दोस्तों , वन्द्नना शर्मा की वाल पर कवि बोधिसत्व की कविता शांता पर की गयी मेरी टिप्पणी पर ‘कुटज़ अनल’ ने अपनी टिप्पणी में मुझपर कटाक्ष करते हुए कहा -
- ‘’ हिंदी की ही नहीं भारतीय भाषाओं में बेजोड़ कविता पर अलका की बेजोड़ मूर्खता सुवर्ण अक्षरों में अंकित करने योग्य है।‘’
इस टिप्प्णी से पहले सोच रही थी कि इस कविता के बहाने कुछ लिखा जाये. कुछ इतिहास कुछ समाज और कुछ औरतों की स्थिति और स्वभाव को बनाये जाने पर बात करूँ पर अचानक अपने लिये मूर्ख का विशेषण सुन थोडा सोच में पड गयी कि क्या सच्मुच मैने कुछ विषय से इतर कह दिया? क्या मेरे अनुमान एक इतिहासकार के अनुमान और उसकी प्रवृत्ति से अलग अंकित हो गये? या मेरी विवेचना गलत हो गयी? मैं अपनी टिप्पणी आप सब के सामने विचार के लिये रख रही हुँ.
मेरी टिप्पणी थी
- मैंने यह कथा कुछ अलग तरह से सुनी थी. मैंने सुना था के श्रृंगी ऋषी ने दशरथ से उनकी कन्या माँगी थी और दशरथ ने यज्ञ के बाद उन्हें दान कर दिया. और हिन्दू धर्म में माना जाता है कि दान की वस्तु पर कोइ अधिकार नहीं होता. यह तो रही पुरानो की बात पर जहाँ तक पुत्रेश्टी यज्ञ की बात है तो इसका रहस्य कुछ और ही है. मेरा ऐसा मानना है कि राम सभी भाई यज्ञ से पैदा ना होकर नियोग से पैदा हुई संताने थें. और यही वज़ह थी कि दशरथ ने शांता ही नहीं श्रृंगी ऋषी को भी दुबारा नहीं बुलाया अयोध्या. अगर इतिहासकारों की मानी जाए तो रामायण महाभारत के बाद की रचना है. इसका मतलब यह महाभारत की बाद का समाज था इअस्लिये और शायद रामायण काल तक नियोग उस तरह समाज में स्वीकार्य नहीं रह गया था जैसे महाभारत काल में था. हल्लंकी महाभारत में भी नियोग को बहुत ही अलोकिक तरह से प्रस्तुत किया गया है. जहाँ तक शांता को ना बुलाने का प्रश्न है उसके पीछे के कारण में एक कारण जहाँ उसको दान कर देना था वहीं दूसरा कारण यह भी था कि जिस व्यक्ति के नियोग से राम चारो भाई पैदा हुए थे उसे कैसे पुनः बुला कर रिश्तों के मानसिक भवंर में फंसा जाए. यह एक बहुत बड़ी दुविधा थी सभी माताओं , दशरथ और चारो भाइयों के लिए. ऐसा मेरा मानना है ‘’
इसके अलावा मैने कहा था कि –
- ‘’देखा जाए तो कई बातें यहीं से निकलती हैं. भारतीय समाज में एक पुत्री की स्थिति कैसी होती है यह स्थिति इस कविता में खुलकर सामने आती है. और अगर वह राजा की बीती थी तो बात कुछ और ख़ास हो जाती है. मैं मानती हूँ कि हर माँ और बाप की पुत्री संतान एक सौतेली संतान होती है यानी भारत की कर बेटी सौतेली है शांता के माध्यम से इसको समझा जा सकता है. कविता बात लम्बी की जा सकती है’’
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- इन दोनो ही टिप्पणियो पर बात करने से पहले आइये राजा द्शरथ और शांता की कहानी सुनते हैं. यह कहानी इसलिये भी कि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि राजा दशरथ की एक पुत्री भी थी और उसका नाम शांता था. तो फिर पूरी रामायण और लोकप्रिय तुलसी दास की मानस में शांता की कथा लुप्त प्राय् सी क्यों है? यह कथा दो बाल सखाओं के आपसी रिश्तों और वादों से आरम्भ होती है. कथा है कि -
