Thursday, January 19, 2012

अदम होने का मतलब

अदम को श्रद्धांजलि देते हुए एक लेख लिखने की कोशिश कर रही हूँ और सोच रही हूँ कि क्या विषय चुनूँ जो उनके रचना संसार का सबसे शानदार पक्ष हो सबसे जानदार पहलू. सच कहूँ तो हज़ारों बार उनकी कविताओं को पढा है, दिल से पढा है. खूब वाह- वाही भी की है. दोस्तों को उनके शेर सुनाकर उनके बीच अदम गोंडवी को जानने पर काँलर खडा किया है किंतु आज जब उनकी कविताओं से गुजरी रही हूँ तो सोच में पड गयी हूँ कि उनके काव्य संसार से उनका कौन सा पक्ष सबसे मजबूत है जिसे विस्तार दूँ इस लेख में. आज मह्सूस हो रहा है कि कितना मुश्किल होता है एक कवि के न रहने पर उसकी कविताओं पर कलम चलाना.
अदम मेरे कुछ बेहद पसन्दीदा शायरों में से रहे हैं इसलिये मैं इस समय दोहरी कठिनाई से गुजर रही हूँ. ऐसा इसलिये नहीं कि मैं उन्हें नायाब हीरा सिद्ध करने की कोशिश में हूँ बल्कि सोच रही हूँ कि क्या इस कवि को आज तक जो समझ पायी थी उनपर लिखने के लिये उतना काफी है? क्या मैं लिख पाउंगी कुछ ऐसा जो अदम के लिये अदम की आवाज़ में होगा? यह सवाल एक बडा सवाल है क्योंकि पिछ्ले कुछ दिनो में मैने अदम को जितना पढा है उतना ही उनपर लिखे आलेखों को भी पढा है. इसलिये दो चार शब्द जो उनकी रचना के इर्द – गिर्द मेरे कान में गूंज रहे हैं वो हैं – जनवादी कवि, गंवई कवि, समाज वादी कवि आदि आदि. सच कहूँ तो मुझे उनको गंवई कहा जाना हमेशा से खटकता रहा है. मुझे समझ नहीं आता कि यह नाम उनको क्योंकर दिया गया? आज तक कविता, उसकी भाषा और कविता के पीछे के दर्शन को जिनता समझती आयी हूँ उस समझ के हिसाब से मेरा मन कहीं से भी उनको एक गंवई कवि कहने से कतई इंकार करता है. कई बार मन करता है कि पूछूँ लोगों से कि वो अदम को गंवई क्योंकर कहते हैं? बार – बार उनकी कविताओं को पढ्ती हूँ, कई - कई बार उनकी किताब के पन्ने पलटती हूँ पर मुझे उनकी भाषा, हिन्दी – उर्दू के उनके ज्ञान, उन शब्दों के प्रयोग के सलीके, कहीं से भी उनके गंवई होने की बू नहीं आती और ना ही सामाजिक सरोकारों को लेकर उनकी समझ मुझे निराश करती है. तो आखिर गंवई कैसे ? मैं यहां उनकी भाषा, हिंदी उर्दू के उनके ज्ञान, शब्दों का चयन, उसके प्रयोग के सलीके के मुत्तलिक दो शेर उदाहरण के लिये रखना चाहूँगी –
1. मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

2. यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
ये दोनो शेर अदम की शायरी भाषा के उनके ज्ञान और अदब के सलीके का बेह्तर नमूना है. पहले गज़ल का हर मिसरा इस बात की ताकीद करता है कि इस कवि का हिन्दी ज्ञान बेमिसाल था तो दूसरी गज़ल का हर मिसरा उनके उर्दू तालीम पर फख्र करता है. आप देखें तो मुक्तिकामी.................... ये गज़ल ना केवल शुद्ध हिन्दी में है बल्कि भारतीय इतिहास और उसकी जतिलता की उनकी समझ का एक नमूना भी है और दूसरी गज़ल का यह शेर और इसके साथ के सभी शेर जिन्दगी के प्रति उनके दर्शन और उसकी समझ का एक नमूना है. देखें बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को

