आज चन्द्र्कांत देवताले जी के कविता संग्रह ‘धनुष पर चिडिया’ पर महेश पुनेठा का आलेख पढा तब से सोच में हूँ. सोच में हूँ कि कहाँ से शुरु करुँ जो कुछ कहना चहती हूँ? कैसे शुरु करुँ अपनी बात? दरअसल पुनेठा जी ने स्त्री होने के मतलब और् उसके दुख दर्द जैसे विषय चन्द्रकांत देवताले जी की कविताओं के माध्यम से उठाये हैं. मैं अपनी बात कहते हुये दोनों महनुभावों से विनम्रता पूर्वक माफी चाहूंगी क्योंकि यदि बात स्त्री विमर्श की हो और कविता उसका माध्यम हो मैं लिखने और बोलने की गुस्ताखी जरूर करुंगी. और यह गुस्ताखी आज मैं देवताले जी की कविताओं के माध्यम से कर रही हूँ.
दरअसल बहुत दिनों से मन में था कि पुरुष रचनाकार और स्त्री विमर्श पर कुछ लिखा जाये. पिछ्ले कई महीनो से मैं काफी गम्भीरता से कई पुरुष् रचनाकारों को पढ रही हूँ. और समझने की कोशिश में हूँ कि ये रचनाकार अपनी कविता में स्त्री को किस रूप में देखते और प्रतिस्थापित करते हैं. स्त्री को लेकर उनकी समझ समाज को क्या दे रही है. मेरा मानना है कि जब भी कोई रचनाकार स्त्री को केन्द्रबिन्दु बनाकर लिखता है तो उसकी कविताओं के माध्यम से उसका पूरा परिवेश, समाज, सामाजिक मान्यता, उसकी शिक्षा और उस कवि द्वारा स्त्री को समझ लेने की क्षमता का आभास उसकी कविताओं के माध्यम से होता है. कुलमिलाकर कहा जाये तो आपके सामने कवि का पूरा का पूरा काल खंड किसी चलचित्र की तरह घूम जाता है. इसीलिये जब पुनेठा जी ने देवताले जी की कविता में स्त्री के दुख और स्त्री होने के मतलब की बात की तब मन सोच में पड गया कि क्या पुरुष की कलम सही मयनो में आज भी समझ पायी है स्त्री को? क्या उसकी कलम अपने समाज के आधे हिस्से के साथ सम्वाद कर पायी है आज तक? सच कहूँ तो जब भी मैं पुरुष रचनाकारों को स्त्री के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करती हूँ एक गहरे दुख से भर उठती हूँ. लगता है इस पृथ्वी पर ईश्वर ने स्त्री और पुरुष के रूप में मानव के दो हिस्से दिये हैं किंतु कैसी विड्म्बना है कि दोनो कई सम्बन्धो मे समाजिक और किसी खास सम्बन्ध में शारीरिक रूप से एक दूसरे से कितने पास होते हुए भी मानसिक रूप से कितने दूर हैं. सच कहूं तो यह दूरी और एक खास तरह का छद्म मुझे पुरुष रचनाओं में निरंतर नज़र आता है. बात देवताले जी की हो रही है तो उन्हीं की रचनाओं से ही शुरु करती हूँ. यहां मैं स्पष्ट कर दूं की मैं उन्हीं कविताओं पर बात कर रही हूँ जिन कविताओं का उल्लेख पुनेठा जी ने अपने आलेख में किया है. एक बात और मैं इस सन्दर्भ में कुछ और कवियों और उनकी स्त्री पर लिखी कविता को भी रखूंगी किंतु शुरुआत चन्द्रकांत देवताले के स्त्री विमर्श से होगी. बहरहाल अब बात सबसे पहले देवताले जी की कविता की इन पंक्तियोंपर –
सचमुच मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से
नहीं सोचता कभी कोई बात जुल्म और ज्यादती के बारे में अगर नही होती प्रेम करने वाली कोई औरत इस पृथ्वी पर
स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है
दोस्तों, पुनेठा जी ने इस कविता पर जो कुछ भी लिखा मैं उसपर कोई टिप्प्णी ना करते हुए बस अपनी बात कहने की कोशिश कर रही हूँ बस इस आशय से कि पुरुष कविता में स्त्री क्या है और कहां है. पुरुष रचनाकार स्त्री को लेकर किस तरह से सोचता है? क्या वह स्त्री को महज़ अपने लिये (पुरुष के लिये ) बनायी गयी समझता है या फिर वह उसे भी एक इंसान के रूप में अपनी कविताओं में प्रतिस्थपित करता है? यह सही है कि कवितायें कवि का वक्तव्य होती हैं किंतु वह अपने साथ एक बडे द्रिश्य भी लेकर आती हैं यही वज़ह है कि मैं यहाँ देवताले जी के ‘मैं’ को व्यापक् रूप से देखते हुए भी बात करुंगी और एक पुरुष् की अभिव्यक्ति के रूप में भी सम्झने की कोशिश करुंगी. साथ ही उनकी औरत को भी कुछ ऐसे ही समझने का प्रयास करुंगी.
