Sunday, December 11, 2011

स्त्री और कविता

(यह लेख देवताले जी की कविता पर हुई बात का ही विस्तार है)


स्त्री और कविता का बहुत पुराना रिश्ता रहा है. कविता ही क्यों बल्कि धर्म, दर्शन तथा अन्य कई विषयों का केन्द्र भी हमेशा से स्त्री ही रही है किंतु साहित्य और कविता में स्त्री एक ऐसा विषय रही है जिसके पीछे - पीछे कविता की आधी से अधिक दुनिया भागती रही है. सदियों तक ‘स्त्री’ उसकी देह, उसके दुख, उसका प्रेम, उसके शरीर के गहने उसकी भंगिमायें सब के सब जैसे कविता में समाये रहे हैं. ईमान्दारी से कहा जाये तो ये विषय बहुत प्रिय रहे हैं कवि और कविता के लिये. कई बार तो लगता है जैसे कविता इससे इतर कुछ है ही नहीं. सबसे धयान देने वाली बात तो ये है कि स्त्री और उसको केन्द्र में रखकर् लिखी गयी कविताओं में स्त्री की अपनी जिन्दगी, उसके दुख, उसकी खुशी, उसके सपनो, उसकी चाह , उसकी सफलता की बात शायद ही की गयी होगी और अगर होगी भी तो वैसी कविता एक पाठ्क के इंतज़ार में होगी. कवियों ने जब स्त्री से जुडे विषय उठाये भी हैं तो उसका दुख और देखने वाली बात है कि आखिर स्त्री का वो दुख है क्या? और जवाब है कि स्त्री के दुख को चित्रित करने के रूप में कवियों ने अधिकांशत्: स्त्री के प्रेमी या पति से वियोग जैसे पक्ष को ही विषय बनाया गया है. यानि विरह की आग में जलती स्त्री. जैसे ‘जायसी’ की ‘नागमति’ का सन्दर्भ देखें “ पिऊ से कहेउ सन्देसडा हे भौंरा हे काग”. जायसी का यह वियोग चित्रण हिन्दी साहित्य के उत्तम चित्रणों में से एक है जैसे कविता का एक बेंच मार्क है किंतु सवाल है कि क्या दुनिया में बद्लाव की सदी कही जाने वाली 20 वीं और उसको विस्तार देने वाली इस 21 वीं सदी में भी कवि और कविता क्या जयसी के युग या उस काल खण्ड को ही विस्तार देने वाली ही होनी चहिये ? दूसरी बात कि क्या आज का कवि (पुरूष्)इससे आगे बढ पाया है? क्या स्त्री को लेकर पुरुष रच्नाकारों की कविता में भी नारी बदलाव के साथ आगे बढी है. मेरा मानना है कि यह सवाल एक बडा सवाल है इसलिये नही कि यह सवाल मैं या कोई महिला पाठ्क उठा रही है बल्कि यह सवाल इसलिये और भी बनता है क्योंकि पुरुष रचनाकारों और उनकी कलम का एक उत्तरदायित्व रहा है. मैं कई बार सोचती हूँ कि क्या उनकी कलम स्त्री के प्रति अपने दायित्व से बचती रही है? सोचती हूँ कि क्रंतिकारी होने के लिये जाना जाने वाला कवि समाज भारत में स्त्री के प्रति हिन्दी कवि कभी भी क्रंतिकारी रहा है? कई बार मन में खयाल आता है कि क्या इस देश में स्त्री को लेकर क्रांति भी अपना अलग अर्थ रखती है? निश्चय ही यह सोचने वाला विषय है और मैं अक्सर ना केवल खुद सोचती हूँ और चहती हूँ के ये सवाल सबके सामने रखे जायें ताकि स्त्री को लेकर किये गये आज तक के लेखन को ना केवल समझा जाये और चर्चा हो. यही वज़ह है कि मैं आज के दौर से थोडा पीछे खिसक के जायसी से और उनके दौर के लेखन को माध्यम बना अपनी बात कहने की कोशिश कर र्ही हूँ ताकि बात शुरु कर सकूँ
कवि और उसके लेखन का समाज पर बहुत असर होता है. कहते हैं कि कवि अपने समय से आगे की सोचता है. वह कई बार समय और उसकी सीमाओं से आगे की ना केवल सोचता है बल्कि ऐसी चीज़ें रचता भी है जो एक रस्ता खोलती नयी सोच के लिये पर स्त्री और उसके सन्दर्भ को लेकर कवियों की सोच को खंगालते हुए एक बात मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि इस बिन्दु पर कवियों की कलम थोडी चूक जरूर गयी. इमानदारी से देखा जाये तो संस्कृत से लेकर लग्भग सभी भारतीय भाषाओं में अमूमन हर् दौर के कवियों ने अपनी – अपनी रचनाओं में अपने काल की स्त्री को चित्रित किय है. जायसी जैसे कवियों के दौर में स्त्री और कविता का एक अलग ही साथ रहा है. उस दौर के कवि स्त्री के वियोग, उसके सौन्दर्य और उसकी भंगिमओं को दर्ज़ करने में लगे थे और ‘वियोग में स्त्री’ वाले ऐसे चित्रण को जायसी और उनके समकालीन ही नही बल्कि आज के कवि और साथ ही साथ पठ्को (स्त्री पाठको ने भी) ने भी इतना पसन्द किया कि केवल ऐसे भावों को ही स्त्री के दुख के रूप में देखे जाने की जैसे परम्परा बन गयी और देखा जाये तो स्त्री के दुख को चित्रित करने के सन्दर्भ में ऐसे दुख को लिखने और पढ्ने की आदत बना ली गयी. इससे इतर स्त्री से जुडे विषय तथा उसके दुख और उसकी तकलीफ को जब भी देखा गया तो उसके वैधव्य के दिनो के रूप में. इस तरह पुरुष कलम लम्बे समय तक स्त्री को दो रूप में उकेरती रही – 1. उसके सौन्दर्य (उसकी देह को) 2. उसके वियोग को(पति और प्रेमी से दूर होने या फिर् मृत्यु के उपरांत). जायसी जैसे कवि और उन जैसी कविता का एक लम्बा दौर् चला. यह सही है कि दो व्यक्तियों विशेषकर पति पत्नी के बीच के सम्बन्ध लिखे जाने चहिये और उसपर बात की जानी चाहिये क्योंकि यह वर्जित विषय नहीं है किंतु क्या नारी से जुडे विषय उसके सौन्दर्य, उसके वियोग उसकी देह से इतर कुछ भी नही? क्या यही कविता का विषय होना चहिये ?