अदम के रचना संसार के ऐसे ही बहुत से शेर मुझे अदम को जानने, उनको समझने को मजबूर करते हैं. आश्चर्य होता है कि इतने बारीक नज़र वाले बेमिसाल शायर को वह मुकाम् हिन्दी कविता में क्यों नहीं मिला जो उनके समय के दूसरे कवियों को मिला? आखिर क्या कारण हो सकता है ? कहीं मन में से दबी सी आवाज आती है शायद उनकी बेबाकी इसका कारण हो. कभी लगता है शायद उनका कम पढा लिखा होना इसका कारण हो. ये सवाल मन को परेशान करते हैं और अदम की पूरी शख्सियत का सच खोज़ने का बहाना देते है. देखा जाये तो अदम की भाषा, उनकी शिक्षा के स्तर और उनके रहने के ठेठ अन्दाज ने लोगों के बीच उनकी जो पह्चान बनायी है वह उनकी सोच, सामाजिक बुराइयों, शोषण, गरीबी और उसके कारणों के पीछे के सच और भ्रष्ट राजनिति जैसे विषयों की बारीक समझ से बिल्कुल अलग है. किंतु उनकी कवितायें और जीवन जीने का तरीका मेरे दिमाग में उनकी एक अलग ही तस्वीर पेश करता है और इसीलिये मैं अदम की दृष्टी और मिज़ाज़ को समझने के लिये देश की आज़ादी के ठीक 2 महीने बाद 22 अक्तूबर 1947 से उनको जानने की कवायद शुरु करती हूँ.
विकीपीडीया और कविता कोश के माध्यम से इस बात की जानकारी मुझे मिली कि रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी का का जन्म: 22 अक्तूबर 1947 को ग्राम परसपुर, जिला गोंडा में हुआ था. इस जानकारी के बाद मेरी निगाह दो जगहों पर जैसे अटक जाती है पहली जो चीज़ मुझे खींचती है वह है अदम की जन्म तिथि और दूसरी पैदा होने वाली जगह. मेरे लिये ये दोनो बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि अपने अध्ययन काल में मैने गोंडा जिले का जिक्र पढा था काकोरी कांड के एक शहीद लाहिरी के सन्दर्भ में. और दूसरा महत्वपूर्ण जिक्र इस जिले का पढा था 1857 के गदर के दौरान इसीलिये अदम को जानने समझने की मेरी ललक इस कदर बढ गयी है कि मैंने इस जिले के इतिहास के कई पन्ने पलट डाले.. मैं हमेशा अवध के इतिहास से अभिभूत रही हूँ आज अदम के बहाने गोण्डा के उन दस्तावेजों तक भी पहूँच गयी हूँ जिससे कमोबेश थोडा अनजान रही थी. दूसरी तरफ गोंडा के समाजिक ताने – बाने को देखा जाये तो वह एक समृद्ध अवधी छाप छोडता है जहां धार्मिक उफान की जगह मिलजुल कर रहने और एक दूसरे को जीने सहने को रिवाज है. किसी भी शख्सियत पर उस स्थान का बडा प्रभाव होता है जहां वह पैदा हुआ और पला बढा और अदम का पूरा जीवन गोण्डा में ही बीता इसलिये इसकी विरासत और आर्थिक सामाजिक विसंगितियों से मिली समझ दोनों उनके रचना संसार में दिखती हैं. इस बात का सबे बेह्तर नमूना है उनका ये शेर -
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
पर दूसरी तरफ अदम की जन्मतिथि मुझे अदम की इस विरासत को थोडा और समझने को मजबूर करती है. अदम तब पैदा हुए जब देश को आज़ाद हुए मात्र 2 महीने 7 दिन हुए थे. इस तरह देखा जाये तो अदम का बचपन किशोरावस्था और युवावस्था और देश निर्माण, गरीबी सब हम कदम थे. वह जब 5 वर्ष के हुए तो इस देश में लोकतंत्र अपनी शब्दिक परिभाषा के साथ खडा हो चुका था किंतु दूसरी तरफ देश के सामने विकट स्थितियां मुंह बाये खडी थीं. जैसे देश कैसे बनाया जाये? किस दिशा में बढा जाये? कानून क्या हों? गरीबी कैसे मिटे? लोगों के स्वास्थ्य तक कैसे पहुंचा जाये. बच्चों की शिक्षा भी एक बडा मुद्दा था. और इसी समय देश में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की गयी लग भग यही दौर रहा होगा जब अदम पहली कक्षा के छात्र रहे हों शायद. कितना साम्य है अदम और इस देश के विकास में. पर मुझे अदम की शायरी दोनो में एक बडा फर्क मह्सूस करने को मजबूर करती है. इस उमर में जाहिर है अदम की समझ इतनी नहीं थी कि वो संविधान का मतलब समझ सकें और ना ही इतनी कि वह पंच वर्षीय योजना का अर्थ जान सकें किंतु उनकी इतनी उम्र जरूर थी कि वह अपने आस – पास को मह्सूस कर सकें जो उनके मन में कौतूहल पैदा करे , अपनी मां और बडे बुजुर्गों से सवाल पूछ सकें. यह उमर जरूर थी कि वह अपने पडोस की काकी की खाली पतीली देख सकें और साथ में खेलने वाले बच्चों की पनीली आंखों को पहचान सकें और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ यह् सवाल उन्होने पूछे जरूर होंगे अपनी मां से कि घीसू के घर का चूल्हा ठंढा क्यों है ? क्यों पडोस का बच्चा रोता है ? मुझे पता नहीं कि अदम ने कौन सी गज़ल कब लिखी किंतु मैं ये मह्सूस करती हूँ कि पंचवर्ष्रीय योजनाओं ने अपनी जिम्मेदारी को भले ही उन पैमानो पर ना निभाया हो किंतु अदम ने यह लिखकर कि