दशरथ और अंगन्रेश रोमपाद (चित्ररथ) बचपन के दोस्त थे. एक दिन राजा दशरथ ने अपने मित्र से उनकी उदासी का कारण पूछा. अंग नरेश ने कहा- हे राजा दशरथ न केवल हमारे राजज्योतिषी ने बल्कि सभी ज्योतिष मण्डल ने यह् भविष्यवाणी की मैं संतान हीन रहूंगा और् मेरा पितृवंश मुझसे ही समाप्त हो जायेगा। मैं इसी सोच से दुखी हूँ कि मैं पितृवंशनाशक हूँ। दशरथ ने प्रतिउत्तर में कहा – चिंता न करो मित्र। इस समस्या का कोई ना कोई समाधन तो होगा ही । दत्तक संतान सदियों से विधिमान्य रही है, और रहेगी। मैं अपनी पहली संतान दत्तक के रूप में तुम्हें दे दूँगा।
आश्रम से अयोध्या लौट्ने के बाद दशरथ गद्दी पर आसीन हुए और महारानि सुमित्रा से उन्हें एक कन्या रत्न की प्रप्ती हुई. कहते हैं राजा दशरथ को अंगनरेश को दिया गया अपना दिया वचन याद था और उन्होनें शांता को दत्तक पुत्री के रूप में अंगन्रेश को दे दिया. किंतु यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती. इस कथा में मोड तब आता है जब अंग देश में अकाल पडता है
आगे बढ्ने से पहले कुछ खास बातें बताती चलूँ -
-बाल्मीकि रामायण में को अंग नरेश रोमपाद की गोद ली गई पुत्री बताया गया है। पर उल्लेखनीय है कि हरिवंश पुराण रोमपाद को दशरथ का ही नामांतर मानता है। (हरिवंश 1.31.46)
- मत्स्य पुराण और महाभारत में शांता को दशरथ की कन्या कहा गया है। (मत्स्य पुराण 48.95 महाभारत -9.23.7-10)
-महाभारत में वर्णन है कि रोमपाद राजा दशरथ का परम स्नेही था। उसके कोई संतान नहीं थी इसलिए शांता को उसे गोद दे दिया गया।
अब बात ऋषिकुमार श्रृंग्य (या श्रृंगी) की. मिथक कहते हैं कि ऋषिकुमार श्रृंग्य का जन्म ऋषि विभण्ड्क और एक हिरनी के संसर्ग से हुआ था यही करण था कि ऋषिकुमार श्रृंग्य सिर पर एक सींघ थी. ऋषि विभण्ड्क अप्ने पुत्र को महान तपस्वी बनाना चाहते थे यही करण था कि ऋषि कुमार ने ऋषि विभण्ड्क को छोड किसी दूसरे मनुष्य के दर्शन नहीं किये थे. ऋषि विभण्ड्क के डर से कोई भी उनके आश्रम तक जाने का साहस नहीं कर पाता था. किंतु यही समय था जब अंग देश में अकाल पडा और हाहाकार मच गया. राजा ने राज्य के अनुभवी लोगों को बुलाकर पूछा कि अब क्या किया जाये? क्या मेरे राज्य में वर्षा होने का कोई उपाय है ? ऋषियों ने बताया कि गंगातट पर पड़ोसी राज्य के निकट तपोवन में विभाण्डक ऋषि का आश्रम है। उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग यदि इस राज्य में आकर जल वृष्टि यज्ञ कर दें तो निश्चित रूप से वर्षाहोगी। किंतु सचेत भी किया कि वे महान तपस्वी होने के साथ-ही-साथ बहुत क्रोधी भी हैं। कोई भी छोटा-मोटी राजा उन्हें अपने यज्ञ में बुलाने का साहस नहीं कर पाता। वे कोई पात्र नहीं रखते। इसी कारण उनका नाम विभाण्डक