Sunday, November 13, 2011

अरुण देव की कविता ‘‘पत्नी के लिए'' पर एक हिमाकत ----

सच कहूँ तो इस कविता क़ा चुनाव मैंने अपने किसी अन्य आलेख के लिए किया था जिसमें कई कवियों की रचनाएँ शामिल थीं किन्तु जब भी इस कविता को उस आलेख के मद्देनज़र उठाती और उसमे शुमार करने की सोचती तो एकबारगी ठहर जाती और लगता के ये कविता किसी और बात की मांग करती है और विचार आता कि इस कविता पर अकेले ही विस्तार से लिखना चाहिए. इसका एक कारण भी था. मैंने अपने पाठकीय जीवन में जितनी भी रचनाएँ '' पत्नी के लिए'' पढी हैं वह आपसी संबंधों के चित्रण, विस्तार और अपनी बेबाक स्वीकृति से अलग ज्यादातर ' घरारी' वाले अंदाज की, या फिर भावों से ओत प्रोत सुन्दर शब्दों के मायाजाल में लिपटी, किसी क्षण पर केन्द्रित रचनाएँ पढी थीं. या फिर विरह के क्षण की पीडा का चित्रण ही जाना था. मेरी आँखों के सामने से यह पहली रचना गुजर रही थी जो कई सन्दर्भ एक साथ लेकर खडी थी. अरुण देव की सीधी साधी दिखने वाली ये कविता अपने अर्थों में उतनी सीधी नहीं थी जितनी की दिखती है. इसलिये यह मेरे लिये एक बहुमुल्य रचना थी.

अरुण देव से मेरा परिचय फेस बुक पर ही हुआ हालाँकि हमारे बीच संवाद शायद ही कभी हुआ हो और यह बात मेरे लिए दुःख व्यक्त करने वाली ही है किन्तु अरुण देव की रचनाओं से मेरा परिचय बहुत पुराना है. जहाँ तक अरुण देव की इस रचना क़ा प्रश्न है तो ये रचना मैंने तब पढी जब एक् कविता पर फेस बुक पर चर्चा बहुत गर्म थी. और वह कविता इसी कविता ‘‘पत्नी के लिए'' से प्रेरित थी. उसी दौरान मांगने पर अरुण ने मुझे लिंक भेजा था ताकि मैं इस रचना को पढ़ सकूं . मेरी उत्सुकता के कई कारण थे ;

१. सबसे पहली जिज्ञासा थी के आखिर उस कविता में क्या ऐसा है जो किसी को एक कविता लिखने को प्रेरित करता है ?
२. ''पत्नी के लिए'' में आखिर अरुण किन संवेदनाओं से गुजरे हैं? क्या संवेदनाएं विशाद के क्षणों की हैं ?
३. स्त्री विषयक, विशेष कर पत्नी विषयक इस रचना में अरुण देव के प्रयोग क्या हैं ? क्या यह महज़ व्यक्तिगत भाव तक सीमित है या फिर बड़े सरोकार से जुडी है ?
४. मैं आज के समय में पति-पत्नि के बीच सम्बन्धों में हो रहे बदलाव के चिन्ह की तलाश भी कर रही थी.

यही वज़हें थी कि मैंने इस कविता की एक - एक लाइन और एक - एक प्रयोग को बहुत बारीकी से पढ़ना आरम्भ किया और आज इस कविता पर लिखने की सोच बैठी.