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।।
इमानदारी से अपनी जिम्मेदारी भी निभायी है और इस बात का आभास कराया है कि उन्होने अपने गांव के घरों , उनके हालत उनके गोदाम और चूल्हे देखे हैं. उन्होने इमानदारी से हमें बताया भी है कि गांव के हालात अच्छे नहीं हैं. यह भी बताया कि हमारे देश के 6 लाख से उपर के गांवों के लाखों घरों में आज भी चूल्हे ठंढे हैं और दूसरे लाइन में वो वह यह भी कह देते हैं कि मैं ऐसे हालात में कुछ और नहीं लिख सकता और ना ही कुछ और सोच और कर सकता हूँ. आप इस गज़ल का अंतिम शेर पढिये वह अदम की जात और सम्वेदनशीलता बखूबी बताता है कि-.
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
यकीन मानिये इस पहले शेर को पढकर मुझे अपना गांव याद आता है. जहां के कई चूल्हे जलने का कोई वक्त नहीं था. वो दो हरवाह और उनका मुहल्ला याद आता है जहां बच्चे तब एक वक्त की रोटी ही पाते थे. यहां मैं एक खुलासा करती चलूं कि अदम जिस इलाके से आते थे वह गंगा यमुना का उपजाऊ मैदान का इलाका है किंतु इस पूरे इलाके की एक बहुत पीडा दायक हकीकत भी है. यह इलाका जहां एक तरफ बाढ की विकट स्थितियों का सामना करता है वहीं अंशिक सूखे का शिकार भी होता रहता है. इस पूरे इलाके का एक सच और भी है जिससे नयी पीढी शायद ही परिचित हो. मेरे बुजुर्ग बताया करते थे कि इस पूरे इलाके में एक लम्बे समय तक आबादी का एक बडा तबका दोनो वक्त खाना नहीं खाता था. वह यह भी बताया करते थे कि बहुत कम घर ही ऐसे थे जहां लोग दोनो वक्त खाना खाते थे. लोग एक वक्त रस - दाना (गुड का रस और कोई भी भुना अनाज़ )करते थे और एक वक्त खाना खाते थे. यह स्थिति बडी जातियों की भी थी. हरिजन और अन्य जातियों की स्थिति और भी खराब थी. जब इस शेर को मैं अपने और अदम के गांव से दूर भारत के दूसरे गांव में ले जाकर देखती हूँ तो पाती हूँ कि बेतुल, खंडवा, चिन्दवाडा जैसे भारत के अन्य इलाकों में आज भी कई घरो के चूल्हे अभी या तो ठंढे हैं या उसके कगार पर फिर खडे हैं. इन इलाकों में आज भी आदिवासी जो खाते हैं वो उनके पारम्परिक खाने की दुखद तस्वीर ही पेश करता है. हिमाचल के सुदूर चम्बा में भी स्थि तियां बहुत खराब हैं. कई बार इन इलाकों में बच्चे भूखे स्कूल आते हैं और स्कूल में मिलने वाले भोजन का इंतजार करते हैं इतने संवेदंशील कवि को मैं कविता और उसके अर्थों के साथ जब थोडा और समझने की कोशिश करती हूँ तो एक बार फिर उनसे देश को और उसके हालात को जोडती हूँ.
1964. 1966 और फिर 1967 का अदम यानि युवा होता अदम. लिखने के लिये पूरी तरफ तैयार एक युवा कवि जो कहता है कि ‘’मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।‘’जैसे संकल्प लेता हो उस खाने में खडे होने के लिये जहां से देश का एक मतलब होता है. सोचती हूँ इस वक्त में क्या देख रही थीं उनकी आंखें ? क्या समझ रहा था उनका दिमाग ? अगर आज़ाद भारत के इतिहास को उठाकर देखें तो यह तीनो वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं. 27 मई 1964 को देश के पहले प्रधान्मंत्री नेहरू जी की मृत्यु हुई यह वह दौर था जब देश सबसे गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा था. 1962 का युध्द भारत हार चुका था. बजट घाटा, व्यापार घाटा , गरीबी, भूख सब देश का एक चेहरा बनता जा रहा था. इस दौर में भारत सबसे बडे खाद्य संकट से गुजर रहा था. इससे निज़ात पाने के लिये 1966 में प्रधानमंत्री बने लाल बहदुर शास्त्री ‘जय जवान जय किसान का नारा दे रहे थे’ और शहर वालों को गमले में खेती करने के लिये प्रेरित कर रहे थे ताकि इस संकट से उबरा जा सके.
