Tuesday, December 20, 2011

वह

वह
पलता रहा बरसों उसके आंचल में
पाता रहा प्रेम
रोज तवे से उतरी गरम गरम रोटियाँ
घर की सारी सुख सुविधायेँ
बिना शर्त क्योंकि
बेटा था वह


वह
हर रोज उसकी दुनिया में घुस
बनाता रहा रिश्ता जमाता रहा धौंस
उसकी सुरक्षा और एक उम्मीद की खिडकी
बनने के दुम पर और पाता रहा
प्रेम बिना शर्त
भाई था वह

वह
रिश्तों की सबसे अहम मोड पर
बनाता रहा उम्मीद के घरौन्दे
उसके साथ
रंगता रहा हज़ारों ख्वाब हज रोज़
उसके दिल के सबसे सुरक्षित तह्खाने में जा
पाता रहा प्रेम
प्रेमी था वह

वह
सात फेरों के साथ बन्ध गया था
उम्र भर साथ निभाने के लिये
एक घर बनाने के लिये
इस बन्धन की हर सांस में
पलता रहा सात जन्म
और वह
हक से पाता रहा प्रेम
वह पति था

वह गेन्द की तरह उछल जाती
जब वह बुलाता उसे नाम से
वह फूल की तरह खिल जाती
जब वह उसे दुलार लेता
वह सिमट जाती जब वह आंख सुर्ख कर लेता
इस रिश्ते के भी हर मोड पर
वह स्नेह से सिक्त हो
पाता रहा प्रेम
वह पिता था


आज सारे रिश्ते दूर खडे
पलट कर देख रहे हैं
एक दूसरे से
पूछ रहे हैं सवाल
के
वो कौन था जो
ले गया हमसे
हमारा वक्त, स्नेह
और बहुत सी उम्मीद

कौन था जो
सहोदर कह ले गया
मेरा हक

कौन था
जो ले गया
मेरा मन उसका चैन ?

कौन था जो
जाया कह
बनाता रहा मेरी सीमायें



अब समझ गयी
वह एक पुरुष था बस पुरुष
जो अपने लिये भरता रहा
प्रेम का कटोरा
और सीखता रहा प्रेम का पाठ
आधा अधूरा

...........................अलका सिंह

हमारे तुम्हारे बीच रिश्तों की जो सरहद है

हमारे तुम्हारे रिश्ते की एक बड़ी सी सरहद है
जहाँ खड़े हैं बहुत से अपने और प्रभावित हैं उनकी जिंदगियां
इसलिए हरबार इस सरहद तक आकर रुक जाती हूँ मैं
झांकने लगती हूँ उनकी आँखों में
और तुम इस सरहद पर खड़े मुस्कुराते हो
मेरे मन की उधेड़बुन को पढ़

हमारे तुम्हारे बीच रिश्तों की खीचतान भले हो
पर मेरे अन्दर के इंसान ने बरसों बरस
इंसान की आँख पढ़ने की कला सीखी है
रोक लेती है वही शायद यहाँ तक आकर तलवार पर हाथ रख लेने से
रोक लेती है मुझे मुट्ठियाँ भींच लेने से

बहुत मुमकिन है तुम खुशफहमी में जीते हो
और सोचते हो कि ये सब होता रहता है
जैसे आम बात , जैसे रोज की बात
किन्तु मेरे अन्दर बहुत कुछ पल रहा है विष जैसा
जैसे एक काला नाग दिनों दिन बढ़ता सा
जो हर दम उठा लेता है फ़न
जैसे डसने को तैयार

कई रोज से देख रही हूँ कई आँख हर वक्त बस मुझे ताकती है
उनमे एक जोड़ी बूढ़ी आखें भी हैं
जैसे पढ़ रही हों मेरे अन्दर फ़न उठाते नाग को
उस विष् को जिसका जहर उतर जायेग तुमसे पहले उनके अन्दर
और बस् एक द्वंद लिपट जाता है जैसे
एक बहस सर उठाती है अच्छे बुरे के विचार से
मेरे अन्दर

इसलिए,
हमारे तुम्हारे बीच रिश्ते की जो सरहद है
वहां हर बार खडी होती हूँ कई आत्माओं के साथ
कई आँखों के सपने के साथ
किसी के बुढापे की लाठी बन और किसी के भविष्य की उम्मीद बन
और तुम
खुश हो जाते हो मेरी इंसानियत को मजबूरी समझ

पर ये नाग जो मेरे अन्दर पल रहा है
बहुत बावला है
तुम्हारी हरकतों के बदले में
हर रोज़ मुझे अपने साथ ले जाता है सेरेंगेती के जंगलों में
जहाँ इंसानियत की किताब की जगह सब केवल
अपने होने की भाषा समझते हैं
नहीं जानती कब तलक पढ़ पाउंगी
इंसानियत की किताब
हमारे तुम्हारे रिश्ते की जो एक बड़ी सी सरहद है
वहां बैठा है अब वो नाग
जो अब बित्ते भर से लाठी भर का हो गया है

...............................................डा. अलका सिंह ............................

Sunday, December 18, 2011

यह् घर तुम्हारा है

यह घर तुम्हारा है
ये बर्तन, ये भांडे,
ये बिस्तर ये कमरा सब तुम्हारे
इस घर के हर कोने से तुम्हारी आदतों की बू आती है
अरसे तक ये मेरे नाक में इस कदर बसी थी कि कभी
अपनी जगह खोज़ ही नहीं पायी इन दीवारों में
पर आज सोचने बैठी हूँ

इस घर में खुद को इस यकीन से
कि बना लिया है इस घर ‘हमारा घर’’ बना लिया है इस कमरे को अपना कमरा
और खोजती हूँ मै कहां हूँ तुम्हारे इस घर में? क्या चुल्हे की इस लौ में?
झाडू की मूढ पर ?
या फिर बिस्तर की इन सलवटों में?

मैं रोज़ तुम्हारी इन निशानियों को छेडती हूँ
बदलना चहती हूँ हवा और पानी बांटना चहती हूँ इस घर को
एक पूरी जिद्दोजहद है मेरी
कि उमीद का एक घर रोपूँ

पर मेरी हर कोशिश पर एक तुषार है
मेरी हर कोंपल पर एक शीत है
और मेरे हर इरादे पर एक कोहरा
क्योंकि घर इस घर का कोई कोना मेरा नहीं है

यह् घर तुम्हारा है
सब तुम्हारा है
समझ गयी हूं
अभी मुझे चलना है
मीलों एक घर की तलाश में .....................................................अलका

अदम गोंडवी की मृत्यु पर कुछ सवाल खुद से और लिखने- पढने वालों की जमात से

‘अदम गोंडवी’ बडा अज़ीब लगा था यह नाम जब मैने पहली बार उनको दूरदर्शन पर एक कवि सम्मेलन में गज़ल पढते सुना था. अपनी माँ से जब पूछा कि ये क्या नाम हुआ अम्मा तब जैसे वो बिफर उठीं थीं एक तमाचा जडते हुए बोलीं ये ‘रामनाथ् सिंह’ हैं. इनका तखल्लुस है ‘अदम’ और गोण्डा के रहने वाले हैं इसलिये ‘गोंडवी’ लिखते हैं. और तपाक से बोली यह एक जिन्दा शायर हैं सुनो ध्यान से उनको. यह उनसे मेरा पहला परिचय था . आज उनकी मृत्यु की खबर सुनकर, वो दृश्य, माँ और वो तमाचा जैसे मेरी आंखों के सामने एक बारगी घूम गये हैं. तब शायद मैं 10 वीं की छात्र थी. कवि सम्मेलन मेरी जान हुआ करती थी और अदम गोंडवी जैसे शायरों और कवियों को सुनने का जैसे मुझे जुनून था और् यह जुनून बढाने में अदम, बसीम बरेलवी, बशीर बद्र, निदां फाज़ली, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों का बड़ा हाथ था किंतु इस पूरी जमात में अदम को पढना कई बार मुट्ठी भींचने को जैसे मजबूर कर देता है. पर आज जैसे खुद पर मुट्ठी तानने को मन हो रहा है. पुष्पेन्द्र फल्गुन की पोस्ट देखकर इस बार के लख्ननऊ प्रवास में उन्हें अस्पताल जाकर देखने की इच्छा थी. पर.......................
आज उनकी गज़लें कई बार पढ रही हूँ. पलट - पलट कर देख रही हूँ उनकी किताब इस दुख से कि आखिर क्यों अदम जैसे शायर अक्सर पैसे के अभाव में अस्पतालों में क्यों दम तोड देते हैं? क्यों एक ऐसा शायर जिसके शब्दों में लोगों को हिला देने की ताकत होती है उसी मुफलिसी का शिकार हो जाता है जिसको मिटा देने की तमन्ना लेकर वो उम्र भर लिखता है. क्यों ऐसा होता है कि हम उसी सरकार से गुहार करने लगते हैं जिसको आइना दिखाते – दिखाते अंतिम सांस लेने की कामना करता है वो शायर. और सरकारें लीवर और आंत की गम्भीर बीमारियों के लिये महज़ 50 हज़ार की सहायता दे कर अपना पिण्ड छुड़ा लेती ? और क्या बात है कि उसके जाने के बाद हम हाथ मलने के लिये मजबूर हो जाते हैं? इन् सभी सवालों के साथ मेरे पास कुछ सवाल आज के काथाकार, कवि और साहित्य कर्म से जुडे साथियों से और भी है किंतु सबसे पहले बात अदम की और उनकी बीमारी की --
अदम एक कृषक थे. उनका मुख्य पेशा भी कृषि ही था. याह बात सभी को मालूम है किंतु वह पूरवी उत्तर प्रदेश के एक ऐसे जिले के किसान थे जो जिला तमाम प्राकृतिक आपदाओं को पूरे साल झेलता है. बाढ, अंशिक क्रृषि सुखाड जैसी आपदायें वहां के लिये एक आम बात है. इस जिले के साथ इस पूरे क्षेत्र में बरसात के दिनो में महीनो पानी भरा रहता है तो ऐसे में पूरा इलाका कम उपज़, भूख, गरीबी, बेरोज़गारी तथा तामाम अन्य तरह के संकटों को झेलता है. इसलिये इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि वह एक ऐसे किसान थे जिनका गुजारा कृषि से कबीर की उन लाइनों की तरह ही चलता रहा होगा कि ‘ मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाये’.’ अदम का व्यक्तित्व इस बात की गवाही भी देता था कि वह भारत के एक आम किसान हैं बात अगर उनके इलाके के स्वास्थ की स्थितियों पर की जाये तो वह इलाका स्वस्थ्य के लिहाज़ से भी उसी तरह रेखांकित किया जाता है जैसे कि कृषि के लिये. आप देखें कि जापानी इंसेफेलाइटिस, मलेरिया और पानी के संक्रमण् से होने वाले कई रोगों से वहां के नागरिक रोज दो चार होते हैं. हर दिन सिर्फ मलेरिया से वहां कई मौतें होती हैं. पानी के संक्रमण से होने वाली तमाम बीमारियां वहां के लोगों को रोज अपना चारा बनाती हैं. बच्चों में जापानी इंसेफेलाइटिस की खब्रों से हो रही मौत की खबरें अभी खबरों की सुर्खियां है और् अदम गोंड्वी ने जब लिखा कि -
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
तो यह वो अपने इलाके की ही बात कर रहे थे और दुनिया को ही नहीं अपने साथी कवियों को भी बता रहे थे कि उनके इलाके के आधे घरों की यही हालत है. वहां भूख है, गरीबी है, बीमारी है और बेरोजगारी है. आप देखें कि वो सिर्फ हालात बयान नहीं कर रहे थे वो ये भी कह रहे थे कि -


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

तो वह चमारों के घर के बहाने साथ के लोगों से यह भी कह रहे थे कि वो इस ताप को मह्सूस करते रहे है और यह ताप उन्हें वो करने से रोकता है जो सब करते है और चहते हैं कि सब इस ताप को मह्सूस करें. साथियों इस ताप को सब्से पहले आप मह्सूस किजीये. क्यों? क्योंकि आपने मेरी बात पर दाद दी है और अगर दाद दी है तो चलिये मह्सूस करते हैं इस ताप को साथ साथ इसीलिये कहते हैं कि -

अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्याी है फ़लक़ के चाँद-तारों में

क्योंकि -

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास का.


फिर साथ के लोग यह कैसे नहीं समझ पाये कि ऐसा फकीर कवि देश की धरोहर है ? क्यों नहीं समझ पाये कि ऐसा कवि देश के साथ कविता की और हमारी जमात की सम्पत्ति है ? क्यों नहीं समझ पाये कि उनकी भी जिम्मेदारी बनती है उस कवि के प्रति? क्यों नहीं सोच पाये कि ऐसी धरोहरों को बचाने के लिये जब जरूरत होगी तो पहले उनको आगे आना होगा सरकार से गुहार उसके बाद लगायी जायेगी? क्यों नहीं समझ् पाये वो? ये सवाल हमें खुद से पूछने ही होंगे.
आप ध्यान दे कि अभी हाल ही में अदम जी की किताब भी जो आयी वो प्रतापगढ के एक बहुत ही छोटॆ से प्रकाशन अनुज प्रकाशन से आयी. किताब का विवरण देखें :
पुस्तक का नाम:
गजल की इन्कलाबी फसल
लेखक
अदम गोण्डवी
प्रकाशक:
अनुज प्रकाशन, इन्द्रप्रस्थ मार्केट, बाबागज, प्रतापगढ़ उ.प्र.
मूल्य:
Rs-125
तो ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाय जा सकता था कि उनकी इस तरह की गम्भीर बीमारी के समय आर्थिक मदद की अवश्यकता होगी. तो ऐसे में क्या होना चाहिये था ? क्या कोई जिम्मेदारी साथ के लोगों की नहीं बनती थी? क्यों ऐसा होता है कि हम सामर्थ्य होते हुए भी सरकार का मुँह ताकते हैं ? क्यों ? सोच रही हूँ जैसे वो हमसे ही कह रहे है कि -
चाँद है ज़ेरे क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया

जी हाँ किरदार! एक कवि का किरदार! जो लोगों की बात करता था जो जनता की बात करता था और जो आज के देश की तस्वीर हमे दिखाता था और कहता था -

काजू भुनी प्लेहट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहां की नखास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में

.................................... अदम गोंडवी

दरअसल जब एक शायर लिखता है और जब जनता के लिये लिखता है तो वह आवाज देता है, आगाह करता है और पुकारता है अपने आस पास को, देश को और उन पढे लिखे बुद्धिजीविओं को के देश के हालात पर सोचो विचार करो क्योंकि देश के हालात खराब हैं जनता बेहाल है और जब हम उसकी कविता पर दाद देते हैं तो वो आशा करता है कि उसके साथी सबसे अधिक जिम्मेदारी के साथ सुनेंगे उनकी बात और अमल करेंगे. सब कहेंगे कि उन्होने सुना उनको समझा उनकोके लिये भी तैयार थे. पर सवाल ये है कि क्या सही समय पर.? जब बात यहां तक पहुंच गयी थी कि –
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में

तो मतलब साफ था कि बगावत के बाद के हालात के बाद पर सोचना ही होगा क्योंकि बगावत आसान काम नहीं होता. क्यों नहीं सोच पाये हम? क्यों चूक गये हम? ऐसा नहीं है कि उसने कवियों को पुकारा नहीं था उनको आवाज़ नहीं दी थी. आप देखें वो कई तरह से और कई बार आदीबों को आवाज़ दे चुके थे. और कह रहे थे -

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

शायद कई बार इस ज़मात के तौर तरीके पर बहुत बेबाकी से कह गये कि ---

जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को ,
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये !


. अदम इंकलाबी नस्ल के शायर थे. वो देश के हालात को बताने का हुनर रखते थे. इमानदारी से आगाह करने का साह्स रखते थे उनको खोकर सहित्यकारों की जमात दुखी है किंतु इस जमात को खुद के अन्दर झांक कर देखना होगा. खुद से कई सवाल करने होंगे और भविष्य में ऐसा न हो इसके लिये तैयारी करनी होगी क्योंकि यह पहली बार नहीं है कि हमने कोई कवि इस तरह खोया हो. एक लम्बी कतार है. रागदरबारी अभी याद है लोगों को.
अंत में ढेरों सवाल खुद से करते हुए अदम को सम्झने की चेष्टा के साथ कुछ गज़लें --

1. मुक्तिकामी चेतना अभ्यलर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते है जिसे इस देश का स्वकर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नोंह में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्याउ हमारी प्यास की?
इस व्यतवस्था़ ने नई पीढ़ी को आख़िर क्याक दिया
सेक्सय की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ा स की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.

2.विकट बाढ़ की करुण कहानी

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्या.स लिखा है।
बूढ़े बरगद के वल्क ल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।
क्रूर नियति ने इसकी किस्मलत से कैसा खिलवाड़ किया है।
मन के पृष्ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।
छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्व प्निल स्मृुतियों में सीता का वनवास लिखा है।।
नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वाेस लिखा है।।
लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तन्हाकई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।
अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्या पर विरहदग्धच उच्छ्‌वास लिखा है।।

3.वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्थाह विश्वा स लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में
उस व्यनवस्थाब का घृणित इतिहास लेकर क्या‍ करें
कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्याि करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्सँ का एहसास लेकर क्या, करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्यामर का मधुमास लेकर क्याा करें





.....................................................................डा. अलका सिंह्

पढ़िए अदम गोंडवी की कुछ गजलें

1. ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में


ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्‍सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्‍बी क़तारों में

अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्‍मे के सिवा क्‍या है फ़लक़ के चाँद-तारों में

र‍हे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तज़रबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्‍तहारों में.



भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जल्‍वों से वाक़िफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.


2. मुक्तिकामी चेतना अभ्‍यर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते है जिसे इस देश का स्‍वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्‍नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्‍या हमारी प्यास की?

इस व्‍यवस्‍था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्‍या दिया
सेक्‍स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्‍फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.



3. विकट बाढ़ की करुण कहानी

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है।
बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है।।

क्रूर नियति ने इसकी किस्‍मत से कैसा खिलवाड़ किया है।
मन के पृष्‍ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है।।

छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्‍वप्निल स्‍मृतियों में सीता का वनवास लिखा है।।

नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्‍वास लिखा है।।

लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तन्‍हाई के मरूथल में मधुमास लिखा है।।

अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्‍य पर विरहदग्‍ध उच्छ्‌वास लिखा है।।



4. वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शंबूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती है मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें



5 वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बतलाएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है



6 हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए

हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए



7 जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है

चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आये
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है

इन्द्र-धनुष के पुल से गुज़र कर इस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिन्दास भी है

कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है.



8 जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.

