आज दस दिन हो गये
बिल्ली ने दूध पर धावा नहीं बोला
नाही कुत्तों ने रोटी मांगी है और ना ही
वह काली गाय खडी हुई है दरवाजे पर
इस लम्बी गली में एक दम सन्नटा पसरा पडा है
रात की बची रोटियाँ ले मैं उनके इंतज़ार में घंटॉं खडी थी आज
पर गली में एक परिन्दा भी नहीं आया पर मारने
आज़ीब दिन हैं ये सर्दियों के
सोच रही हूँ
कैसे होगी वो बिल्ली जो दिन भर में एक किलो दूध तो डकार ही लेती है
वो कुत्ते जो दिनभर रोटी के इंतजार में मेरा दरवज़ा नहीं छोड्ते
वो चिडियाँ वो काली गाय
मुझे तो जैसे आदत हो गयी है इस सब की
माँ कहती थी
एक की कमाई में कई का हिस्सा होता है
वो सच थी क्योंकि हर रोज ये सब लडते थे मुझसे
रोटी के लिये, दूध के लिये, दाना के लिये
बिल्ली और मैं तो जैसे खेल खेलते थे
वह मलाई मारने के लिये दौड्ती
मैं बिल बिल कह बचाने के लिये
वो दूध पर जैसे नज़्र गडाये रहती
मैं बचाने पर
यह हमारा दिन भर का खेल और आदत थी
कुत्ते तो जैसे टिके रहते दरवाजे पर
जब तक रोटियां ना मिले
देखते ही ऐसे चिल्लाते जैसे मांग रहे हों अपना हक
ना देने पर तो आग्रह जैसे सम्वेत क्रोध में बदल जाता
यह भी मेरे जीवन का एक अहम खेल था अहम हिस्सा
वो काली गाय!
उसका तो जवाब नहीं
एक मिनट इधर उधर नही हो सकता घडी से
ठीक चार बज्कर दस मिनट शाम
खडी हो जाती थी दरवाजे पर
रोटी के लिये
दस दिन हो गये हैं
सब गायब हैं
कुत्ते – बिल्ली, चिरिया- चुरमुन सब
आज मैं उनके भी इंतजार में हूँ
पका रही हूँ सबकी रोटियाँ
माँगेंगे सब अपना – अपना हक
और हम फिर खेलेंगे खेल
पहले की तरह
.................................................... अलका
मनुष्य के इतर भी एक संसार है जो इस दुनिया का ज़रूरी हिस्सा है. बाज़ार ने उन्हें हमारी चिंताओं से बाहर कर दिया है. उन्हें कविता के बहाने मनुष्य की दुनिया में लाने का प्रयास शुभ है...स्वागत
ReplyDeleteमनुष्य के इतर भी एक संसार है जो इस दुनिया का ज़रूरी हिस्सा है. बाज़ार ने उन्हें हमारी चिंताओं से बाहर कर दिया है. उन्हें कविता के बहाने मनुष्य की दुनिया में लाने का प्रयास शुभ है...स्वागत
ReplyDeleteसमाजवादी और पून्जीवादी दोनो ही व्यवस्थाओ मे अंतिम इकाइ केवल आम आदमी हि है ,लेकिन यही आदमी अपने से जुडे पालतू पशुओ को अनदेखा कर देता है ,जो सही नही । आपने रचना मे उन्हे एक मुर्त रुप देने का प्रयास किया है । आपका सधन्यवाद आभार ।
ReplyDeleteits lovely...your writings are really nice..
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