Sunday, June 21, 2015

आज ’फ़ादर्स डे’ है

फ़ेसबुक ने याद दिलाया कि आज ’फ़ादर्स डे’ है मतलब


पिता को याद करने का दिन. मेरे ७३ साल के पिता को याद करना मुझे कई मौसमों से गुजरने जैसा लगता है. उन्हें याद करना जैस जाडों की नर्म और गर्म धूप को याद करद्ने जैसा है, कई बार उन्हें याद करना जैसे बारिश की पहली फ़ुहार को याद करना है और कई बार उन्हें याद करना जून की भरी दुपहरी की चटखती धूप को सहने जैसा भी है जैसे रेगिस्तान की गर्म रेत पर नंगे पांव चलने और जलने जैसा. एक लम्बा वक्त मैने इसी अहसास के साथ बिताया है उनके साथ. क्योंकि जैसे जैसे मैं बडी होने लगी थी उनके अन्दर का पिता एक अजीब खोल को ओढने लगा था. एक अनजान पुरुष उनके अन्दर अवतरित होने लगा था जिससे मैं कतई परिचित नहीं थी और उनके जीवन दर्शन से मैं टकराने लगी थी. अक्सर उनकी सोच को मैं डरते डराते ही सही चुनौती देने लगी थी. सच कहूं तो पापा के साथ मेरे रिश्ते कभी सामन्य नहीं रहे इसलिये आज जब भी मैं उन्हें सोचती हूं, उनसे मिलती हूं, उन्हें याद करती हूं तो अपनी उमर के सारे रास्तों और गलियारों से गुजर जाती हूं.. दूर खडी हो जब भी उनको देखती हूं मुझे अक्सर एक पुरुष दिखता है जो कई डोरियों से बंधा है. कई बार मैं उन्हें उन डोरियों में तडपता हुआ देखती हूं और कई बार उन सख्त होती डोरियों के बीच तन के खडा होता हुआ एक बेचारा देखती हूं. उनके साथ का कोई पल भूली नहीं हूं मैं. उनके साथ के अच्छे बुरे हर पल मुझे याद हैं. याद क्या जैसे गडे हुए हैं मेरी स्मृतियों में. वो कुछ इस तरह गडे हैं जैसे कल ही की तो बात है..
सोच रही हूं कब से जानती हूं उन्हें मैं? सही कहूं तो सोच रही हूं कि कब से पहचानती हूं उन्हें मैं? मां कहती थी बच्छा तो मां के गर्भ से पिता को पहचानता है....पर मुझे पापा का पहला अक्स याद आता है जब वो मुझे कुछ बनाने के बडे बडे सपने पाले अम्मा से बतिया रहे हैं...... एक अक्स जो आंखों में छपा है जब वो मुझे घुघुआ मन्ना कराते थे.........एक अक्स और है जब वो मुझे कन्धे पर चढा लेते थे...........थोडी देर बाद फ़िर एक चित्र आंखों के सामने घूमता है..फ़िर एक और........फ़िर एक और .............और तब से लेकर अब तक के वो सारे पल मेरी निगाहों में कैद हैं जो पापा और मेरे रिश्ते के बीच है..............मां कहती थी मेरी पैदाइश पर पापा थोडे मायूस थे पर मैने ये मायूसी कभी अपनी यादाश्त में महसूस नहीं की. इसीलिये पापा मेरे लिये गर्म घूप की तरह हैं आज भी. इसीलिये अपने बचपन के पापा को जब भी मैं याद करती हूं तो गुस्सैल पापा कभी याद नहीं आते मुझे.......हां उनकी बडी बडी आंखों ने कभी कभार मुझे डराया जरूर है...............सच कहूं तो बचपन में मां बाप के साथ बच्चों का रिश्ता एक अजीब बन्धन से बंधा होता है, एक अजीब अहसास से सराबोर........