Friday, December 16, 2011

माँ के नाम एक ख़त

माँ के नाम रोज़ रोज़ लिखती रही हूँ एक चिट्ठी
वो देखती होगी मेरी चिट्ठी और मेरा तडपता हुआ मन शायद
आज् कडकती ठंढ में उसके हाथ का एक स्वेटर हाथ में है
जैसे उसने अभी अभी दिया हो पहनने के लिये
उसके गर्म प्यार से भरा ये आज माँ सा हो गया है
और मैं उसकी एक एक बुनावट में घुस
माँ के स्पर्श से सराबोर हो रही हूँ

जब वो बुनती मेरे लिये तो जैसे ख्वाब बुनती थी ढेरों
उसके फन्दे में फंसी मैं सवाल पर सवाल करती रहती
क्यों बुनती हो मेरे लिये ?
क्या मैं पहंकर सुन्दर लगूंगी?
कब तैयार होगा ?
और वो चुप्चाप बुनती रहती प्यार

जब बडी हुई जैसे बदल गया था मन
उसके हाथ के स्वेटर सुहाने बन्द हो गये
वो हर साल बुनती और मैं मुँह बिचका परे रख देती
बिना उसकी आंखों को पढे
वो हर साल सहेज के रख देती अपना प्यार
उन्हीं सहेजे हुए में से ये एक
आज मा सा हो गया है

आज माँ की आंखें याद आती हैं
सूनी सूनी मेरी ओर तकती
फिर खत लिखने का मन है
कि पहन लिया तुमहारा प्यार
और कि
तुम बहुत अच्छी हो माँ
बहुत अच्छी हो

........................................................................अलका

अशोक कुमार पाण्डेय की कविता ''यह मेरी लाश है'' को समझने की एक कोशिश

अशोक कुमार पाण्डेय किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. फेसबुक वाले तो अब उनके तेवर और उनकी कलम के धीरे धीरे नशेडी हो गये हैं. कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने कहा - ''आजकल पाडे जी की पोस्ट नही आ रही''. इससे इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उनकी पोस्ट का फेसबुक वालों के लिये मतलब क्या है. बहरहाल, आज मैं उनकी कल की रचना पर बात करना चाहती हूँ. आप सब सोच रहे होंगे कि कल की ही रचना पर क्यों ? दिमाग में यह भी चल रहा होगा कि अशोक ने तो एक से एक रचनाएँ लिखी हैं तो उसपर क्यों नहीं ? कल पर ही क्यों.? इसके कुछ कारण हैं पहला करण तो ये कि पहली बार अशोक ने ये स्वीकार किया कि उनकी ये रचना निराशा की है और वो अभी इस कविता की रचना प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और दूसरा कारण ये कि जब मैं ये रचना पढ्कर उसपर कमेंट कर रही थी ठीक उसी वक्त मेरे एक मित्र ने मुझे एक और रचना पोस्ट की और कहा इसे भी पढो. मैं हैरान थी दोनो कविताओं को देख कर. एक ही वक्त में ऐसी दो रचनायें. प्रस्तुत है दोनों कवितायें. आप भी पढ लीज़िये दोनो -


1. यह मेरी लाश है

यह मेरी लाश है
कुछ नहीं कहेगी
आप चाहें तो ठीक मेरे बगल में बैठ मुझे गालियाँ दे सकते हैं
बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी-अभी कर गया है कोई प्रशंसा
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं
---------------- अशोक कुमार पंडेय
2. मुर्दे ...
---
अब
आजादी की दरकार नहीं है
क्यों, क्योंकि -
यहाँ कोई ज़िंदा नहीं है !
जो भी हैं -
जितने भी हैं, सब मुर्दे हैं !
सब अपना -
ईमान बेच चुके हैं
मुर्दे -
आजाद होकर क्या करेंगे ??
.......................... उदय
यहां मैने उदय की कविता का जिक्र इसलिये जरूरी समझा क्योंकि ये दोनों ही कवितायें एक वक्त में लिखी गयी हैं और दोनो कवि अपने तरह से इस वक्त को बयान कर रहे हैं और दोनो कमोबेश एक ही मनो भाव से गुजरते हुए लिख रहे हैं. तो सोच रही हूँ कि कैसा वक्त है यह ? ये कैसा वक्त है जब सम्वेदना इस उबाल पर है ? कैसा वक्त है ये जब एक कवि जैसे चिघाड्ते हुए कह पडा है कि '' ये मेरी लाश है'' और दूसरा बिफर पडा है कि ''यहाँ कोई ज़िंदा नहीं है'' ? क्या वाकई वक्त ऐसा आ गया है कि अब जरूरी हो गया है सोचना ? आपका, हमारा , हम सभी का, ? क्या सच में ऐसा वक्त आ गया है कि कवि हताशा में मृत होने की कल्पना कर बैठा है ?
इस आलेख में पहले बात अशोक कुमार पाण्डेय की कविता की. ऐसा इसलिये क्योंकि अशोक ने अपनी इस कविता के सन्दर्भ में कुछ बातें स्वीकार की हैं और किसी कवि की अपनी रचना के सम्बन्ध में स्वीकारोक्ति कई बार उस कविता या उसके वक्तव्य को समझना आसान बाना देती है. और वैदेही को जवाब देते हुए अशोक ने कहा कि – वह इस कविता की रचना प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं, दूसरी बात जो उन्होंने स्वीकार की कि यह निराशा की कविता है. यह दोनों ही स्वीकरोक्तियाँ कविता को विस्तार देती हैं. कविता के इस् पक्ष को मजबूत करती हैं कि कवि निराशा में है और उदय की कविता इस बात का समर्थन करती है कि इस दौर के कई कवि निराशा में हैं और उनकी कलम अभी रोने की जगह एक खास तरह की मन्:स्थिति में है जिसे या तो झल्लाहट कह सकते हैं या फिर उसके करीब की स्थिति. इसलिये बहुत जरूरी है कि सबसे पहले हम अपने दौर की बात करें क्योंकि इस दौर की स्थितियां ही कवि की निराशा , उसकी छ्ट्पटाहट और उसके शब्दों के वितान में छिपे रहस्य को हमारे सामने रखेंगी.
पर पहले बात अशोक और उनकी रचना धर्मिता की. अशोक अपने दौर में प्रगतीशीलता के कवि हैं, कांति के कवि है और देखा जाये तो डंके की चोट पर कहने वाले कवि हैं. इसलिये उनकी किसी भी रचना पर कलम चलाते हुए इन तत्वों को नज़रन्दाज़ कर नहीं लिखा जा सकता. ना ही उनसे इससे कम की उमीद की जा सकती है. एक रोचक बात चुकि सन्दर्भ है तो बताती चलूँ कि अशोक को मैं काफी लम्बे अरसे से पदती आ रही हूँ किंतु इस बात की जानकारी कि वो मुझसे उम्र में छोटे हैं तब हुई जब मै फेसबुक पर उनकी मित्र बनी. यह बात यहां मैने इसलिये दर्ज़ की क्योंकि उनका लेखन अपनी पूरी परिपक्वता के साथ अपने शुरुआत से ही खडा है और इसीलिये इस रचना की ‘निराशा’ जैसा वो कहते हैं को भी एक परिपक्व भाव में पढा जाना चाहिये क्योंकि मेरा मानना है कि कविता एक सामान्य कर्म नही है. यह आनेवाली पिढियों के लिये दस्तावेज़ तैयार करने का काम है और इसीलिये धूमिल को कोड करूंगी कि ‘’ एक सही कविता पहले एक सही वक्तव्य है’’. तो अशोक जैसे कवि जब अपना वक्तव्य लिखते हैं तो वह समय के गवाह के रूप में अपनी बात आनेवाली नस्लों के लिये कुछ दर्ज़ करते हैं और इस दर्ज़ दस्तावेज़ के कई मायने हैं. यही कारण है कि उनका ये कहना बडी बात हो जाती है कि ‘’ ये मेरी लाश है कुछ नहीं कहेगी......’’. पर कवि इतना ही नही होता वह अपने समकालीन जी रहे सभी लोगों का स्वर होता है, सभी लोगों की कलम होता है और सभी लोगों की उम्मीद होता है इसीलिये एक ऐसे वक्त में जब इस देश में मह्गाई चरम पर है, रुपये का अवमूलयन हो रहा है, भ्रष्टाचार चरम पर है, भूख है, गरीबी है, बेकारी है और भी ना जाने क्या – क्या तब कवि का निराशा के साथ लिखना उसकी अकेले की विवशाता नहीं होती वह उस कलम , उस जुबान और उन सम्कालीन लोगों की विवशता और निराशा बन जाती है जो उनसे अपनी उमीदों को जोड कर उनको लिखने के लिये प्रेरित करते हैं, उनको दाद दे प्रोत्साहित करते हैं और आशा बाधते हैं कि उनका प्रवक्ता उनको समय और समय की गम्भीरता का आभास समय रहते जरूर करायेगा. वह आगाह् भी कारेगा कुचक्रों से, आने वाले दुखों से. इसलिये कवि जैसे एक नियुक्त प्रवक्ता होता है समकालीनो द्वारा. और इसी कारण वह बेचैन, निराश हताश हो जाता है और इसीलिये एक जिम्मेदार कवि जब बइन स्थितियों से गुजरता है तो उसका निराश होना लाज़मी है.
तो चलिये इसी सन्दर्भ में अशोक की कविता और इस दौर में उसके मायनो को समझते हैं.
अशोक कहते है-
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं
यह तीन लाइन पूरे वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण लाइन है जो बता रही है कि कवि एक प्रक्रिया के तहत लाश बनते हुए अपने को मह्सूस कर रहा है. मैं अगर इसे व्यापक तौर पर कवि को देखती हूँ तो मेरे सामने उसके इस बयान के बहुत से कारण नज़र आते हैं. आप देखें जो कवि अपने काल खणड की समस्या से अपने को जोड्कर जिम्मेदारी महसूस करते लिखता है सीधे – सीधे सत्ता, सरकार और शासन के सामने आईना लेकर खडा होता है. वो भी जनता की तरफ से जनता का प्रवक्ता बन तो ऐसे में जब देश मुश्किलों के दौर से गुजरे, जनता बेहाल हो, विदेश् की राजनिति आपको डसने के लिये खडी हो, एक के बाद एक ऐसे कानून बन रहे हों जो आने वाले हमारे बच्चों के भविष्य के गर्त का करण होंगी. और लिखने बोलने की स्थिति में अपने को असहाय पाये तो कवि कहेगा ही -
‘’यह मेरी लाश है
कुछ नहीं कहेगी
आप चाहें तो ठीक मेरे बगल में बैठ मुझे गालियाँ दे सकते हैं
बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी-अभी कर गया है कोई प्रशंसा’’
वैसे देखें तो यह एक तरह से अपने लोगों से गुस्सा भी है. एक नाराजगी जैसे अब तुम चाहे जो करो मेरी प्रशंशा या बुराई जब तुम्को कोई फर्क नही तो मुझे भी नही फर्क पडता. जैसे मुझसे तुम्हारा नाता नहीं अब वाले अन्दाज़ में. हो सकता है यह एक स्वीकारोक्ति भी हो कि इस दौर में मैं प्रवक्ता जैसा नहीं रहा और यह हताशा भी. किंतु जो भी है एक इमान्दारी जरूर है जो एक सामाजिक कवि की अपने कर्म के प्रति है. इसीलिये वो आगे कहते है -
इस देह में सबसे पहले अचेत हुई है जीभ
हृदय उसके ठीक बाद
और आँखे मरने के पहले ही बंद हो गयीं

जीभ का अचेत होना संकेत है कि मैं इस स्थिति में अचानक नहीं आया हूँ यह प्रक्रिया रही है एक निरंतर पीडा कि मैं वैसा नहीं कह पा रहा जैसा चाहिये या फिर वैसा जैसा मन में था या फिर उतना क्रंतिकारी जो इस वक्त के लोग को आगाह कर सके या फिर जगा सके. कुछ ऐसे भाव जरूर है इसिलिये स्पन्दन और फिर मरने से पहले आंख बन्द जैसे प्रयोग हैं. पर मेरा मानना है कि जीभ बन्द नही हुई बल्कि उसे बन्द कराने की परिस्थितियां उत्पन्न हुईं या फिर की गयीं और धीरे – धीरे स्पन्दन और आंख बन्द करने तक पहुंच गयी.
सोच रही हूँ यह कितनी भयावह स्थिति है इस दौर के लिये. कितनी घोर निराशा की स्थिति कि एक कवि इमान्दारी से स्वीकार कर लेता है कि वह निराश है. यही वज़ह है कि अंजु शर्मा ने कविता की तारीफ करने से इंकार कर दिया और वैदेही ने निराशा की कविता कह अशोक को स्वीकरोक्ति के लिये मजबूर कर दिया . पर मैं इस कविता की तारीफ इसलिये करूंगी कि कवि अपने कर्म को लेकर ईमान्दार है, वह हमारे सामने अपनी निराशा रख रहा है, उसे पता है कि इस निराशा से साथ मिलकर ही निकला जा सकता है. इसीलिये मैं इसे उबाल की कविता कह्ती हूँ क्योंकि ऐसा नही है कि जीभ मर गयी है वह अचेत है और इस अचेतवस्था के कारण जो अभी केवल अभी कवि जानता है को हमें भी जानना होगा. आप देखें ह्र्दय भी बन्द नहीं हुआ है वह भी अचेतावस्था में ही है. और मरने से पहले जो आंखें बन्द होती हैं वो खुलती भी हैं इसलिये यह हमारे लिये निराशा से अधिक चेतावनी की कविता है और इसे हमें समझना ही होगा तकि वक्त रहते कवि वह सब साझा करे जिसने उसे ऐसा करने पर मज्बूर किया (अगर किया तो) नहीं तो जो भी हुआ उसको उसी इमान्दारी से साझा करे जैसी कि कविता इमान्दार है.
इस कविता पर आगे बात जब अशोक इसे पूरी कर साझा करेंगे
......................................................... डा. अलका सिंह

Thursday, December 15, 2011

अब खुले आकाश की हिरनी हूँ

तुम्हारे हमारे बीच प्रेम के रेशे खोज़ - खोज़ के थक गयी हूँ
पर लोग कहते हैं बहुत है प्रेम हमारे बीच
वो कहते हैं दो जिस्म मगर एक जान हैं हम
इसीलिये हमारे बीच के हर रेशे में तल्लीनता के साथ
खोज़ती हूँ वही रंग जो सबको दीख जाता है
पर मुझे उसका एक कतरा भी नहीं मिल पाता

तुम सर्दियों में लिहाफ में जीते हो और एक प्याला चाय की आस में
बैठे कभी कुछ पढते रहते हो और कभी कुछ लिखते
और मैं सर्दियों की इन कपा देने वाली ठढ में
चाय ले तुम्हारे सामने खडी रहती हूँ
क्यों ये पता नहीं
पर सबको लगता है ये प्रेम है मेरा तुम्हारे लिये

तुम अपने होने के मायनो को जानते हो और मैं विवश तुम्हारे होने के
मायनो को ही जीती हूँ
माँ ने भी यही जिया था पिता के लिये वो भी विवश ही थी
और पिता ने कभी जाना ही नहीं माँ की विवशता
मैं यही साम्य देख दंग हूँ तुममें और अपने पिता में
तुम जब कहते हो तुम्हारे हाथ की चाय अच्छी लगती है
सब मुग्ध हो मेरे प्रति तुम्हारे प्यार को देखते हैं
पर कोई नही देखता रोज़ रोज़ मेरे चाय बनाने की विवशता
कोई नही देखता इन कन्धों पर घर
जिम्मेदारी की विवशता

कई बार खोज़ती हूँ तुम्हारे बोलों में एक कतरा प्यार का
पर वह भी सशर्त मिलता है
कितनी अच्छी हो – जब कुछ बना कर देती हूँ
कितनी सुन्दर हो – जब स्वस्थ होती हूँ तुम्हारा साथ सुहावना है – जब चुप रहती हूँ
पर मेरे भीतर भी एक इक्षा है दबी ही सही
कि तुम कितने अच्छे लगते जब
मुझे भी इंसान समझते
तुम कितने अच्छे लगते जब
मेरी विवशता को बांट लेते और तुम कितने
अच्छे लगते जब मेरी भी सुनते

एक दौर तक दुविधाओं में जीती
अब उस उस रास्ते चल पडी हूँ जो मेरी बात करता
हर पल स्वागत में था मेरे
उधर ही चल पडी हूँ
कई लकीरें खीची है अब तक
कितनी ही खीचनी बाकी हैं
अब खुले आकाश की हिरनी हूँ
अपने कुलांचों के साथ
............................................... अलका

Wednesday, December 14, 2011

बोधिसत्व की शांता , मेरी टिप्पणी और एक उवाच

दोस्तों , वन्द्नना शर्मा की वाल पर कवि बोधिसत्व की कविता शांता पर की गयी मेरी टिप्पणी पर ‘कुटज़ अनल’ ने अपनी टिप्पणी में मुझपर कटाक्ष करते हुए कहा -
- ‘’ हिंदी की ही नहीं भारतीय भाषाओं में बेजोड़ कविता पर अलका की बेजोड़ मूर्खता सुवर्ण अक्षरों में अंकित करने योग्य है।‘’
इस टिप्प्णी से पहले सोच रही थी कि इस कविता के बहाने कुछ लिखा जाये. कुछ इतिहास कुछ समाज और कुछ औरतों की स्थिति और स्वभाव को बनाये जाने पर बात करूँ पर अचानक अपने लिये मूर्ख का विशेषण सुन थोडा सोच में पड गयी कि क्या सच्मुच मैने कुछ विषय से इतर कह दिया? क्या मेरे अनुमान एक इतिहासकार के अनुमान और उसकी प्रवृत्ति से अलग अंकित हो गये? या मेरी विवेचना गलत हो गयी? मैं अपनी टिप्पणी आप सब के सामने विचार के लिये रख रही हुँ.
मेरी टिप्पणी थी
- मैंने यह कथा कुछ अलग तरह से सुनी थी. मैंने सुना था के श्रृंगी ऋषी ने दशरथ से उनकी कन्या माँगी थी और दशरथ ने यज्ञ के बाद उन्हें दान कर दिया. और हिन्दू धर्म में माना जाता है कि दान की वस्तु पर कोइ अधिकार नहीं होता. यह तो रही पुरानो की बात पर जहाँ तक पुत्रेश्टी यज्ञ की बात है तो इसका रहस्य कुछ और ही है. मेरा ऐसा मानना है कि राम सभी भाई यज्ञ से पैदा ना होकर नियोग से पैदा हुई संताने थें. और यही वज़ह थी कि दशरथ ने शांता ही नहीं श्रृंगी ऋषी को भी दुबारा नहीं बुलाया अयोध्या. अगर इतिहासकारों की मानी जाए तो रामायण महाभारत के बाद की रचना है. इसका मतलब यह महाभारत की बाद का समाज था इअस्लिये और शायद रामायण काल तक नियोग उस तरह समाज में स्वीकार्य नहीं रह गया था जैसे महाभारत काल में था. हल्लंकी महाभारत में भी नियोग को बहुत ही अलोकिक तरह से प्रस्तुत किया गया है. जहाँ तक शांता को ना बुलाने का प्रश्न है उसके पीछे के कारण में एक कारण जहाँ उसको दान कर देना था वहीं दूसरा कारण यह भी था कि जिस व्यक्ति के नियोग से राम चारो भाई पैदा हुए थे उसे कैसे पुनः बुला कर रिश्तों के मानसिक भवंर में फंसा जाए. यह एक बहुत बड़ी दुविधा थी सभी माताओं , दशरथ और चारो भाइयों के लिए. ऐसा मेरा मानना है ‘’
इसके अलावा मैने कहा था कि –

