें नायाब हीरा सिद्ध करने की कोशिश में हूँ बल्कि सोच रही हूँ कि क्या इस कवि को आज तक जो समझ पायी थी उनपर लिखने के लिये उतना काफी है? क्या मैं लिख पाउंगी कुछ ऐसा जो अदम के लिये अदम की आवाज़ में होगा? यह सवाल एक बडा सवाल है क्योंकि पिछ्ले कुछ दिनो में मैने अदम को जितना पढा है उतना ही उनपर लिखे आलेखों को भी पढा है. इसलिये दो चार शब्द जो उनकी रचना के इर्द – गिर्द मेरे कान में गूंज रहे हैं वो हैं – जनवादी कवि, गंवई कवि, समाज वादी कवि आदि आदि. सच कहूँ तो मुझे उनको गंवई कहा जाना हमेशा से खटकता रहा है. मुझे समझ नहीं आता कि यह नाम उनको क्योंकर दिया गया? आज तक कविता, उसकी भाषा और कविता के पीछे के दर्शन को जिनता समझती आयी हूँ उस समझ के हिसाब से मेरा मन कहीं से भी उनको एक गंवई कवि कहने से कतई इंकार करता है. कई बार मन करता है कि पूछूँ लोगों से कि वो अदम को गंवई क्योंकर कहते हैं? बार – बार उनकी कविताओं को पढ्ती हूँ, कई - कई बार उनकी किताब के पन्ने पलटती हूँ पर मुझे उनकी भाषा, हिन्दी – उर्दू के उनके ज्ञान, उन शब्दों के प्रयोग के सलीके, कहीं से भी उनके गंवई होने की बू नहीं आती और ना ही सामाजिक सरोकारों को लेकर उनकी समझ मुझे निराश करती है. तो आखिर गंवई कैसे ? मैं यहां उनकी भाषा, हिंदी उर्दू के उनके ज्ञान, शब्दों का चयन, उसके प्रयोग के सलीके के मुत्तलिक दो शेर उदाहरण के लिये रखना चाहूँगी –
1. मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

2. यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
ये दोनो शेर अदम की शायरी भाषा के उनके ज्ञान और अदब के सलीके का बेह्तर नमूना है. पहले गज़ल का हर मिसरा इस बात की ताकीद करता है कि इस कवि का हिन्दी ज्ञान बेमिसाल था तो दूसरी गज़ल का हर मिसरा उनके उर्दू तालीम पर फख्र करता है. आप देखें तो मुक्तिकामी.................... ये गज़ल ना केवल शुद्ध हिन्दी में है बल्कि भारतीय इतिहास और उसकी जतिलता की उनकी समझ का एक नमूना भी है और दूसरी गज़ल का यह शेर और इसके साथ के सभी शेर जिन्दगी के प्रति उनके दर्शन और उसकी समझ का एक नमूना है. देखें बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

