Sunday, December 18, 2011

यह् घर तुम्हारा है

यह घर तुम्हारा है
ये बर्तन, ये भांडे,
ये बिस्तर ये कमरा सब तुम्हारे
इस घर के हर कोने से तुम्हारी आदतों की बू आती है
अरसे तक ये मेरे नाक में इस कदर बसी थी कि कभी
अपनी जगह खोज़ ही नहीं पायी इन दीवारों में
पर आज सोचने बैठी हूँ

इस घर में खुद को इस यकीन से
कि बना लिया है इस घर ‘हमारा घर’’ बना लिया है इस कमरे को अपना कमरा
और खोजती हूँ मै कहां हूँ तुम्हारे इस घर में? क्या चुल्हे की इस लौ में?
झाडू की मूढ पर ?
या फिर बिस्तर की इन सलवटों में?

मैं रोज़ तुम्हारी इन निशानियों को छेडती हूँ
बदलना चहती हूँ हवा और पानी बांटना चहती हूँ इस घर को
एक पूरी जिद्दोजहद है मेरी
कि उमीद का एक घर रोपूँ

पर मेरी हर कोशिश पर एक तुषार है
मेरी हर कोंपल पर एक शीत है
और मेरे हर इरादे पर एक कोहरा
क्योंकि घर इस घर का कोई कोना मेरा नहीं है

यह् घर तुम्हारा है
सब तुम्हारा है
समझ गयी हूं
अभी मुझे चलना है
मीलों एक घर की तलाश में .....................................................अलका

1 comment:

  1. एक ऐसी तलाश जो कभी पूरी नही होगी
    जानती हूँ ……………
    फिर भी खुद को आश्वासन देना भी तो जरूरी है
    उम्र पट्टेदारी पर जो मिली है
    किश्तें तो चुकानी होंगी ना
    फिर चाहे तलाश का कोई छोर कभी ना मिले

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