छायावाद एक ऐसा दौर था जब सब कुछ सात तहों में छुपा कर कहा जाता था. या कहें कि सात तहों में बात छुपा कर कहने की जैसे रीत थी. पर सवाल है कि आलोचको ने पंत, प्रसाद और निराला की बात का मर्म तो दुनियावी रूप में समझा किंतु महदेवी की बात को पार्लोकिक कह नकार क्यों दिया? क्या उनकी बात दुनियावी नहीं थी? क्या वो ‘नीर भरी दुख की बदरी’ के साथ ये भी नहीं कह रही थीं कि ‘विस्त्रित नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना’? क्या वो अपने और औरतों के हालात और उसके नैराश्य को व्यक्त नहीं कर रही थीं? फिर क्या हुआ कि उनको अधुनिक मीरा कह दिया गया? अगर गौर से समझा जाये तो बात बिल्कुल साफ थी क्योंकि उसी काल खण्ड् का एक कवि ऐसा भी था जो स्त्री को एक सीमा रेखा दे रहा था और कह रहा था ‘ ‘’नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में, पीयूष श्रोत सी बहा करो जीवान के सुन्दर समतल में’’.मतलब साथी कवि महादेवी को भी चुप कराने पर आमादा थे और उसका सबसे बेह्तर और चालाक तरीका था उनको दुनिया से ही विदा कर दो और ऐसा ही महादेवी के साथ हुआ भी उनको आधुनिक मीरा कह कर उनकी बात को नकार दिया गया . वैसे मीरा की बातें भी दुनियावी ही थीं. सच कहा जाये तो महादेवी और मीरा दोनो की बातों से समाज खासकर पुरुष वर्ग (रचनाकार भी)ऐसा डरा कि बस उसने उसे ना सुनने और मानने की एक चालाक रणनीति के तहत उन्हें पार्लोकिक बना दिया. सबसे ध्यान देने वाली बात ये है कि छायावादी दौर की एक बडी कवियत्रीमहादेवी ने अपने लिये बनायी गयी स्थिति को स्वीकार कर लिया किंतु यह मेरे लिये यह दुखद स्थिति है क्योंकि महदेवी ने कहीं भी इस बात का विरोध नही किया और कहीं भी यह खुलकर नहीं लिखा कि वो क्या कह रही हैं. किंतु आज के दौर की कविता (स्त्री कवि द्वारा रचित्) और महिला कवि दोनो अपनी कहने और मनवाने में सक्षम हैं. किंतु सवाल है कि पुरुष रचना में बद्लाव क्यों उतना नहीं हुआ जितना कि आशा की जानी चाहिये थी? आखिर क्यो? यह निश्च्य ही गहनता से विचार करने वाला विषय है.
इमानदारी से कहूँ तो एक दौर तक जय शंकर प्रसाद की कामायनी और उसकी एक- एक् पंतियों की मैं भी कायल थी. उनकी कामायनी मेरे दिल के बहुत करीब थी. बहुत से सन्दर्भों के कारण वह आज भी है किंतु उसके स्त्री सन्दर्भ अब मुझे एक तरफ कवि के काल खण्ड और उस समय के समाज् को समझने में मदद करते हैं वहीं दूसरी तरफ स्त्री के सन्दर्भ को लेकर कविता की आलोचना को भी मजबूर करते हैं. इतना ही नहीं प्रसाद की कामायनी ने न केवल पुरुष रचनाधर्मिता और स्त्री सन्दर्भ को समझने में मेरी मदद की है बल्कि पुरुष के अंतर्मन को भी समझने में मदद की है. इसीलिये मैं पुरुष रचनाकारों की स्त्री सन्दर्भ में हो रही बात के बीच प्रसाद की बात करना जरूरी समझती हूँ. कारण कि प्रसाद की श्रद्धा भारतीय समाज की नारी का एक विराट चित्र है. जिसे बदलने की कवायद लगातार जारी है और बद्लाव के इसी प्रयास को लगातार देखने और समझने की कोशिश मैं करती रहती हूँ. ऐसा इसलिये क्योंकि कविता के अपने सामाजिक सरोकार हैं और उससे जुडे दायित्व भी और कविता इससे आपना मुँह नही मोड सकती. स्त्री सन्दर्भ को लेकर यह दायित्व इसलिये और अधिक बढ जाता है क्योंकि वह हमारे समाज का आधा हिस्सा है और जिसे समझे बिना आगे बढ्ना समाज को पंगु करने जैसा है. हालांकि यह दुख का विषय् है कि स्त्री के सन्दर्भ को लेकर बहुत कम रचनायें हैं जो स्त्री और उसके विषय को लेकर गम्भीरता से सम्वाद करती हैं.
दुनिया में यह माना जाता रहा है कि कवि, लेखक और दार्शनिकों की बिरादरी एक ऐसी बिरादरी है जहां आप एक खास तरह की मानसिक आज़ादी का अनुभव करते हैं. एक ताज़ी हवा का झोका आपको जैसे नया जन्म लेने जैसा अनुभव देता है किंतु क्या किसी स्त्री को हमारे ज्यादातर पुरुष रचनाकारों की स्त्री केन्द्रित रचनाओं को पढ्कर ऐसा लगा? शायद ही लगा हो ? शायद यही कारण था कि मैथिलि शरण गुप्त बिफर कर कह उठे – ‘’अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी’’. निश्च्य ही गुप्त जी स्त्री सन्दर्भ को लेकर बेहद सम्वेदंशील कवि थे. वह अपने समय के समाज और आधी आबादी की दशा को चित्रित करने में बेहद सक्षम कवि रहे. यह दो लाईने इसकी गवाह हैं. 40 पार का कोई भी व्यक्ति उनकी इन लाइनो को आसानी से अपनी आंख में उतार सकता है क्योंकि उसने वह दौर देखा और मह्सूस किया होगा जो गुप्त जी की लाइने बयान करती हैं.
---------------------------------- डा. अलका सिंह