अदम के रचना संसार के ऐसे ही बहुत से शेर मुझे अदम को जानने, उनको समझने को मजबूर करते हैं. आश्चर्य होता है कि इतने बारीक नज़र वाले बेमिसाल शायर को वह मुकाम् हिन्दी कविता में क्यों नहीं मिला जो उनके समय के दूसरे कवियों को मिला? आखिर क्या कारण हो सकता है ? कहीं मन में से दबी सी आवाज आती है शायद उनकी बेबाकी इसका कारण हो. कभी लगता है शायद उनका कम पढा लिखा होना इसका कारण हो. ये सवाल मन को परेशान करते हैं और अदम की पूरी शख्सियत का सच खोज़ने का बहाना देते है. देखा जाये तो अदम की भाषा, उनकी शिक्षा के स्तर और उनके रहने के ठेठ अन्दाज ने लोगों के बीच उनकी जो पह्चान बनायी है वह उनकी सोच, सामाजिक बुराइयों, शोषण, गरीबी और उसके कारणों के पीछे के सच और भ्रष्ट राजनिति जैसे विषयों की बारीक समझ से बिल्कुल अलग है. किंतु उनकी कवितायें और जीवन जीने का तरीका मेरे दिमाग में उनकी एक अलग ही तस्वीर पेश करता है और इसीलिये मैं अदम की दृष्टी और मिज़ाज़ को समझने के लिये देश की आज़ादी के ठीक 2 महीने बाद 22 अक्तूबर 1947 से उनको जानने की कवायद शुरु करती हूँ.
विकीपीडीया और कविता कोश के माध्यम से इस बात की जानकारी मुझे मिली कि रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी का का जन्म: 22 अक्तूबर 1947 को ग्राम परसपुर, जिला गोंडा में हुआ था. इस जानकारी के बाद मेरी निगाह दो जगहों पर जैसे अटक जाती है पहली जो चीज़ मुझे खींचती है वह है अदम की जन्म तिथि और दूसरी पैदा होने वाली जगह. मेरे लिये ये दोनो बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अपने अध्ययन काल में मैने गोंडा जिले का जिक्र पढा था काकोरी कांड के एक शहीद लाहिरी के सन्दर्भ में. और दूसरा महत्वपूर्ण जिक्र इस जिले का पढा था 1857 के गदर के दौरान इसीलिये अदम को जानने समझने की मेरी ललक इस कदर बढ गयी है कि मैंने इस जिले के इतिहास के कई पन्ने पलट डाले.. मैं हमेशा अवध के इतिहास से अभिभूत रही हूँ आज अदम के बहाने गोण्डा के उन दस्तावेजों तक भी पहूँच गयी हूँ जिससे कमोबेश थोडा अनजान रही थी. दूसरी तरफ गोंडा के समाजिक ताने – बाने को देखा जाये तो वह एक समृद्ध अवधी छाप छोडता है जहां धार्मिक उफान की जगह मिलजुल कर रहने और एक दूसरे को जीने सहने को रिवाज है. किसी भी शख्सियत पर उस स्थान का बडा प्रभाव होता है जहां वह पैदा हुआ और पला बढा और अदम का पूरा जीवन गोण्डा में ही बीता इसलिये इसकी विरासत और आर्थिक सामाजिक विसंगितियों से मिली समझ दोनों उनके रचना संसार में दिखती हैं. इस बात का सबे बेह्तर नमूना है उनका ये शेर -
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
पर दूसरी तरफ अदम की जन्मतिथि मुझे अदम की इस विरासत को थोडा और समझने को मजबूर करती है. अदम तब पैदा हुए जब देश को आज़ाद हुए मात्र 2 महीने 7 दिन हुए थे. इस तरह देखा जाये तो अदम का बचपन किशोरावस्था और युवावस्था और देश निर्माण, गरीबी सब हम कदम थे. वह जब 5 वर्ष के हुए तो इस देश में लोकतंत्र अपनी शब्दिक परिभाषा के साथ खडा हो चुका था किंतु दूसरी तरफ देश के सामने विकट स्थितियां मुंह बाये खडी थीं. जैसे देश कैसे बनाया जाये? किस दिशा में बढा जाये? कानून क्या हों? गरीबी कैसे मिटे? लोगों के स्वास्थ्य तक कैसे पहुंचा जाये. बच्चों की शिक्षा भी एक बडा मुद्दा था. और इसी समय देश में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की गयी लग भग यही दौर रहा होगा जब अदम पहली कक्षा के छात्र रहे हों शायद. कितना साम्य है अदम और इस देश के विकास में. पर मुझे अदम की शायरी दोनो में एक बडा फर्क मह्सूस करने को मजबूर करती है. इस उमर में जाहिर है अदम की समझ इतनी नहीं थी कि वो संविधान का मतलब समझ सकें और ना ही इतनी कि वह पंच वर्षीय योजना का अर्थ जान सकें किंतु उनकी इतनी उम्र जरूर थी कि वह अपने आस – पास को मह्सूस कर सकें जो उनके मन में कौतूहल पैदा करे , अपनी मां और बडे बुजुर्गों से सवाल पूछ सकें. यह उमर जरूर थी कि वह अपने पडोस की काकी की खाली पतीली देख सकें और साथ में खेलने वाले बच्चों की पनीली आंखों को पहचान सकें और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ यह् सवाल उन्होने पूछे जरूर होंगे अपनी मां से कि घीसू के घर का चूल्हा ठंढा क्यों है ? क्यों पडोस का बच्चा रोता है ? मुझे पता नहीं कि अदम ने कौन सी गज़ल कब लिखी किंतु मैं ये मह्सूस करती हूँ कि पंचवर्ष्रीय योजनाओं ने अपनी जिम्मेदारी को भले ही उन पैमानो पर ना निभाया हो किंतु अदम ने यह लिखकर कि