- ‘’देखा जाए तो कई बातें यहीं से निकलती हैं. भारतीय समाज में एक पुत्री की स्थिति कैसी होती है यह स्थिति इस कविता में खुलकर सामने आती है. और अगर वह राजा की बीती थी तो बात कुछ और ख़ास हो जाती है. मैं मानती हूँ कि हर माँ और बाप की पुत्री संतान एक सौतेली संतान होती है यानी भारत की कर बेटी सौतेली है शांता के माध्यम से इसको समझा जा सकता है. कविता बात लम्बी की जा सकती है’’
-
- इन दोनो ही टिप्पणियो पर बात करने से पहले आइये राजा द्शरथ और शांता की कहानी सुनते हैं. यह कहानी इसलिये भी कि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि राजा दशरथ की एक पुत्री भी थी और उसका नाम शांता था. तो फिर पूरी रामायण और लोकप्रिय तुलसी दास की मानस में शांता की कथा लुप्त प्राय् सी क्यों है? यह कथा दो बाल सखाओं के आपसी रिश्तों और वादों से आरम्भ होती है. कथा है कि -
दशरथ और अंगन्रेश रोमपाद (चित्ररथ) बचपन के दोस्त थे. एक दिन राजा दशरथ ने अपने मित्र से उनकी उदासी का कारण पूछा. अंग नरेश ने कहा- हे राजा दशरथ न केवल हमारे राजज्योतिषी ने बल्कि सभी ज्योतिष मण्डल ने यह् भविष्यवाणी की मैं संतान हीन रहूंगा और् मेरा पितृवंश मुझसे ही समाप्त हो जायेगा। मैं इसी सोच से दुखी हूँ कि मैं पितृवंशनाशक हूँ। दशरथ ने प्रतिउत्तर में कहा – चिंता न करो मित्र। इस समस्या का कोई ना कोई समाधन तो होगा ही । दत्तक संतान सदियों से विधिमान्य रही है, और रहेगी। मैं अपनी पहली संतान दत्तक के रूप में तुम्हें दे दूँगा।
आश्रम से अयोध्या लौट्ने के बाद दशरथ गद्दी पर आसीन हुए और महारानि सुमित्रा से उन्हें एक कन्या रत्न की प्रप्ती हुई. कहते हैं राजा दशरथ को अंगनरेश को दिया गया अपना दिया वचन याद था और उन्होनें शांता को दत्तक पुत्री के रूप में अंगन्रेश को दे दिया. किंतु यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती. इस कथा में मोड तब आता है जब अंग देश में अकाल पडता है
आगे बढ्ने से पहले कुछ खास बातें बताती चलूँ -
-बाल्मीकि रामायण में को अंग नरेश रोमपाद की गोद ली गई पुत्री बताया गया है। पर उल्लेखनीय है कि हरिवंश पुराण रोमपाद को दशरथ का ही नामांतर मानता है। (हरिवंश 1.31.46)
- मत्स्य पुराण और महाभारत में शांता को दशरथ की कन्या कहा गया है। (मत्स्य पुराण 48.95 महाभारत -9.23.7-10)
-महाभारत में वर्णन है कि रोमपाद राजा दशरथ का परम स्नेही था। उसके कोई संतान नहीं थी इसलिए शांता को उसे गोद दे दिया गया।
अब बात ऋषिकुमार श्रृंग्य (या श्रृंगी) की. मिथक कहते हैं कि ऋषिकुमार श्रृंग्य का जन्म ऋषि विभण्ड्क और एक हिरनी के संसर्ग से हुआ था यही करण था कि ऋषिकुमार श्रृंग्य सिर पर एक सींघ थी. ऋषि विभण्ड्क अप्ने पुत्र को महान तपस्वी बनाना चाहते थे यही करण था कि ऋषि कुमार ने ऋषि विभण्ड्क को छोड किसी दूसरे मनुष्य के दर्शन नहीं किये थे. ऋषि विभण्ड्क के डर से कोई भी उनके आश्रम तक जाने का साहस नहीं कर पाता था. किंतु यही समय था जब अंग देश में अकाल पडा और हाहाकार मच गया. राजा ने राज्य के अनुभवी लोगों को बुलाकर पूछा कि अब क्या किया जाये? क्या मेरे राज्य में वर्षा होने का कोई उपाय है ? ऋषियों ने बताया कि गंगातट पर पड़ोसी राज्य के निकट तपोवन में विभाण्डक ऋषि का आश्रम है। उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग यदि इस राज्य में आकर जल वृष्टि यज्ञ कर दें तो निश्चित रूप से वर्षाहोगी। किंतु सचेत भी किया कि वे महान तपस्वी होने के साथ-ही-साथ बहुत क्रोधी भी हैं। कोई भी छोटा-मोटी राजा उन्हें अपने यज्ञ में बुलाने का साहस नहीं कर पाता। वे कोई पात्र नहीं रखते। इसी कारण उनका नाम विभाण्डक पड़ा। गंगा का निर्मल जल, वन में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न वृक्ष के फल, मूल, कन्द इत्यादि को ही वे बिना पकाये आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। पुराण् कहते हैं कि – जब शांता ने ऋषिकुमार के विषय में सुना उसने उन्हें अपने राज्य में लाने का बीडा उठाया तकि जनता को राहत मिले. उसने कुछ गणिकाओं को इस काम के लिये तैयार किया. गणिकाओं के इस दल ने ऋषिकुमार पर पूरी नज़र रखी कि कब वो अकेले होते हैं और कब उनका अफरण किया जा सकता है. वर्णन है कि –
‘’ऋष्यश्रृंग दिन प्रथम प्रहर में और चतुर्थ प्रहर में ही कुछ घड़ी आश्रम में अकेले रहते हैं। विभाण्डक ऋषि के वन मं जाने के बाद उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग भी कुछ दूर वन में भ्रमण करने निकलते हैं। आश्रम के आसपास न तो कोई अन्य आश्रम है और नही कोई ग्राम। फलतः इस निर्जन वन में किसी अन्य मनुष्य के मिलने की संभावना नहीं के बराबर है। इस कारण पिता ने उन्हें गंगा तट पर अथा गंगा तट तक आने-जाने तथा घूमने-फिरने की अनुमति दे रखी है।सदा की भाँति पिता के वनांचल की ओर जाने के बाद पुत्र गंगा तट की ओर निकले। जैसे ही वे गंगा तट की ओर निकले। जैसे ही वे गंगा तट के पास पहुँचे, उन्हें राग मल्हार, मृदंग की पुकार और पायल की झंकार सुनाई धी। वे मात्र जिज्ञासावश कर्णप्रिय संगीत की लहर में बहने लगे। मानव की मूलभूत जिज्ञासु प्रवृत्ति कीमार, देह व्यापारियों की वार और वीणा के तार ने संयुक्त रूप से उन्हें सशरीर खींचकर कृत्रिम आश्रम के द्वार तक ले जाने में अंततः सफलता प्राप्त कर ही ली।‘’
और इसी ऋष्यश्रृंग ने अंग देश में यज्ञ किया जिससे तत्काल ‘जल वृष्टि यज्ञ’ करते ही मूसलाधार वर्षा होने लगी। ऋष्यश्रृंग का वृहद तथा बहुत व्यापक स्तर पर स्वागत-सत्कार किया गया। ऋष्यश्रृंग के लौट जाने से वर्षा रूक न जावे, इस आशंका से भी पुत्री शांताने पुरस्कार स्वरुप वर के रुप में ऋष्यश्रृंग को मांगा। ऋष्यश्रृंग की पूर्ण स्वीकृति की स्थिति में महाराज रोमपाद ने ऋष्यश्रृंग का विधिवत विवाह अपनी पुत्री शांता के साथ करा दिया।
इस ऋष्यश्रृंग की चर्चा कुछ इस तरह हुई थी कि जब राजा दशरथ संतान के लिये तडपने लगे तो सुमंत ने उंको सलाह दी कि ऋष्यश्रृंग से पुत् यज्ञ कराया जाये. महराज दशरथ इसी आशय के साथ शीघ्र ही अन्ग देश पहुँचे और अंग्नरेश चित्ररथ से निवेदन किय कि ऋष्यश्रृंग और पुत्री शांता अयोध्या आकर पुत्रयेश्ती यज्ञ करायें. राजा चित्र रथ ने ऋष्यश्रृंग के अश्रम पहुंच आग्रह किया ‘’आप ‘पुत्रेष्ठि यज्ञ’ विषयक प्रकाण्ड पंडित हैं। आपके आचार्यत्व में वे ‘पुत्रेष्ठि यज्ञ’ कराना चाहते हैं। हमें पुत्री शांता के महाराज दशरथ के यहाँ जाना चाहिए। महर्षि ने ‘प्रायश्चित करने का अवसर आया जान’ महाराज का निवेदन मान्य किया।‘’

इस तरह राजा दशरथ के चार संतानें उत्पन्न हुईं जिसे हुम राम , लखन, भरत और शत्रुधन के रूप में जानते हैं.


दोस्तों मैं एक इतिहास विद हूँ साहित्य में मेरी गहरी रुचि है. इसके कई करण हैं किंतु जो कारण यहां सन्दर्भ के लायक है उसका जिक्र करना मैं जरूरी समझती हूँ. मैनें आधुनिक इतिहास में औरतों की स्थिति जैसे विषय पर अपनी थीसिस लिखी है. जब मैने शोध में दाखिला लिया था तब मेरे लिये समग्री एकत्रित करने में काफी कठीनाई हो रही थी महिलाओं को इतिहास में तलाशना काफी कठिन था क्योंकि महिला का इतिहास जैसा कुछ था नही उस समय सहित्य के ऐसे ही वक्तव्यों ने मुझे काफी मदद की. किंतु एक इतिहासकार की सबसे बडी समस्या है हर बिन्दु पर सवाल करना जबकि सहित्यकार उस क्यों को पार कर आगे बढ जाता है. इतिहासकार क्यों कैसे कहां कब जैसे सवालों का जवाब ना मिलने पर वहीं ठहर्कर खोजता है और तब तक रुका रहता है जब तक तर्क्पूर्ण जवाब नही मिल जाता. जवाब मिलने से पहले वह कई सम्भावनायें व्यक्त करता है. और मैने ये सारी प्रक्रियायें अपने शोध के दौरान सीखीं और जानी. इस दौरान मैने वेद से लेकर आज तक के साहित्यकारो को खूब पढा कोद किया उंपर लिखा, उनकी व्यख्या की और जो भी तथ्य इतिहास के लायक थे उन्हें उठा लिया. इसीलिये मेरा नाता इतिहास , सहित्य और नारी सन्दर्भों से बराबर का है. बहरहाल अब बात मेरी मूर्खता की, मेरे द्वारा शांता की कथा पढने के श्रोत की और बात मेरे नाम कमाने की भूख की.
शांता की कथा जो भी है विभिन्न सन्दर्भों में वो मैने ऊपर् दे दी है और कई श्रोत भी दिये हैं किंतु सबसे बडा सवाल है कि मैने राम के जन्म को नियोग से उत्त्पन्न माना है और यही मेरी मूर्खता क प्रमाण है ऐसा कुतज़ अनल मानते हैं. दरअसल राम नियोग से उत्त्पन्न हुए यह मान लेना साधारण हिन्दु के लिये मान लेना बेहद कठिन है क्योंकि राम हमारे मन में इस आस्था के साथ बैठाये गये हैं कि वह भग्वान हैं और उनकी उत्त्पत्ति वैसे ही अलोकिक है जैसे ब्रह्मा विश्नु महेश की है. वह उसी तरह ईश्वर है6 जैसे कि देव त्रय हैं. ऐसा कई धर्मो के साथ है जैसे ईसाइ मांते हैं कि जीसस का जन्म एक कुआंरी कन्या मरियम के पेट से हुआ था. यहे वज़ह है कि हम इस विवाद को तर्क में नही घसीटते. यहां हम चुप्प रह्कर उनको भग्वान मान लेने में ही भलाई सम्झते हैं किंतु जब हम दशरथ को राजा और एक मानव के रूप में देखते हैं और उनके इतिहास की रोज़ रोज़ तलाश करते हैं तो क्या यह सम्भव है कि उनके किये पर इतिहास सवाल ना करे? यज्ञ के उस खीर पर सवाल ना करे? वैसे देखा जाये तो सवाल तो ऋष्यश्रृंग के जन्म पर भी खडे होते हैं और उनकी सींघ पर भी. अगर मैने बात नियोग की की तो यह मूर्खता की शेनी मे6 कैसे आ गया यग सम्झ पाना जरा कठिन इस्लिये है क्योंकि निह्संतान दम्पत्तियों के लिये नियोग भारत में एक मान्य परम्परा रही है नियोग के कुछ नियम हैं विव्रण देखें -
‘’नियोग, मनुस्मृति में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर ऐसी व्यवस्था है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सगोती से गर्भाधान करा सकती है। वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए | कलियुग में यह विधि वर्जित है।‘’
इसके नियम कुछ इस प्रकार है –
१. औरत इस प्रथा का पालन केवल संतान के लिए करेगी, आनंद के लिए नहीं |
२. नियुक्त पुरुष केवल धर्म के पालन के लिए इस प्रथा को निभाएगा | उसका धर्म यही होगा कि वह उस औरत को संतान देने में मदद कर रहा है |
३. एस प्रथा से जन्मा बच्चा जायेज़ होगा और कानूनी रूप से बच्चा पति-पत्नी का होगा, नियुक्त व्यक्ति का नहीं |
४. नियुक्त पुरुष उस बच्चे के पिता होने का हक नहीं मांगेगा और भविष्य में बच्चे से कोई रिह्स्ता नहीं रखेगा |
५. इस प्रथा का दुरूपयोग न हो, इसलिए पुरुष अपने जीवन काल में केवल तीन बार नियोग का पालन कर सकता है |
६. इस कर्म को धर्म का पालन समझा जायेगा और इस कर्म को करते समय नियुक्त पुरुष और पत्नी के मन में केवल धर्म ही होना चाहिए, वासना और भोग-विलास नहीं | नियुक्त पुरुष धर्म और भगवन के नाम पर यह कर्म करेगा और पत्नी इसका पालन केवल अपने और अपने पति के लिए संतान पाने के लिए करेगी |
नियोग में शरीर पर घी का लेप लगा देते है ताकि पत्नी और नियुक्त पुरुष के मन में वासना जागृत न हो |
यह नियम रामायण काल में थे और उसके बाद भी. महाभारत् में तो ध्रितराष्ट्र, पंडू और विदुर नियोग से पैदा हुए थे जिसमे ऋषि वेद व्यास नियुक्त पुरुष थे | बाद में, पंडू संतान देने की शक्ति न होने के कारण, पाँचों पांडव नियोग से पैदा हुए थे जिसमे प्रत्येक नियुक्त पुरुष अलग-अलग देवता थे. तो ऐसे में राम के जन्म के तरीके पर सवाल तो उठेंगे ही. अब सवाल रहा पुत्रेष्टी यज्ञ का और उस चम्त्कारी खीर का जिसे खा लेने भर से तीनो रानियाँ और विभीषण सभी पैदा हो गये. आप कथा का एक बेहद रोचक और अविश्वसनीय प्रसंग है कि खीर के तीन हिस्से ऋष्यश्रृंग ने किये थे किंतु एक हिस्सा एक बिल्ली ने खा लिया था तब कौशल्या और कैकेयी ने अपने अपने हिस्से में से आधा आधा भाग सुमित्रा के लिये रख दिया और उस बिल्ली का जूठा पत्ता लंका में विभीष्ण की मां ने खा लिया था. मैं यहां कहूंगी कि राम से सम्बन्धित ग्रंथ रामायण और मानस इतिहास कतई नहीं है बल्कि एक काव्य है और इसकी रोचकता इन्हीं कारणों से है कि इसमें ऐसे ऐसे प्रसंग हैं. खैर बात खीर की हो रही थी. तो एक इतिहास्कार के रूप में मुझे खीर की कैमिकल क्म्पोजीशन पर सवाल करना है. मुझे ऋष्यश्रृंग और उनके ज्ञान के बारे में जानना है. अगर ये सवाल अनुतरित हैं तो मेरा यह कहना कहीं से भी मूर्खतापूण मुझे नही लगता. मुझे नहीं लगता कि वह खीर ऐसी थी कि उसके खा लेने कोई स्त्री गर्भवती हो सकती है.
.............................................. डा. अलका सिंह

Sunday, December 11, 2011

स्त्री और कविता

(यह लेख देवताले जी की कविता पर हुई बात का ही विस्तार है)