पापा को बहुत कुछ मां के शब्दों से जाना है इसीलिये जब भी पापा को याद करती हूं मां का भी कोने में खडी म्लती है मुझे...बडी सी लाल बिन्दी लगाये लाल बार्डर की सफ़ेद साडी में.........कभी मुस्कुराते हुए ...कभी गुस्से में ......कभी आंखे तरेरते हुए...............कभी पापा से एक अजीब भाषा में बतियाती हुई ...........मां जैसे पिता के रोल को समझाने की काउन्सलर हो............. पापा और मेरे रिश्ते की एक्स्पर्ट........मेरा मानना है कि पिता को बच्चे आधे से अधिक मां के शब्दों से जानते हैं............उसके मनोभाव से समझते हैं.......... और मैने भी पापा को अम्मा के रहते ऐसे ही जाना था............... आज मां नहीं है तो पापा बांध तोड कर हमारे और करीब आ गये हैं जैसे मां ..........जैसे उसका आंचल ........पिछले १६ साल से मां के बाद मेरे लिये पापा जैसे मां अधिक हो गये हैं .......... कई बार एक ऐसे बच्चे जिसे मां ही सम्भालना जानती थी ..... अब तो लगता है जैसे हम मां बाप हैं और वो बच्चा......एक जिद्दी बच्चा...........................पापा आपके होने का बहुत मतलब है जीवन में ..................बहुत बहुत मतलब है ...

Tuesday, June 16, 2015

जिन्दगी जीते हुए

<मैनें अपनी सगाई तोड दी थी. लडका मुझे किसी हाल में पसन्द नहीं था लेकिन घर वालों के दबाव के आगे मैं कुछ नहीं बोल पायी थी और फ़ैज़ाबाद के एक होटल में घर वालों के पीछे पीछे सगाई करने चली गयी थी. मेरा मन किसी हाल में मेरे हाथ में पडी अंगूठी को स्वीकार नहीं कर पा रहा था. सगाई होने के दूसरे दिन ही मैने अंगूठी उतार कर आलमारी में रख दी थी. घर वालों के चेहरे पर छाई खुशी मुझे अक्सर अपने मन की बात कहने से रोक देती थी और मैं चुप हो जाती थी लेकिन उस लडके से विवाह ना करने की इच्छा इतनी बलवती थी कि मैं उस अन्गूठी को किसी रूप में स्वीकार नहीं कर पा रही थी. बहरहाल मैं चुप चाप घर में चल रही तैयारियों को देखती और विश्वविद्यालय चली जाती लेकिन एक दिन खुद लडके के पिता ने मुझे इस सगाई से ना कहने का मौका दे दिया और मैने फ़ौरन इस विवाह से ना करने में देर नहीं की.
इस सगाई के टूटने के बाद घर का माहौल एक अज़ीब सी खामोशी में तब्दील हो गया. एक ऐसी वीरानी छा गयी थी जिसमें मुझे सांस लेने में घुटन सी होने लगी थी. मां की आन्खों के सूनेपन में कई सवाल और बेचैनी रहने लगी. दो छोटे भाई जो मुझे बेहद प्यार करते थे घर में सबसे कमजोर स्थिति में थे और पिता एक अज़ीब परायी नज़र से देखते जबकि दहेज़ के बेलगाम घोडे की लगाम थाम के ही मैने इस विवाह से ना की थी. अकेली लडकी जरूर थी लेकिन अपने इमानदार पिता की आर्थिक हदें जानती थी सो पूरे परिवार को गड्ढे में ढकेलने से बेहतर मैने इस लाव लश्कर वाले विवाह को ना करना ही बेहतर समझा. मैं नहीं जानती थी कि परिवार के सदस्यों के मन में क्या क्या चल रहा था लेकिन मुझे अपने घर में वह नही मिल रहा था जो इससे पहले तक मिलता आया था. मां ने तो जैसे खाट ही पकड ली थी और कोई सात महीने बाद इस दुनिया को छोड भी चलीं लेकिन मैं इस घर की घुटन से निकलना चाहती थी और मैने अपने बडे भाई के पास भोपाल जाने का फ़ैसला लिया.
