Wednesday, February 15, 2012

खुद को बटोरती हुए स्त्री की कविता

मैं लिखना चाहती थी एक कविता
मन के सबसे खूबसूरत भावों को समेट
खोजती रही उन्हें
कुरेद कुरेद
कहीं गुम हो गये थे
मिले ही नहीं
रात
चांद के साथ बैठ
पूछ रही थी उससे
कि कितनी रातें गुजारी थीं उससे बात करते
कितनी रातें सोयी नहीं
उससे साझा करते हुए
अपने भाव कि
कर सकूँ एक गुणा गणित
वो चुप सा मुझे देखता रहा
जैसे पहचता ही ना हो
सांझ भी मुकर गयी थी
मेरी जिन्दगी के
सबसे जरूरी पहरों को चुरा
बताने से कुछ भी
फिर तो
टहल आयी थी शहर का हर कोना
पूछ आयी थी चौक चौबारों से
पर
उसी तरह खाली हाथ लौट कर
यह सोचते सोचते
अपनी ही दहलीज़ पर
खडी हूँ विचारमग्न
कि
आत्म्विश्व्वस
खुद को बटोरते आदमी के
सिरहाने खडा
जीवन से कडी टक्कर के लिये
तैयार करता
एक बडा बल है
और
खुद को बटोरते हुए स्त्री की कविता
बिल्कुल
अधूरी है इस बल के बिना
.....................................अलका

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