Sunday, February 26, 2012

ऊँचे ओहदे पर बैठी वह

1.

दफ्तर के सबसे ऊँचे ओहदे पर बैठी वह
कई आंख को चुभती है दिन - रात
लोग अक्सर कहनियां सुनाते हैं
एक दूसरे को उसके अतीत की
और बताते हैं राज
उसके ऊपर वाली कुर्सी पर बैठने के
किंतु वह निरंतर काम में लग्न
तोडती जाती है हर बाधा और बनाती जाती है
नया मुकाम
अभी कल ही जब उसे एक नया ओहदा मिला
बन गयी है फिर से
एक नयी कहानी

2.

जब वह नयी नयी दफ्तर में आयी थी
हर रोज लोग उसके इर्द गिर्द
घूमते थे
हौले हौले मुस्कुराते थे
नयी बास मैडम है
एक दूसरे को सूचना देते थे
जैसे समझाते थे कि
महिला है तो काम कम ही जानती होगी
यह भ्रम धीरे धीरे टूटने लगा
जब
काम में माहिर इमानदार बास ने
हर रोज अपनी समझ का परिचय दे
काम का हिसाब देना और लेना शुरु किया
और बस तब से
किस्से ही किस्से और हज़ारों कहानियां
कभी उसके चरित्र की, कभी आदतों की
और कभी उसके मुस्कुराने के मतलब की

3.

आज उसके ही चरित्र पर गढे गये
किस्सों की कुछ चिन्दियाँ
उड्कर उसके कान तक पहुँची
हैरान नहीं है फिर भी
खडी है चुप सोचती
कि इतने किस्सों के बीच
क्या मैं ही अकेली हूँ ?
या वो सब हैं जिनके परों ने
अभी अभी फड्फडाना सीखा है ? क्या जडों पर वार करने वाली इन कुल्हाडियों के बीच
निढाल हो जाना होगा ?
या फिर इन कुल्हाडियों की धार को
हर रोज भोथडा करना होगा
मजबूती से ?
डरना –घबराना तो नहीं ही होगा
इन स्थितियों के बीच
तेज़ ना ही सही किंतु
चलना तो होगा ही इन छींटों से अने सने
बढने के लिये

4.

आज दफ्तर में मीटिंग रखी है
उसमें कुछ सवाल रखे हैं
सामने सबके
कि
कौन हूँ मैं?
क्यों हूँ यहां?
क्या करती हूँ ?
यह तौहीन किसलिये ? ये किस्से किसलिये ?
और मांग रही है जवाब
एक सन्नाटा पसरा है
मीटिंग खत्म है और सब
व्यस्त हैं सवाल का जवाब
खोजने में
एक दूसरे से पूछ्ने में
सवालों के जवाब ...........

.......................................अलका

Monday, February 20, 2012

चल आज से अपने मन की दुनिया शुरू करें

औरत हूँ , एक जहमत हूँ, फसाना हूँ सुना है
चल आज से अपने मन की दुनिया शुरू करें

वो कहते हैं अज़ीब जात है समझा नहीं कोई
चल आज उनकी नासमझी पर बातें शुरू करें

गुण जो भी है अपने वो दोष नहीं है
लगते हों कुछ को छोड अब रस्ता नया करें

पाप और प्रेम के गोलों में उलझने से बेहतर
इंसां हैं इस फितरत से रहना शुरु करें

कह दी है अपनी बात जितनी थी जरूरी
अब हक से ‘मेरा हक’ भी है कहना शुरु करें

कहती नहीं कि अब अपना ही सिक्का चलेगा
क्या होगी कहानी ये लिखना तो शुरु करें

पाया है जो भी अब तक अच्छा –बुरा वो भूल
आंखों में आंखें डाल आ अब चलना शुरु करें








...........................अलका

Wednesday, February 15, 2012

खुद को बटोरती हुए स्त्री की कविता

मैं लिखना चाहती थी एक कविता
मन के सबसे खूबसूरत भावों को समेट
खोजती रही उन्हें
कुरेद कुरेद
कहीं गुम हो गये थे
मिले ही नहीं
रात
चांद के साथ बैठ
पूछ रही थी उससे
कि कितनी रातें गुजारी थीं उससे बात करते
कितनी रातें सोयी नहीं
उससे साझा करते हुए
अपने भाव कि
कर सकूँ एक गुणा गणित
वो चुप सा मुझे देखता रहा
जैसे पहचता ही ना हो
सांझ भी मुकर गयी थी
मेरी जिन्दगी के
सबसे जरूरी पहरों को चुरा
बताने से कुछ भी
फिर तो
टहल आयी थी शहर का हर कोना
पूछ आयी थी चौक चौबारों से
पर
उसी तरह खाली हाथ लौट कर
यह सोचते सोचते
अपनी ही दहलीज़ पर
खडी हूँ विचारमग्न
कि
आत्म्विश्व्वस
खुद को बटोरते आदमी के
सिरहाने खडा
जीवन से कडी टक्कर के लिये
तैयार करता
एक बडा बल है
और
खुद को बटोरते हुए स्त्री की कविता
बिल्कुल
अधूरी है इस बल के बिना
.....................................अलका

Sunday, February 12, 2012

क्या है आलोचना के संकट से जुडे सवाल ....