अरुण की कविता पहली बार पढ्ने पर यह दो व्यक्तियों के अन्तरंग क्षणों की बहुत अन्तरंग अनुभूति सी लगती है किन्तु जैसे ही आप इस कविता को बडे स्तर पर रखकर सामजिक सरोकर से जोड्ते हैं कविता अपने व्यापक अर्थ लेकर आपके सामने खडी हो जाती है. दरअसल अरुण जब इसे कविता के माध्यम से एक वक्तव्य के रूप में सबके सामने रखते हैं और लोंगों को समर्पित करते हैं तो यह कविता, इसके मायने और सरोकार सभी बहुत व्यापक हो ही जाते हैं क्योंकि यही कविता के मायने हैं. यही वज़ह है कि इस कविता पर बात करने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि २०११ में लिखी इस कविता को मैं इसी सदी की कविता के रूप मे ही समझने की कोशिश कर रही हूँ और मुझे लगता है यही इस कविता के साथ करना भी चाहिये.. ऐसा इसलिये भी क्योंकि २० वीं सदी को स्त्री के सम्बन्ध में बदलावों की सदी के रूप में जाना गया है. परिवारों की शक्ल, पति- पत्नि के एक दूसरे को समझने के तरीके और बहुत हद तक भावों को अभिव्यक्त करने के तरीके भी बदले हैं. २० वें सदी के उत्तरार्ध और २१ वीं सदी क़ा ये आरंभ इस दृष्टी से बेहद महत्च्वा पूर्ण काल है. इस दौर में कई मायनों में स्त्री पुरुष संबंधों विशेषकर पति पत्नी संबंधों को नए अर्थों में परिभाषित करने के प्रयास भी हुए हैं और उसके के मानक भी बदले हैं. इक बात यहाँ स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है यही दौर है जब प्रभावी रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक मंचों से औरतों की स्थिति पर गहन चरचा हुई है और यू.एन. के हस्तक्शेप ने दुनिया के सभी देशों को इस दिशा में काम करने को मजबूर किया है. यह एक तर्क हो सकता है कि आखिर सरकारें दो व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध को कैसे परिभाषित कर सकती हैं? यह सही भी है किंतु जब एक सोच सीधी रेखा में चलकर एक देश एक क्शेत्र और में जीने वाले लोगों को प्रभावित करे तो उस भाव को रेखांकित करने की अवश्यकता पड्ती ही है.


ऐसे में अरुण की कविता में मैं उस गंध को खोजने की कोशिश करना चाहती हूँ और करुँगी के क्या यह कविता भारत में २१ वी सदी के पति पत्नी की तस्वीर पेश करती है? या फिर यह हमारे घरों के इक आम तस्वीर को ही सबके सामने रखने क़ा प्रयास है? या फिर भारत में पति अब भी उसी मुकाम पर खडा है जहां से औरतों की पीडा का प्रारम्भ होता है और वह जीवन में कई सम्झौते करती है?और भी बहुत कुछ. इन सभी बिन्दुओं को समझने के लिए जरूरी है अरुण की पूरी कविता से इक साक्षात्कार हो. प्रस्तुत है अरुण की पूरी कविता -


वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को

बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ

तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा

................................... अरुण देव



अब बात कविता पर -
सबसे पहले मैं अरुण को इस बात के लिये धन्यवाद दूंगी कि उन्होनें इस भाव की कविता लिखी और उसे सबके सामने रखा. यह धन्यवाद इसलिये भी जरूरी है इस कविता के माध्यम से पुरुष मन के भाव और स्वीकरोक्तियों से एक ऐसा शब्द चित्र खींचा गया है जो परिवार में महिलओं की स्थिति और उसकी पीडा के करणों को अनयास ही सामने लाता है. कई अवसरों पर औरतों की चुप्पी, कई बातों को नज़रन्दाज़ करना, घर को एक जिम्मेदरी के साथ निभाना, बहुत कुछ जंते हुए उसे अन्देखा करना, कई बातों को हंस कर टाल देना सब महिलाओं के खाते की चीज़ है जो कविता पूरे स्वरूप में बयान करती है. यह कविता यह भी बयान करती चलती है कि पुरुष कैसे पुरुष एक तरफ खडा स्त्री और उसके प्यार की परिभाषा गढ्ता है जहां से वह बहुत चतुराई से अपने को अलग करता चलता है.

यहां मैं इमानदारी से बताती चलूँ कि इस कविता को मैंने ५० से अधिक बार पढ़ा होगा और जितनी बार मैं पढ़ती मेरे सामने मेरे १७ सालों के काम के दौरान मिली हर उस औरत क़ा चेहरा सामने आता जाता जो अपनी परेशानिया लेकर मेरे पास आती रही थीं. अपने पतियों के व्यव्हार उनके सोचने के अन्दाज़ और काम के बोझ का जो वक्तव्य उंक्के मुह से सुना था वो अनयास ही इसे पढ्कर जैसे कानों में गुंजने लगे. इस तरह कविता से गुजरते हुए एकबारगी महत्वपूर्ण रूप से यह सच् मेरे सामने उभरकर आ रहा था के उन सभी महिलाओं मे से ८० प्रतिशत महिलाओं की शिकायतें क्यों थी? इसके कारण क्या थे ? . इसीलिये इस कविता को मैं बडे सामाजिक सन्दर्भ की कविता मानती हूँ. अब बात अरुण की कविता की-