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
इमानदारी से अपनी जिम्मेदारी भी निभायी है और इस बात का आभास कराया है कि उन्होने अपने गांव के घरों , उनके हालत उनके गोदाम और चूल्हे देखे हैं. उन्होने इमानदारी से हमें बताया भी है कि गांव के हालात अच्छे नहीं हैं. यह भी बताया कि हमारे देश के 6 लाख से उपर के गांवों के लाखों घरों में आज भी चूल्हे ठंढे हैं और दूसरे लाइन में वो वह यह भी कह देते हैं कि मैं ऐसे हालात में कुछ और नहीं लिख सकता और ना ही कुछ और सोच और कर सकता हूँ. आप इस गज़ल का अंतिम शेर पढिये वह अदम की जात और सम्वेदनशीलता बखूबी बताता है कि-.
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
यकीन मानिये इस पहले शेर को पढकर मुझे अपना गांव याद आता है. जहां के कई चूल्हे जलने का कोई वक्त नहीं था. वो दो हरवाह और उनका मुहल्ला याद आता है जहां बच्चे तब एक वक्त की रोटी ही पाते थे. यहां मैं एक खुलासा करती चलूं कि अदम जिस इलाके से आते थे वह गंगा यमुना का उपजाऊ मैदान का इलाका है किंतु इस पूरे इलाके की एक बहुत पीडा दायक हकीकत भी है. यह इलाका जहां एक तरफ बाढ की विकट स्थितियों का सामना करता है वहीं अंशिक सूखे का शिकार भी होता रहता है. इस पूरे इलाके का एक सच और भी है जिससे नयी पीढी शायद ही परिचित हो. मेरे बुजुर्ग बताया करते थे कि इस पूरे इलाके में एक लम्बे समय तक आबादी का एक बडा तबका दोनो वक्त खाना नहीं खाता था. वह यह भी बताया करते थे कि बहुत कम घर ही ऐसे थे जहां लोग दोनो वक्त खाना खाते थे. लोग एक वक्त रस - दाना (गुड का रस और कोई भी भुना अनाज़ )करते थे और एक वक्त खाना खाते थे. यह स्थिति बडी जातियों की भी थी. हरिजन और अन्य जातियों की स्थिति और भी खराब थी. जब इस शेर को मैं अपने और अदम के गांव से दूर भारत के दूसरे गांव में ले जाकर देखती हूँ तो पाती हूँ कि बेतुल, खंडवा, चिन्दवाडा जैसे भारत के अन्य इलाकों में आज भी कई घरो के चूल्हे अभी या तो ठंढे हैं या उसके कगार पर फिर खडे हैं. इन इलाकों में आज भी आदिवासी जो खाते हैं वो उनके पारम्परिक खाने की दुखद तस्वीर ही पेश करता है. हिमाचल के सुदूर चम्बा में भी स्थि तियां बहुत खराब हैं. कई बार इन इलाकों में बच्चे भूखे स्कूल आते हैं और स्कूल में मिलने वाले भोजन का इंतजार करते हैं इतने संवेदंशील कवि को मैं कविता और उसके अर्थों के साथ जब थोडा और समझने की कोशिश करती हूँ तो एक बार फिर उनसे देश को और उसके हालात को जोडती हूँ.
1964. 1966 और फिर 1967 का अदम यानि युवा होता अदम. लिखने के लिये पूरी तरफ तैयार एक युवा कवि जो कहता है कि ‘’मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।‘’जैसे संकल्प लेता हो उस खाने में खडे होने के लिये जहां से देश का एक मतलब होता है. सोचती हूँ इस वक्त में क्या देख रही थीं उनकी आंखें ? क्या समझ रहा था उनका दिमाग ? अगर आज़ाद भारत के इतिहास को उठाकर देखें तो यह तीनो वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं. 27 मई 1964 को देश के पहले प्रधान्मंत्री नेहरू जी की मृत्यु हुई यह वह दौर था जब देश सबसे गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा था. 1962 का युध्द भारत हार चुका था. बजट घाटा, व्यापार घाटा , गरीबी, भूख सब देश का एक चेहरा बनता जा रहा था. इस दौर में भारत सबसे बडे खाद्य संकट से गुजर रहा था. इससे निज़ात पाने के लिये 1966 में प्रधानमंत्री बने लाल बहदुर शास्त्री ‘जय जवान जय किसान का नारा दे रहे थे’ और शहर वालों को गमले में खेती करने के लिये प्रेरित कर रहे थे ताकि इस संकट से उबरा जा सके.