इधर एक लम्बे समय से कई पत्र पत्रिकाओं में हिन्दी साहित्य में आलोचना के पक्ष को लेकर कई लेख पढे और कई टिप्पणियां भी देखीं. ‘समालोचन’ पर इस विषय को एक क्रमिक बहस के रूप में पढती आ रही हूँ. आज इसका आठवा अंक पढा. एक साहित्य प्रेमी सामन्य पाठक की हैसियत से जब मैं इस तरह की बहस से दो चार होती हूँ तो मेरे मन में कई तरह के सवाल उठते हैं. मैं उन सवालों के उत्तर तलाशती हूँ ना मिलने पर थोडी देर के लिये बेचैन होती हूँ और फिर चुप हो जाती हूँ क्योंकि पाठक के रूप में वह मेरे जीवन और चिंतन की प्राथमिकता नहीं है किंतु जैसे ही एक आलोचक की नज़र से इस बहस को देखती हूँ और पूरी बात को समझने की कोशिश करती हूँ तब वही सवाल मेरे आलोचक मन के सामने जैसे यक्ष प्रश्न से खडे हो जाते हैं, मन को उद्वेलित करते हैं, मन में उठने वाले सभी प्रश्नो पर गहनता से सोचने को मजबूर करते हैं और अक्सर प्रेरित करते हैं कि पूरी तठ्स्थता से इस बात को समझा जाये कि आलोचना आखिर है क्या? क्या महत्व है हिन्दी साहित्य में आलोचना का ? और आज क्यों अलोचना का संकट है जैसी बहस हो रही है ? यह भी कि क्या यह एक जरूरी बहस है ? यदि हां तो नये समय में आलोचना की दिशा क्या होनी चाहिये?
ऊपर के सवाल कुछ मूलभूत सवाल हैं आलोचना के संकट पर बात करने के लिये, उसे समझने के लिये और संकट है तो इस संकट से निपटने के लिये इन सवालों पर बात करना बेहद जरूरी है किंतु इन सवालों के साथ ही कुछ सवाल और हैं जो किसी पाठक मन में उठते है और जो उत्तर ना मिलने पर गुम हो गये से लगते हैं किंतु वह सवाल आलोचना के संकट पर बात करते हुए बेहद सार्थक और सारगर्भित भी लगते हैं यही कारण है कि इस पूरी बहस में कूदते हुए मैं कुछ और सवाल रखने की इच्छुक हूँ क्योंकि यह सवाल मुझे उतने ही महत्वपूर्ण लगते हैं जितने महत्वपूर्ण मेरे लिये ऊपर रखे गये सवाल हैं क्योंकि आलोचना और उसके संकट पर कई लेखों को पढ्कर एक पाठक के रूप में जिन सवालों ने मुझे घेरा उसमें सबसे पहला सवाल था कि किसी भी रचना की आलोचना अखिर क्यों की जानी चाहिये? फिर जैसे सवालों की झडी लगती चली गयी कि क्या इसलिये कि किसी भी रचना की आलोचना उसका जरूरी हिस्सा है? अगर हां तो किसलिये की जानी चाहिये ? और किसके लिये की जानी चाहिये? क्या उस लेखक और कवि के लिये जिसने अमुक कविता , लेख, कहानी या कुछ और लिखा है ? या फिर साहित्य की उस बिरादरी के लिये जो लेखक कवि या किसी संघ , संगठन का सदस्य हो? या फिर उस आम पाठक के लिये जिसका साहित्य से लगाव है और वह एक अच्छा साहित्य पढना चाहता है? या फिर यूँ ही की जानी चाहिये स्वांत: सुखाय के लिये ? तो यहीं से सवाल खडा होता है कि आखिर आलोचना है क्या? क्यों इस विधा का राज है हिन्दी साहित्य में ? और यहीं से सवाल यह भी कि आलोचना का संकट क्या है? अगर है तो यह संकट क्यों है और क्या इस संकट से उबरा जा सकता है और अगर उबरा जा सकता है तो उसकी दिशा अब क्या होगी क्या होनी चाहिये.
अपनी बात कहने से पहले मैं कुछ बातें इस बहस में पहले बात रखने वाले लोगों की करना चाहती हूँ पिछ्ले 8 अंकों में जिन लोगों ने अपनी अपनी बात रखी है उसमें जिन तीन लोगों का जिक्र मैं यहां विशेष रूप से करना चाहूंगी उसमें गोपाल प्रधान, जगदीश्वर चतुर्वेदी और मीणा की. इन तीनो ने आलोचना के संकट को लेकर जो विचार रखे हैं वो उसके कुछ बिन्दु एक आलोचक के रूप में अनायास ही मेरा ध्यान खीचते हैं. गोपाल प्रधान अपने लेख में आलोचना के संकट पर बात करते हुए इसे ‘इवेंट मैनेजमेंट सा है’ कहते हैं. जगदेश्वर चतुर्वेदी स्त्री सन्दर्भ से जुडे सवाल की बात करते हैं और मीणा आलोचना के इतिहास के सवाल पर पैने प्रहार करते हैं और मुझे तीनो बातें आलोचना के लिहाज़ से मार्के की लगती हैं. गोपाल के इवेंट मैनेजमेंट वाला आरोप हिन्दी में आलोचकों की साहित्यिक जमात पर एक बहुत गहरा आरोप है और अगर इस आरोप का कायदे से विश्लेष्ण किया जाये तो बात बहुत दूर तलक जाती है किंतु मीणा की बात का मतलब समझने पर हिन्दी आलोचना के पूरे परिदृश्य के पुनर्विचार पर बात अटक जाती है. यदि गंभीरता से देखा जाये तो इस पुनर्विचार की कवायद आलोचना क्या है की पड्ताल से ही आरभ होती है. यही वजह है कि सबसे पहले मैं उस मूल सवाल पर बात करना पसन्द करूँगी कि आलोचना आखिर है क्या ? और साहित्य में इसका महत्व क्या है ? यह बहुत ही महत्व्पूर्ण सवाल है हर पाठक और हर आलोचक के लिये.