स्त्री और कविता का बहुत पुराना रिश्ता रहा है. कविता ही क्यों बल्कि धर्म, दर्शन तथा अन्य कई विषयों का केन्द्र भी हमेशा से स्त्री ही रही है किंतु साहित्य और कविता में स्त्री एक ऐसा विषय रही है जिसके पीछे - पीछे कविता की आधी से अधिक दुनिया भागती रही है. सदियों तक ‘स्त्री’ उसकी देह, उसके दुख, उसका प्रेम, उसके शरीर के गहने उसकी भंगिमायें सब के सब जैसे कविता में समाये रहे हैं. ईमान्दारी से कहा जाये तो ये विषय बहुत प्रिय रहे हैं कवि और कविता के लिये. कई बार तो लगता है जैसे कविता इससे इतर कुछ है ही नहीं. सबसे धयान देने वाली बात तो ये है कि स्त्री और उसको केन्द्र में रखकर् लिखी गयी कविताओं में स्त्री की अपनी जिन्दगी, उसके दुख, उसकी खुशी, उसके सपनो, उसकी चाह , उसकी सफलता की बात शायद ही की गयी होगी और अगर होगी भी तो वैसी कविता एक पाठ्क के इंतज़ार में होगी. कवियों ने जब स्त्री से जुडे विषय उठाये भी हैं तो उसका दुख और देखने वाली बात है कि आखिर स्त्री का वो दुख है क्या? और जवाब है कि स्त्री के दुख को चित्रित करने के रूप में कवियों ने अधिकांशत्: स्त्री के प्रेमी या पति से वियोग जैसे पक्ष को ही विषय बनाया गया है. यानि विरह की आग में जलती स्त्री. जैसे ‘जायसी’ की ‘नागमति’ का सन्दर्भ देखें “ पिऊ से कहेउ सन्देसडा हे भौंरा हे काग”. जायसी का यह वियोग चित्रण हिन्दी साहित्य के उत्तम चित्रणों में से एक है जैसे कविता का एक बेंच मार्क है किंतु सवाल है कि क्या दुनिया में बद्लाव की सदी कही जाने वाली 20 वीं और उसको विस्तार देने वाली इस 21 वीं सदी में भी कवि और कविता क्या जयसी के युग या उस काल खण्ड को ही विस्तार देने वाली ही होनी चहिये ? दूसरी बात कि क्या आज का कवि (पुरूष्)इससे आगे बढ पाया है? क्या स्त्री को लेकर पुरुष रच्नाकारों की कविता में भी नारी बदलाव के साथ आगे बढी है. मेरा मानना है कि यह सवाल एक बडा सवाल है इसलिये नही कि यह सवाल मैं या कोई महिला पाठ्क उठा रही है बल्कि यह सवाल इसलिये और भी बनता है क्योंकि पुरुष रचनाकारों और उनकी कलम का एक उत्तरदायित्व रहा है. मैं कई बार सोचती हूँ कि क्या उनकी कलम स्त्री के प्रति अपने दायित्व से बचती रही है? सोचती हूँ कि क्रंतिकारी होने के लिये जाना जाने वाला कवि समाज भारत में स्त्री के प्रति हिन्दी कवि कभी भी क्रंतिकारी रहा है? कई बार मन में खयाल आता है कि क्या इस देश में स्त्री को लेकर क्रांति भी अपना अलग अर्थ रखती है? निश्चय ही यह सोचने वाला विषय है और मैं अक्सर ना केवल खुद सोचती हूँ और चहती हूँ के ये सवाल सबके सामने रखे जायें ताकि स्त्री को लेकर किये गये आज तक के लेखन को ना केवल समझा जाये और चर्चा हो. यही वज़ह है कि मैं आज के दौर से थोडा पीछे खिसक के जायसी से और उनके दौर के लेखन को माध्यम बना अपनी बात कहने की कोशिश कर र्ही हूँ ताकि बात शुरु कर सकूँ
कवि और उसके लेखन का समाज पर बहुत असर होता है. कहते हैं कि कवि अपने समय से आगे की सोचता है. वह कई बार समय और उसकी सीमाओं से आगे की ना केवल सोचता है बल्कि ऐसी चीज़ें रचता भी है जो एक रस्ता खोलती नयी सोच के लिये पर स्त्री और उसके सन्दर्भ को लेकर कवियों की सोच को खंगालते हुए एक बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि इस बिन्दु पर कवियों की कलम थोडी चूक जरूर गयी. इमानदारी से देखा जाये तो संस्कृत से लेकर लग्भग सभी भारतीय भाषाओं में अमूमन हर् दौर के कवियों ने अपनी – अपनी रचनाओं में अपने काल की स्त्री को चित्रित किय है. जायसी जैसे कवियों के दौर में स्त्री और कविता का एक अलग ही साथ रहा है. उस दौर के कवि स्त्री के वियोग, उसके सौन्दर्य और उसकी भंगिमओं को दर्ज़ करने में लगे थे और ‘वियोग में स्त्री’ वाले ऐसे चित्रण को जायसी और उनके समकालीन ही नही बल्कि आज के कवि और साथ ही साथ पठ्को (स्त्री पाठको ने भी) ने भी इतना पसन्द किया कि केवल ऐसे भावों को ही स्त्री के दुख के रूप में देखे जाने की जैसे परम्परा बन गयी और देखा जाये तो स्त्री के दुख को चित्रित करने के सन्दर्भ में ऐसे दुख को लिखने और पढ्ने की आदत बना ली गयी. इससे इतर स्त्री से जुडे विषय तथा उसके दुख और उसकी तकलीफ को जब भी देखा गया तो उसके वैधव्य के दिनो के रूप में. इस तरह पुरुष कलम लम्बे समय तक स्त्री को दो रूप में उकेरती रही – 1. उसके सौन्दर्य (उसकी देह को) 2. उसके वियोग को(पति और प्रेमी से दूर होने या फिर् मृत्यु के उपरांत). जायसी जैसे कवि और उन जैसी कविता का एक लम्बा दौर् चला. यह सही है कि दो व्यक्तियों विशेषकर पति पत्नी के बीच के सम्बन्ध लिखे जाने चहिये और उसपर बात की जानी चाहिये क्योंकि यह वर्जित विषय नहीं है किंतु क्या नारी से जुडे विषय उसके सौन्दर्य, उसके वियोग उसकी देह से इतर कुछ भी नही? क्या यही कविता का विषय होना चहिये ?
छायावाद एक ऐसा दौर था जब सब कुछ सात तहों में छुपा कर कहा जाता था. या कहें कि सात तहों में बात छुपा कर कहने की जैसे रीत थी. पर सवाल है कि आलोचको ने पंत, प्रसाद और निराला की बात का मर्म तो दुनियावी रूप में समझा किंतु महदेवी की बात को पार्लोकिक कह नकार क्यों दिया? क्या उनकी बात दुनियावी नहीं थी? क्या वो ‘नीर भरी दुख की बदरी’ के साथ ये भी नहीं कह रही थीं कि ‘विस्त्रित नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना’? क्या वो अपने और औरतों के हालात और उसके नैराश्य को व्यक्त नहीं कर रही थीं? फिर क्या हुआ कि उनको अधुनिक मीरा कह दिया गया? अगर गौर से समझा जाये तो बात बिल्कुल साफ थी क्योंकि उसी काल खण्ड् का एक कवि ऐसा भी था जो स्त्री को एक सीमा रेखा दे रहा था और कह रहा था ‘ ‘’नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में, पीयूष श्रोत सी बहा करो जीवान के सुन्दर समतल में’’.मतलब साथी कवि महादेवी को भी चुप कराने पर आमादा थे और उसका सबसे बेह्तर और चालाक तरीका था उनको दुनिया से ही विदा कर दो और ऐसा ही महादेवी के साथ हुआ भी उनको आधुनिक मीरा कह कर उनकी बात को नकार दिया गया . वैसे मीरा की बातें भी दुनियावी ही थीं. सच कहा जाये तो महादेवी और मीरा दोनो की बातों से समाज खासकर पुरुष वर्ग (रचनाकार भी)ऐसा डरा कि बस उसने उसे ना सुनने और मानने की एक चालाक रणनीति के तहत उन्हें पार्लोकिक बना दिया. सबसे ध्यान देने वाली बात ये है कि छायावादी दौर की एक बडी कवियत्रीमहादेवी ने अपने लिये बनायी गयी स्थिति को स्वीकार कर लिया किंतु यह मेरे लिये यह दुखद स्थिति है क्योंकि महदेवी ने कहीं भी इस बात का विरोध नही किया और कहीं भी यह खुलकर नहीं लिखा कि वो क्या कह रही हैं. किंतु आज के दौर की कविता (स्त्री कवि द्वारा रचित्) और महिला कवि दोनो अपनी कहने और मनवाने में सक्षम हैं. किंतु सवाल है कि पुरुष रचना में बद्लाव क्यों उतना नहीं हुआ जितना कि आशा की जानी चाहिये थी? आखिर क्यो? यह निश्च्य ही गहनता से विचार करने वाला विषय है.
इमानदारी से कहूँ तो एक दौर तक जय शंकर प्रसाद की कामायनी और उसकी एक- एक् पंतियों की मैं भी कायल थी. उनकी कामायनी मेरे दिल के बहुत करीब थी. बहुत से सन्दर्भों के कारण वह आज भी है किंतु उसके स्त्री सन्दर्भ अब मुझे एक तरफ कवि के काल खण्ड और उस समय के समाज् को समझने में मदद करते हैं वहीं दूसरी तरफ स्त्री के सन्दर्भ को लेकर कविता की आलोचना को भी मजबूर करते हैं. इतना ही नहीं प्रसाद की कामायनी ने न केवल पुरुष रचनाधर्मिता और स्त्री सन्दर्भ को समझने में मेरी मदद की है बल्कि पुरुष के अंतर्मन को भी समझने में मदद की है. इसीलिये मैं पुरुष रचनाकारों की स्त्री सन्दर्भ में हो रही बात के बीच प्रसाद की बात करना जरूरी समझती हूँ. कारण कि प्रसाद की श्रद्धा भारतीय समाज की नारी का एक विराट चित्र है. जिसे बदलने की कवायद लगातार जारी है और बद्लाव के इसी प्रयास को लगातार देखने और समझने की कोशिश मैं करती रहती हूँ. ऐसा इसलिये क्योंकि कविता के अपने सामाजिक सरोकार हैं और उससे जुडे दायित्व भी और कविता इससे आपना मुँह नही मोड सकती. स्त्री सन्दर्भ को लेकर यह दायित्व इसलिये और अधिक बढ जाता है क्योंकि वह हमारे समाज का आधा हिस्सा है और जिसे समझे बिना आगे बढ्ना समाज को पंगु करने जैसा है. हालांकि यह दुख का विषय् है कि स्त्री के सन्दर्भ को लेकर बहुत कम रचनायें हैं जो स्त्री और उसके विषय को लेकर गम्भीरता से सम्वाद करती हैं.
दुनिया में यह माना जाता रहा है कि कवि, लेखक और दार्शनिकों की बिरादरी एक ऐसी बिरादरी है जहां आप एक खास तरह की मानसिक आज़ादी का अनुभव करते हैं. एक ताज़ी हवा का झोका आपको जैसे नया जन्म लेने जैसा अनुभव देता है किंतु क्या किसी स्त्री को हमारे ज्यादातर पुरुष रचनाकारों की स्त्री केन्द्रित रचनाओं को पढ्कर ऐसा लगा? शायद ही लगा हो ? शायद यही कारण था कि मैथिलि शरण गुप्त बिफर कर कह उठे – ‘’अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी’’. निश्च्य ही गुप्त जी स्त्री सन्दर्भ को लेकर बेहद सम्वेदंशील कवि थे. वह अपने समय के समाज और आधी आबादी की दशा को चित्रित करने में बेहद सक्षम कवि रहे. यह दो लाईने इसकी गवाह हैं. 40 पार का कोई भी व्यक्ति उनकी इन लाइनो को आसानी से अपनी आंख में उतार सकता है क्योंकि उसने वह दौर देखा और मह्सूस किया होगा जो गुप्त जी की लाइने बयान करती हैं.
---------------------------------- डा. अलका सिंह

इस लेखमाला का अगला हिस्सा जल्द ही जिसमें आज के कई कवियों की उन रचना पर कुछ कहने का प्रयास होगा जिसमें स्त्री केन्द्र में है.

Monday, December 5, 2011

चंद्रकांत देवताले कविता और स्त्री विमर्श

आज चन्द्र्कांत देवताले जी के कविता संग्रह ‘धनुष पर चिडिया’ पर महेश पुनेठा का आलेख पढा तब से सोच में हूँ. सोच में हूँ कि कहाँ से शुरु करुँ जो कुछ कहना चहती हूँ? कैसे शुरु करुँ अपनी बात? दरअसल पुनेठा जी ने स्त्री होने के मतलब और् उसके दुख दर्द जैसे विषय चन्द्रकांत देवताले जी की कविताओं के माध्यम से उठाये हैं. मैं अपनी बात कहते हुये दोनों महनुभावों से विनम्रता पूर्वक माफी चाहूंगी क्योंकि यदि बात स्त्री विमर्श की हो और कविता उसका माध्यम हो मैं लिखने और बोलने की गुस्ताखी जरूर करुंगी. और यह गुस्ताखी आज मैं देवताले जी की कविताओं के माध्यम से कर रही हूँ.
दरअसल बहुत दिनों से मन में था कि पुरुष रचनाकार और स्त्री विमर्श पर कुछ लिखा जाये. पिछ्ले कई महीनो से मैं काफी गम्भीरता से कई पुरुष् रचनाकारों को पढ रही हूँ. और समझने की कोशिश में हूँ कि ये रचनाकार अपनी कविता में स्त्री को किस रूप में देखते और प्रतिस्थापित करते हैं. स्त्री को लेकर उनकी समझ समाज को क्या दे रही है. मेरा मानना है कि जब भी कोई रचनाकार स्त्री को केन्द्रबिन्दु बनाकर लिखता है तो उसकी कविताओं के माध्यम से उसका पूरा परिवेश, समाज, सामाजिक मान्यता, उसकी शिक्षा और उस कवि द्वारा स्त्री को समझ लेने की क्षमता का आभास उसकी कविताओं के माध्यम से होता है. कुलमिलाकर कहा जाये तो आपके सामने कवि का पूरा का पूरा काल खंड किसी चलचित्र की तरह घूम जाता है. इसीलिये जब पुनेठा जी ने देवताले जी की कविता में स्त्री के दुख और स्त्री होने के मतलब की बात की तब मन सोच में पड गया कि क्या पुरुष की कलम सही मयनो में आज भी समझ पायी है स्त्री को? क्या उसकी कलम अपने समाज के आधे हिस्से के साथ सम्वाद कर पायी है आज तक? सच कहूँ तो जब भी मैं पुरुष रचनाकारों को स्त्री के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करती हूँ एक गहरे दुख से भर उठती हूँ. लगता है इस पृथ्वी पर ईश्वर ने स्त्री और पुरुष के रूप में मानव के दो हिस्से दिये हैं किंतु कैसी विड्म्बना है कि दोनो कई सम्बन्धो मे समाजिक और किसी खास सम्बन्ध में शारीरिक रूप से एक दूसरे से कितने पास होते हुए भी मानसिक रूप से कितने दूर हैं. सच कहूं तो यह दूरी और एक खास तरह का छद्म मुझे पुरुष रचनाओं में निरंतर नज़र आता है. बात देवताले जी की हो रही है तो उन्हीं की रचनाओं से ही शुरु करती हूँ. यहां मैं स्पष्ट कर दूं की मैं उन्हीं कविताओं पर बात कर रही हूँ जिन कविताओं का उल्लेख पुनेठा जी ने अपने आलेख में किया है. एक बात और मैं इस सन्दर्भ में कुछ और कवियों और उनकी स्त्री पर लिखी कविता को भी रखूंगी किंतु शुरुआत चन्द्रकांत देवताले के स्त्री विमर्श से होगी. बहरहाल अब बात सबसे पहले देवताले जी की कविता की इन पंक्तियोंपर –
सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से
नहीं सोचता कभी कोई बात जुल्म और ज्यादती के बारे में अगर नही होती प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है

दोस्तों, पुनेठा जी ने इस कविता पर जो कुछ भी लिखा मैं उसपर कोई टिप्प्णी ना करते हुए बस अपनी बात कहने की कोशिश कर रही हूँ बस इस आशय से कि पुरुष कविता में स्त्री क्या है और कहां है. पुरुष रचनाकार स्त्री को लेकर किस तरह से सोचता है? क्या वह स्त्री को महज़ अपने लिये (पुरुष के लिये ) बनायी गयी समझता है या फिर वह उसे भी एक इंसान के रूप में अपनी कविताओं में प्रतिस्थपित करता है? यह सही है कि कवितायें कवि का वक्तव्य होती हैं किंतु वह अपने साथ एक बडे द्रिश्य भी लेकर आती हैं यही वज़ह है कि मैं यहाँ देवताले जी के ‘मैं’ को व्यापक् रूप से देखते हुए भी बात करुंगी और एक पुरुष् की अभिव्यक्ति के रूप में भी सम्झने की कोशिश करुंगी. साथ ही उनकी औरत को भी कुछ ऐसे ही समझने का प्रयास करुंगी.
मुझे यकीन है कि देवताले जी की इस कविता को बहुत पसन्द किया गया होगा. और सच कहूँ तो एक नज़र में यह कविता दाद के कबिल भी है मैने इस कविता की इन लाइनों को कैईयों बार पढा और कई कोणों से समझने का प्रयास किया किया. हर बार मुझे लगा यह कविता आज भी उसी मोड पर खडे समाज का चित्रण कर रही है जब कहा जाता था ‘’एक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है’’. यह कविता एक इंच भी उस वक्त से नही आगे बढी है. आप देखिये इस वक्तव्य को जब वो कहते हैं ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर् ही मैने अपने आपको पह्चाना. क्योंकि ‘’अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरत इस पृथ्वी पर’’ मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से, नहीं सोचता कोई बात जुल्म और ज्यदती के बारे में.
आखिर क्या मत्लब लगाया जाये इस वक्तव्य का ? क्या समझा जाये ? पूरी कविता पढ कर मन में सवाल उठता है कि क्या यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष नकारा होता ? यदि स्त्री नहीं होती तो वो भगोडा होता? यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष कोई समजिक दयित्व नहीं निभाता? अगर ऐसा है तो यह दुनिया पुरुष प्रधान कैसे है ? और फिर सहज़ ही सवाल उठता है कि कहीं यह स्त्री को उसी रूप में यथावत बनाये रखने का प्रयास तो नहीं है जिसमें आजतक् वो जीती आयी है? एक शंका हो उठती है और मन फिर सवाल कर उठता है कि क्या यह मात्र कवि की बात है? या फिर यह कविता आज के समाज के पुरुष के मनोभाव को सहज़ ही हमारे सामने रख रही है?
क्योंकि अगर यह कविता मात्र कवि के मनोभाव हैं तब तो आसानी से कहा जा सकता है कि कवि का अंतर्मन एक अद्भुत आभार् से भरा है. वह अपनी सभी सफलताओं और कर्मों के पीछे स्त्री के संग और सहयोग की बात कह उस स्त्री जिसके संग ने उसे जीवन का अर्थ समझाया को एक तरह का सन्देश देना चाहता है कि सब ‘तुम्हारे’ कारण की सम्भव हुआ है और तुम्हारा प्रेम महान है. किसी स्त्री पुरुष के आपसी जीवन के लिये यह वक्तव्य एक अनुभूति है जो स्त्री के लिये गर्व पैदा करती है किंतु जैसे ही इस कविता के मैं को बडे अर्थों मे लेकर देखने का प्रयास करती हुँ जैसे इसके सारे मायने ही उलट जाते हैं और कविता की ये लाइने कहने लगती हैं जैसे ये एक् प्रयास है यह कहने का कि स्त्री और उसका प्रेम पुरुष जीवन के लिये जैसे सफलता और जिन्दगी के मायने समझने की जैसे गारंटी है और इसिलिये वह जैसे यह सन्देश दे रहा है कि स्त्री एक ऐसी प्रजाति है जो सिर्फ पुरुष को प्रेम करने के लिये ही पृथवी पर आयी है और इस जगत के सारे काम तब ही सम्भव होते हैं जब वह पुरुष को प्रेम करती है. इतिहास उठा कर देखा जाये तो पुरुष के इस तरह के कथन पर स्त्री हमेशा ही मुग्ध रही है और आज भी है. वह प्रेम के कुछ पलों को आज भी बटोर कर ही जीती आयी है और इसी को उसकी ताकत कहा गया है.
तो क्या स्त्री पात्र पुरुष लेखन में ऐसे ही उभरते रहने चहिये ? क्या यह ही स्त्री का रूप होना चाहिये ? क्या पुरुष ऐसे ही स्त्री को निरंतर देखना चहता है? और यह भी कि कविता और पुरुष कवि के मन में ‘वह’ कब एक इंसान के रूप में उभर कर आयेगी? कब उसके प्रेम की जगह उसकी सफलता और उसके मनोभाव पुरुष कलम का हिस्सा बनेगे? मेरे यह सवाल उस कवि से हैं जिसकी कलम से उपरोक्त पंक्तियां निकली हैं क्योंकि यहां मैं कवि और उसके अंतर्मन में नारी को देख रही हूँ. यह सवाल इसलिये भी कि यह बात अकेले देवताले जी नहीं कह रहे ठीक इसी भाव से मंगलेश डबराल भी लिख चुके हैं ‘’ तुम्हारे भीतर बची रही एक स्त्री एक स्त्री के करण’’. अन्य कवि भी जो स्त्री को अपनी कविताओं को अपना विषय बनाते हैं.