तो अदम का साहसी मन क्या विचार कर रहा होगा? कुछ लिखा होगा तो क्या लिखा होगा क्योंकि उसी दौर में शायरी लिखने और पढने का शौक रखने वाले अदम जो समकालीन सहित्य पढ रहे थे वहां कैफी आज़मी, अली सरदार जाफरी जैसे शायर अपनी कलम से इन्हीं विषयों पर आग उगल रहे थे. इस तरह अदम को देश और उसके हालात से जोड्कर देखते हुए अचानक मुझे अदम के दो शेर याद आये है इसे पढते – सुनते आगे बढते हैं कि-
1. इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नीक का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
2. जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
इस शेर पर बात कभी और पर मैं अभी देश के हालात और अदम को जोड्कर देखती हूँ तो कई सवाल मन में उठते हैं. सोचती हूँ कि इतनी पैनी निगाह और बेबाक शायर को आखिर कार पढाई किस हालात में छोडनी पडी होगी. सोचती हूँ क्या अपने मनमाने पन के कारण? या फिर घर के हालात के कारण? या फिर गांव के आस पास स्कूल नहीं था इस कारण? मैं इन तीनो सवालों के सही सही जवाब नहीं जानती. पर जवाब खोजने की कोशिश में मैं उस दौर के युवाओं के जवाब से समझने की कोशिश करती हूँ.
अदम मेरे पिता से उम्र में कोई 8 साल छोटे हैं. मेरे पिता की पैदाइश सन 1939 की है. मैने बचपन से अपने पिता के मुँह से उनके बचपन और उनकी पढाई की दस्तान सुनी है. मेरे पिता उस दौर की जो कहानी बताते हैं उसके मुताबिक उस वक्त अधिक लोगों का सिर्फ पांचवी पास होने के दो कारण थे पहला गांव या आस पास के गांव तक 5वीं तक की शिक्षा का ही इंतज़ाम था किंतु उससे उपर की शिक्षा के लिए ये इंतजाम कम ही था. दूसरी जो महत्वपूर्ण बात वो सामने लाते हैं वो है आम परिवारों में शिक्षा का खर्च उठा पाने की साम्रर्थ्य का ना होना वो कहते हैं कि.अगर माँ-बाप कोशिश भी करते अपने किसी बच्चे को पढाने की तो उन्हें इसके लिये अपने अधिशेष का एक बडा हिस्सा बेचना होता था जो रोजमर्रा के जीवन पर बहुत असर डालता था. ऐसे में अधिकतर बच्चे और माता पिता दोनो यह स्वीकार कर लेते थे कि बस इतनी ही शिक्षा उनके हिस्से में थी.
कितना दुखद और त्रासद इतिहास है बच्चों की शिक्षा का ? फिर अदम के रचना संस्कार में इतनी परिष्कृत भाषा और पैनापन कैसे और कहां से आया ? कैसे उनके पास इतिहास का इतना विशद ज्ञान आया? कैसे आया सवाल और आग्रह करने का यह सलीका? क्योंकि जब अदम कहते हैं कि
“फटे कपड़ों में तन ढाँके गुजरता हो जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती है.”
यह शेर मुझे हमेशा एक तरह के आग्रह का आभास देता है तो एक तरह् का जावाब भी देता सा लगता है उन लोगों को जो उनके मटमैले कपडों के कारण उनको गंवई जैसी उपमा से नवाजते थे. इस शेर का अर्थ तलाशने से पहले मैं यहां उनके मट्मैले कपडों की बाबत एक बात बताती चलूँ कि अदम जो मटमैले कपडे पहनते थे कपडों का वह मटमैलापन आज़ादी के समय और उसके बाद भी एक लम्बे दौर तक गांव के पढे लिखे लोगों का जैसे परिधान था जैसे ड्रेस और जो दूसरी महत्व्पूर्ण बात है वो ये कि गांव में धुले जाने वाले कपडों की सफाई का उच्चतम पैमाना भी यही था और आज भी कमोबेश है.
बहरहाल बात अदम के आग्रह और सवाल करने के सलीके की हो रही थी तो यह शेर मेरे मन में बार बार सवाल उठाता है कि किससे कह रहे हैं वो ये बात? और क्यों कर रहे हैं ये बात ? क्या उनकी युवा अवस्था के बाद देश के हालात ऐसे हो गये थे कि यहां एक वर्ग सुनने वाला और एक वर्ग कहने वाला पैदा हो गया था? क्योंकि यह शेर लिखना न तो श्रोताओं को वाह -वाह कहने पर मजबूर करना है और ना ही खुद के सुकून के लिये लिखना है. तो आखिर क्यों लिखा उन्होने ऐसा? और मेरी नज़र उनकी एक बहुत मशहूर गज़ल -