अगर आलोचना को समझने की कवायद के साथ बात अपनी समझ से शुरु करूँ तो लम्बे समय तक मैनें एक पाठक के तौर ही साहित्य को समझा और जाना है. कई बार किसी आलोचक की नज़र से ही रचनाओं को समझने की दृष्टि पैदा की है , उसी समझ से रचना और उसके अंदर के बिन्दुओं को विस्तार से समझा है इसलिये समझ पाती हूँ कि आलोचना और पाठक का रिश्ता क्या है और एक रचना , पाठक और आलोचना का त्रिकोण क्या है. अपने स्कूल के दिनो में पाठ्य क्रम की कविता का अर्थ, कहानी का अर्थ लिखने और समझने से इसकी शुरुआत हुई थी. उस समय प्रसाद की कामायनी के अंश , महादेवी की कविताओं के अर्थ और निराला को जिन आलोचनाओं से समझा और अन्दर उतारा था उसने कविता , कहानी, रेपोर्ताज़, नाटक आदि विधाओं को समझने का प्राथमिक ज्ञान दिया था मुझे. किंतु जैसे जैसे बडी होती गयी साहित्य की विधाओं पर आलोचना को लेकर मेरी अपनी दृष्टी विकसित होती गयी और आज जीवन के 20 25 साल के बाद मेरी दृष्टि जब किसी कविता , कहानी , किताब आदि पर पडती है तो मैं उसे अपनी नज़र और अपनी समझ से देखने की कोशिश करती हूँ इसी लिये विवेचना का मेरा नज़रिया और तरीका भी अपना है. अब जब हिन्दी आलोचना जगत पर एक पाठक के तौर पर निगाह डालती हूँ तो लगता है कि हिन्दी आलोचना उस रफ्तार से नहीं बदली जितनी रफ्तार से दुनिया, कविता और हम बदल गये. आप देखें कि पिछले 20-30 सालों में कविता की दुनिया, कहानी दुनिया में जिस तेजी से बदलाव आया है , उसके विषय जिस तेजी से लोगों के सामाजिक आर्थिक सन्दर्भों और दुनिया के अन्य विष्य्पं से जुडे हैं उसने कई तरह के संकट आलोचकों के सामने पैदा किये हैं. सबसे पहला और बडा संकट है कई तरह के पूर्वाग्रह. दूसरा बडा संकट है बदलते सामाजिक आर्थिक सन्दर्भ के साथ आलोचना की दिशा और गति को साथ लेकर चलना. स्त्री, दलित विमर्श जैसे विषयों पर आलोचकों की सतही समझ और सबसे महत्वपूर्ण है और बडा संकट है रचना के काव्य पक्ष के इतर जुडे अन्य विषय के साथ उसे जोड पाने में आलोचक की मंशा / ज्ञान का संकट जिसने आलोचकों को कटघरे में खडा किया है. हिन्दी आलोचना पर बात करते हुए कई लोग कहते हैं कि, हिन्दी आलोचना ने अपनी कलम की धार में उस पैनेपन को धारण नहीं किया और उस विस्तार को समझने की या तो कोशिश नहीं की है या फिर उस कूवत को पैदा करने से वंचित रह गये बदलते वक्त में जिसकी जरूरत थी. हिन्दी के पाठकों की यह आम धारणा है कि हिन्दी आलोचना पिछले कई दशक से न केवल एक तरह की एकरसता का शिकार रही है बल्कि उसकी अपनी एक खास सोच और समझ रही है. जिसे हम एक तरह की जकडन कह सकते हैं. यह जकडन कई बार एक तरह की जडता का भी आभास कराता है. यह जडता आलोचना के पूर्वाग्रहों का ही एक रूप है. मैने एक समय तक कई बार मह्सूस किया है कि हिन्दी आलोचना में भाषा के पान्डित्य का कुछ खास दबदबा रहा है जो सामान्य पाठक को साहित्य से दूर करने के साथ साथ आलोचकों की बिरदरी को एक तरह के दम्भ से भर देता रहा है. अक्सर् रचना, रचना पर लिखी गयी आलोचना/समीक्षा पाठक को विषय वस्तु से इतर अपनी गूढ भाषा और उसके लालित्य में उलझाती रही है. अक्सर आभास कराती रही हैं कि आलोचक जो भाषा लिख रहा है वो किसी खास वर्ग , पाठक और दुनिया के लोगों के लिये है. आभास यह भी होता रहा है कि आलोचना का दायारा बहुत छोटा और नीरस है जिसे आवश्यक विस्तार की आवश्यकता है.
मेरे हिसाब से पाठक अगर यह अनुभव करते हुए कहने का साहस करता है तो यह अनायास नहीं है बल्कि यह ध्यान से सोचने और समझने वाला विषय है क्योंकि हिन्दी साहित्य के सामने जो संकट है उसमें आलोचना के संकट से बडा संकट पाठ्क के कम होने का भी संकट है और यह संकट कहीं ना कहीं आलोचना के संकट से जुडा हिस्सा ही है क्योंकि आलोचना का मतलब एक पाठक के तौर पर जो मैं देखती हूँ वह मुझे इस बात के लिये खोजी बनाता है कि कविता या कोई भी रचना क्या लेकर हमारे सामने खडी है? जब मैं एक आलोचक के रूप में किसी रचना से जुडती हूँ तो मैं उस रचना के कई बिन्दुओं पर निशान लगाती हूँ और समझने की कोशिश करती हूँ कि अमुक कविता , कहानी या कोई किताब किन – किन बिन्दुओं को लेकर पाठक के सामने है, रचनाकार किस मंशा और किस भाषा के साथ हमारे सामने है. और तब एक आलोचक या समीक्षक के तौर पर अपनी समझ के साथ उन बिन्दुओं को विस्तार देने का प्रयास करती हूँ ताकि साहित्य से प्रेम करने वाला वर्ग उस रचना तक ना केवल पहुंचे बल्कि उसे मेरी कलम से पढते हुए अपनी तरह से भी समझे. किंतु इसके साथ ही मेरे लिये आलोचना के कई मायने और भी हैं और कई उत्तरदायित्व भी. यह उत्तरदायित्व बोध मुझे पाठक , रचनाकार और भविष्य की रचना प्रक्रिया सभी से जुडा हुआ लगता है. जब भी मैं किसी