पड़ा। गंगा का निर्मल जल, वन में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न वृक्ष के फल, मूल, कन्द इत्यादि को ही वे बिना पकाये आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। पुराण् कहते हैं कि – जब शांता ने ऋषिकुमार के विषय में सुना उसने उन्हें अपने राज्य में लाने का बीडा उठाया तकि जनता को राहत मिले. उसने कुछ गणिकाओं को इस काम के लिये तैयार किया. गणिकाओं के इस दल ने ऋषिकुमार पर पूरी नज़र रखी कि कब वो अकेले होते हैं और कब उनका अफरण किया जा सकता है. वर्णन है कि –
‘’ऋष्यश्रृंग दिन प्रथम प्रहर में और चतुर्थ प्रहर में ही कुछ घड़ी आश्रम में अकेले रहते हैं। विभाण्डक ऋषि के वन मं जाने के बाद उनके पुत्र ऋष्यश्रृंग भी कुछ दूर वन में भ्रमण करने निकलते हैं। आश्रम के आसपास न तो कोई अन्य आश्रम है और नही कोई ग्राम। फलतः इस निर्जन वन में किसी अन्य मनुष्य के मिलने की संभावना नहीं के बराबर है। इस कारण पिता ने उन्हें गंगा तट पर अथा गंगा तट तक आने-जाने तथा घूमने-फिरने की अनुमति दे रखी है।सदा की भाँति पिता के वनांचल की ओर जाने के बाद पुत्र गंगा तट की ओर निकले। जैसे ही वे गंगा तट की ओर निकले। जैसे ही वे गंगा तट के पास पहुँचे, उन्हें राग मल्हार, मृदंग की पुकार और पायल की झंकार सुनाई धी। वे मात्र जिज्ञासावश कर्णप्रिय संगीत की लहर में बहने लगे। मानव की मूलभूत जिज्ञासु प्रवृत्ति कीमार, देह व्यापारियों की वार और वीणा के तार ने संयुक्त रूप से उन्हें सशरीर खींचकर कृत्रिम आश्रम के द्वार तक ले जाने में अंततः सफलता प्राप्त कर ही ली।‘’
और इसी ऋष्यश्रृंग ने अंग देश में यज्ञ किया जिससे तत्काल ‘जल वृष्टि यज्ञ’ करते ही मूसलाधार वर्षा होने लगी। ऋष्यश्रृंग का वृहद तथा बहुत व्यापक स्तर पर स्वागत-सत्कार किया गया। ऋष्यश्रृंग के लौट जाने से वर्षा रूक न जावे, इस आशंका से भी पुत्री शांताने पुरस्कार स्वरुप वर के रुप में ऋष्यश्रृंग को मांगा। ऋष्यश्रृंग की पूर्ण स्वीकृति की स्थिति में महाराज रोमपाद ने ऋष्यश्रृंग का विधिवत विवाह अपनी पुत्री शांता के साथ करा दिया।
इस ऋष्यश्रृंग की चर्चा कुछ इस तरह हुई थी कि जब राजा दशरथ संतान के लिये तडपने लगे तो सुमंत ने उंको सलाह दी कि ऋष्यश्रृंग से पुत् यज्ञ कराया जाये. महराज दशरथ इसी आशय के साथ शीघ्र ही अन्ग देश पहुँचे और अंग्नरेश चित्ररथ से निवेदन किय कि ऋष्यश्रृंग और पुत्री शांता अयोध्या आकर पुत्रयेश्ती यज्ञ करायें. राजा चित्र रथ ने ऋष्यश्रृंग के अश्रम पहुंच आग्रह किया ‘’आप ‘पुत्रेष्ठि यज्ञ’ विषयक प्रकाण्ड पंडित हैं। आपके आचार्यत्व में वे ‘पुत्रेष्ठि यज्ञ’ कराना चाहते हैं। हमें पुत्री शांता के महाराज दशरथ के यहाँ जाना चाहिए। महर्षि ने ‘प्रायश्चित करने का अवसर आया जान’ महाराज का निवेदन मान्य किया।‘’
इस तरह राजा दशरथ के चार संतानें उत्पन्न हुईं जिसे हुम राम , लखन, भरत और शत्रुधन के रूप में जानते हैं.