काजू भुनी प्लेगट में व्हिस्कीन गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्केह समाजवादी हैं तस्कसर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में


पर जाती है. सच कहूँ तो इस पूरी गज़ल को मैने कई बार पढा है और जब जब मेरी नज़र दूसरे शेर के अंतिम मिसरे पर गयी है तब तब मुझे फटे कपडों मे तन ढांके ....................... अदम के गांव जाती है याद आ जाता है और मैं समझ पाती हूँ कि उनका पहनावा भारत के लोगों की अर्थिक त्रासदी के प्रतीक के तौर पर था जिससे हो न हो वह भी गुजरते हों. किंतु जब वो काज़ू भुनी प्लेट की बात करते हैं तब लगता है कि उनकी आंखों ने लगातार देखा कि ऐसे दृश्य देश में आम होते जा रहे हैं. उनके दौर के लोगों के आज़ादी के सपने मरते जा रहे हैं. देश में फाइलों का मौसम गुलाबी होने लगा है और सारे दावे किताबी होने लगे हैं. शायद यही कारण था कि उन्होने सबसे पूछा कि ‘’आप कहते हैं सरापा गुल्मोहर है जिन्दगी ‘’ जितना मैं अदम को पढने के बाद समझ पा रही हूँ वह मुझे एक तरफ अश्चर्य में डालता है वहीं दूसरी तरफ सोचने को मजबूर भी करता है कि आजीवन गंवई का ठप्पा लेकर अपनी बात कहने वाला ये शायर कद में उन सब से कितना बडा और बारीक समझ रखने वाला था जो उनको सुनते थे और जो आसपास बैठ्कर कविता पढते थे . आप देखिये जितनी बारीकी से बेमिसाल बिम्बो को उभार कर काजु भुनी प्लेट का जिक्र किया है उतने ही दिल से बहुतों दिनो तक सवाल भी किया है कि
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