मुझे यकीन है कि देवताले जी की इस कविता को बहुत पसन्द किया गया होगा. और सच कहूँ तो एक नज़र में यह कविता दाद के कबिल भी है मैने इस कविता की इन लाइनों को कैईयों बार पढा और कई कोणों से समझने का प्रयास किया किया. हर बार मुझे लगा यह कविता आज भी उसी मोड पर खडे समाज का चित्रण कर रही है जब कहा जाता था ‘’एक सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है’’. यह कविता एक इंच भी उस वक्त से नही आगे बढी है. आप देखिये इस वक्तव्य को जब वो कहते हैं ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर् ही मैने अपने आपको पह्चाना. क्योंकि ‘’अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरत इस पृथ्वी पर’’ मैं भाग जाता चन्द्रमा से, फूल से, कविता से, नहीं सोचता कोई बात जुल्म और ज्यदती के बारे में.
आखिर क्या मत्लब लगाया जाये इस वक्तव्य का ? क्या समझा जाये ? पूरी कविता पढ कर मन में सवाल उठता है कि क्या यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष नकारा होता ? यदि स्त्री नहीं होती तो वो भगोडा होता? यदि स्त्री नहीं होती तो पुरुष कोई समजिक दयित्व नहीं निभाता? अगर ऐसा है तो यह दुनिया पुरुष प्रधान कैसे है ? और फिर सहज़ ही सवाल उठता है कि कहीं यह स्त्री को उसी रूप में यथावत बनाये रखने का प्रयास तो नहीं है जिसमें आजतक् वो जीती आयी है? एक शंका हो उठती है और मन फिर सवाल कर उठता है कि क्या यह मात्र कवि की बात है? या फिर यह कविता आज के समाज के पुरुष के मनोभाव को सहज़ ही हमारे सामने रख रही है?
क्योंकि अगर यह कविता मात्र कवि के मनोभाव हैं तब तो आसानी से कहा जा सकता है कि कवि का अंतर्मन एक अद्भुत आभार् से भरा है. वह अपनी सभी सफलताओं और कर्मों के पीछे स्त्री के संग और सहयोग की बात कह उस स्त्री जिसके संग ने उसे जीवन का अर्थ समझाया को एक तरह का सन्देश देना चाहता है कि सब ‘तुम्हारे’ कारण की सम्भव हुआ है और तुम्हारा प्रेम महान है. किसी स्त्री पुरुष के आपसी जीवन के लिये यह वक्तव्य एक अनुभूति है जो स्त्री के लिये गर्व पैदा करती है किंतु जैसे ही इस कविता के मैं को बडे अर्थों मे लेकर देखने का प्रयास करती हुँ जैसे इसके सारे मायने ही उलट जाते हैं और कविता की ये लाइने कहने लगती हैं जैसे ये एक् प्रयास है यह कहने का कि स्त्री और उसका प्रेम पुरुष जीवन के लिये जैसे सफलता और जिन्दगी के मायने समझने की जैसे गारंटी है और इसिलिये वह जैसे यह सन्देश दे रहा है कि स्त्री एक ऐसी प्रजाति है जो सिर्फ पुरुष को प्रेम करने के लिये ही पृथवी पर आयी है और इस जगत के सारे काम तब ही सम्भव होते हैं जब वह पुरुष को प्रेम करती है. इतिहास उठा कर देखा जाये तो पुरुष के इस तरह के कथन पर स्त्री हमेशा ही मुग्ध रही है और आज भी है. वह प्रेम के कुछ पलों को आज भी बटोर कर ही जीती आयी है और इसी को उसकी ताकत कहा गया है.