रचना हाथ में लेती हूँ तो सबसे पहले उस वक्त के लिये रचनाकार से अपना मानसिक सम्बन्ध तोड सिर्फ रचना, उसके कथ्य और उस रचना की विषय वस्तु और उस रचना विशेष से जुडे कई तत्व और तथ्य पर अपने को केन्द्रित करती हूँ. स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, विज्ञान,इतिहास भूगोल और राजनिति समाज जैसे तमाम अन्य विषयों के सन्दर्भ यदि रचना के वितान में छुपे हैं तो उसे सामने लाने की कोशिश होती है किंतु मेरी आलोचना का सबसे मुख्य बिन्दु रचना और समाज से उसके सम्बन्ध को ध्यान में रखकर होता है क्योंकि कोई भी रचना का भाव समाज और उसके लोगों से इतर नहीं होता. यही वज़ह है कि कई मित्र कहते हैं कि आप कविता में समाजशास्त्र देखती हैं. इमानदारी से कहू तो मुझे हिन्दी आलोचना में भाषा लालित्य की प्रधानता , उसके गूढता की प्रमुखता से कोई ऐतराज नहीं है किंतु जब भी किसी कविता या कहानी की कोई आलोचना उस रचना के साथ न्याय नहीं करती और सिर्फ कथ्य, उसके शिल्प और भाषा लालित्य की बात करती है तो एक तरह की खीझ होती है. कई बार आलोचक और उसके ज्ञान पर सवाल खडा करने को मन होता है. कई बार विचार आता है कि क्या आलोचना करने का कोई और भी तरीका होता है ? क्या किसी रचना को देखते –समझते हुए उसके साथ सम्झौता किया जा सकता है ? और अगर है तो क्या गोपाल प्रधान उसी की बात कर रहे हैं? अगर हां तो निश्चय ही यह आलोचना का बडा संकट है जिसने आलोचना की धार पर वार किया है.
ऐसे में गुस्ताखी करते हुए अगर कहूँ तो मुझे लगता है कि हिन्दी जगत के आलोचक कई बार या तो आलोचक के रूप में उस दृष्टी से महरूम रहे हैं जो आवश्यक है या फिर वह उस दृष्टि से बचना चाहते हैं/या दृष्टि को उतना विस्तृत नहीं कर पाये जो हिन्दी की समीक्षा/ आलोचना के संसार को अधिक अर्थवान, आकर्षक और सार्थक बनाता. साथ ही वो आलोचना को पाठक से अधिक विद्वानो की चीज जैसे नजरिये से देखते रहे जो आलोचना को नीरस, कम उपयोगी और पाठक विरक्त बनाता है. तो अगर निर्भीकता से कहा जाये तो यह हिन्दी आलोचना का पहला और बडा संकट है कि उसने अपने दायरों से अभी तक उन विषयों को दूर रखा है जिसे समाहित करने से न केवल हिन्दी साहित्य बल्कि आलोचना के क्षेत्र उसकी दिशा और दशा में बदलाव आयेगा बल्कि वो पाठक भी इस तरफ आयेंगे जो कुछ विशेष के लालच में अन्य भाषाओं की तरफ मुखातिब होते हैं. दूसरी महत्व्पूर्ण बात जो मुझे यहां कहते हुए संकोच नहीं है वो ये कि आलोचना के क्षेत्र ने तठस्थता और निर्भीकता के साथ समझौता कर अपनी मूल प्रवृत्ति पर कुठारा घात किया है जिसने हिन्दी आलोचना को दोयम दर्जे पर ला खडा किया है. इतना ही नहीं हिन्दी के समीक्षकों/आलोचकों ने स्त्री और दलित विमर्श को कभी उस रूप में नहीं लिया जिस रूप में लेने की आवश्यकता थी.
गोपाल प्रधान की इस बात के मद्देनज़र मुझे बरसों पुरानी एक बात याद आती है जिसका जिक्र यहां मुझे बहुत प्रासंगिक लगता है. सन 1999 में जब मैने अपनी थीसिस विश्वविद्यालय में सबमिट कर दी तब एक फैसला लिया कि अपना खर्च खुद उठाउंगी और भोपाल चली गयी काम खोजने . वहां काम के नाम पर मुझे एक संस्था से किताबों पर छोटे –छोटे नोट लगाने का काम मिला , 400 पन्ने की एक किताब पर 2 पेज के नोट के लिये मात्र 3 – 4 घंटे का समय और देखा जाये तो 10 से 5 के बीच 2 किताबें निपटाना . मुझे यह काम आसान नहीं लगा और मैनें मना कर दिया. मेरे मना करने पर मेरे उपर जिन लोगों ने काम का दबाव डाला उनके शब्द थे: अरे ! तुम्हारा क्या जा रहा था. कुछ भी लिख देतीं. तुमको अच्छे भले पैसे मिल रहे थे . ले लेतीं...... पर मैं नहीं मानीं क्योंकि अपने हुनर के साथ समझौता मुझे पसन्द नहीं था किंतु आज जब आलोचना के संसार पर नज़र जाती है तो लगता है शायद इसी तरह की स्थितिओं ने आलोचना के क्षेत्र पर राज करना शुरु कर दिया है जिसने जैसे एक नेक्सस बना दिया है किंतु इन सबके बीच आलोचना का संकट आज सिर्फ इतना ही नहीं है. कई और तत्व हैं जिसने आलोचना के संसार को आज के दौर में बौना किया है. यह सोचने वाला विषय है कि और क्या क्या शामिल है इस संकट में?