भोपाल भारत का एक खूबसूरत शहर. एक ऐसा शहर जहां रहने का अहसास आपको प्रकृति के करीब रखता है लेकिन मैं अपनी जिन्दगी में आये इस दौर से अन्दर तक आहत थी. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं. मन इतना अशान्त था कि कई बार आत्महत्या करने को जी करता. कई बार मन होता अम्मा की गोद से लिपट लिपट कर खूब रोऊ. पर मां ने जैसे अपने को अपने अन्दर समेट लिया था. कई बार सोचती जो पापा इतना प्यार करते थे वो इस तरह क्यों हो गये. अपने इन मनोभाओं के साथ मैं अपने भाई और भावज़ के घर गयी थी. उन्होंने इसी साल की ३ फ़रवरी को शादी की थी. इस तरह की मनोदशा में लिये गये फ़ैसले शायद अक्सर गलत होते हैं मेरा यह फ़ैसला भी गलत था इसका अहसास मुझे भाई के घर में घुसते ही होने लगा था फ़िर भी उन लोगों ने मुझे एक महीने किसी तरह बर्दाश्त किया. इन एक महीनों में मैने रिश्तों के बदतले तेवर को महसूस किया. वह भाई जो साल भर पैसे जुटाता था कि मुझे राखी पर कोई उपहार दे सके एक अज़ीब कशमकश में रहता. मुझसे बात करने के लिये शब्द उसके गले तक आकर अटक जाते थे. मुझे बडी मरणांतक पीडा होती. मै समझने लगी थी कि यह जगह मेरी नहीं है अभी यह ठीक से समझकर मैं कोई फ़ैसला कर पाती एक दिन उसने मुझे अपने आफ़िस के एक एक वर्कर के साथ मुझे एक ऐसी जगह भेज दिया जहां के जीवन की मैने कभी कल्पना नहीं की थी.
मैं उत्तर प्रदेश के एक ठीक ठाक मध्यम वर्गीय परिवार की तीन भाइयों के बीच की अकेली लडकी थी. तीन भाईयों के बीच होने के कारण थोडी दुलारी नकचढी और बेहतर जिन्दगी के सपने देखने वाली और अचानक यह बेतूल जिले के चिखली ब्लाक के जन्गलों के बीच के एक गांव में फ़ील्ड के अनुभव के नाम पर काम करने लिये भेज दिया जाना................ मैं भाई के इस फ़ैसले को कई दिनों तक समझ नहीं पाई थी. मेरे लिये बेतूल जिला एक अनजान और बहुत अज़ीब सा जिला था. अपनों से दूर वीरान में सांप बिच्छुओं के बीच एक ऐसी झोपडी में जीना जहां अगल बगल सांप और चूहों के चलने की आवजें आती हों बेहद डरावना था लेकिन अपने जीवन की इन परिस्थितियों में मैने इसे अपना भाग्य मान लिया था ..........मां अक्सर बहुत याद आती. उसका लाड और दुलार याद आता.......ठोडा सा बुखार होने पर उसका चादर ओढाना, सिर में तेल लगाना .....सिरहाने बैठे रहना सब याद आता ...........पापा का संरक्षण और गुस्सा याद आता ......मेरे दोनों छोटे भाई याद आते ...पर जिन्दगी कुछ ऐसे जाल में उलझ गयी थी कि मैं उनकी आवज सुनने को तरस गयी थी .................एक रात जब पेशाब करने के लिये बाहर जाते वक्त जब एक मोटा सांप दरवाजे पर था तो जिन्दगी जैसे खत्म सी लगी ..........उस रात के बाद जितने दिन मैं वहां रही रात में सोयी नहीं ....धीरे धीरे मैने अपने को काम में रमाना शुरू किया लेकिन अक्सर मेरे दिमाग में आता भाई तो जानता था मुझे फ़िर उसने मुझे यहां क्यों भेजा ??? अक्सर इन्हीं सवालों में उलझकर मैं एक गां से दूसरे गांव के रास्ते नापती. कभी रोती, कभी अपने से सवाल करती और कभी छोटे छोटे टीलों पर बसे गां वों में रहने वालों को देखकर अपने जीवन से उनकी तुलना करती. धीरे धीरे मैने उस पूरी जमात के दुख दर्द और रहन सहन को जानना शुरू किया जो इन्हीं परिस्थितियों में पैदा होते हैं और जीते हैं ...जो इससे इतर जीवन जानते ही नहीं.......अक्सर मैं अपने जीवन से उनकी तुलना करती और मेरी पीडा धीरे धीरे कम होने लगती. ...........