कई बार मुझे ह्कर ऐसी कविता में स्त्री के सन्दर्भ को पढ्कर लगता है कि इस दौर के कवि स्त्री को लेकर एक तरह का छद्म ओढे रहते हैं और औपचारिकता वश या यों कहें कि अपने को सबसे बेहतर सोच वाले कवि या विचारक के रूप में दर्शाने की कोशिश करते हैं. यही वज़ह है कि पुरुष जब भी स्त्री को विषय बनाकर इस तरह की कवितायें करता है जहां कहा जता है कि स्त्री का प्रेम महान है तो सहज़ ही मन कह उठता है कि ‘’ यह पुरुष अंतर्मन का एक छद्म है’’ एक अज़ीब सी औपचारिकता किंतु इन कवितओं का दूसरा पक्ष बेहद खतरनाक होता है. आप देखें - ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है’’. स्त्री की सामाजिक स्थितियों को यदि सन्दर्भ में रख्कर देखा जाये तो यह कविता बेहद आत्म्केद्रित दीखती है ऐसा लगता है कि . स्त्री के विषय उठाकर भी पुरुष् सिर्फ और सिर्फ अपनी ही बात करता है. अगर भरोसा ना हो तो आप देखें – सचमुच मैं भाग जाता ........................नहीं सोचता ....... आदि आदि.
दूसरी रचना की कुछ पंक्तियां देखें
ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं

इन लाइनों को पढने से यह बात सबसे पहली बात जो जहन में आती है कि स्त्री जैसे आदमी नहीं होती.? दूसरी बात जो साफ - साफ दिखती है कि कि पुरुष को अपनी , अपने पुरुष समाज, उसकी स्थिती और उसके हालत की कितनी चिंता है. और ‘वह’ तो बस एक एक थके – मान्दे पस्त आदमी को हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देने के लिये होती है.मन सवाल करता है कि क्या कभी किसी ने सोचा कि आखिर ‘वो’ ऐसा क्यों करती है? क्या वह यही करना चाह्ती है? या फिर उसे ऐसा करने के लिये ही तैयार किया जाता है? यहां मैं सिमोन का वक्तव्य याद दिलान चाहुंगी कि ‘ स्त्री वह है जो बनयी गयी है’’. देवताले जी से माफी के साथ एक रचना की कुछ और पंतियां यहां रखना चाहूंगी-
तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
बसंत प्रपात
जीवन तुम्हारी धडकनो से
मैं जुगनू
चमकता
तम्हारी अन्धेरी
नाभी के पास

मैं इन पंक्तियों को पढ्कर हैरान हूँ. हैरान इसलिये नही कि कविता बहुत अच्छी है बल्कि इसलिये कि स्त्री की देह आज भी उतनी ही प्रभवी है जितनी कि रितिकाल में थी. और हैरान इसलिये भी कि यहां भी बात बस अपनी उस स्त्री की देह और उसके माध्यम से और कुछ पा लेने का स्वार्थ ऐसा कि मैं जुगनू ................... बहरहाल मेरा मानना है कि कविता एक सामाजिक सरोकार को लेकर हामारे सामने आती है. उसका अपना एक दायित्व होता है अगर कविता अपने इस दायित्व का वहन नही करती तो निश्चय ही वह कविता कविता होने के अपने अर्थ खो देती है. यही वज़ह है कि मैं उपर की कविता की सभी पक्तियोंको उसके सामजिक दायित्व के तराजू में रखकर भी देखने की कोशिश कर रही हूं. इसिलिये सोचती हूँ कि पुरुष कलम से चित्रित की गयी स्त्री आज भी वैसी ही है जैसी वह आज से जमाने पहले थी तो इस कविता के समाजिक सरोकार को किस सन्दर्भ में लिया जाये? क्या पुरुष के अंतर्मन के रूप में? या फिर स्त्री को उस रूप में जिस रूप में उसे कविता में रखा गया है? जहिर है स्त्री के प्रेम का जो रूप चित्रित किया गया है उसे बडे सरोकारों में रख देने से स्त्री केलिये खतरे बढ जायेंगे तो फिर इसे किस रूप में देखना होगा? इसीलिये पहली कविता की लाइनों को बडे सरोकारों के सन्दर्भ में रखते ही मेरा मन फिर सवाल कर उठता है कि क्या आज के पुरुष स्त्री को उसी रूप में देखने के पक्षधर हैं जैसे कि उनके पूर्वजों ने स्त्री को देखा है? क्या आज भी स्त्री उनकी प्रेरणा श्रोत है? क्या वह आज भी स्त्री के भीतर रह्कर अपने को पह्चान पाता है? क्या उसे भी एक अदद प्रेम करने वाली स्त्री के होने के बाद ही दुनिया के मायने समझ में आते हैं? जवाब निश्चय ही कविता नही देती वह महज अपनी बात कह्कर अलग हो जाती है किंतु जवाब के लिये हमें समाज में जाना ही होगा और समझना ही होगा कि आज का पुरुष क्या है ? उसकी स्त्री को लेकर सोच क्या है? क्या वह वही सोचता है जो कविता कहती है? यदि हाँ तो आज की स्त्री को चौकन्ना रहन होगा और यदि नही तो भी चौकन्ना रह्कर देखना होगा कि वह किस दिशा में उसे ले ज़ाने के प्रयास में है.


इस प्रयास का दूसरा अंक जल्द ही ---------------------------------- डा. अलका सिंह

चन्द्र्कांत देवताले जी की कविताओं की कुछ पंक्तियां और मेरे विचार

आज चन्द्र्कांत देवताले जी के कविता संग्रह ‘धनुष पर चिडिया’ पर महेश पुनेठा का आलेख पढा तब से सोच में हूँ. सोच में हूँ कि कहाँ से शुरु करुँ जो कुछ कहना चहती हूँ? कैसे शुरु करुँ अपनी बात? दरअसल पुनेठा जी ने स्त्री होने के मतलब और् उसके दुख दर्द जैसे विषय चन्द्रकांत देवताले जी की कविताओं के माध्यम से उठाये हैं. मैं अपनी बात कहते हुये दोनों महनुभावों से विनम्रता पूर्वक माफी चाहूंगी क्योंकि यदि बात स्त्री विमर्श की हो और कविता उसका माध्यम हो मैं लिखने और बोलने की गुस्ताखी जरूर करुंगी. और यह गुस्ताखी आज मैं देवताले जी की कविताओं के माध्यम से कर रही हूँ.
दरअसल बहुत दिनों से मन में था कि पुरुष रचनाकार और स्त्री विमर्श पर कुछ लिखा जाये. पिछ्ले कई महीनो से मैं काफी गम्भीरता से कई पुरुष् रचनाकारों को पढ रही हूँ. और समझने की कोशिश में हूँ कि ये रचनाकार अपनी कविता में स्त्री को किस रूप में देखते और प्रतिस्थापित करते हैं. स्त्री को लेकर उनकी समझ समाज को क्या दे रही है. मेरा मानना है कि जब भी कोई रचनाकार स्त्री को केन्द्रबिन्दु बनाकर लिखता है तो उसकी कविताओं के माध्यम से उसका पूरा परिवेश, समाज, सामाजिक मान्यता, उसकी शिक्षा और उस कवि द्वारा स्त्री को समझ लेने की क्षमता का आभास उसकी कविताओं के माध्यम से होता है. कुलमिलाकर कहा जाये तो आपके सामने कवि का पूरा का पूरा काल खंड किसी चलचित्र की तरह घूम जाता है. इसीलिये जब पुनेठा जी ने देवताले जी की कविता में स्त्री के दुख और स्त्री होने के मतलब की बात की तब मन सोच में पड गया कि क्या पुरुष की कलम सही मयनो में आज भी समझ पायी है स्त्री को? क्या उसकी कलम अपने समाज के आधे हिस्से के साथ सम्वाद कर पायी है आज तक? सच कहूँ तो जब भी मैं पुरुष रचनाकारों को स्त्री के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करती हूँ एक गहरे दुख से भर उठती हूँ. लगता है इस पृथ्वी पर ईश्वर ने स्त्री और पुरुष के रूप में मानव के दो हिस्से दिये हैं किंतु कैसी विड्म्बना है कि दोनो कई सम्बन्धो मे समाजिक और किसी खास सम्बन्ध में शारीरिक रूप से एक दूसरे से कितने पास होते हुए भी मानसिक रूप से कितने दूर हैं. सच कहूं तो यह दूरी और एक खास तरह का छद्म मुझे पुरुष रचनाओं में निरंतर नज़र आता है. बात देवताले जी की हो रही है तो उन्हीं की रचनाओं से ही शुरु करती हूँ. यहां मैं स्पष्ट कर दूं की मैं उन्हीं कविताओं पर बात कर रही हूँ जिन कविताओं का उल्लेख पुनेठा जी ने अपने आलेख में किया है. एक बात और मैं इस सन्दर्भ में कुछ और कवियों और उनकी स्त्री पर लिखी कविता को भी रखूंगी किंतु शुरुआत चन्द्रकांत देवताले के स्त्री विमर्श से होगी. बहरहाल अब बात सबसे पहले देवताले जी की कविता की इन पंक्तियोंपर –
सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से
नहीं सोचता कभी कोई बात जुल्म और ज्यादती के बारे में अगर नही होती प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है

दोस्तों, पुनेठा जी ने इस कविता पर जो कुछ भी लिखा मैं उसपर कोई टिप्प्णी ना करते हुए बस अपनी बात कहने की कोशिश कर रही हूँ बस इस आशय से कि पुरुष कविता में स्त्री क्या है और कहां है. पुरुष रचनाकार स्त्री को लेकर किस तरह से सोचता है? क्या वह स्त्री को महज़ अपने लिये (पुरुष के लिये ) बनायी गयी समझता है या फिर वह उसे भी एक इंसान के रूप में अपनी कविताओं में प्रतिस्थपित करता है? यह सही है कि कवितायें कवि का वक्तव्य होती हैं किंतु वह अपने साथ एक बडे द्रिश्य भी लेकर आती हैं यही वज़ह है कि मैं यहाँ देवताले जी के ‘मैं’ को व्यापक् रूप से देखते हुए भी बात करुंगी और एक पुरुष् की अभिव्यक्ति के रूप में भी सम्झने की कोशिश करुंगी. साथ ही उनकी औरत को भी कुछ ऐसे ही समझने का प्रयास करुंगी.
मुझे यकीन है कि देवताले जी की इस कविता को बहुत पसन्द किया गया होगा. और सच कहूँ तो एक नज़र में यह कविता दाद के कबिल भी है मैने इस कविता की इन लाइनों को कैईयों बार पढा और कई कोणों से समझने का प्रयास किया किया. हर बार मुझे लगा यह कविता आज भी उसी मोड पर खडे समाज का चित्रण कर रही है जब कहा जाता था ‘’एक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है’’. यह कविता एक इंच भी उस वक्त से नही आगे बढी है. आप देखिये इस वक्तव्य को जब वो कहते हैं ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर् ही मैने अपने आपको पह्चाना. क्योंकि ‘’अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरत इस पृथ्वी पर’’ मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से, नहीं सोचता कोई बात जुल्म और ज्यदती के बारे में.
आखिर क्या मत्लब लगाया जाये इस वक्तव्य का ? क्या समझा जाये ? पूरी कविता पढ कर मन में सवाल उठता है कि क्या यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष नकारा होता ? यदि स्त्री नहीं होती तो वो भगोडा होता? यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष कोई समजिक दयित्व नहीं निभाता? अगर ऐसा है तो यह दुनिया पुरुष प्रधान कैसे है ? और फिर सहज़ ही सवाल उठता है कि कहीं यह स्त्री को उसी रूप में यथावत बनाये रखने का प्रयास तो नहीं है जिसमें आजतक् वो जीती आयी है? एक शंका हो उठती है और मन फिर सवाल कर उठता है कि क्या यह मात्र कवि की बात है? या फिर यह कविता आज के समाज के पुरुष के मनोभाव को सहज़ ही हमारे सामने रख रही है?
क्योंकि अगर यह कविता मात्र कवि के मनोभाव हैं तब तो आसानी से कहा जा सकता है कि कवि का अंतर्मन एक अद्भुत आभार् से भरा है. वह अपनी सभी सफलताओं और कर्मों के पीछे स्त्री के संग और सहयोग की बात कह उस स्त्री जिसके संग ने उसे जीवन का अर्थ समझाया को एक तरह का सन्देश देना चाहता है कि सब ‘तुम्हारे’ कारण की सम्भव हुआ है और तुम्हारा प्रेम महान है. किसी स्त्री पुरुष के आपसी जीवन के लिये यह वक्तव्य एक अनुभूति है जो स्त्री के लिये गर्व पैदा करती है किंतु जैसे ही इस कविता के मैं को बडे अर्थों मे लेकर देखने का प्रयास करती हुँ जैसे इसके सारे मायने ही उलट जाते हैं और कविता की ये लाइने कहने लगती हैं जैसे ये एक् प्रयास है यह कहने का कि स्त्री और उसका प्रेम पुरुष जीवन के लिये जैसे सफलता और जिन्दगी के मायने समझने की जैसे गारंटी है और इसिलिये वह जैसे यह सन्देश दे रहा है कि स्त्री एक ऐसी प्रजाति है जो सिर्फ पुरुष को प्रेम करने के लिये ही पृथवी पर आयी है और इस जगत के सारे काम तब ही सम्भव होते हैं जब वह पुरुष को प्रेम करती है. इतिहास उठा कर देखा जाये तो पुरुष के इस तरह के कथन पर स्त्री हमेशा ही मुग्ध रही है और आज भी है. वह प्रेम के कुछ पलों को आज भी बटोर कर ही जीती आयी है और इसी को उसकी ताकत कहा गया है.
तो क्या स्त्री पात्र पुरुष लेखन में ऐसे ही उभरते रहने चहिये ? क्या यह ही स्त्री का रूप होना चाहिये ? क्या पुरुष ऐसे ही स्त्री को निरंतर देखना चहता है? और यह भी कि कविता और पुरुष कवि के मन में ‘वह’ कब एक इंसान के रूप में उभर कर आयेगी? कब उसके प्रेम की जगह उसकी सफलता और उसके मनोभाव पुरुष कलम का हिस्सा बनेगे? मेरे यह सवाल उस कवि से हैं जिसकी कलम से उपरोक्त पंक्तियां निकली हैं क्योंकि यहां मैं कवि और उसके अंतर्मन में नारी को देख रही हूँ. यह सवाल इसलिये भी कि यह बात अकेले देवताले जी नहीं कह रहे ठीक इसी भाव से मंगलेश डबराल भी लिख चुके हैं ‘’ तुम्हारे भीतर बची रही एक स्त्री एक स्त्री के करण’’. अन्य कवि भी जो स्त्री को अपनी कविताओं को अपना विषय बनाते हैं.

कई बार मुझे ह्कर ऐसी कविता में स्त्री के सन्दर्भ को पढ्कर लगता है कि इस दौर के कवि स्त्री को लेकर एक तरह का छद्म ओढे रहते हैं और औपचारिकता वश या यों कहें कि अपने को सबसे बेहतर सोच वाले कवि या विचारक के रूप में दर्शाने की कोशिश करते हैं. यही वज़ह है कि पुरुष जब भी स्त्री को विषय बनाकर इस तरह की कवितायें करता है जहां कहा जता है कि स्त्री का प्रेम महान है तो सहज़ ही मन कह उठता है कि ‘’ यह पुरुष अंतर्मन का एक छद्म है’’ एक अज़ीब सी औपचारिकता किंतु इन कवितओं का दूसरा पक्ष बेहद खतरनाक होता है. आप देखें - ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है’’. स्त्री की सामाजिक स्थितियों को यदि सन्दर्भ में रख्कर देखा जाये तो यह कविता बेहद आत्म्केद्रित दीखती है ऐसा लगता है कि . स्त्री के विषय उठाकर भी पुरुष् सिर्फ और सिर्फ अपनी ही बात करता है. अगर भरोसा ना हो तो आप देखें – सचमुच मैं भाग जाता ........................नहीं सोचता ....... आदि आदि.
दूसरी रचना की कुछ पंक्तियां देखें
ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं

इन लाइनों को पढने से यह बात सबसे पहली बात जो जहन में आती है कि स्त्री जैसे आदमी नहीं होती.? दूसरी बात जो साफ - साफ दिखती है कि कि पुरुष को अपनी , अपने पुरुष समाज, उसकी स्थिती और उसके हालत की कितनी चिंता है. और ‘वह’ तो बस एक एक थके – मान्दे पस्त आदमी को हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देने के लिये होती है.मन सवाल करता है कि क्या कभी किसी ने सोचा कि आखिर ‘वो’ ऐसा क्यों करती है? क्या वह यही करना चाह्ती है? या फिर उसे ऐसा करने के लिये ही तैयार किया जाता है? यहां मैं सिमोन का वक्तव्य याद दिलान चाहुंगी कि ‘ स्त्री वह है जो बनयी गयी है’’. देवताले जी से माफी के साथ एक रचना की कुछ और पंतियां यहां रखना चाहूंगी-
तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
बसंत प्रपात
जीवन तुम्हारी धडकनो से
मैं जुगनू
चमकता
तम्हारी अन्धेरी
नाभी के पास

मैं इन पंक्तियों को पढ्कर हैरान हूँ. हैरान इसलिये नही कि कविता बहुत अच्छी है बल्कि इसलिये कि स्त्री की देह आज भी उतनी ही प्रभवी है जितनी कि रितिकाल में थी. और हैरान इसलिये भी कि यहां भी बात बस अपनी उस स्त्री की देह और उसके माध्यम से और कुछ पा लेने का स्वार्थ ऐसा कि मैं जुगनू ................... बहरहाल मेरा मानना है कि कविता एक सामाजिक सरोकार को लेकर हामारे सामने आती है. उसका अपना एक दायित्व होता है अगर कविता अपने इस दायित्व का वहन नही करती तो निश्चय ही वह कविता कविता होने के अपने अर्थ खो देती है. यही वज़ह है कि मैं उपर की कविता की सभी पक्तियोंको उसके सामजिक दायित्व के तराजू में रखकर भी देखने की कोशिश कर रही हूं. इसिलिये सोचती हूँ कि पुरुष कलम से चित्रित की गयी स्त्री आज भी वैसी ही है जैसी वह आज से जमाने पहले थी तो इस कविता के समाजिक सरोकार को किस सन्दर्भ में लिया जाये? क्या पुरुष के अंतर्मन के रूप में? या फिर स्त्री को उस रूप में जिस रूप में उसे कविता में रखा गया है? जहिर है स्त्री के प्रेम का जो रूप चित्रित किया गया है उसे बडे सरोकारों में रख देने से स्त्री केलिये खतरे बढ जायेंगे तो फिर इसे किस रूप में देखना होगा? इसीलिये पहली कविता की लाइनों को बडे सरोकारों के सन्दर्भ में रखते ही मेरा मन फिर सवाल कर उठता है कि क्या आज के पुरुष स्त्री को उसी रूप में देखने के पक्षधर हैं जैसे कि उनके पूर्वजों ने स्त्री को देखा है? क्या आज भी स्त्री उनकी प्रेरणा श्रोत है? क्या वह आज भी स्त्री के भीतर रह्कर अपने को पह्चान पाता है? क्या उसे भी एक अदद प्रेम करने वाली स्त्री के होने के बाद ही दुनिया के मायने समझ में आते हैं? जवाब निश्चय ही कविता नही देती वह महज अपनी बात कह्कर अलग हो जाती है किंतु जवाब के लिये हमें समाज में जाना ही होगा और समझना ही होगा कि आज का पुरुष क्या है ? उसकी स्त्री को लेकर सोच क्या है? क्या वह वही सोचता है जो कविता कहती है? यदि हाँ तो आज की स्त्री को चौकन्ना रहन होगा और यदि नही तो भी चौकन्ना रह्कर देखना होगा कि वह किस दिशा में उसे ले ज़ाने के प्रयास में है.