इस लेखमाला का अगला हिस्सा जल्द ही जिसमें आज के कई कवियों की उन रचना पर कुछ कहने का प्रयास होगा जिसमें स्त्री केन्द्र में है.

6 comments:

  1. स्त्री सन्दर्भ्मे ये विमर्ष व आलोचना सोच्मे जरूर डाल देती है.मै मानती हु की स्त्रीके मन के भाव विश्व को पुरुश कवियोने अप्ने नझरियेसे हि रखा है.. जिस वजहसे ो स्त्री ो जाने अन्जाने वैसे ही भाव विश्वको अपना सम्झने लगी हो.
    किन्तु मै ये नही समज पायी की आखिर पुरुष कवियोंसे क्या अपेक्शा है? व क्युं?
    कम से कम अब उन्हे छोड ही देते हैं जब स्त्री रचनाकार अपने भाव विश्वको अपने नझरियेसे चित्रित कर सकति है.स्त्रिकि प्रतिभा केवल कविता हि से नही पर अनेकों मध्यमोसे झलकति है..

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  2. जो तमाम हीन,तामसिक और भय से मारी स्त्री रचते रहे , मात्र यह सब प्रक्षेपित करते रहे, जिनका जिक्र अलका ने बड़े सूक्ष्म ढंग से किया है ,असल वे स्वयम अपनी हीन भावना जनित ग्रंथि के सारे कचरे स्त्री पर उछालते रहे अपनी ग्रन्थियों से पीड़ित अपने पौरुष के प्रति अनाश्वस्त थे ..जो पुरुष स्त्री के प्रति मानवीय आस्था नही रख पाते वह स्वयम ही अपूर्ण होते हैं ..बहुत अच्छे अलका सतत रहो शुभकामनाएँ..

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  3. अलका दी बहुत सटीकता से भरा विशलेषण है बहुत कुछ सोचने और अपने नजरिये को पुन:-पुन:देखने परखने को विवश करता आलेख आभार आपका ...

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  4. आज 28/01/2013 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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  5. विचारिणीय पोस्ट आभार....

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