तो अदम का साहसी मन क्या विचार कर रहा होगा? कुछ लिखा होगा तो क्या लिखा होगा क्योंकि उसी दौर में शायरी लिखने और पढने का शौक रखने वाले अदम जो समकालीन सहित्य पढ रहे थे वहां कैफी आज़मी, अली सरदार जाफरी जैसे शायर अपनी कलम से इन्हीं विषयों पर आग उगल रहे थे. इस तरह अदम को देश और उसके हालात से जोड्कर देखते हुए अचानक मुझे अदम के दो शेर याद आये है इसे पढते – सुनते आगे बढते हैं कि-
1. इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नीक का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
2. जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
इस शेर पर बात कभी और पर मैं अभी देश के हालात और अदम को जोड्कर देखती हूँ तो कई सवाल मन में उठते हैं. सोचती हूँ कि इतनी पैनी निगाह और बेबाक शायर को आखिर कार पढाई किस हालात में छोडनी पडी होगी. सोचती हूँ क्या अपने मनमाने पन के कारण? या फिर घर के हालात के कारण? या फिर गांव के आस पास स्कूल नहीं था इस कारण? मैं इन तीनो सवालों के सही सही जवाब नहीं जानती. पर जवाब खोजने की कोशिश में मैं उस दौर के युवाओं के जवाब से समझने की कोशिश करती हूँ.
अदम मेरे पिता से उम्र में कोई 8 साल छोटे हैं. मेरे पिता की पैदाइश सन 1939 की है. मैने बचपन से अपने पिता के मुँह से उनके बचपन और उनकी पढाई की दस्तान सुनी है. मेरे पिता उस दौर की जो कहानी बताते हैं उसके मुताबिक उस वक्त अधिक लोगों का सिर्फ पांचवी पास होने के दो कारण थे पहला गांव या आस पास के गांव तक 5वीं तक की शिक्षा का ही इंतज़ाम था किंतु उससे उपर की शिक्षा के लिए ये इंतजाम कम ही था. दूसरी जो महत्वपूर्ण बात वो सामने लाते हैं वो है आम परिवारों में शिक्षा का खर्च उठा पाने की साम्रर्थ्य का ना होना वो कहते हैं कि.अगर माँ-बाप कोशिश भी करते अपने किसी बच्चे को पढाने की तो उन्हें इसके लिये अपने अधिशेष का एक बडा हिस्सा बेचना होता था जो रोजमर्रा के जीवन पर बहुत असर डालता था. ऐसे में अधिकतर बच्चे और माता पिता दोनो यह स्वीकार कर लेते थे कि बस इतनी ही शिक्षा उनके हिस्से में थी.
कितना दुखद और त्रासद इतिहास है बच्चों की शिक्षा का ? फिर अदम के रचना संस्कार में इतनी परिष्कृत भाषा और पैनापन कैसे और कहां से आया ? कैसे उनके पास इतिहास का इतना विशद ज्ञान आया? कैसे आया सवाल और आग्रह करने का यह सलीका? क्योंकि जब अदम कहते हैं कि
“फटे कपड़ों में तन ढाँके गुजरता हो जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गाँव जाती है.”
यह शेर मुझे हमेशा एक तरह के आग्रह का आभास देता है तो एक तरह् का जावाब भी देता सा लगता है उन लोगों को जो उनके मटमैले कपडों के कारण उनको गंवई जैसी उपमा से नवाजते थे. इस शेर का अर्थ तलाशने से पहले मैं यहां उनके मट्मैले कपडों की बाबत एक बात बताती चलूँ कि अदम जो मटमैले कपडे पहनते थे कपडों का वह मटमैलापन आज़ादी के समय और उसके बाद भी एक लम्बे दौर तक गांव के पढे लिखे लोगों का जैसे परिधान था जैसे ड्रेस और जो दूसरी महत्व्पूर्ण बात है वो ये कि गांव में धुले जाने वाले कपडों की सफाई का उच्चतम पैमाना भी यही था और आज भी कमोबेश है.
बहरहाल बात अदम के आग्रह और सवाल करने के सलीके की हो रही थी तो यह शेर मेरे मन में बार बार सवाल उठाता है कि किससे कह रहे हैं वो ये बात? और क्यों कर रहे हैं ये बात ? क्या उनकी युवा अवस्था के बाद देश के हालात ऐसे हो गये थे कि यहां एक वर्ग सुनने वाला और एक वर्ग कहने वाला पैदा हो गया था? क्योंकि यह शेर लिखना न तो श्रोताओं को वाह -वाह कहने पर मजबूर करना है और ना ही खुद के सुकून के लिये लिखना है. तो आखिर क्यों लिखा उन्होने ऐसा? और मेरी नज़र उनकी एक बहुत मशहूर गज़ल -