इस प्रयास का दूसरा अंक जल्द ही ---------------------------------- डा. अलका सिंह

Wednesday, November 30, 2011

एक और बहादुर शाह

एक और बहादुर शाह
गद्दी नशीन है और लिख रहा है देश की तकदीर
उधार में ली गयी कलम से
उस कलम की स्याही भी उधार की ही है
जो अर्थशास्त्र को नये तरीके से परिभाषित करती है
इस परिभाषा के सारे शब्द काले और सारे सफे चमकीले दीखते हैं
उस चमक के दीवाने लोग पढ नही पा रहे काले शब्दों को
क्योंकि इस बार इस बूढे बहादुर शाह के पीछे खडी हैं शक्तियां देश के भीतर भी और बाहर भी
और वो दे रहा है दस्तखतों का तोहफा कभी इसको कभी उसको
इस बार का बहादुर शाह दो गज़ ज़मीन के लिये गुहार नही करेगा
ना ही इधर - उधर देश के बाहर दफ्न होने पर आंसू बहायेगा
क्योंकि उसकी दाढी कई तिनको से भरी है जिसे वो सहेज़ के बान्धता है बार बार
ताकि लोग भटकते रहें कई गुफाओं में
अन्धेरी गलियों में
ठांव ठांव
और वो कलम चलाता रहे देश की गर्दन पर
और लिखता रहे देश की तकदीर हाथ मिला – मिला
...............................................अलका

Thursday, November 17, 2011

सुशीला पुरी की थारू औरतें और एक नज़र मेरी

(मित्रो ! मैं बिहार के एक बहुत छोटे शहर छपरा में हूँ, यहां भी शहर में रहना कम ही हो पाता है दिन - रात भटकती रहती हूँ कभी इस ठांव तो कभी उस ठांव. यही कारण है कि कई मित्र नराज़ भी रहते हैं कि मैं उनसे बात नहीं करती. जब पटना में होती हूँ तो नेट सही रहता है और मैं बहुत आसानी से सबसे मुखातिब हो पाती हूँ. यहां जब भी फेसबुक् पर आती हूँ तो इस लालच में होती हूँ कि मेरे दिमाग को कुछ चारा मिल जाये तकि उर्जा बनी रहे और दिन भर की थकान मिट जाये.)


कल इसी क्रम में फेसबुक पर सुशीला पुरी की 'कथाक्रम' पत्रिका के अक्तूबर-दिसंबर 2011 के विशेषांक में प्रकाशित कविता --- ‘’थारू औरतें’’ ---- पढी. पढकर जैसे मैं ठहर गयी. थारुओं के विषय में मैने अपने अध्य्यन काल में खूब पढा था . जितना उनकी संस्कृती को जाना था उतना ही इतिहास में उनको पढा था. इसलिये इस कविता पर रुकना, रुककर उसपर सोचना, एक बार कविता पर ठहरना जैसे मेरे लिये जरूरी हो गया था. ऐसा इसलिये भी था क्योंकि कई आदिवासी समाजों के साथ रह्कर उनके साथ –साथ काम करने का लम्बा अनुभव था. जहां तक मैने आदिवासी समाजों को पढा और जाना था उन सबकी संस्कृति के तत्व लग्भग एक तरह के थे. यह कविता मेरी नज़र के सामने आज गोंड और कोरकू, कोल और बैगा आदिवासियों के साथ काम करने के मेरे अनुभव के कोई 7 साल बाद आयी है. इसीलिये यह कविता पढते ही मैं जैसे उस पूरे समाज के एक एक दृश्य मेरी आंखों के सामने आ गये,
सच कहूँ तो एक लम्बे अरसे बाद एक ऐसी कविता पढी है जिसने मुझे कई कित्तों में छेड़ दिया. मजबूर किया कि मैं विचरूं अपने इतिहास में, इतिहास में होने वाले युद्ध में, मजबूर किया कि युद्ध काल में औरत की स्थितियों पर भी सोचती चलूँ. साथ ही आदि वासी समाज उसके दर्द और उसकी संस्कृति के तुकडे भी बटोरूँ और आज की राजनीति क़ा शिकार हुई एक पूरी जाति पर भी बात करूँ. क्यों?
कल रात से इस कविता को पढ़कर मैं एक अजीब मानसिक स्थिति में हूँ. एक अजीब उलझन है मन में. मैं कविता को कई बार पढ चुकी हूँ. लग रहा है कि इस कविता से जैसे कोई लाइन गुम हो गयी है. रात बहुत देर तक सोचती रही इस कविता के बारे में. क्यों ? इन सभी सवालों पर विचार करने के पहले सुशीला पुरी की कविता - ‘’थारू औरतें’’-

वे थारू औरतें हैं
जो आती हैं हर साल
रोपती हैं धान
गाती हैं गीत भरी आँखों से
और खेतिहर हो पाने की उनकी आस
बंजर धरती सी
नहीं उगा पाती
दूब का एक तिनका तक

उनकी नियति में धँसी होती हैं
कुछ खानाबदोश पगडंडियाँ
कुछ ज़मीनें
जो छीन ली गईं उनसे
उन्हें भूख की सौगात देकर

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह

वे भटकती हैं इस गाँव से उस गाँव
अंजुरी भर जीवन
और अपने दुधमुहों को
पुरानी धोतियों से बांध
पीठ पर लादे

खुददी -चावलों से
वे बनाती हैं जांड (एक नशीला पेय )
और सुबह से रात तक
उसके बजबजाते खमीरी नशे में
उदास चिड़ियों सी खोजती हैं
अपना कुल -गोत्र
इस डाल से उस डाल

वे मन ही मन बुदबुदाती हैं
एक ऐसी प्रार्थना
जिसमें ईश्वर का कोई वजूद नही होता
वहाँ होती है
सियारों की हुक्का-हुआं
और ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।
-------- सुशीला पुरी

इस कविता को पढ्ते हुए कई बार मेरी नज़र बस एक ही पक्ति पर जैसे अटक जा रही थी ‘वे थारू औरतें हैं’ - इस एक पंक्ति के माध्यम से मैं पूरे ‘थारु’ इतिहास से गुजर भी रही थी और इस कविता को समझने की कोशिश भी कर रही थी. दरअसल कोई भी पाठक जब इस कविता की पहली पंक्त पढेगा रुक कर पूछेगा जरूर कि ये ‘’थारु औरत’’ का मतलब क्या होता है? और जरूर ठहरेगा ‘थारु’ शब्द पर ? और अगर उसे ये कह के संतुष्ट् किया जयेगा कि यह एक आदिवासी जाति है तो फिर सवाल करेगा कि क्या उनके समाज में उनकी औरतों का काम जगह – जगह घूम कर धान रोपना है ? क्या थारू औरत इसी के लिये जानी जाती है? और अगर परम्परागत रूप से उंका यही काम है तो कविता में उन औरतों का इतना दर्द क्यों बिखरा पडा है ? आखिर इस दर्द का करण क्या हो सकता है? क़्या महज़ धान रोपने का अनवरत श्र्म ? उससे उपजी पीडा या फिर कुछ और? क्योंकि जैसे ही कविता का पहला खण्ड आता है सवाल उठने शुरु हो जाते हैं. आप देखें –
वे थारू औरतें हैं
जो आती हैं हर साल
रोपती हैं धान
गाती हैं गीत भरी आँखों से
और खेतिहर हो पाने की उनकी आस
बंजर धरती सी
नहीं उगा पाती
दूब का एक तिनका तक

यहां कुछ भी कहने से पहले जरूरी है पहले जाने कि ‘थारु’ शब्द का मतलब क्या है? तो जवाब जहै कि थारू एक ऐसी जाति है जिसका अपना एक इतिहास है. एक ऐसा इतिहास जो इस जाति की औरतों से ही आरम्भ होता है और बताने की कोशिश करता है कि युद्ध की स्थितियां स्त्री के सामने कैसी कैसी चुनौतियां रखती हैं. इसलिये सबसे पहले थारू जाति के छोटे किंतु रोचक इतिहास को जानते हैं.
थारु जाति भारत के कुछ हिस्सों और नेपाल के पूरे तराई के क्षेत्र में बसी एक जनजाति है किंतु इनका इतिहास अन्य आदिम जातियों की तरह बहुत पुराना नही है. इनकी लोक कथाओं के अनुसार इनकी उत्पत्ति 16 वी शताब्दी में मुगलों के आने के बाद हुई है. इस सम्बन्ध में बडी रोचक कथा भी है कि 16 वीं शतब्दी में जब मुगल भारत में आये तो किसी मुगल बाद्शाह ने राजस्थान के एक राजपूत घराने की कन्या से शादी करने का प्रस्ताव भेजा क्योंकि वह उस कन्या से विवाह का इक्शुक था यह बात राजपूतों को प्सन्द नही आयी और वो युध के लिये कूच कर गये किंतु अपनी औरतों और बच्चों को अपने परिवार के विश्वास पात्र सेवकों की सुरक्शा में घने जंगलों में छिपा दिया. जब महिलओं ने सुना कि सब पुरुष मारे गये और वो नही लौटेंगे ऐसी स्थिति में महिलओं ने अपनी सुरक्शा में रह रहे सेवकों से ही विवाह कर लिया और नेपाल के घने जंगलों में रहने लगीं.
यही वज़ह है कि थारु समाज में वैचरिक रूप से स्त्रियों का एक अलग स्थान है और आज की बदलती स्थितियों से दो चार हो रही थारु औरत बार बार पीछे लौटकर अपने अभिमान वाले युग को याद कर बहुत सारे प्रश्न लेकर हमारे सामने लाती है इसीलिये यह कविता अपना विशद अर्थ लेकर हमरे सामने आती है जो थारु औरतों के साथ साथ इतिहास से लेकर कई और विषयों की अनेक गांठ गिरह खोलने को मजबूर करती है. हलांकि सुशीला ‘की इस कविता से पहली बार गुजरने पर लगता है कि सुशीला ’थारु औरतों’’ की वर्तमान स्थिति का एक सीधा शब्द चित्र खींच रही हैं. वह बता रही है कि आज की थारु औरत क्या है ? उसका दुख क्या है ? उस दुख से कैसे निपटती हैं. किंतु इस कविता को उसके इस सीमित अर्थ तक रखना इस कविता के साथ अन्याय करना होगा क्योंकि इस् कविता के गर्भ में इस दौर और उससे जुडे विषयों के गूढ अर्थ भी हैं इसलिये यह एक दुखद उपन्यास की तरह जैसे एक पूरी गाथा है उसके पूरे इतिहास और भूगोल के साथ सम्झने की जरूरत है.

यही करण है कि इस्की पहली ही लाइन ‘’वे थारू औरतें हैं’’ रुक कर सोचने की स्थिति पैदा करती है.
देखा जाये तो यह कविता जहां एक तरफ थरुओं के पूरे इतिहास के साथ थारु औरत को जानने के लिये बेचैन करती है ठीक वैसे ही उसके आगे की लाइने ‘’जो आती हैं ............................ गाती हैं गीत भरी आंखों से’’ आदिवासी समाजों में काम को लेकर टूट्ते मानदण्डों और उन मानदण्डों को तोडने की विवशता का भी खाका खींचती है साथ उसके टूट्ने से उपजती परिस्थितियों से गुजरती औरतों के दर्शन भी कराती है. (दरअसल आदिवासी समाजों में दूसरे के घरों में औरतों का काम करना या दूसरे के लिये कोई काम करना अच्छी बात नहीं मानी जाती, वो अपनी स्वतंत्रता से सम्झौता नहीं करते, जहां तक थारु समाज का प्रश्न है उनके समाज में महिलाओं के सम्मान का एक कारण् ये भी था कि कथित रूप से उनकी महिलायें बडी जाति की थीं और कभी उनकी माल्किन हुआ करती थीं ) देखा जाये तो बात इतनी सी भी नहीं बल्कि यह कविता की यह पंतियां उस दौर के बीत जाने की कहानी भी कहती है जब वह मल्किन के अभिमान के साथ अपने खेतों में धान बोती थीं (जैसा कि नेपाल की तराई धान की खेती के लिये जानी जाती है और आदिवासी समाज ‘जूम की खेती’ किया करता था’) धान और पूरे जंगल को अपना घर समझता था आज छिन गया है. किंतु जैसे ही कविता अपने अगले हिस्से में पहुंचती है –
उनकी नियति में धँसी होती हैं
कुछ खानाबदोश पगडंडियाँ
कुछ ज़मीनें
जो छीन ली गईं उनसे
उन्हें भूख की सौगात देकर

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह


एक कामगार औरत से अधिक एक पूरे पूरे आदिवासी समाज के दर्द, उस समाज की औरत का दर्द और उसकी सघन पीडा को जैसे आपके सामने बिछा देती है. ये पंतियां आदिवासी समजों और उसके बदलते चरित्र का भी एक रेखाचित्र आपके सामने रखती हैं और मजबूर करती हैं बहुत से आयामो पर एक साथ सोचने को. किंतु औरत की पीडा से अधिक कविता का यह पहला हिस्सा एक और चित्र बडी सघनता से हमारे सामने उभारता है वह है पर्यावरण का और घटते और कटते जंगलों का जो आदिवासी समाज की आज़िविका का सबसे बडा श्रोत था. आज दुनिया के लग्भग सभी आदिवासी समाज इस दिक्कत से गुजर रहे हैं और विकास के नाम पर होने वाला प्रकृति के इस् शोषण और इस शोष्ण के समर्थन में रोज रोज बन रहे कानून आदिवासियों को न केवल उनके घर बल्कि उनकी पूरी संस्कृति से दूर कर रहे हैं. इन सभी स्थितियों के साथ औरत की स्थिति और उसके दर्द से लिपटते हुए दूर कहीं जाकर बडे पैमाने पर आज की दुनिया की कई गिरह खोलती है हुई आगे बढती है. देखे -
वे भटकती हैं इस गाँव से उस गाँव
अंजुरी भर जीवन
और अपने दुधमुहों को
पुरानी धोतियों से बांध
पीठ पर लादे

खुददी -चावलों से
वे बनाती हैं जांड (एक नशीला पेय )
और सुबह से रात तक
उसके बजबजाते खमीरी नशे में
उदास चिड़ियों सी खोजती हैं
अपना कुल -गोत्र
इस डाल से उस डाल

उपर का पूरा हिस्सा इस बात का जैसे वक्तव्य है कि आज के दौर में जिन भी समजों को उनकी जडों से काटा जा रहा है उन समाजों की महिलायें इसी तरह भटकने के लिये मजबूर हैं. उदाहरण के रूप में आप नर्मदा बचाओ से लेकर वेदंता तक के तमाम उदाहरणों के चित्र आंखों में समेट सकते हैं. दूसरी बात जो कविता के मध्यम से सोचने के लिये मज्बूर करती है कि भारत और उसके पडोसी देशों के बीच भारत को किस तरह की भूमिका के निर्वहन की आवश्यकता है. आप देखें कैसे बांग्ला देश की सीमा पार से आये लोग भारत में भटक रहे हैं क्योंकि ही देश में जहां जनता को अर्थिक सुरक़्शा मुहैया नही है वो ना केवल खनबदोश हैं बल्कि असहाय भी और ऐसी स्थितियों के दुश्परिणामों का शिकार अक्सर महिलायें और बच्चे ही होते हैं. और इसिलिये थारु औरतें पीठ पर बच्चा ले काम की तलाश में इधर – उधर गांव – गांव भट्कने को मजबूर हैं. नीचे की पंक्तियां बरबस आकर्षित करती हैं इसलिये नहीं कि यहां कविता के ललित्य पर मुग्ध हुआ जाये बल्कि इसलिये कि यह हमारे पढे- लिखे लोगों की ऐसे आदिवासी समाजों की जीवन शैली, भाषा , संस्कृति से दूरी और अज्ञानता को प्रदर्शित करता है, यह यह भी दर्शाता है कि हम उनके बारे में कैसे सोचते हैं और कैसे उन्हें देखते हैं. यह बताता है कि हम उनके ईश्वर से परिचित नहीं हैं, उनकी पूजा शैली से भी अनभिज्ञ हैं. यही वज़ह है कि हम दूर खडे उनके जीवन के सबसे मत्वपूर्न पेय के लिये बज़बज़ाने से बेह्तर शब्द नहीं खोज पाते जबकि वो सारे पेय बज़बज़ाते हैं जो हमारे समाजों के लोग भी पीते हैं.

वे मन ही मन बुदबुदाती हैं
एक ऐसी प्रार्थना
जिसमें ईश्वर का कोई वजूद नही होता
वहाँ होती है
सियारों की हुक्का-हुआं
और ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।

दरअसल् आदिवासी समाजों में ईश्वर की वैसी कल्पन नहीं है जैसा हमारे समाजों में है. अधिकतर आदिवासियों के देवता कुछ इस तरह से हमारे सामने आते हैं जिनसे हमरा औपचारिक परिचय नहीं होता और ना ही हम उनकी प्रर्थना के तरीके से हमारा कोई परिचय होता है इसलिये उनकी प्रार्थना जो वो बुदबुदाती हैं हमारे पढ़े लिखे समाज के लिये बुदबुदाने जैसा होता है. अब बात करते हैं कविता के सबसे महत्वपूर्न हिस्से की जो औरत के इतने सारे दर्द का चरम है -

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह

यह किसी भी समाज से अधिक इन परिस्थितियों से गुजर रही औरत का सबसे बडा दंश है. चाहे वो थारु औरत हो या छ्तीस गढ से आकर बेल्दारी का काम करने वाली बिलासपुरी औरत या फिर मनिपुर से आकर दिल्ली में पढ रही लड्कियां हो अपने कुल गोत्र से दूर जाने पर एक तरह से ये सज़ा औरत के लिये मुकर्र्र है जिसे आप हम सबको किसि न किसि रूप से गुजरना ही होता है. जहां तक थारु औरतों का सम्बन्ध है उसकी अस्मिता की चीख इसीलिये-

‘’ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।‘’

कुल मिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज के विकास, उससे जुडे प्रश्न, उस विकास की भेंट चढ रहे पर्यावरण, मनुष्य और खास कर औरतों और बच्चों पर प्रभाव को बहुत गम्भीरता से सामने लाती है. यह बताती है कि कैसे विकास के नाम पर भेंट चढ रही भूमि से एक पूरी संस्क्रिती अपने कुल गोत्र के साथ न केवल गायब हो रही है बल्कि अपनी अस्मिता के साथ रोज़ रोज़ हो रहे खिलवाड को सह रही है. और हम रोज़ विकास के नये प्रतिमान बना रहे हैं. नदियों, पहडों और तमाम जीव जंतुओं के साथ आदमी के वज़ूद के साथ खिलवाड कर रहे हैं.