मजे की बात यह है कि ये सवाल एक तरफ जहां देश के लीडरान से हैं वहीं पढे लिखे कहे जाने वाले शहरी लोगों की जमात से भी थे किंतु यह आग्रह सबसे अधिक अपने जैसे कवियों शायरों से था. जो बार – बार उनके ठेठ अन्दाज के बहाने उनकी कम औप्चारिक शिक्षा , उनके पहनावे और रहने के देसी अन्दाज़ से उनको गंवई कह्कर बुलाता रहा. उससे उन्होने कहा कि

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्संल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मेा के सिवा क्याी है फ़लक़ के चाँद-तारों में

अदम ने अपनी बात बहुत ओज, बेबाकी और साह्स के साथ अपनी हर कविता में रखी है. उनकी हर लाइन इस बात का पक्का सबूत है कि उनको देश समाज और लोगों की समस्यायें साफ साफ दिखती थी और वह उतने ही साफ तरीके से हमारे सामने उन सभी समस्या को रखते भी थे. हर कविता में सबकी आंखों में आंखें डालकर बहुत साहस से कहते थे कि आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को. यही कारण है कि मैं उनको एक सजग चेतना का कवि कहती हूँ और मानाती हूँ कि वह सामाजिक सरोकारों के कवि थे. अदम की यह चेतना उस शेर के तर्ज़ पर बढती है जिसमें फैज़ कहते हैं कि ‘’और भी गम हैं जमाने मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राह्त के सिवा’’ अदम इस बात को कुछ इस तरह कहते हैं कि ‘’सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे,मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है’’. मैं यहं दोनो कवि की तुलना नहीं करना चाहती किंतु यह जरूर कहना चाहूँगी कि दोनों की कविता का एक मुकाम है और वह इस वज़ह है क्योंकि दोनो ने कविता और इस फन को समाज और लोगों की समस्या और उनके नज़रिये से जिन्दगी को देखा है. इसीलिये अदम का लहज़ा सख्त और बातें जलते हुए तेज़ाब की तरह हैं जो कानो से गुजरते ही दिमाग को जैसे मजबूर कर देती हैं कि अदम की सुननी ही होगी और उसपर सोचन ही होगा कि
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए
................................................................................................................................

Tuesday, January 17, 2012

एक गुजारिश है मेरी

हर कलम से एक गुजारिश है मेरी
जब भी रहना किसी हाथ
उतरकर रुह में उसकी जिन्दगी कुछ ऐसे लिखना
कि जब भी पढे कोई आंख या पलटे पन्ना
तो हर लफ्ज़ को समझे
किसी जिद की तरह

जब भी भूख लिखना तो लगे पेट डहकता है मेरा
गरीबी लिखना तो लगे मेरे अपने हैं बिना रोटी के

जब भी लिखना कोई नज्म कोई गीत प्रेम का लिखना
दोस्त मेरे उस नज़्म के मायने लिखना

बच्चे लिखना तो दूध और दाना लिखना
नगे फिरतों का आसरा भी लिखना

जब कभी इससे कोई औरत लिखना तो लगे खडी बराबर में
वो जो जीती है, उसके जीवन के मायने लिखना

देश लिखना तो कई खांचे गढना
नेता लिखना और उनका बहकना लिखना

मैं बहुत दूर में बैठी समझ् रही थी तुझे
तब ही जाना कि अब क्या क्या लिखना

कुछ आग लिखना है थोडा पानी भी
रात भर बरसी बूँदों का काफिला लिखना

तू कलम है और ये जिद है तेरी
ऐसा ही कुछ फलसफा लिखना

यह लिखना जरूरी है कि यह दौर है ऐसा
हर्फ हर्फ इस दौर का माजरा लिखना

जब भी इतिहास इस दौर का देखे दुनिया
एक तेरा ईमान जिन्दा है लिखना

..................................................अलका

Thursday, January 12, 2012

यही होगी हमारे बीच परिवर्तन की बयार

हमारे देश में
एक पुत्री का पिता
ऐसे चित्रित किया जाता रहा है
जैसे सबसे बेचारा प्राणी हो दुनिया का
और बेटियां ऐसे जैसे सबसे बेबस और् दुखियारी जीव हों
दुनिया की

जब भी सोचती हूँ ठिठक जाती हूँ
पिता के बारे में
कई बिन्दुओं पर रुक रुक कर सोचती हूँ
सवाल करती हूँ उनसे भी , खुद से भी
और पूरी दुनिया से
ऐसा क्यों है ?