काजू भुनी प्लेगट में व्हिस्कीन गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्केह समाजवादी हैं तस्कसर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में


पर जाती है. सच कहूँ तो इस पूरी गज़ल को मैने कई बार पढा है और जब जब मेरी नज़र दूसरे शेर के अंतिम मिसरे पर गयी है तब तब मुझे फटे कपडों मे तन ढांके ....................... अदम के गांव जाती है याद आ जाता है और मैं समझ पाती हूँ कि उनका पहनावा भारत के लोगों की अर्थिक त्रासदी के प्रतीक के तौर पर था जिससे हो न हो वह भी गुजरते हों. किंतु जब वो काज़ू भुनी प्लेट की बात करते हैं तब लगता है कि उनकी आंखों ने लगातार देखा कि ऐसे दृश्य देश में आम होते जा रहे हैं. उनके दौर के लोगों के आज़ादी के सपने मरते जा रहे हैं. देश में फाइलों का मौसम गुलाबी होने लगा है और सारे दावे किताबी होने लगे हैं. शायद यही कारण था कि उन्होने सबसे पूछा कि ‘’आप कहते हैं सरापा गुल्मोहर है जिन्दगी ‘’ जितना मैं अदम को पढने के बाद समझ पा रही हूँ वह मुझे एक तरफ अश्चर्य में डालता है वहीं दूसरी तरफ सोचने को मजबूर भी करता है कि आजीवन गंवई का ठप्पा लेकर अपनी बात कहने वाला ये शायर कद में उन सब से कितना बडा और बारीक समझ रखने वाला था जो उनको सुनते थे और जो आसपास बैठ्कर कविता पढते थे . आप देखिये जितनी बारीकी से बेमिसाल बिम्बो को उभार कर काजु भुनी प्लेट का जिक्र किया है उतने ही दिल से बहुतों दिनो तक सवाल भी किया है कि
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