दोस्तों मैं एक इतिहास विद हूँ साहित्य में मेरी गहरी रुचि है. इसके कई करण हैं किंतु जो कारण यहां सन्दर्भ के लायक है उसका जिक्र करना मैं जरूरी समझती हूँ. मैनें आधुनिक इतिहास में औरतों की स्थिति जैसे विषय पर अपनी थीसिस लिखी है. जब मैने शोध में दाखिला लिया था तब मेरे लिये समग्री एकत्रित करने में काफी कठीनाई हो रही थी महिलाओं को इतिहास में तलाशना काफी कठिन था क्योंकि महिला का इतिहास जैसा कुछ था नही उस समय सहित्य के ऐसे ही वक्तव्यों ने मुझे काफी मदद की. किंतु एक इतिहासकार की सबसे बडी समस्या है हर बिन्दु पर सवाल करना जबकि सहित्यकार उस क्यों को पार कर आगे बढ जाता है. इतिहासकार क्यों कैसे कहां कब जैसे सवालों का जवाब ना मिलने पर वहीं ठहर्कर खोजता है और तब तक रुका रहता है जब तक तर्क्पूर्ण जवाब नही मिल जाता. जवाब मिलने से पहले वह कई सम्भावनायें व्यक्त करता है. और मैने ये सारी प्रक्रियायें अपने शोध के दौरान सीखीं और जानी. इस दौरान मैने वेद से लेकर आज तक के साहित्यकारो को खूब पढा कोद किया उंपर लिखा, उनकी व्यख्या की और जो भी तथ्य इतिहास के लायक थे उन्हें उठा लिया. इसीलिये मेरा नाता इतिहास , सहित्य और नारी सन्दर्भों से बराबर का है. बहरहाल अब बात मेरी मूर्खता की, मेरे द्वारा शांता की कथा पढने के श्रोत की और बात मेरे नाम कमाने की भूख की.
शांता की कथा जो भी है विभिन्न सन्दर्भों में वो मैने ऊपर् दे दी है और कई श्रोत भी दिये हैं किंतु सबसे बडा सवाल है कि मैने राम के जन्म को नियोग से उत्त्पन्न माना है और यही मेरी मूर्खता क प्रमाण है ऐसा कुतज़ अनल मानते हैं. दरअसल राम नियोग से उत्त्पन्न हुए यह मान लेना साधारण हिन्दु के लिये मान लेना बेहद कठिन है क्योंकि राम हमारे मन में इस आस्था के साथ बैठाये गये हैं कि वह भग्वान हैं और उनकी उत्त्पत्ति वैसे ही अलोकिक है जैसे ब्रह्मा विश्नु महेश की है. वह उसी तरह ईश्वर है6 जैसे कि देव त्रय हैं. ऐसा कई धर्मो के साथ है जैसे ईसाइ मांते हैं कि जीसस का जन्म एक कुआंरी कन्या मरियम के पेट से हुआ था. यहे वज़ह है कि हम इस विवाद को तर्क में नही घसीटते. यहां हम चुप्प रह्कर उनको भग्वान मान लेने में ही भलाई सम्झते हैं किंतु जब हम दशरथ को राजा और एक मानव के रूप में देखते हैं और उनके इतिहास की रोज़ रोज़ तलाश करते हैं तो क्या यह सम्भव है कि उनके किये पर इतिहास सवाल ना करे? यज्ञ के उस खीर पर सवाल ना करे? वैसे देखा जाये तो सवाल तो ऋष्यश्रृंग के जन्म पर भी खडे होते हैं और उनकी सींघ पर भी. अगर मैने बात नियोग की की तो यह मूर्खता की शेनी मे6 कैसे आ गया यग सम्झ पाना जरा कठिन इस्लिये है क्योंकि निह्संतान दम्पत्तियों के लिये नियोग भारत में एक मान्य परम्परा रही है नियोग के कुछ नियम हैं विव्रण देखें -