मुझे लगता है आलोचना के क्षेत्र में पुराने आलोचकों के आलोचना के तरीके, उनके काल खंड की सोच का दबदबा आज भी कहीं ना कहीं बना हुआ है जिसने आलोचक की क्षमता, उसके ज्ञान और उसकी मंशा पर बडा सवाल खडा किया है यही कारण है कि आलोचना के दायरे के साथ आलोचक के नज़रिये और उसके ज्ञान के दायरे पर भी शक और सुबहा आलोचना के संकट को बहुत बडा कर देती है मेरे कहने का मतलब आलोचना में ना तो वह विस्तार आया ना ही वह गति और ना ही नये विषयों को सजग और सम्वेदंशील दृष्टि से देखने की जिद्दोजहद ही हुई और इस सबके पीछे बात आलोचक की मंशा और ज्ञान पर ही आकर अटक जाती है. आलोचना के इस खित्ते पर बात करने से पहले जरूरी है हम थोडा सा ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ की पुरानी बात को नये अन्दाज में समझ लें और इस रिश्ते के प्रकाश में आलोचना और साहित्य को देखें. यदि बीसवीं सदी पर ध्यान से नज़र डालें तो यह पूरे तौर पर बदलावों की सदी रही है. राजनीतिक बदलाव भी इस सदी में कम नहीं हुए पर साथ ही साथ य हिन्दी साहित्य के लिहाज़ से भी बदलाव की सदी रही है. इस सदी के प्रारम्भ में जहां देश में सामाजिक आन्दोलन हो रहे थे वहीं प्रमुखता से आज़ादी की लडाई भी देश एं चल रही थी और अंतर्राश्ट्रीय परिदृश्य भी उतना ही विकट था. दो दो महायुद्ध , उसके बाद के बदलाव. किंतु अगर गौर करें तो इस दौर का सामाजिक बदलाव सब्से क्रंतिकारी था. यह भारत के अन्दर ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर होने वाले आन्दोलन और् बदलाव ध्यान खीचने वाला था. भारत के अन्दर जो अन्दोलन सबका ध्यान खीच रहे थे वो थे नारी अन्दोलन और दलित आन्दोलन. इस दो अन्दोलनो जैसे पूरे भारत की दिशा और दशा बदल दी. मिल के व्यक्ति वादी सिद्धांत ने इस दौर में अपने पूरे प्रभाव के साथ का करना शुरु किया था इसलिये समाज में व्यक्ति के महत्व उसके अधिकार और उसकी व्यक्तिगत स्थिति पर भी समाज में बात होने लगीं थीं. मसलन स्त्रियों के दुख पर प्रेम चन्द ने खूब बात की है यह अलग बात है कि उसपर अपने समाधान भी दिये हैं किंतु साहित्य में बात होने लगी है. बटवारे की बात करते हुए उस दौर के अधिकतम कहानी कारो जैसे कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम और मंटो ने युद्ध काल में औरत की स्थितियों का चित्रण किया है. आप देखें कि इस सदी के उत्त्रार्ध तक आते आते सभी आन्दोलन अपना असर दिखाने लगे और समाज को यह मजबूर करने लगे कि वो एक बडे मानवीय आलोक में समाज, मनुष्य और उनके सम्बन्धों को देखें. यही कारण है कि हिन्दी साहित्य में कहने के तरीके बदले, तेवर बदला और नयी – नयी विधायें आयीं. पर आलोचना ?
अभी ‘बहसतलब’ के कल आये लेख में अविनाश ने बहुत विस्तार से इस सदी की आलोचना का गहरा और संजीदा विश्लेषण किया है इसलिये मैं अपनी बात सिर्फ स्त्री विमर्श और स्त्री लिखित रचनाओं की आलोचना के सन्दर्भ में ही कहूँगी. इस पूरी सदी के हिन्दी लेखन का विश्लेषण किया जाये तो इस सदी में बहुत सी लेखिकाओं और कवियत्रियों ने इस पूरे काल में हिन्दी को समृद्ध किया है, मैं कुछ बहुत बडी लेखिकाओं और कवियत्रियों की बात यदि यहां करूँ तो उसमें तीन नाम मुझे बहुत आकर्षित करते हैं- महादेवी, अमृता प्रीतम और कृष्णा सोबती. (नाम और भी हैं किंतु उनपर बात किसी अन्य स्त्री केन्द्रित लेख मे.) इस तीन का नाम इसलिये क्योंकि यह तीनो ही सबसे चर्चित और सबसे अधिक पढी जाने वाली लेखिकायें रही हैं हिन्दी महिला पाठकों के बीच. यहां नाम आशापूर्णा देवी का लिया जा सकता है जिनके प्रथम प्रतिश्रुति और बकुल कथा के अनुवाद को हिन्दी महिला पाठक उतना ही पसन्द करती आयी हैं जितना उपर जिक्र की गयी तीनो रचनाकारों को. पर बात अगर इन महिला रचनाकारों की रचना पर की गयी आलोचना पर की जाये तो शायद ही किसी आलोचना ने इनकी रचनाओं को ठीक से समझा और विश्लेषित किया है. यहां सिर्फ यदि एक उदाहरण लूं महादेवी का तो बात को आसानी से समझा जा सकता है किंतु बटवारे का दर्द अपनी कलम से उकेरने वाली दोनो अन्य लेखिकाओं पर भी किसी ने उतनी शिद्दत से कोई आलोचना नहीं लिखी जितनी संजीदगी से रचनायें हमारे समने अपने दृष्य, जटिलता और उस वक्त विषेश का साक्ष्य लेकर हमारे सामने आती हैं. आखिर ऐसा क्यों हुआ ? क्या हिन्दी के आलोचकों ने जानबूझकर ऐसा किया ? या फिर आलोचक रचनाकार की क्षमता के आगे नतमस्तक हो हार मान गये?