Saturday, April 11, 2015

कवि उदय प्रकाश, पापुलर चेहरे और ब्राह्मणवाद ...


’ब्राह्मण’ और ’ब्राह्मणवाद अक्सर इन दो शब्दों की विशद चर्चा मेरे तमाम मित्रों द्वारा फ़ेसबुक से लेकर तमाम जगहों पर की जाती है. कई बार तो व्यक्तिगत बहसों में भी इन दोनों शब्दों को लेकर लम्बी लम्बी चर्चा यहां तक की विवाद होते रहते हैं. अभी ताज़ा विवाद फ़ेसबुक पर पढने को मिला दिव्या शुक्ला, पंकज झा और कवि उदय प्रकाश की वाल पर. यह विवाद कुछ इतना बडा हुआ कि पान्चजन्य में छपे एक लेख में कवि उदय प्रकाश को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार को वापस ले लेने की मांग की गयी. तो क्या इस देश में ब्राह्मणवाद इतना बडा और मजबूत तंत्र है कि इस वाद पर अपनी सोच रख देने भर से आपके जीवन की सबसे बडी उपलब्धी पर ग्रहण लग जाता है? क्या यह इतना तगडा और मजबूत तंत्र है कि यह आपकी जडें खोदने के लिये काफ़ी है ? क्या यह इतना तगडा और मजबूत तंत्र है कि यह आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी जगह और अवसर नहीं देता? अगर ऐसा है तो यह बेहद गम्भीरता से सोचने और समझने वाला विषय है क्योंकि इतनी बडी आबादी वाले देश में एक छोटे से समूह का इतना तगडा नेटवर्क? इतनी बडी आबादी वाले देश में एक ऐसा समूह जिसके हाथ में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीधा हथियार है ? अगर ऐसा है तो सच में सोचने वाली बात है. वैसे फ़ेसबुक पर ब्राह्मणवाद की यह बहस फ़ेसबुक पर क्यों और कैसे शुरू हुई यह पता नहीं लेकिन कवि उदय प्रकाश के खिलाफ़ आगबबूला होना का कारण उनकी यह पोस्ट थी...