तो क्या स्त्री पात्र पुरुष लेखन में ऐसे ही उभरते रहने चहिये ? क्या यह ही स्त्री का रूप होना चाहिये ? क्या पुरुष ऐसे ही स्त्री को निरंतर देखना चहता है? और यह भी कि कविता और पुरुष कवि के मन में ‘वह’ कब एक इंसान के रूप में उभर कर आयेगी? कब उसके प्रेम की जगह उसकी सफलता और उसके मनोभाव पुरुष कलम का हिस्सा बनेगे? मेरे यह सवाल उस कवि से हैं जिसकी कलम से उपरोक्त पंक्तियां निकली हैं क्योंकि यहां मैं कवि और उसके अंतर्मन में नारी को देख रही हूँ. यह सवाल इसलिये भी कि यह बात अकेले देवताले जी नहीं कह रहे ठीक इसी भाव से मंगलेश डबराल भी लिख चुके हैं ‘’ तुम्हारे भीतर बची रही एक स्त्री एक स्त्री के करण’’. अन्य कवि भी जो स्त्री को अपनी कविताओं को अपना विषय बनाते हैं.
कई बार मुझे ह्कर ऐसी कविता में स्त्री के सन्दर्भ को पढ्कर लगता है कि इस दौर के कवि स्त्री को लेकर एक तरह का छद्म ओढे रहते हैं और औपचारिकता वश या यों कहें कि अपने को सबसे बेहतर सोच वाले कवि या विचारक के रूप में दर्शाने की कोशिश करते हैं. यही वज़ह है कि पुरुष जब भी स्त्री को विषय बनाकर इस तरह की कवितायें करता है जहां कहा जता है कि स्त्री का प्रेम महान है तो सहज़ ही मन कह उठता है कि ‘’ यह पुरुष अंतर्मन का एक छद्म है’’ एक अज़ीब सी औपचारिकता किंतु इन कवितओं का दूसरा पक्ष बेहद खतरनाक होता है. आप देखें - ‘’स्त्री के साथ और उसके भीतर रह्कर ही मैने अपने आपको पह्चाना है’’. स्त्री की सामाजिक स्थितियों को यदि सन्दर्भ में रख्कर देखा जाये तो यह कविता बेहद आत्म्केद्रित दीखती है ऐसा लगता है कि . स्त्री के विषय उठाकर भी पुरुष् सिर्फ और सिर्फ अपनी ही बात करता है. अगर भरोसा ना हो तो आप देखें – सचमुच मैं भाग जाता ........................नहीं सोचता ....... आदि आदि.