बात को अगर समझने की कोशिश की जाये और तीनो प्रश्नो के उत्तर तलाश किये जायें तो कुछ बातें सामने आती हैं. पहली बात तो यह कि हिन्दी आलोचना समाज जनित पूर्वाग्रहों से अपने को मुक्त करने में अक्षम रही है. यह पूर्वाग्रह स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को लेकर साफ साफ दिखता है. दूसरी बात जो समझ में आती है कि आलोचना के क्षेत्र में ना केवल पुरुष वर्चस्व रहा है बल्कि सोच के स्तर पर यह एक तरह से पूरी तरह हावी भी रहा है. इतना ही नहीं हिन्दी आलोचना में आज तक स्त्री को लेकर आपेक्षित समझ का भी पूरा अभाव रहा है. सच्चाई यह भी है कि हिन्दी जगत की अलोचना ने स्त्री के पूरे विषय को या तो समझने की जरूरत नहीं समझी या फिर उसे नजरन्दाज किया है. मुझे याद है मैने अपने अध्ययन काल में सुरेन्द्र वर्मा लिखित एक बहुचर्चित उपन्यास पढा था ‘’ मुझे चांद चाहिये’’ उसकी जितनी भी समीक्षायें एक पाठक के रूप में मैनें पढी किसी से संतुष्ट नहीं हुई क्योंकि सभी समीक्षायें इस उपन्यास के सन्दर्भ को लेकर जो माँग करती थीं उसके विपरीत स्त्री के प्रति कहीं ना कहीं एक परम्परागत सोच से लिखी गयी थीं जबकि इस किताब की आलोचना वास्तव में एक ऐसी अलोचना हो सकती थी जो स्त्री विमर्श को लेकर मील का पत्थर साबित होती. इसको महादेवी की रचनाओं पर लिखी गयी समीक्षा से भी समझा जा सकता है. आप देखें कि एक जीवित स्त्री जिसके जीवन में अकेला पन है ............ कहती है कि ‘मैं नीर भरी दुख की बदरी उमडी कल थी मिट आज चली’ ........... को आलोचक आधुनिक मीरा कह देते हैं. अगर बात हो रही है तो मीरा की भी बात कर लेते हैं क्या मीरा का कान्हां प्रेम एक स्त्री के जीवन की सामन्य अवस्था थी? क्या मीरा के साहित्य को एक अलोकिक प्रेम का साहित्य कह उसकी वास्त्विकता को नकार देना चाहिये? क्या मीरा का पूरा सहित्य उस दौर की स्त्री की जकडन का चित्र उपस्थित नहीं करता? और आप देखें कि मीरा के कितने सौ साल बाद भी एक स्त्री के प्रेम के उद्गार को नकार कर उसे मीरा कह देना आलोचक के स्त्री सन्दर्भों की समझ पर बहुत बडा सवाल नहीं खडा करता ? यह आभास नहीं कराता कि समाज के साथ साथ प्रबुद्ध कहा जाने वाला साहित्यिक समाज भी औरत की स्थिति से अपने को जोड पाने में अक्षम रहा है? कुछ इसी तरह की स्थिति दलित सन्दर्भों की भी रही है. आलोचकों की कलम ने दलित विमर्श के हिस्से को भी उस तरह से समझने से इंकार कर दिया जिस तरह से स्त्री विमर्श को. हमारी सामाजिक विसंगतियों, दलित समाज के सामाजिक अर्थिक सन्दर्भ, उनकी अपेक्षायें, और उनके राजनीतिक समझ और चिंतन को जानने साझने में भी हिन्दी के आलोचकों से चूक हुई है जो कहीं ना कहीं आलोचना की समाजिक समझ पर सवाल उठाता है. पर मजे की बात यह है कि दलित विमर्श के आलोचको के यहां भी स्त्री विमर्श उपेक्षित ही रहा है.
इस सभी बातों के बीच जो एक महत्वपूर्ण सवाल है जिसपर साथ साथ चर्चा कर ही लेनी चाहिये कि आलोचना किसके लिये होनी चाहिये ? इस सवाल को मैं इस लिये महत्वपूर्ण समझती हूँ क्योंकि मुझे रचना, आलोचक और पाठक का एक गहरा त्रिकोण हमेशा नज़र आता है और मैं उस त्रिकोण को सहित्य का सबसे जरूरी पक्ष मानती हूँ और इस त्रिकोण के एक स्तम्भ में किसी भी तरह की कमजोरी पूरे साहित्य की चूल को हिलाने के लिये मुझे काफी लगती है तो उसे बचाने या फिर यों कहें कि उस संकट को समझने के लिये इस प्रश्न पर भी चर्चा करनी ही होगी.
पिछले दिनो हिन्दी को लेकर जो एक गहरी चिंता जाताई जाती रही है वह है हिन्दी में लगातार पाठकों की संख्या के कम होने को लेकर है. यह सच भी है कि हिन्दी के पाठक लगातार कम हो रहे हैं. इसके बहुत से कारण हैं किंतु एक कारण जो आलोचक कर्म से गहरे जुडा है वो है बदलते वक्त के साहित्य को सही तरीके से और सही सन्दर्भ में पाठको के सामने रखना. आप यदि अकेले कविता के संसार को देखें तो आज की कवितायें पाठक के सामने लच्छेदार भाषा से अलग बहुत बौद्धिक और प्रेम से इतर विषयांतर के साथ आपके सामने आती हैं. नये परिवेश, नये बिम्बों और नयी शैली में लिखी जा रही इन कविताओं को पाठक के साथ सम्वाद बैठाने में कई दिक्कतों का समना करना पड रहा है. अब ऐसे में आलोचक की भूमिका ना केवल एक सेतु सी है बल्कि ऐसे भाष्य्कार की है जो ना केवल रचना से पाठक का सम्वाद बैठाने में मदद करता है बल्कि कविता के सही रहस्य को भी खोलता है किंतु दुर्भाग्य से ऐसा बहुत कम ही देखने को मिल रहा है. ऐसा नहीं है कि पाठक रचनाओं को समझने में अक्षम है किंतु कहीं ना कहीं तमाम पाठकों से कविता को जोडने के लिये यह जरूरी है. यही वज़ह है कि आलोचना साहित्य के क्षेत्र का एक मजबूत सतम्भ है.
कुलमिलाकर देखा जाये तो हिन्दी आलोचना का क्षेत्र कई कारणों से लगातार सवालों के घेरे में रहा है. यह सभी सवाल उसे जहां एक तरफ कमजोर दर्शाते हैं वहीं इस बात का आभास भी कराते हैं कि आलोचना हिन्दी की एक मजबूत कडी है और से अपने सभी प्रश्नो से जूझने की आवश्यकता है और यदि इन प्रश्नो से सही तरीके से निपटा गया तो आने वाले दिनो में हिन्दी को ना तो पाठको की कमी का सामना करना होगा और ना ही बेहतर लेखन और रचनाओं का.