“इस समय, इस देश में, जो सबसे बड़ी अलगाववादी, देशद्रोही ताक़त है, वह कुछ और नहीं , ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद है।
वह किसी भी 'पाप्युलर' चेहरे के साथ अवतरित हो सकता है।
यह एक ऐसा सच है, जिसे स्वीकार करना, इस देश की मुक्ति और स्वतंत्रता की दिशा में पहला ज़रूरी क़दम होगा। इसे स्वीकार करने के लिए सच्ची देशभक्ति, सामाजिक प्रतिबद्धता और साहस चाहिए।”

मैं उदय प्रकाश जी की यह पोस्ट बार बार पढने और समझने की कोशिश कर रही हूं और यह भी समझने की कोशिश कर रही हूं कि कवि उदय प्रकाश आखिर यह क्यों लिख रहे हैं ? फ़िर सोच रही हूं कि आखिर उनके लिखने में ऐसा क्या है जिसके कारण पंकज कुमार झा साहेब इतना मुखर विरोध कर रहे हैं? क्या यह एक ब्राह्मण और एक गैर ब्राह्मण की व्यक्तिगत लडाई भर है ? लेकिन इस बढते विवाद पर कुछ और टिप्पडियां भी आयीं जिसमे प्रमुख रूप से अर्चना वर्मा जी की की ८ पोस्टेंम हैं ब्राह्मण वाद पर और उसके जवाब में अरुण माहेशवरी जी की लम्बी पोस्ट. यह बडी अज़ीब बात है कि किसी की अभिव्यक्ति पर इस कदर विरोध जाहिर किया जाये कि उसे मिले सम्मान को छीन लेने की बात कर दी जाये? यह बडी अज़ीब बात है कि इस पर एक सम्पादकीय लिख दिया जाये. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की इतनी भी जगह इस देश में नहीं ताकि हम अपनी बात एक मंच पर कह सकें. पन्कज कुमार झा के विरोध और उस अखबार के सम्पादकीय ने यह साबित तो किया ही है कि इस देश में ब्राहमणवाद है और वह एक विषेश जाति के एक समूह द्वारा ही सन्चालित किया जाता है . यह और बात है कि उस वाद में अन्य वर्ग भी शामिल हैं. ऐसा इसलिये है क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि बिना राजसत्ता के ब्राह्मण का वर्चस्व कायम नहीं हो सकता. आईये जरा करीने से ब्राह्मण उसके वाद और राजसत्ता से उसके सम्बन्ध को समझा जाये क्योंकि इसी को उदय प्रकाश ’पापुलर चेहरा’ कह रहे हैं. इस समझ को सबके सामने रखने के लिये मैं भारत के सामाजिक ताने बाने, साहित्य और प्राचीन इतिहास का सहारा लेना चाहती हूं. इसीलिये मैं उदय प्रकाश जी के पूरे कथन को दो हिस्सों में समझना चाहती हूं. पहला ब्राह्मण और ब्राह्मण वाद और दूसरा हिस्सा पापुलर चेहरा. आईये पहले ’पापुलर चेहरे’ के सहारे की बात करें. पापुलर चेहरे की बात पहले इसलिये क्योंकि इसी के सहारे हम सत्ता, सत्ता में एक वाद के हावी होने और उसके काम करने के तरीके को आसानी से समझ सकते हैं. क्योंकि कोई भी विचारधारा शासन और सत्ता पर तभी हावी हो सकती है जब उसे किसी चेहरे के माध्यम से पर सफ़लता से पहुंचाया जासके.
पापुलर चेहरा इसका मतलब क्या है ? और इस वाद के पापुलर चेहरे के माध्यम से अवतरित होने का आश्य क्या है ? अगर हम इन दो के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को सही तरीके से समझें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि ब्राहमण और उसका वाद क्या है और कैसे काम करता है? कैसे वो सत्ता और सत्ता के सिंहासन तक पहुंचकर जनता के जीवन के हर काम भाव और नीति को प्रभावित करता है . कैसे वो एक घेरा बनाता है जिसमें सत्ता बंधती चली जाती है. दूसरी तरफ़ यह पूरा वाद धर्म और कर्म कांड के नाम पर आम जन के भीतर भी गहरे काम करता है जो इस जनता में दो तरह से काम करती है. नम्बर एक – यह पूरा तन्त्र जनता में एक तरह का भय पैदा करता है और दूसरा यह कि वह सत्ता के साथ जनता के भीतर कई तरह के भेद विभेद और मतभेद भी पैदा करने में सफ़ल होता है जो सत्ता के लिये एक महव्पूरण हथियार बनके ऊभरती है. दुनिया के कई देशों में समय समय पर इस तरह के उदाहरण मिलते हैं. आयातुल्ला खोमेनी इसका सबसे बडा उदाहरण है लेकिन हम यहां इसे भारतीय इतिहास और मिथकों से समझने की कोशिश करेंगे.
