1.
उसके आंचल में मुनरी बन्धी है एक
धिसी - घिसायी अरसे पुरानी
बन्धी है एक मुनरी
अंचल के कोर से
हर रोज अकले में बतियाति है उससे
जब भी फुरसत में होती है
खाना बना के, कपडे पछाड् कर
कई बार काम से लौट कर
चुपचाप पूछती है अपना कसूर
यह दण्ड, दुर्भाग्य सब जैसे वो
जनम जनम की साथी हो, जैसे पक्की सहेली
जैसे कोई ज्योतिषी हे
वो मुनरी है जैसे कोई नगीना
हर रोज उसे निहरती है, उलतती है पुलट्ती है
और फिर सहेज़ कर बांध लेती है आंचल में कलेज़े के
टुकडे की तरह छिपाकर
2.
आज वो फिर बान्ध रही है उसे
निहार निहार कर
जैसे पढ रही हो कोई खत
बहुत पुराना
ढ्लक आये बून्दों को हाथ से पोंछ
फिर निहार रही है उसे जैसे खोज रही है
अपना अतीत जब संग था वो
जब हंसती थी वो
जब एक ही घरोंद को गढ्ते थे वो
साथ साथ एक ही सपने पर चलते थे वो
मुट्ठी में मुनरी को दाब आंखें बन्द कर खूब रोयी है वो
3.
मेरे घर के सामने आज उसने फेंक दी है
अपनी वो मुनरी
बावली थी मैं भाग आयी जाने किस देश
यह कहकर
उसका रोज का रोना जैसे हवा है
और उसका वो आंचल जैसे अकेला
पर उसके पैरों में एक अज़ीब सी हरकत है
एक अज़ीब सा दीवानापन
जैसे लौट गयी हो अपने हंसते बचपन् में
जैसे मां की गोद को बेताब
....................................... अलका
शिवानी जी की कहानी की एक पगली याद आ गयी बहुत सरल और स्वच्छ रचना.....
ReplyDelete