‘’नियोग, मनुस्मृति में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर ऐसी व्यवस्था है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सगोती से गर्भाधान करा सकती है। वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए | कलियुग में यह विधि वर्जित है।‘’
इसके नियम कुछ इस प्रकार है –
१. औरत इस प्रथा का पालन केवल संतान के लिए करेगी, आनंद के लिए नहीं |
२. नियुक्त पुरुष केवल धर्म के पालन के लिए इस प्रथा को निभाएगा | उसका धर्म यही होगा कि वह उस औरत को संतान देने में मदद कर रहा है |
३. एस प्रथा से जन्मा बच्चा जायेज़ होगा और कानूनी रूप से बच्चा पति-पत्नी का होगा, नियुक्त व्यक्ति का नहीं |
४. नियुक्त पुरुष उस बच्चे के पिता होने का हक नहीं मांगेगा और भविष्य में बच्चे से कोई रिह्स्ता नहीं रखेगा |
५. इस प्रथा का दुरूपयोग न हो, इसलिए पुरुष अपने जीवन काल में केवल तीन बार नियोग का पालन कर सकता है |
६. इस कर्म को धर्म का पालन समझा जायेगा और इस कर्म को करते समय नियुक्त पुरुष और पत्नी के मन में केवल धर्म ही होना चाहिए, वासना और भोग-विलास नहीं | नियुक्त पुरुष धर्म और भगवन के नाम पर यह कर्म करेगा और पत्नी इसका पालन केवल अपने और अपने पति के लिए संतान पाने के लिए करेगी |
नियोग में शरीर पर घी का लेप लगा देते है ताकि पत्नी और नियुक्त पुरुष के मन में वासना जागृत न हो |
यह नियम रामायण काल में थे और उसके बाद भी. महाभारत् में तो ध्रितराष्ट्र, पंडू और विदुर नियोग से पैदा हुए थे जिसमे ऋषि वेद व्यास नियुक्त पुरुष थे | बाद में, पंडू संतान देने की शक्ति न होने के कारण, पाँचों पांडव नियोग से पैदा हुए थे जिसमे प्रत्येक नियुक्त पुरुष अलग-अलग देवता थे. तो ऐसे में राम के जन्म के तरीके पर सवाल तो उठेंगे ही. अब सवाल रहा पुत्रेष्टी यज्ञ का और उस चम्त्कारी खीर का जिसे खा लेने भर से तीनो रानियाँ और विभीषण सभी पैदा हो गये. आप कथा का एक बेहद रोचक और अविश्वसनीय प्रसंग है कि खीर के तीन हिस्से ऋष्यश्रृंग ने किये थे किंतु एक हिस्सा एक बिल्ली ने खा लिया था तब कौशल्या और कैकेयी ने अपने अपने हिस्से में से आधा आधा भाग सुमित्रा के लिये रख दिया और उस बिल्ली का जूठा पत्ता लंका में विभीष्ण की मां ने खा लिया था. मैं यहां कहूंगी कि राम से सम्बन्धित ग्रंथ रामायण और मानस इतिहास कतई नहीं है बल्कि एक काव्य है और इसकी रोचकता इन्हीं कारणों से है कि इसमें ऐसे ऐसे प्रसंग हैं. खैर बात खीर की हो रही थी. तो एक इतिहास्कार के रूप में मुझे खीर की कैमिकल क्म्पोजीशन पर सवाल करना है. मुझे ऋष्यश्रृंग और उनके ज्ञान के बारे में जानना है. अगर ये सवाल अनुतरित हैं तो मेरा यह कहना कहीं से भी मूर्खतापूण मुझे नही लगता. मुझे नहीं लगता कि वह खीर ऐसी थी कि उसके खा लेने कोई स्त्री गर्भवती हो सकती है.