जब भी देखती हूँ पिता को
लगा है एक वक्त तक
मन की चौखट पर दरबान् से खडे रहे हैं
जब भी सोचती हूँ लगता रहा है
जैसे उनकी आंखें कुछ तलाश रही हैं
जैसे कोई ऐसा जो पुल बन सके हम दोनो के बीच
जब भी देखती रही हूँ आशा से उनकी ओर
उनकी आंखें जवाब से बचती रही हैं
चुप रह जाती हैं मेरे सवालों पर
जैसे बच रही हैं मुझसे
जैसे चोरी कर रही हों


मेरे जन्म पर उदास हुआ होगा उनका चेहरा
पता नहीं
पर मह्सूस करती हूँ उनके अन्दर एक हूक आज भी
तब जब मेरी सफलताओं पर हुलस कर कह उठते हैं
‘’ काश तुम मेरा बेटा होती”’ यह वक्तव्य अन्दर तक धंस जाता है
बहुत कुछ बजता रहता है अन्दर देर तक
जैसे तीर सा कुछ चुभा हो

उनकी ऐसी ही कुछ आदतें
मुझे संतान के दायरे से निकाल बेटी बना देती हैं
और मैं सवाल पर सवाल के साथ
दूर खडी समझती रहती हूँ
बेटी होने का अर्थ कि
मैं और वो बहुत करीब हैं दिल के
पर विचारों से कितने दूर
कितने करीब हैं रिश्ते में
सम्बन्धों में कितने दूर

याद आते हैं कुछ पल छुट्प्न के
तब हमारे बीच रिश्ते
तक कितने सरल थे जब मैं तोतली जबान में सम्वाद सीख रही थी
तब भी सरल थे जब स्कूल में कदम रखा था और तब भी सरल थे जब 8 वीं में गयी थी
पर 10वीं की दहलीज ने जैसे 10 मत्भेदों की नीव रख दी हमारे बीच
जैसे 10 पर्वत श्रृंखलायें

मेरे और उनके बीच अब भी एक दरार है
जिसे भरने के एक तरफा प्रयास में जुटी हूँ
कि समझा सकूँ उनको
बेटी का मन
उसका आकाश
उसकी दुनिया
और उसके कदमों की भाषा भी
जानती हूँ एक दिन उनके मन के अन्दर भी विचारों की कुदाल चलेगी
उस दराद को भरने के लिये और तब तक
चलाती रहूंगी अपनी
छोटी सी कुदाल
उस दरार को पाटने के लिये
यही होगी हमारे बीच
परिवर्तन की बयार
........................................ अलका

Wednesday, January 11, 2012

दस दिन हो गये

आज दस दिन हो गये
बिल्ली ने दूध पर धावा नहीं बोला
नाही कुत्तों ने रोटी मांगी है और ना ही
वह काली गाय खडी हुई है दरवाजे पर
इस लम्बी गली में एक दम सन्नटा पसरा पडा है
रात की बची रोटियाँ ले मैं उनके इंतज़ार में घंटॉं खडी थी आज
पर गली में एक परिन्दा भी नहीं आया पर मारने
आज़ीब दिन हैं ये सर्दियों के
सोच रही हूँ
कैसे होगी वो बिल्ली जो दिन भर में एक किलो दूध तो डकार ही लेती है
वो कुत्ते जो दिनभर रोटी के इंतजार में मेरा दरवज़ा नहीं छोड्ते
वो चिडियाँ वो काली गाय
मुझे तो जैसे आदत हो गयी है इस सब की