भारतीय इतिहास उठाकर देखें तो राजसत्ता के अनेक ऐसे पापुलर चेहरे दीखेंगे जिनका वजूद आज भी कायम है. इन पापुलर चेहरों में सबसे पापुलर चेहरा राम का है. राम ब्राह्मण नहीं थे लेकिन वह इस वाद का सबसे बडा हथियार रहे हैं और आज भी हैं. क्या इसके पीछे राम का हाथ रहा होगा कि उन्हें इस रूप में स्थापित किया जाये ? क्या उन्होंने वाल्मिकी को रामायण लिखने के लिये प्रेरित किया था ? शायद नहीं, किन्तु इस चेहरे को अनेक काल खण्डों में भारत के अलग अलग जगहों पर ना केवल ग्रन्थ लिखे. समझने वाली बात है कि क्या कथा लिखने भर से राम का चरित्र पापुलर हो गया ? शायद नहीं बल्कि इस कथा को प्रचारित और प्रसारित करने के लिये इसके पीछे एक पूरा तन्त्र था जिसने उसे उसी रूप में मूर्त करने की कोशिश की जिस रूप में उस तन्त्र ने चाहा ......मैं यहां राम का विरोध नहीं कर रही बल्कि एक पापुलर चेहरे और राजसत्ता के समीकरण को समझने की कोशिश कर रही हूं. राम के विरोध के भी कई कारण उनके ऊपर लिखित चरित्र के माध्यम से किया जा सकता है लेकिन यह अग्यात है कि राम का वास्तविक चरित्र क्या था. राम को हम उतना ही जानते और समझते हैं जितना रामायण और राम कथा से सुनते और समझते हैं. राम को लेकर यह तन्त्र और समीकरण इतना तगडा था कि आने वाले दिनो में भी राम राज ही हो ऐसी कल्पना की गयी........
इसी तरह का एक चेहरा कृष्ण का भी है. इस चेहरे के पीछे भी बहुत काम किया गया है. इस चेहरे के बचपन से लेकर हर काल की छवि का चित्रण कुछ इस तरह किया गया है और उसे देव रूप से जोड कर इस तरह प्रचारित किया गया है कि आपके विरोध के लिये कहीं जगह नहीं. इस चेहरे की बायगेमी पवित्र, इस चेहरे की रास लीला पवित्र, उसकी हर नीति पवित्र. यहां मैं कृष्ण का भी विरोध नहीं कर रही बल्कि यह समझने की कोशिश कर रही हूं कि उस पूरे तन्त्र द्वारा किसी व्यक्ति का चरित्र लिख और प्रचारित भर कर देने से पूरा मानव समाज किस तरह उसे उसी रूप में भजने और देखने लगता है जैसा वह चाहता है. इसी क्रम में बहुत से चेहरे इतिहास में बुने गये और जनता को उसे उसी रूप में भजने और देखने को बाध्य किया गया है. बहु सन्खयक जनता इस पापुलर चेहरे के मोह पाश में अक्सर बंधती भी रही.
पापुलर चेहरे के साथ अवतरित होने के क्रम में कभी कभी यह वाद ठंढा भी पडःआ और शान्त भी रहा लेकिन इसकी जडें फ़िर भी काम करती रहीं और वह अपना पापुलर चेहरा गढता रहा. यह जरूरी नहीं है कि यह पापुलर चेहरा किसी विषेश जाति या वर्ग का होगा बल्कि यह जरूरी है कि यह पापुलर चेहरा उस पूरे वाद विन्यास के साथ काम करेगा जिसके बूते सत्ता और सत्ता की रणनीति पर कायम हुआ जा सकता है.
तो अगर पन्कज कुमार झा और वह अखबार इस पूरे वक्तव्य के विरोध में लिखते और छापते हैं और यह मांग कर डालते हैं कि उन्हें दिया गया साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लिया जाये तो यह बात अपने आप ही सिद्ध होती है कि आज भी यह वाद एक पापुलर चेहरे के पीछे से ना केवल हावी होने की कोशिश कर रहा है बल्कि वह विन्यास गढने में लगा हुआ है ताकि सफ़ल हुआ जा सके. आगे बात ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की
-------------------डा. अलका सिंह