.......................................... डा. अलका सिंह

Friday, February 10, 2012

भूल गयी थी कुछ तुमसे प्यार करते करते

तुमसे प्यार करते करते
भूल गयी थी कुछ कूट विचार
माँ के
जो याद आये हैं बरसों बाद आज
पीछे मुड्कर देखते हुए कि -
डांटती नहीं हूँ मैं
ना ही रोकती हूँ दुनिया देखने से
बस आगाह करना चाहती हूँ एक औरत को
जो बनाने जा रही है एक रिश्ता
घर के बाहर और उडने की कोशिश में है
एक घोसले के जिसके तिनके तिनके को वो
खोजेगी, बुनेगी और सहेजेगी
बताना चाहती हूम उस औरत को कि
ये घर से बाहर बनता हुआ एक ऐसा
रिश्ता है जो
अनुभूति के साथ हर रोज बढता है
सवंरता है , आकार लेता है और गुम हुए से लगते है
कई अर्थ
पर सच में ऐसा होता तो क्यों कुरेद कर कुरेद कर
पूछती तुमसे और बार बार सवाल करती ?
समझाती रही है वह मुझे कि
यह शीतल है जैसे चांद की रोशनी
कोमल है जैसे गुलाब की पंखुडी
मदमादा है जैसे महुए का नशा
किंतु चांद के दाग , गुलाब के कांटों और
महुए के नशे का भी एक सह है
और यही सच धीरे- घीरे
सामने आता है
यह बताने के लिये खडी हूँ तेरे आस पास
कि जब भी तू दहलीज़ के बाहर
कहीं जुडेगी तो जीयेगी कुछ वैसा ही
जिससे गुजरती रही हूँ मैं
इसलिये उतरने को बेताब हूँ तुझमें विचार बन
कि हुनर सिखा सकूँ
नये समय में स्त्री होने का
बता सकूँ कि जना है जिसको औरत ने
वह मालिक बन जाता है एक वक्त के बाद
क्योंकि औरतें खोजाती रहीं हैं अपने उस मालिक को
कभी चांद से बातें कर
कभी शाम में अकेले खुद से बुदबुदाते हुए
और कभी प्रेम गीत गाते हुए
डूब जाती हैं एक ऐसी दुनिया में
जहां सब प्रेम में डूबा उसका
अपना संसार है
जानते हो –
तुमसे प्रेम करने की यात्रा में
माँ के कूट वचन को बेमानी समझ
झटक आयी थी उसी के द्वार
पर आज सच में गुलाब के उस कांटे ने
डसा है पहली बार
सोच रही हूं उठा लाऊँ वो पोटली
और बीन लूँ सारे कूट
अपनी बची यात्रा को नया कर जीने और
अपनी जवान होती बेटी के अन्दर
विचार बन उतरने के लिये