.............................................. डा. अलका सिंह
काफ़ी मेहनत की है तथ्य जुटाने में. रोचक कथा शैली में बयान भी किया है इसे. बधाई.
ReplyDeleteबहुत-बहुत उम्दा सटीक और तथ्य आधारित विशलेषण ...अलका दी ऐसी खीर के कम्पोजिशन पर सवाल उठाना तो जायज बनता है और उठने ही चाहिए ...
ReplyDelete्काफ़ी शोधपरक आलेख।
ReplyDeleteकविता और इतिहास 2 अलग चीजें होती हैं।
ReplyDeleteगड़बड़ इतिहास और किंवदंती को जोड़ने के कारण भी हुई है।
किंवदंतियों पर कविता लिखी जा सकती हैं।
शांता ऐतिहासिक पात्र नहीं है, केवल लोक कथा है। क्योंकि प्रामाणिक केवल वाल्मीकि रामायण है उसमें कोई शांता नहीं है।
नियोग शास्त्र विहित सर्वमान्य स्वीकार्य था ।
रामायण का काल महाभारत से बहुत पूर्व है। महाभारत को हुए लगाबहग साढ़े पाँच हजार वर्ष हुए हैं और रामायण का काल लगभग छह लाख वर्ष पूर्व है। अंग्रेजों द्वारा पढ़ाए लिखे गए इतिहास( जो ईसा व बाईबाल के कारण सब कुछ पाँच हजार वर्षों में समेटता है)के कारण तथा और भी कई कारणों से भारतीय इतिहास के नाम पर जाने क्या तथ्य प्रचलित हैं।
नियोग चरित्रहीनता या काम का वाचक नहीं है। "सत्यार्थ प्रकाश" उठाकर खुले मन से पढ़ने वाले लोगों को जरूरत है। लोग इसलिए तिलमिला जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके पूज्य पूर्वजों का अपमान हो गया नियोग की बात जुडने से। यह अत्यंत ऋषिमान्य, संस्कारमान्य, आदर्शमान्य, शास्त्रमान्य प्रावधान है। महाभारत कुल में भी यही हुआ था। ऋषि व्यास से नियोग के द्वारा विदुर, पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म हुआ था।
पुत्रेष्टि यज्ञ में यज्ञ शब्द है। और यज्ञ का रूढ़ अर्थ लोग अग्निहोत्र मात्र ही लेते हैं। उन्हें निघंटु पढ़ना चाहिए और वैदिक दर्शन का गहन सात्विक अध्ययन करना चाहिए।
अलकाजी, आपने हमारे पौराणिक आख्यानों में वर्णित नियोग प्रथा से संतानोत्पत्ति में ली जाने वाली मान्य व्यवस्था का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत तार्किक और वस्तुपरक विवेचन प्रस्तुत किया है,इसे अगर कुटज अनल ने मूर्खतापूर्ण कहा है, तो यह उनकी विवेक-बुद्धि की सीमा है, आप आश्वस्त रहिये, आपने वाकई बहुत विवेक-सम्मत विवरण प्रस्तुत किया है, मैं तो आपकी शालीनता और तर्क शक्ति का कायल हूं।
ReplyDeletealka ji! aap history ki samanya vikaswadi sidhant ki bat manti hain.
ReplyDelete1.RAMAYAN kahi bhi krishn ki charcha nahi karti kyo?jabki mahabharat ram hi nahi unke pariwar ki bhi katha kahti hai?ye itihaskaron ka shadyantra hi hai....kiwo ramayan ki samridh ko mahabharat se pahle nahi man pate.hum apne samsakrati par vishvas hi nahi kar pate?
2.mai niyog ki bat manta hu....khir khane se bachche nahi hote....fir bhi ek prashn to hai hi ki jab dashrath ke putri ho sakti thi to putra kyo nahi? dashrath ke samne putra na hone ki samsya hai.nishsantanta ki nahi...aaj bhi haryana me log aisi dawa dete hain ki shartiya ladka hi hoga....kahi koi aisi hi to bat nhi thi....sochna.