दूसरी रचना की कुछ पंक्तियां देखें
ये उंगलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके – मांदे पस्त आदमी को
हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देती हैं
इन लाइनों को पढने से यह बात सबसे पहली बात जो जहन में आती है कि स्त्री जैसे आदमी नहीं होती.? दूसरी बात जो साफ - साफ दिखती है कि कि पुरुष को अपनी , अपने पुरुष समाज, उसकी स्थिती और उसके हालत की कितनी चिंता है. और ‘वह’ तो बस एक एक थके – मान्दे पस्त आदमी को हरे – भरे गाते दरख्त में बदल देने के लिये होती है.मन सवाल करता है कि क्या कभी किसी ने सोचा कि आखिर ‘वो’ ऐसा क्यों करती है? क्या वह यही करना चाह्ती है? या फिर उसे ऐसा करने के लिये ही तैयार किया जाता है? यहां मैं सिमोन का वक्तव्य याद दिलान चाहुंगी कि ‘ स्त्री वह है जो बनयी गयी है’’. देवताले जी से माफी के साथ एक रचना की कुछ और पंतियां यहां रखना चाहूंगी-
तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
बसंत प्रपात
जीवन तुम्हारी धडकनो से
मैं जुगनू
चमकता
तम्हारी अन्धेरी
नाभी के पास
मैं इन पंक्तियों को पढ्कर हैरान हूँ. हैरान इसलिये नही कि कविता बहुत अच्छी है बल्कि इसलिये कि स्त्री की देह आज भी उतनी ही प्रभवी है जितनी कि रितिकाल में थी. और हैरान इसलिये भी कि यहां भी बात बस अपनी उस स्त्री की देह और उसके माध्यम से और कुछ पा लेने का स्वार्थ ऐसा कि मैं जुगनू ................... बहरहाल मेरा मानना है कि कविता एक सामाजिक सरोकार को लेकर हामारे सामने आती है. उसका अपना एक दायित्व होता है अगर कविता अपने इस दायित्व का वहन नही करती तो निश्चय ही वह कविता कविता होने के अपने अर्थ खो देती है. यही वज़ह है कि मैं उपर की कविता की सभी पक्तियोंको उसके सामजिक दायित्व के तराजू में रखकर भी देखने की कोशिश कर रही हूं. इसिलिये सोचती हूँ कि पुरुष कलम से चित्रित की गयी स्त्री आज भी वैसी ही है जैसी वह आज से जमाने पहले थी तो इस कविता के समाजिक सरोकार को किस सन्दर्भ में लिया जाये? क्या पुरुष के अंतर्मन के रूप में? या फिर स्त्री को उस रूप में जिस रूप में उसे कविता में रखा गया है? जहिर है स्त्री के प्रेम का जो रूप चित्रित किया गया है उसे बडे सरोकारों में रख देने से स्त्री केलिये खतरे बढ जायेंगे तो फिर इसे किस रूप में देखना होगा? इसीलिये पहली कविता की लाइनों को बडे सरोकारों के सन्दर्भ में रखते ही मेरा मन फिर सवाल कर उठता है कि क्या आज के पुरुष स्त्री को उसी रूप में देखने के पक्षधर हैं जैसे कि उनके पूर्वजों ने स्त्री को देखा है? क्या आज भी स्त्री उनकी प्रेरणा श्रोत है? क्या वह आज भी स्त्री के भीतर रह्कर अपने को पह्चान पाता है? क्या उसे भी एक अदद प्रेम करने वाली स्त्री के होने के बाद ही दुनिया के मायने समझ में आते हैं? जवाब निश्चय ही कविता नही देती वह महज अपनी बात कह्कर अलग हो जाती है किंतु जवाब के लिये हमें समाज में जाना ही होगा और समझना ही होगा कि आज का पुरुष क्या है ? उसकी स्त्री को लेकर सोच क्या है? क्या वह वही सोचता है जो कविता कहती है? यदि हाँ तो आज की स्त्री को चौकन्ना रहन होगा और यदि नही तो भी चौकन्ना रह्कर देखना होगा कि वह किस दिशा में उसे ले ज़ाने के प्रयास में है.
इस प्रयास का दूसरा अंक जल्द ही ---------------------------------- डा. अलका सिंह
कुछ कहने से पहले लेख पूरा पढ़ना चाहूँगा. सहमति-असहमति से अलग लेख मानीखेज तो है ही...
ReplyDeletebahut bewaki ke sath likha hai.....aapne jo prashna uyhaye hain bahas talab hain. isake doosare hisse ka intjar rahega.
ReplyDeleteबहुत५ प्रभावित हूं ।
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