..................................अलका

Friday, February 3, 2012

हो रहा है सच का सामना

एक देश बंटा
बंटकर दो हो गया
लोग बंटे और
बंटकर दूर खडे हो गये
जैसे दुश्मन हों आमने – सामने
फिर
भाषा बंटी, कानून बंटा तोप बंटी तलवारें और बन्दूकें भी बंटी
बित्ते बित्ते का हिसाब हो गया
और
खिंच गयी एक लकीर
बन गयी एक सरहद
खिंच गयीं तलवारें , तन गयी संगीने

पर
उस सरहद पर आज भी कुछ दिखता है
लगता है जैसे
कुछ सुर्ख आंखें इस पार से उस पार तक
खोजती हैं रिश्ते,घर और यादों से बिन्धा अपना
बचपन
और अल्लाह की शान में गाती हैं नातिया

कुछ हाथ दिखते हैं उठे हुए सलामती के लिये
सर झुके हैं बहुत से
और लब तरबतर आंसुओं से
बुदबुदाते
न जाने कब से वहीं के वहीं हैं
वो आंखें वो हाथ वो लब वो आंसू
उस दुनिया की हैं
जो सरहदों के पार भी एक सी पसरी पडी है
जी हाँ, उस औरत की दुनिया
जो नहीं बंटी और
पडी है पहले सी साबूत
खंड खंड टूटती बूद-बूँद रिसती और
छन्न –छन्न बिखरती

कल दस्तक दी थी
मेरे कमप्यूटर पर
सरहद पार की जिन्दगी का खाका लेकर आयी
सखियों ने
पहली दुआ सलाम के साथ एक हो गयी थीं हमारी बातें
एक हो गया था जीवन, एक हो गयी थी भाषा, एक हो गयी थी जिन्दगी हम चाहते थे
एक सा कानून
एक सी भाषा
और एक ऐसा देश जो हमारा हो

वह रूबिना थी ब्याह के गयी है सरहद पार
बडी हसरत से आयी थी इस पार
पर क्या पता था कि
जिन्दगी कुछ और उलझने लेके आयेगी
क्योंकि वो हर वक्त तिरंगे पर ठहर कर सोचती है
के क्या करूँ इसका जो दिल में बसा है
क्या करूँ ?
वह फातिमा है जो बार – बार
चांद सितारे वाले उस हरे झंडे को अपलक निहारती है
और कभी कभी फफक फफक कर रोती है
और सरहद पार से
कबूतरों के आने का इंतजार करती है
कबूतर भी धोखेबाज आते ही नहीं

सईदा तलाकशुदा है अकेली इसपार इंतज़ार में है अपने बच्चों के
जाने कब देखेंगी उसकी आंखें अपने ही जनों को
क्योंकि कानून से वो बच्चे उसके नहीं
उसपर उसका हक कम और देश का ज्यदा है

सफिया और रूबी दोनो ननद भावजें हैं
दोनो के बच्चे उनके नहीं हैं एक इस पार का है
एक उस पार का
दोनो सरहदों के सिपाही हैं
उनकी आंखें झुकी हैं अल्लाह की शान में

मैं कब से सुन रही हूँ ये अंत हीन कथायें
अंतहीन दुख
स्क्रीन कहे जाने वाले इस यंत्र पर
जान रही हूँ सरहद पार का सच


और समझ रही हूँ औरत और देश होने का सच
कल एक और बच्ची ने खटकाया था दरवाजा
क्लिक कर के
वो एक और सरहद की दास्तान लेकर आयी थी
अपनी जुबान में
हम दोनो ने बातें की
अपनी जुबान में
जी हाँ अपनी जुबान में
उसने बांटा अपना बहनापा
कि वो रोज लाठियों से पीटी जाती है कमप्युटर छूने के कारण वो लोज गाली खाती है
पढने के कारण
और वो रोज मारी जाती है
बेह्तर ढंग से
रहने के कारण
पर जीती है आंखओं में सपने ले
कि एक दिन बदलेगी उसकी भी दुनिया

सच कहूँ तो मैं जान रही हूँ
औरत की दुनिया को
हर रोज
करीब से जैसे
हो रहा हो सच का सामना
हर पल, हर दिन
बार – बार

.................... अलका