मजे की बात यह है कि ये सवाल एक तरफ जहां देश के लीडरान से हैं वहीं पढे लिखे कहे जाने वाले शहरी लोगों की जमात से भी थे किंतु यह आग्रह सबसे अधिक अपने जैसे कवियों शायरों से था. जो बार – बार उनके ठेठ अन्दाज के बहाने उनकी कम औप्चारिक शिक्षा , उनके पहनावे और रहने के देसी अन्दाज़ से उनको गंवई कह्कर बुलाता रहा. उससे उन्होने कहा कि

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्संल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मेा के सिवा क्याी है फ़लक़ के चाँद-तारों में

अदम ने अपनी बात बहुत ओज, बेबाकी और साह्स के साथ अपनी हर कविता में रखी है. उनकी हर लाइन इस बात का पक्का सबूत है कि उनको देश समाज और लोगों की समस्यायें साफ साफ दिखती थी और वह उतने ही साफ तरीके से हमारे सामने उन सभी समस्या को रखते भी थे. हर कविता में सबकी आंखों में आंखें डालकर बहुत साहस से कहते थे कि आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को. यही कारण है कि मैं उनको एक सजग चेतना का कवि कहती हूँ और मानाती हूँ कि वह सामाजिक सरोकारों के कवि थे. अदम की यह चेतना उस शेर के तर्ज़ पर बढती है जिसमें फैज़ कहते हैं कि ‘’और भी गम हैं जमाने मोहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राह्त के सिवा’’ अदम इस बात को कुछ इस तरह कहते हैं कि ‘’सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे,मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है’’. मैं यहं दोनो कवि की तुलना नहीं करना चाहती किंतु यह जरूर कहना चाहूँगी कि दोनों की कविता का एक मुकाम है और वह इस वज़ह है क्योंकि दोनो ने कविता और इस फन को समाज और लोगों की समस्या और उनके नज़रिये से जिन्दगी को देखा है. इसीलिये अदम का लहज़ा सख्त और बातें जलते हुए तेज़ाब की तरह हैं जो कानो से गुजरते ही दिमाग को जैसे मजबूर कर देती हैं कि अदम की सुननी ही होगी और उसपर सोचन ही होगा कि
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए
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1 comment:

  1. "अदम होने का मतलब "-- पढा । सर्वप्रथम अलकाजी,..आपका आभार,...जो आपने हमारी गंगा -जमुनी तहजीब के एक नायाब हीरे की चमक से हमे अच्छी तरह अवगत कराया ,।मै मानता हू कि हीरे की चमक की बारीकियो को पहचानना कोइ बेहतरीन जौहरी से ही संभव है ,नही तो उसे गंवई का लेवल लगा कर उसे लोग अनदेखा कर देने की नाकाम कोशिश करते है,।
    शायर ’अदम" के संदर्भ मे आपकी लेखन प्रस्तुति ,शायर के कुछ ऎसे पहलुओ को उजागर करती है ,जो उसके ,बेबाकीपन ,ठोस जमीनी हकीकत को बिना लाग लपेट के बयाँ करने के हुनर को प्रदर्शित करती है । शायर अदम के जमाने मे उर्दु के बडे -बडॆ शायरो ने अपनी शायरी से तहजीब को नवाजा है , बकौल अदम गोड्वी साहब के कलाम का भी एक खास मकाम है ,यह मैने इस लेख से आज जाना , वैसे कई बार मैने शेरो ,गजलो मे अदम , या कभी " गोड्वी" के नाम से परिचित तो था लेकिन इतना कुछ एक जगह पर ,--एक बार और -धन्यवाद आपको ।
    आज मुझे अकबर की कुछ लाइने याद आ रही है जो अदम साहब की तबीयत से मिलती है ।------
    पडा है कहर ,बशर मर रहे है फ़ाको से ।
    खुशी हो क्या मुझे शबरात के पटाखो से ।
    बुझी हुइ है तबीयत, ये रौशनी है फ़िजूल ।
    उतार लीजिये साहब, चिराग ताको से ।

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