3.khir koee dawa to nahi thi?
4.aap murkh nahi hain kintu apni bate siddh karne ke liye doosro ki bate bhi sune...RAMAYAN SE PAHLE MAHABHARAT WALI BAT KARNE WALE SARE ITIHASKAR MARKSWADI HAIN...JO MUJHE LAGTA HAI KI BHARTIYTA KI JAD KHODNE PAR LAGE HAIN...EK TUSHTIKARAN AAP KO NAHI LAGTA UNKE ITIHAS LEKHAN ME?
MAI KUCHH JYADA BOL GAYA HOUU TO KSHAMA KAR DENA.
बहुत ही खोजपरक और तार्किक विश्लेषण है अलका जी! हम आभारी और लाभान्वित हुए इस अद्भुत ऎतिहासिक जानकारी से कुटज अनल के मूर्खतापूर्ण कटाक्ष पर न जाएं। क्योंकि जो जानकारी आपने अपने स्पष्टिकरण में दी है शायद ९५ प्रतिशत भारतीयों को भी यह सच मालूम नहीं होगा..
ReplyDeletedaad deta hun aap ki mehanat, taarkikta aur khoj parak drishti ki . aap ko kisi ne moorkh kaha,shayad un ki yogyta ki paribhashayen itar hongi ......badhaai
ReplyDeleteवैग्यानिकता और विश्वास साथ नहीं चल सकते. हमारा शोध वस्तुपरक होना चाहिये, परन्तु जिनकी भावना को ठेस पहुंचेगी, वे हमारी आलोचना करेंगे ही. हमें इसके लिये तैयार रहना चाहिये.
ReplyDeleteराज कुमार झा जी बहुत शुक्रगुजार हूँ जो आपने ये लेख पढ़ा और अपनी राय दी. मैंने अभी सिर्फ संभावना व्यक्त की है और अपनी बात काही है . रहा सवाल इसके लिए तैयार रहने क़ा कि जिनकी भावना को ठेस पहुंचेगी वह हमें बुरा भला कहेंगे तो उसके लिए तैयार होकर ही मैंने अपनी बात सबके सामने राखी है. सिर्फ ४ घंटे के बीच मुझे बहुत से आलोचना भरे और तीखे कमेन्ट मिले हैं मैं उनका भी जल्द ही जवाब दूंगी. आपका बहुत बहुत आभार राजकुमार झा जी
ReplyDeleteमोहन जी और नन्द जी आप दोनों ने मेरे लेख को पढ़ा और बधाई दी वह मुझे स्वीकार है चाहूंगी कि आप मेरे ब्लॉग पर हमेशा आते रहें
ReplyDeleteअश्व घोष और नवनीत पाण्डेय आभारी हूँ कि आपने लेख पढ़ा
ReplyDeleteयह एक आम समस्या है कि हम अपनी कथित आस्था और तर्क को अक्सर गडमड कर देते हैं। पुराण, महाकाव्य और इतिहास को इस कदर मिला देते हैं कि उनमें से कुछ भी विश्वसनीय नहीं रहता। इतिहास तथ्यों पर आधारित होता है, पुराण मान्यता और आस्था पर तथा काव्य कल्पना और तथ्य को मिलाकर अंतत: संवेदना पर टिका हुआ। इनका घालमेल भ्रम पैदा करने वाला होता है। जिन भी सज्जन ने इस प्रकार की टिप्पणी आप पर की है उनसे केवल इतना कहना है कि किसी भी मित्र पर टिप्पणी करने से पहले भाषा का सयंम जरुर बरतें, ऐसा न हो कि तर्क के अभाव की कुंठा उसमें आ जाए और अगर मित्र महिला हों तो अतिरिक्त सयंम की जरुरत है। एक तरफ आप भारतीय संस्कृति के नाम पर आस्था को ठेस पहुंचने की तिलमिलाहट महसूस करते हैं दूसरी ओर संस्कृति में पूर्ण सम्माननीय स्त्री के प्रति अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, यह हर प्रकार से निंदनीय है। तर्क अपनी जगह, असहमति अपनी जगह और सम्मान व बात की मर्यादा अपनी जगह...। डॉ अलका सिंह जी आपने तर्क को अपने व्यवस्थित रुप में रखा है और एक इतिहासज्ञ की नजर से अपने संदेह व सवाल उठाए हैं...इसमें कहीं कुछ गलत नहीं। यदि किसी मित्र को इनका जवाब देना हो तो तर्क से दें, गालियों से नहीं...