सच कह जाये तो यह कविता सिर्फ थारु औरत की कराह के रूप में नहीं बल्कि दुनिया भर के आदिवासी समाजों के साथ हो रही क्रूरता , अत्यचार और उंके जीवन में आये ग्रण के लिये पढी जानी चहिये. इतना ही नही बल्कि इस कविता को दो देशों के राजनयिक् सम्बन्ध के बीच आदिवासी समाजों की समस्या को रखते हुए भी पढा जाना चाहिये. और यह सोचने के लिये पढा जाना चहिये कि हमारे विकास के क्या मानद्ण्ड् होने चाहिये.
मेरे जैसी पाठक के लिये इस पूरी कविता में सिर्फ एक बात की मांग करती है वो है थारू इतिहास का जिक्र का होना. हलांकि कविता उस जिक्र के बिना भी अपनी बात कहने में सक्षम है किंतु उसका थोडा सा जिक्र इस कविता को सिर्फ थारु समाज ही नही बल्कि अन्य समाजों पर कविता लिखने और पढ्ने वालों के भीतर एक रुचि जगाता ना केवल आदिवासी समाज और उसकी समस्या को समझने बल्कि अपने समाज से जोड के देखने और उनका भी इतिहास जानने को. फिर भी यह कविता पूरी तरह एक सफल कविता है
................ डा. अलका सिंह

Tuesday, November 15, 2011

एक दरवाजा खुलना जरूरी है बाप बेटी के बीच

( मित्रों, कुछ लिखने, बहुत से सवाल करने और उसका उत्तर खोजने से पहले अपने विषय में भी मैं पाठकों को बताना मेरा नैतिक दायित्व है और मै इसे जरूरी समझती हूँ. पेशे से मैं एक समाज विज्ञानी हूँ और आधुनिक इतिहास की छात्रा रही हूँ. लोग इस तरह कह सकते हैं के सहित्य और मेरा दूर – दूर तक कोई औपचारिक नाता नहीं है किंतु मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जहां सहित्य ही सहित्य था. अपने बचपन से जाने – माने कहानीकारों, कवियों और शायरों का ऐसा जमवडा घर में देखा कि कभी जाना ही नही कि साहित्य अलग से भी पढने की चीज़ होती है. इसलिये अनौपचारिक रूप से ही सही मैँ सहित्य की ऐसी छात्र रही कि जैसे सहित्य मेरी रगों में बैठ गया सो बैठ गया और उसी समझ और जीवन के अपने अनुभवों (व्यक्तिगत और सामाजिक) और अनुभूति के बल पर ही कलम उठाने की हिमाकत गाहे – बगाहे करती रहती हूं और आज भी कर रही हूँ.)
आज जो कुछ मैं लिखने जा रही हूँ उसका सन्दर्भ मेरी कविता ’पिता पुत्री के बीच एक रिश्ता है’’ पर आयी एक टिप्प्णी से है. यह टिप्प्णी मुरादाबाद के हिन्दू कालेज के एसोसियेट प्रोफेसर श्री धीरेन्द्र पी सिंह जी इस कविता पर हुई चर्चा के दौरान दाली थी. आप पाठ्क मेरी यह कविता मेरे ब्लाग पर देख सकते हैं आप सभी से अनुरोध है कि इस टिप्प्णी को पढने के बाद ही मेरे आलेख पर ध्यान दें. नीचे टिप्पणी है के -

‘’पिता के लिए उसकी संतान (चाहे वह बेटा हो या बेटी) उसकी प्रतिछवि होती है. पालन-पोषण के बीच ख़ुशी और नैराश्य के ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब आपसी संवाद में कमी आ सकती है. उसे सुधारा जाता है और अनूठे रिश्ते की डोर दिनों-दिन मजबूत होती जाती है. इसमें कोई जटिल अनुबंध नहीं है. सब कुछ बहुत सरल और आत्मीय होता है. यहाँ कोई सवाल और कोई जवाब अनसुलझा और अबूझ नहीं होता. यह सम्बन्ध नदी या सागर की गहराई पा सकता है, पाता भी है किन्तु इसे पार करने का कोई प्रश्न ही नहीं ! इसे तो साथ साथ जीना होता है......उस वक़्त भी जबकि बेटी किसी विवाह उपरांत किसी और घर चली जाती है. बदलते वक़्त के बदलते पिता अथवा बदलती बेटी जैसे पिता और बेटी के बीच किसी अर्थहीन और लाचार सम्बन्ध की मै कल्पना नहीं कर पाता.
क्या कहूँ मै ? यह कविता सारे विषय का एक ऐसा चित्रण करती दिखती है जिसमे किसी दूषित सम्बन्ध की बू आती है ! एक तरफ गहन आत्मीय तो दूसरी ओर अत्यंत प्रदूषित भी’’ !
............ श्री धीरेन्द्र पी सिंह
एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दू कालेज
मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश


मैने पिता पर कई कवितायें लिखी हैं. मेरी कविताओं पर आम सहमति होगी ऐसा मैं कभी नही सोचती किंतु जिन लोगों तक मेरी बात पहुँचती है वो प्रतिक्रिया देते हैं कभी विरोध में कभी पूरे दिल से समर्थन में. पिता पर मेरी एक लम्बी कविता को जब मैने ‘कवियों की पृथ्वी’ पर पोस्ट की तो पहला ही कोमेंट युवा कवि नीलकमल का था कि ‘’ पिता ऐसा निर्मम नहीं हो सकता’’. क्यों? यह सवाल मेरे मन में बार - बार उठा किंतु तब मैनें यह पूछना मुनासिब नहीं समझा. उसका एक कारण था. सहित्य की दुनिया में आज तक जितनी भी रचनायें ‘पिता’ पर प्रकाश में आयी हैं उसमें पिता उसकी भूमिका, संतानों से उसके सम्बन्ध और उस भूमिका पर संतानो की प्रतिक्रिया या विचार पर बहुत गिनिचुनी ही कवितायें आयी हैं. ऐसा क्यों है ? यह अपने आप में एक अलग विशद और गहरा विषय है बात करने के लिये किंतु ’ पिता ऐसा निर्मम नहीं हो सकता’’ यह मेरे लिये सोचने वाला मुद्दा था क्योंकि हर रोज मै पिता की निर्ममता के किस्से अपने आस पास से लेकर अखबारों के पन्ने तक में टंका पाती हूँ इसलिये मुझे बार – बार लगता था कि इस पर बात तो करनी ही होगी. क्योंकि हर पल पिता – पुत्री के सम्बन्ध के बीच समाज के भीतर निर्ममता का भी एक रिश्ता साफ साफ मुझे दिखाई पडता है और मुझे लगता है कि शायद सबको यह दिखता भी है किंतु सब आंख मूद् कर उसे नज़रन्दाज करते हैं. या फिर ऐसा होता रहे वो यह चाहते हैं. मुझे दुख है कि यह रिश्ता बहुत कम लोगों को दीखता है और यह दुख तब और बडा हो जाता है जब अपने काल खण्ड का परिचय देने वाले लेखक कवियों की जमात की कलम भी कभी कुछ भी बोलने से और कभी साफ साफ बोलने से या तो बचती है या परहेज़ करती है.

बहर् हाल, मेरी कविता पर फेसबुक पर यह अकेली टिप्पणी थी जिसने मुझे अन्दर तक झिझोड दिया कि इस सम्बन्ध पर कुछ लिखा जाये. मुझे अचरज बिल्कुल भी नही होता ऐसी कोई टिप्पणी ,आने पर् किंतु अश्चर्य हुआ वो इसलिये क्योंकि यह् टिप्पणी एक कालेज के प्रोफेसर ने लिखी थी और वो भी उस क्षेत्र में रहने वाले जहाँ पिता – पुत्री सम्बन्धों की दस्तान पूरे देश को हिला देती है.जहाँ खाप पंचायतें होती हैं जो अक्सर हमरे देश के अखबारों में सुर्खियाँ बनाती हैं, जहां संतानों में अपने – अपने पिताओं पर इतना क्रोध होता है कि वो जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं. अभी कुछ ही साल पहले एक लड्की ने अपने माता पिता दोनो की हत्या कर दी थी. और ऐसे में एक एसोसियेट प्रोफेसर की यह टिप्पणी मुझे मजबूर करती है कि मैं अपनी कविता पर कई बार सोचू. मजबूर् करती है कि पुत्री होने के अर्थ को भी समझूं, और इन सबके साथ - साथ पिता होने के अर्थ को भी न केवल अकेले समझूँ बल्कि साथ साथ साझा करूँ. यह समझना इसलिये भी जरूरी है कि अगर समाज के सभी दोष, नकारत्मक तत्व और सारे विकार पित्रिसत्तात्मक व्यवस्था के नाम है तो आखिर पिता उस नकरात्मक प्रभाव से मुक्त कैसे हो सकता है.? जबकि वह इसी समाज का जीव है. यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि पिता एक व्यक्ति भी है तो वह व्यक्तिगत भवनाओं उसमें लिपटे भावों और अभिव्यक्तियों से मुक्त कैसे हो सकता है? वह हमारा जन्मदाता है उस कारण उसके हमारे बीच एक सश्क्त भवनात्मक ताना भी होता है इसलिये पिता के चरित्र को समझना बेहद जरूरी है.





पिता कौन है ? पिता और परिवार का सम्बन्ध क्या है? पिता और परम्परा का सम्बन्ध क्या है और कैसे है? समाज और स्त्री का रिश्ता क्या है? समाज में पुत्री का चरित्र कैसे परिभषित है? और अंत में कि समाज पिता पुत्री के सम्बन्ध के बीच भी क्या कहीं है ? अगर है तो उसकी भूमिका क्या है ? ये कुछ मूल सवाल हैं जो उठाये जाने चहिये. पर जिन लोगों ने आज तक इन सवालों को कभी भी उठाया है उसे एक खास कोने में खडा कर दिया गया है और उंपर ठप्पा लग दिया गया है महिलावादी होने का. ऐसे सवाल जब पुरुषों ने भी उठाये वो भी महिला वादी ही कहलाये. क्या ये सवाल एक बेह्तर समाज बनाने के लिये नही उठाये जाने चहिये? क़्या सामाज में आज जो पिता की भूमिका है वह पूरे तौर पर एक आदर्श पिता की भूमिका है ? ( मैं ये सवाल बिना पुत्र – पुत्री का भेद किये पिता की भूमिका के सन्दर्भ में पूछ रही हूँ. और चाहती हूँ कि पाठक बिना व्यक्तिगत हुए इन सवालोन से गुजरें और उनपर् बात करें) मुझे लगता है पिता की भूमिका पर थोडा ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है.

दरअसल एक व्यक्ति जब पिता बनता है तो वह दो अवस्थाओं से गुजरता है
1. एक व्यक्ति की
2. एक चरित्र की
व्यक्ति के रूप में वह अपनी संतान से ना केवल जुडा होता है बल्कि उसके अन्दर भव्नाओं का एक पुंज होता है और वो उससे ओत – प्रोत होता है किंतु जैसे ही वह चरित्र में प्रवेश करता है एक पूरी की पूरी व्यवस्था जीता है. इसी स्वरूप में वह परिवार का मुखिया होता है, इसी चरित्र के साथ वह परिवार में लोगों का व्यव्हार निर्धारित् करता है, वह समाज का सम्मानित सदस्य होता है.और सम्मान पाता है. यह सारा कार्य व्यापार तब तक ही चलता है जब तक घर की महिलायें खास्कर पुत्रियां घर ने जो नियम निर्धारित किये हैं उसके हिसाब से चलती हैं. घर के मुखिया को यह समाज ने सम्झया होता है कि यदि घर की स्त्री ने समाज के नियम से अलग चलने की कोशिश की वैसे ही सारे नियम कायदे ध्वस्त हो सकते हैं. यह डर पिता के चरित्र में कुछ इस कदर बैठा होता है कि वह अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये पहले तो घर के अन्दर ही वो सब करने के लिये तैयार रहता है जो कभी कभी अम्आंवीय भी होता है और गैरकानूनी भी. देखा जाये तो व्यक्ति समाज और उसके विचार में इतना गुथ जाता है कि उसे अपने किये में कभी कुछ गलत नहीं लगता और ना ही दिखता है. ऐसा इस्लिये भी है कि वह कई सारे भ्रम के बीच बान्ध दिया गया होता है जिसे वह पूरा तोद पाने में असमर्थ होता है. अक्सर घर की महिलयें पुरुश के इस नियम , भ्रम और बहुत सी मज्बूरियोन का शिकार होती हैं. इसीलिये मर्क्स कहता है “ औरत अंतिम उपनिवेश है.’’ औरत के इस उपनिवेश बनने का सबसे बडा करण है दुनिया भर की औरतों का अर्थिक रूप से पिता, पति और पुत्र पर अश्रित होना. आज भी दुनिया की ज्यादातर महिलायें इसी अर्थिक स्थिति में जीती हैं किंतु पिता के साथ पुत्री की एक खास अवस्था होती है. और धीरेन्द्र पी सिंह और बहुत से पिताओं का भ्रम यहीं से शुरु होता है. क्योंकि वो पिता के व्यक्ति रूप और चरित्र रूप को सीधे सीधे विभाजित नहीं कर पाते. यहां मैं कुछ उदाहरण से बात आगे बढाना चाहूंगी.
1. अभी 2 -3 दिन पहले मैनें स्वप्निल जैन की वाल पर एक कविता देखी थी-
‘’उम्रभर लिखता रहा वह
प्रेम-पत्र व प्रेम-कविताएँ,

बेटी ने क़लम उठाई तो
घर में बवाल हो गया ‘’



2. ‘’‘पापा’ और मैं. एक अज़ीब रिश्ता है हमारा. सच कहूँ तो दुनिया में मै माँ के बाद किसी से सबसे अधिक प्यार करती हूँ तो वो हैं पापा. पर हमारे रिश्ते के जैसे दो हिस्से हैं एक दिल के बहुत करीब तो दूसरा अघोषित युद्ध सा दिल से उतना ही दूर. सच कहूँ तो विचारों से हम बहुत दूर हैं
माँ के गुजरने के बाद मेरा और उनका रिश्ता और भी करीब हो गया. कोई ऐसा दिन नहीं होता जब हम आपस में घंटों बैठ अपना दुख दर्द ना बांटा हो. पापा ने अपने दुख, अपना अकेलापन, अपनी जिम्मेदरियों के बोझ का सारा दर्द अगर किसी से सबसे अधिक बांटा है तो वो मुझसे. उनके मजबूत कन्धों पर् मुझे आज भी जब वो 70 की उम्र पार कर चुके हैं, बहुत भरोसा है. वो जब भी बीमार पडते हैं मै 500 किलोमीटर दूर से भी उन तक एक दिन के भीतर पहुंच जाती हूँ. अपना बचपन याद करती हूँ तो बहुत कुछ याद आ जाता है. कितना कुछ गुजर जाता है आंख के साम्ने से. मुझे आज भी याद है कि अपने कन्धों पर बैठा कर दुनिया उन्होने ने ही दिखायी है. जीने के कई हर्फ सिखाये हैं. उसके अलावा भी बहुत कुछ है जहाँ मैं नि:शब्द हूं. कलम भी चुप ही रहना चहती है. किंतु दिल से इतने करीब होते हुए भी हम विचारों से बहुत दूर हैं. सामजिक मन्यतओं को लेकर मेरा और उनका 36 का आँकडा है. पहली कक्शा से लेकर उच्च शिक्शा पाने तक जैसे जैसे मैने चौखटे और दरवाज़े तोडने शुरु किये हमारे बीच खाई बढती चली गयी जो कई स्तरों पर आज भी है. उनको सालों पता ही नही चला कि मैं लिखती भी हूँ. अखबारों में छपने के बाद भी उन्होनें मुझे शायद् ही कभी पढा होगा.सबसे मजे की बात है कि मुझे भाषा की तमीज़, लिखने की तमीज़ और मंच पर चढ्कर बोलने की तमीज़ उन्होने ने ही सिखायी.’’
3. पिता कहता है ‘’बाबुल की दुआयें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले.’’
4. वही पिता बेटी को नसीहत देता है – मैं पिता हूँ तुम्हरा कभी तुम्हारे लिये गलत नही सोचुंगा, यह लडकियों को शोभा नहीं देता,
उपर दिये गये 4 उदाहरण में पहला उदाहरण दो ऐसी तठ्स्थ आंखों का है जो स्थितियों को सही सही देख पा रहा है और जिसमें कहने का साहस है कि बेटी पिता के लिये क्या है और समाज बेटी और उसमें रिश्ता क्या है? वह यह भी कह पा रहा है कि पुत्र और पुत्री में भेद क्या है और यह भी कि पिता बनने की अवस्था क्य है और परिवार में बेटी की आज़ादी का आकाश क्या है.

दूसरा उदाहरण कुछ कहने की जगह नही देता वहां सब साफ है.
तीसरा उदाहरण पिता के चरित्र, समाज और् पुत्री तीनो की कहनी कहता है

और चौथा भी साफ है.


तो कितना जटिल है ना पिता का रूप? यह रूप मैनें अपने साथ की लड्कियों अपने बाद की पीढी की लड्कियों और आज भी जब मैं लड्कियों के बीच काम करती हूँ उनके पिताओं को कभी कभी शत प्रतिशत और कभी कभी 90 प्रतिशत तक ठीक उसी रूप में पाती हूँ जैसे कि मेरे पिता का चरित्र था उनकी कहानी थी मेरे और मेरे पिता के रिश्ते की कहानी. जैसी ही दिखती है. कभी कभी मैं चौक कर खडी हो जाती हूँ और अचानक मुह से निकल जाता है कि मेरे पिता ऐसे नही थे. और मैं उनकी खूबियाँ गिनने लगती हूँ. इन खूबियों के बीच उनका एक चेहरा और उभरता है जो उस पिता का नही होता या फिर उस पिता के ठीक विप्रीत होता है जो अभी – अभी भाव्नाओं में गोते लगा रहा था. ऐसा नही है कि पुत्र के साथ पिता बहुत सहज़ है किंतु पुत्री के साथ जिन जतिलताओं से गुजरता है उसके कारण थोडे अलग हैं.

भारतीय समाज में पुत्री की स्थिति देखें - तो यह आज भी ग्रमीण समज में बची – खुची परम्पराओं में से एक है कि पिता बेटी की कमाई से अपने को ऐसे अलग रखाता है जैसे उसकी संतान की नही किसी अछूत की कमाई हो. वह बेटी के ससुराल का पानी भी नहीं पीता क्योंकि वह उसे दान कर चुका है. वह ससुराल में उसपर अन्याय होने पर भी चुप रहता है क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह चुप चाप अपनी मेहनत की कमाई दामाद के परिवार को देने के लिये विवश है क्योंकि वह बेटी का पिता है. यह सिल सिला यहीन खत्म नही होता.
वह बेटी की इच्छा के खिलाफ से आगे पदहने से रोकता है क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह उसे उसके मन का नहीं करने देता क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह उसे चुप चाप उस व्यक्ति से वइवाह करने के लिये विवश करता है क्योंकि यह ही होना सही है. क्या एक पिता इन सारी परिस्थितियों से नही गुजरता? या वह कुछ कम कुछ ज्यदा ऐसा नही करता? मुझे लगता है कि बहुत कम पिता होंगे जो 100 प्रतिशत इससे अलग होगे.

किंतु वह पिता आपका जन्म्दाता है इसलिये वह कई बार मनवीय सम्वेदनओं के बशीभूत यह सब नही करना चहता. कई पिता अपने चरित्र के ऐसे कई बन्धों को तोड्कर बेटी को एक खिड्की जरूर देते हैं और बेटियां उस जालिदार खिड्की से दुनिया देख बहुत खुश हो पिता पर वारी जाती हैं और पिता के पछ में खडी हो कई सकारत्मक दलील दे रही होती हैं

किंतु अब पुत्री का चरित्र देखें –

एक बेटी अपने पिता को बहुत प्यार करती है क्योंकि वह जाया है, वह पिता का बहुत खयाल रखती है क्योंकि वह जाया है, वह ऐसा बहुत कुछ करती है जो पिता के दिल को छू जाता है और वह संतानों में सबसे प्रिय और विश्वसनीय हो जाती है. वह अपने पिता के दुख से दुखी होती है, पिता की खुशी में सुख खोजती है, पिता का हर कहना मानती है किंतु वही बेटी बाहर की दुनिया में कोई फैसला पिता की इच्छा के अनुसार ही पढ्ती है, पहनती है, बाहर जाती है, कोई फैसला पिता से पूछे लेने से डरती है, उसकी मुहर के बिना एक पत्ता भी नही ख्ड्का पाती.