माँ कहती थी
एक की कमाई में कई का हिस्सा होता है
वो सच थी क्योंकि हर रोज ये सब लडते थे मुझसे
रोटी के लिये, दूध के लिये, दाना के लिये
बिल्ली और मैं तो जैसे खेल खेलते थे
वह मलाई मारने के लिये दौड्ती
मैं बिल बिल कह बचाने के लिये
वो दूध पर जैसे नज़्र गडाये रहती
मैं बचाने पर
यह हमारा दिन भर का खेल और आदत थी
कुत्ते तो जैसे टिके रहते दरवाजे पर
जब तक रोटियां ना मिले
देखते ही ऐसे चिल्लाते जैसे मांग रहे हों अपना हक
ना देने पर तो आग्रह जैसे सम्वेत क्रोध में बदल जाता
यह भी मेरे जीवन का एक अहम खेल था अहम हिस्सा

वो काली गाय!
उसका तो जवाब नहीं
एक मिनट इधर उधर नही हो सकता घडी से
ठीक चार बज्कर दस मिनट शाम
खडी हो जाती थी दरवाजे पर
रोटी के लिये

दस दिन हो गये हैं
सब गायब हैं
कुत्ते – बिल्ली, चिरिया- चुरमुन सब
आज मैं उनके भी इंतजार में हूँ
पका रही हूँ सबकी रोटियाँ
माँगेंगे सब अपना – अपना हक
और हम फिर खेलेंगे खेल
पहले की तरह
.................................................... अलका

Sunday, January 8, 2012

लावारिसों की दुनिया

लावारिसों की दुनिया में कभी गये हैं आप ? जी हाँ वही जो पडॆ रहते हैं
रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर
सडको के किनारे, अस्पतालों में
घाटों पर
यहां वहां , इधर उधर ?
देखा है कभी उनको बरसती रातों में
कपकापाती ठंढ में और चिलचिलाती गर्मियों में ? नहीं देखा है तो देख आइये
कुछ कदम चल
मह्सूस कीज़िये उनकी जिन्दगी और देश के सच को एक साथ
पूछिये खुद से सवाल क्योंकि
वो भी एक दुनिया है इंसानो की
जहां हर चीज़ के लाले हैं
हर मौसम खौफनाक् है
हर व्यवस्था ढीली है
और वो हालात से मजबूर् जी रहे हैं
क्योंकि नागरिक वो भी हैं कोई मह्सूस नहीं करता ना ही मह्सूस करता है उनके नागरिक अधिकार
इसलिये देख आइये देश का वो भी हिस्सा जो हमारे गौरव पर
टाट के पैबन्द सा है , एक बडा प्रश्ंचिन्ह है
देख आइये जाकर आज ही अपने शहर के अस्पताल में शहर के स्टॆशन पर इधर –उधर
हर जगह मिल जायेंगे बस देखिये तो जरा
आंख खोलकर
बहुत बडी दुनिया है उनकी भी
जहां लाचर और बीमार बूढे भी हैं
फूल से बच्चे भी, अपने होश खो चुकी औरतें भी हैं और बहुत युवा और युवतियां भी
सब हमारे आपके कारण की रहते हैं वहां
जीते हैं मौत हर दिन
बडे ही दर्दनाक स्वर में कराहती है मानवता यहां
न घर है ना खाना ना कपडे हैं यहां
बस देख आइये एक बार
देख आइये
पूछ आइये उनका हाल
लौट कर आप भी सवाल करेंगे
खुद से,
इस देश से और करोडों के हेर फेर वाले हमारे जन प्रतिनिधियों से
कि कौन हैं ये? और हैं इनके अधिकार ?
और ये भी कि क्या हम रहते हैं ऐसे देश में
जो कलाण्कारी राज्य है ? जरूर पूछेंगे ऐसे ही कुछ सवाल
जरूर पूछेंगे
........................................................... अलका