ReplyDeleteयहाँ कल प्रातः हेमा के पश्चात् तीसरी टिप्पणी मेरी थी, कहाँ गायब हो गई ? कहीं स्पैम फिल्टर में तो नहीं चली गई ? उसी को फिर फेसबुक पर प्रत्यांतरित किया था।
ReplyDeleteकविता जी इस बात का इल्म मुझे भी नहीं मैं देखती हूँ अभी
ReplyDeleteआप सभी को सूचित हो कि श्रीमान कुटज अनल को मैंने अपनी मित्र सूची सी बाहर कर दिया है चूँकि उन्होंने यह अभद्रता मेरी वाल पर की अत: यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी बनी जिसे मैंने पूर्ण किया ..को स्नेह और मंगल कामनाएं !
ReplyDeleteएक विश्लेषात्मक लेखन ..
ReplyDeleteअच्छा लगा एतिहासिक तथ्यों को जानना..
वाह!..पौराणिक आख्यानों पर आधारित इस शोधपरक
ReplyDeleteATIHASIK आलेख में आपने वैज्ञानिक दृष्टी से बहुत ही
ही सुन्दर तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया है .
..कुटुज अनल द्वारा की गयी आलोचना स्वतः ही
अमर्यादित एवं बेमानी सिद्ध हो गयी है. ... आपके
इतिहासज्ञ एवं कवि- समीक्षक मन को बहुत-बहुत बधाई .
-मीठेश निर्मोही,जोघपुर .
Very good article. I think I should read other articles also. Let me read them and then l will get back to you. Reg, Shaheen
ReplyDeleteबधाई अलका जी, अच्छा आलेख लिखा है आपने। लेकिन शैलेन्द्र सिंह जी की बातों पर ध्यान दें जरा। महाभारत का काल रामायण से पहले कैसे मान रही हैं आप। सभी टिप्पणियों पर जवाब दिया है आपने, लेकिन उनके सवाल पर खामोश हैं।
ReplyDeleteचलो कुटज अनल जी द्वारा की गयी आलोचना से ही आपका पीछा छूट गया , इस्लाम या क्रिस्तिअनिटी के धार्मिक प्रतीकों के बारे में ऐसा लिखा होता तो क्या -क्या हो सकता था! वैसे शांता/काल पुनः निर्धारण आदि नए फिडके रोमांचक हैं , don-2, Dhoom-2 , Golmal-2की तरह.पर किसी शोध आदि कि ग़लतफ़हमी ना पैदा की जाये , कल्पना की उड़ान को कल्पना की उड़ान ही कहा जाये तो सब ठीक रहता है. जहाँ तक प्रमाणिकता का प्रश्न है, तो भूतकाल तो छोडो वर्तमान काल का विवरण भी प्रमाणिकता से लिखने का दावा कोई माई का लाल कर सकता है क्या? फिर क्या जुगाली के झागों का महत्व .......
ReplyDeleteमीठेश जी आपका बहुत आभार और मैं इस बात से बेहद खुश हूँ की आpने मेरी बात धयन से पढी और सुनी और उसपर अपनी प्रतिक्रया दी
ReplyDeleteAAPKE sare sandeh dur kar sakta hun..sanatan ki rachna mere haathon se hui hai... haan utttar sahulk hoga...shulk apki ikshanusar hoga...
ReplyDeleteispe mail karna
gyanyog@yahoo.com
ya is id se judna
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