पिता की इच्छा के खिलाफ प्रेम करने पर खुद् पिता और भाईयों के हाथों कत्ल कर दी जाती है. क्या यह पुत्री के प्रति पिता का प्रेम है? एक बहुत बडा जवाब है नहीं. पुत्री के साथ यह क्रूरता पिता का चरित्र करता है, व्यक्ति और जन्म दाता नहीं. इसीलिये --

पिता और पुत्री का सम्बन्ध
वक्त की रेत पर
भावनाओं में उलझी
इक टेढ़ी मेढ़ी किताब है
इक जटिल अनुबंध
जिसपर अबोध दस्तखत के साथ
पढ़ते - पढ़ते
जवान हो जाती हैं बेटियां
और साफ और सीधी बात के लिये एक नये दरवाजे की जरूरत है जो दोनो को दोनो से सही मायने में मिलाये तब जहिर है तब बेटियों द्वारा लिखी जाने वाली कवितायें कुछ और शक्ल अख्तियार करेंगी.



..................................................................डा. अलका सिंह

Sunday, November 13, 2011

अरुण देव की कविता ‘‘पत्नी के लिए'' पर एक हिमाकत ----

सच कहूँ तो इस कविता क़ा चुनाव मैंने अपने किसी अन्य आलेख के लिए किया था जिसमें कई कवियों की रचनाएँ शामिल थीं किन्तु जब भी इस कविता को उस आलेख के मद्देनज़र उठाती और उसमे शुमार करने की सोचती तो एकबारगी ठहर जाती और लगता के ये कविता किसी और बात की मांग करती है और विचार आता कि इस कविता पर अकेले ही विस्तार से लिखना चाहिए. इसका एक कारण भी था. मैंने अपने पाठकीय जीवन में जितनी भी रचनाएँ '' पत्नी के लिए'' पढी हैं वह आपसी संबंधों के चित्रण, विस्तार और अपनी बेबाक स्वीकृति से अलग ज्यादातर ' घरारी' वाले अंदाज की, या फिर भावों से ओत प्रोत सुन्दर शब्दों के मायाजाल में लिपटी, किसी क्षण पर केन्द्रित रचनाएँ पढी थीं. या फिर विरह के क्षण की पीडा का चित्रण ही जाना था. मेरी आँखों के सामने से यह पहली रचना गुजर रही थी जो कई सन्दर्भ एक साथ लेकर खडी थी. अरुण देव की सीधी साधी दिखने वाली ये कविता अपने अर्थों में उतनी सीधी नहीं थी जितनी की दिखती है. इसलिये यह मेरे लिये एक बहुमुल्य रचना थी.

अरुण देव से मेरा परिचय फेस बुक पर ही हुआ हालाँकि हमारे बीच संवाद शायद ही कभी हुआ हो और यह बात मेरे लिए दुःख व्यक्त करने वाली ही है किन्तु अरुण देव की रचनाओं से मेरा परिचय बहुत पुराना है. जहाँ तक अरुण देव की इस रचना क़ा प्रश्न है तो ये रचना मैंने तब पढी जब एक् कविता पर फेस बुक पर चर्चा बहुत गर्म थी. और वह कविता इसी कविता ‘‘पत्नी के लिए'' से प्रेरित थी. उसी दौरान मांगने पर अरुण ने मुझे लिंक भेजा था ताकि मैं इस रचना को पढ़ सकूं . मेरी उत्सुकता के कई कारण थे ;

१. सबसे पहली जिज्ञासा थी के आखिर उस कविता में क्या ऐसा है जो किसी को एक कविता लिखने को प्रेरित करता है ?
२. ''पत्नी के लिए'' में आखिर अरुण किन संवेदनाओं से गुजरे हैं? क्या संवेदनाएं विशाद के क्षणों की हैं ?
३. स्त्री विषयक, विशेष कर पत्नी विषयक इस रचना में अरुण देव के प्रयोग क्या हैं ? क्या यह महज़ व्यक्तिगत भाव तक सीमित है या फिर बड़े सरोकार से जुडी है ?
४. मैं आज के समय में पति-पत्नि के बीच सम्बन्धों में हो रहे बदलाव के चिन्ह की तलाश भी कर रही थी.

यही वज़हें थी कि मैंने इस कविता की एक - एक लाइन और एक - एक प्रयोग को बहुत बारीकी से पढ़ना आरम्भ किया और आज इस कविता पर लिखने की सोच बैठी.

अरुण की कविता पहली बार पढ्ने पर यह दो व्यक्तियों के अन्तरंग क्षणों की बहुत अन्तरंग अनुभूति सी लगती है किन्तु जैसे ही आप इस कविता को बडे स्तर पर रखकर सामजिक सरोकर से जोड्ते हैं कविता अपने व्यापक अर्थ लेकर आपके सामने खडी हो जाती है. दरअसल अरुण जब इसे कविता के माध्यम से एक वक्तव्य के रूप में सबके सामने रखते हैं और लोंगों को समर्पित करते हैं तो यह कविता, इसके मायने और सरोकार सभी बहुत व्यापक हो ही जाते हैं क्योंकि यही कविता के मायने हैं. यही वज़ह है कि इस कविता पर बात करने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि २०११ में लिखी इस कविता को मैं इसी सदी की कविता के रूप मे ही समझने की कोशिश कर रही हूँ और मुझे लगता है यही इस कविता के साथ करना भी चाहिये.. ऐसा इसलिये भी क्योंकि २० वीं सदी को स्त्री के सम्बन्ध में बदलावों की सदी के रूप में जाना गया है. परिवारों की शक्ल, पति- पत्नि के एक दूसरे को समझने के तरीके और बहुत हद तक भावों को अभिव्यक्त करने के तरीके भी बदले हैं. २० वें सदी के उत्तरार्ध और २१ वीं सदी क़ा ये आरंभ इस दृष्टी से बेहद महत्च्वा पूर्ण काल है. इस दौर में कई मायनों में स्त्री पुरुष संबंधों विशेषकर पति पत्नी संबंधों को नए अर्थों में परिभाषित करने के प्रयास भी हुए हैं और उसके के मानक भी बदले हैं. इक बात यहाँ स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है यही दौर है जब प्रभावी रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक मंचों से औरतों की स्थिति पर गहन चरचा हुई है और यू.एन. के हस्तक्शेप ने दुनिया के सभी देशों को इस दिशा में काम करने को मजबूर किया है. यह एक तर्क हो सकता है कि आखिर सरकारें दो व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध को कैसे परिभाषित कर सकती हैं? यह सही भी है किंतु जब एक सोच सीधी रेखा में चलकर एक देश एक क्शेत्र और में जीने वाले लोगों को प्रभावित करे तो उस भाव को रेखांकित करने की अवश्यकता पड्ती ही है.


ऐसे में अरुण की कविता में मैं उस गंध को खोजने की कोशिश करना चाहती हूँ और करुँगी के क्या यह कविता भारत में २१ वी सदी के पति पत्नी की तस्वीर पेश करती है? या फिर यह हमारे घरों के इक आम तस्वीर को ही सबके सामने रखने क़ा प्रयास है? या फिर भारत में पति अब भी उसी मुकाम पर खडा है जहां से औरतों की पीडा का प्रारम्भ होता है और वह जीवन में कई सम्झौते करती है?और भी बहुत कुछ. इन सभी बिन्दुओं को समझने के लिए जरूरी है अरुण की पूरी कविता से इक साक्षात्कार हो. प्रस्तुत है अरुण की पूरी कविता -


वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को

बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ

तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा

................................... अरुण देव



अब बात कविता पर -
सबसे पहले मैं अरुण को इस बात के लिये धन्यवाद दूंगी कि उन्होनें इस भाव की कविता लिखी और उसे सबके सामने रखा. यह धन्यवाद इसलिये भी जरूरी है इस कविता के माध्यम से पुरुष मन के भाव और स्वीकरोक्तियों से एक ऐसा शब्द चित्र खींचा गया है जो परिवार में महिलओं की स्थिति और उसकी पीडा के करणों को अनयास ही सामने लाता है. कई अवसरों पर औरतों की चुप्पी, कई बातों को नज़रन्दाज़ करना, घर को एक जिम्मेदरी के साथ निभाना, बहुत कुछ जंते हुए उसे अन्देखा करना, कई बातों को हंस कर टाल देना सब महिलाओं के खाते की चीज़ है जो कविता पूरे स्वरूप में बयान करती है. यह कविता यह भी बयान करती चलती है कि पुरुष कैसे पुरुष एक तरफ खडा स्त्री और उसके प्यार की परिभाषा गढ्ता है जहां से वह बहुत चतुराई से अपने को अलग करता चलता है.

यहां मैं इमानदारी से बताती चलूँ कि इस कविता को मैंने ५० से अधिक बार पढ़ा होगा और जितनी बार मैं पढ़ती मेरे सामने मेरे १७ सालों के काम के दौरान मिली हर उस औरत क़ा चेहरा सामने आता जाता जो अपनी परेशानिया लेकर मेरे पास आती रही थीं. अपने पतियों के व्यव्हार उनके सोचने के अन्दाज़ और काम के बोझ का जो वक्तव्य उंक्के मुह से सुना था वो अनयास ही इसे पढ्कर जैसे कानों में गुंजने लगे. इस तरह कविता से गुजरते हुए एकबारगी महत्वपूर्ण रूप से यह सच् मेरे सामने उभरकर आ रहा था के उन सभी महिलाओं मे से ८० प्रतिशत महिलाओं की शिकायतें क्यों थी? इसके कारण क्या थे ? . इसीलिये इस कविता को मैं बडे सामाजिक सन्दर्भ की कविता मानती हूँ. अब बात अरुण की कविता की-

सामन्य रूप से यह कविता एक खुशहाल मध्यम्वर्गीय परिवार के पति पत्नि का चित्रन करती है जहां स्त्री अपने परम्परागत चरित्र के साथ है. इसीलिये अरुण देव की यह कविता स्त्री की स्थितियों के सन्दर्भ को दर्शाते हुए एक व्यापक अर्थ लिये हुए है. पूरी कविता से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे एक परिवार में किसी पति ने अपनी पत्नि को यह बता दिया है कि -

वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता

इस कविता की इन तीन लाइनों को सामन्य से अधिक द्रिश्ती से देखने की आव्श्यकता है. सरसरी तौर पर यह एक् सकारत्मक भाव उत्पन्न करती हुई सी लगती है. किंतु इसे अगर व्यपक स्तर पर स्त्री जीवन के सरोकारों से जोड कर देखा जाते तो यह् स्थिति समान्य नहीं है बल्कि इसके उलट यह स्त्री जीवन की जतिलताओं के अरम्भ के दर्शन हैं. और यही वज़ह है कि यह बडे पैमाने पर दिखने वाले स्त्री जीवन के दंश के अरम्भ को भी परिभाषित करते हुए आरम्भ होती है. महिलाओं पर किये गये कई सर्वे इस बात का खुलास करते हैं कि . गृहस्त जीवन के एक दौर तक आते - आते 80 प्रतिशत से भी अधिक विवाहित महिलाओं को अपने वैवाहिक जीवन के किसी ना किसी मोड पर किसी ना किसी मोड रूप में यह शब्द सुनना ही पडता है कि ‘’अब वह आंच और आवेग तुममें नही बचा’’. परिवार और उसके पूरे माया जाल में उलझी महिलाओं के जीवन का यह पहला बडा भवनात्मक और मानसिक आघात होता है जिससे वह गुजरती है. पर सवाल है आवेग क्यों खत्म हुआ? किसकी तरफ से खत्म हुआ? खत्म होने क कारन क्या है ? इसके बाद की कविता इन सभी प्रशनो का अपने तरह से जवाब भी है. आप देखें कितने विल्क़्शण रूप से कविता की अगली पंक़्तियां तुम और तुम्हारे पर आकर टिक जाती है और कहतीं हैं _
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप


अब सोचने वाली बात है के आचानक हमारे आवेग की बात करते -करते ये ‘’हमारा’’ सिर्फ ‘’तुम्हारा’’ पर क्यो सिमट् गया? क्या इसलिये कि अब वह आवेग नहीं बचा? या इसलिये कि आवेग के खत्म होते ही पति पत्नि के बीच के सम्बन्ध हम से उतरकर तुम पर आके टिक जाते हैं और पति प्रेम की अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कहीं और प्रेम तलाशते हुए बस उसके प्रेम की बात कर उसे उलझाता है?
इमानदरी से कहूँ तो पति का यह कहना कि ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा............ बरसता है.............. और खिली धूप सा’’ पत्नी को लगायी जा रही एक तरह की मस्केबाजी लगती है. शायद उपर की तीन पंतियान कहने के एवज़ में यह एक तरह की भरपायी हो ताकि समजिक और आपसी तौर पर वैवाहिक जीवन की सामाजिक गरिमा और अर्थ बना रहे और साथ में स्त्री के सामने प्रेम के भ्रम की स्थिति भी बनी रहे. क्योंकि अक्सर स्त्रियां शब्दों के इस मायाजाल को तब तक नहीं सम्झ पातीं या समझ्ना नहीं चहतीं जब तक तलवार सर पर ना लटक जाये. बहरहाल गम्भीरता से कहूँ तो यह स्त्री जीवन की सबसे बडी जटिलता है जहां पारस्परिक सम्बन्ध से एक पयदान नीचे उतर कर एक पति अपने भाव न केवल जीता है बल्कि उस अनुभूति से गुजरते हुए पत्नि पर यह प्रभाव छोड्ने की कोशिश करता हैं कि उसके समग्र् विचरों में सिर्फ ‘वह’ ही अवस्थित है ‘उसका’ ही नाम और प्रेम बचा है इसलिये कहता है ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा, बरसता है और कमाल, खिली धूप सा’’ देखा जाये तो. यह एक पुरुष की स्वीकारोक्ति से अधिक अनुभूति की स्थिति हो सकती है किंतु ध्यान देने वाली बात है कि अब दोनों के आपसी प्रेम में सिर्फ औरत है पुरुष ने इससे अपने को अलग कर लिया है और तुम्हारे पर आकर ठहर गया है. इस सच को इस कविता की अगली पंक्तियां विस्तार देती हैं और कहती हैं -

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

‘’तुम्हारा घर’’, ‘’दुनियावी जिम्मेदारी’’ ‘’कनस्तर’’ और ‘’बिटिया'' रेपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो क़ा प्रयोग निश्चय ही बहुत चकित कर देने वाला है. यह इसलिये क्योकि जो घर हमरा होना चहिये था वह अब ‘’तुम्हारा’’ हो गया. यह स्थिति न केवल दुखद है बल्कि एक औरत के लिये जहां अकेले की जिम्मेदारियों को वहन करते हुए बोझ सा भी है. साथ ही उसकी अनकही पीडा भी है. महिलओं के लिये बहुत कठिन ये भी है के हमेशा ही उन्हें ग्रिहस्ती की जिम्मेदारियों के नाम पर सारे बोझ को ढोने की शिक्षा और सलाह के साथ चुप करा दिया जाता है. यही वज़ह है कि वह इसी में खुशी तलाशने को कई बार विवश भी होती रही हैं और महिलयें आज भी होती हैं. क्या वास्तव में घर की ऐसी शक्ल सही है ? क्या स्त्री पर ये जिम्मेदरियां इसलिये हैं कि वो परिवार में आर्थिक सहयोग नहीं करती? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो आज भी भी ज्यों के त्यों खडे हैं और् जवाब में या तो एक बडी चुप्पी है या फिर परम्परा और औरत की जिम्मेदारी का कुछ परम्परागत पहाडा. और ऐसे जवाब सच कहा जाये तो संतुष्ट् तो कतई नहीं करते. इस कविता की सबसे महत्वपूर्ण पंक्तियां जो एक सम्बन्ध की अगली स्थिति को विस्तार देते हुए पति की स्वीकरोक्ति और औरत के चरित्र को भी परिभाषित करते हुए बहुत कुछ कहती हैं.



बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
हो सकता है लोग या बहुत से पाठ्क इसे स्त्री की महनता के रूप में देखें कि वह बहुत कुछ देखते हुए नहीं देखती किंतु वास्तव में यदि देखा जाये तो यह स्थिति सोचने वाला विषय है कि अखिर बहुत कुछ देखते हुए वह क्यों नही देखती वह्? क्या उसमें लडने का साह्स नहीं? य फिर वह डरती है ? डरती है तो किससे? पति के हिंसक हो जाने से ? या समाज में उपहास से? या फिर आपसी सम्बन्धों के विकट हो ज़ाने की कल्पना से? यदि गम्भीरता से देखा जाये तो यह स्त्री की एक दयनीय स्थिति की तरफ इशारा करता है. उसकी यह दयनियता हर स्तर पर दिखती है. चाहे वो सामाजिक स्तर पर हो, व्यक्तिगत् स्तर पर हो या फिर किसी भी मोर्चे पर किंतु सबसे बडी दयनीयता आर्थिक स्तर की है. इसीलिये स्त्री चुप रहती है और नही देखती य कहें नही देखना चाहती.
पुरुष अपने व्यव्हार और उसके सच को जानता है और यह भी जानता है के उसके अनदेखा करने और सम्बन्धों की थाती सहेज के रखने से ही यह सब जो दिख रहा है सब सहज़ है. बहुत रूक कर सोचने वाला वक्तव्य जो इस कविता का है वो है कि ‘’ तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम’’. आखिर ऐसा क्यों है कि ‘उसका’ इन्हें प्रेम करने के लायक बनाता है? क्या यह प्रेम करने की विवशता है ? या फिर यह अपनी गलती के अह्सास की स्वीकरोक्ति? वैसे ये कुछ भी हो गलती की स्वीकरोक्ति जैसा नही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह कतई नही होता कि -
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
मुझे लगता है अब उपरोक्त पंक्तियों को परिभषित करने की अव्यशकता नहीं है. ना ही कुछ कहने की बस इतना कि कुलमिलाकर कहा जाये तो समय के साथ हम 21वीं सदी में जरूर पहुंच गये हैं किंतु समाजिक और अर्थिक रूप से स्त्री के जीवन में, स्त्री पुरुश सम्बन्धों और उसके दयित्वों में बहुत परिवर्तन नही आया है. पुरुष परिवार में घुसकर जीने की जगह दूर खडा हो अपनी विशेष् स्थिति में जीने का आदी है जिससे निकलना या तो वो चहता नहीं या फिर ना निकल पाऊँ इसकी परिस्थितियां उत्त्पन्न करता रहता है तकि स्त्री डर कर वहीं रहे जहां उसके पैरों में हज़ार जंजीरें बन्धी रहे. और वह धर्मपत्नी बनी रहे.

यह कविता पूरे तौर पर 21वीं सदी में भरतीय समाज , उसमें औरत और उसकी स्थिति को चित्रित करती है साथ ही यह व्यपक रूप से एक परिवार, उसमें स्त्री की स्थिति , पुरुष् की परिवार के प्रति सोच, उसका चरित्र सब कुछ परिभाषित करने में सफल रही है यही वज़ह है कि यह कविता जब भी 21वीं सदी के पति के चरित्र को परिभाषित किया जयेगा लोगोन द्वारा जरूर पढी जयेगी.

.................................. डा. अलका सिहं