सामन्य रूप से यह कविता एक खुशहाल मध्यम्वर्गीय परिवार के पति पत्नि का चित्रन करती है जहां स्त्री अपने परम्परागत चरित्र के साथ है. इसीलिये अरुण देव की यह कविता स्त्री की स्थितियों के सन्दर्भ को दर्शाते हुए एक व्यापक अर्थ लिये हुए है. पूरी कविता से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे एक परिवार में किसी पति ने अपनी पत्नि को यह बता दिया है कि -

वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता

इस कविता की इन तीन लाइनों को सामन्य से अधिक द्रिश्ती से देखने की आव्श्यकता है. सरसरी तौर पर यह एक् सकारत्मक भाव उत्पन्न करती हुई सी लगती है. किंतु इसे अगर व्यपक स्तर पर स्त्री जीवन के सरोकारों से जोड कर देखा जाते तो यह् स्थिति समान्य नहीं है बल्कि इसके उलट यह स्त्री जीवन की जतिलताओं के अरम्भ के दर्शन हैं. और यही वज़ह है कि यह बडे पैमाने पर दिखने वाले स्त्री जीवन के दंश के अरम्भ को भी परिभाषित करते हुए आरम्भ होती है. महिलाओं पर किये गये कई सर्वे इस बात का खुलास करते हैं कि . गृहस्त जीवन के एक दौर तक आते - आते 80 प्रतिशत से भी अधिक विवाहित महिलाओं को अपने वैवाहिक जीवन के किसी ना किसी मोड पर किसी ना किसी मोड रूप में यह शब्द सुनना ही पडता है कि ‘’अब वह आंच और आवेग तुममें नही बचा’’. परिवार और उसके पूरे माया जाल में उलझी महिलाओं के जीवन का यह पहला बडा भवनात्मक और मानसिक आघात होता है जिससे वह गुजरती है. पर सवाल है आवेग क्यों खत्म हुआ? किसकी तरफ से खत्म हुआ? खत्म होने क कारन क्या है ? इसके बाद की कविता इन सभी प्रशनो का अपने तरह से जवाब भी है. आप देखें कितने विल्क़्शण रूप से कविता की अगली पंक़्तियां तुम और तुम्हारे पर आकर टिक जाती है और कहतीं हैं _
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप


अब सोचने वाली बात है के आचानक हमारे आवेग की बात करते -करते ये ‘’हमारा’’ सिर्फ ‘’तुम्हारा’’ पर क्यो सिमट् गया? क्या इसलिये कि अब वह आवेग नहीं बचा? या इसलिये कि आवेग के खत्म होते ही पति पत्नि के बीच के सम्बन्ध हम से उतरकर तुम पर आके टिक जाते हैं और पति प्रेम की अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कहीं और प्रेम तलाशते हुए बस उसके प्रेम की बात कर उसे उलझाता है?
इमानदरी से कहूँ तो पति का यह कहना कि ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा............ बरसता है.............. और खिली धूप सा’’ पत्नी को लगायी जा रही एक तरह की मस्केबाजी लगती है. शायद उपर की तीन पंतियान कहने के एवज़ में यह एक तरह की भरपायी हो ताकि समजिक और आपसी तौर पर वैवाहिक जीवन की सामाजिक गरिमा और अर्थ बना रहे और साथ में स्त्री के सामने प्रेम के भ्रम की स्थिति भी बनी रहे. क्योंकि अक्सर स्त्रियां शब्दों के इस मायाजाल को तब तक नहीं सम्झ पातीं या समझ्ना नहीं चहतीं जब तक तलवार सर पर ना लटक जाये. बहरहाल गम्भीरता से कहूँ तो यह स्त्री जीवन की सबसे बडी जटिलता है जहां पारस्परिक सम्बन्ध से एक पयदान नीचे उतर कर एक पति अपने भाव न केवल जीता है बल्कि उस अनुभूति से गुजरते हुए पत्नि पर यह प्रभाव छोड्ने की कोशिश करता हैं कि उसके समग्र् विचरों में सिर्फ ‘वह’ ही अवस्थित है ‘उसका’ ही नाम और प्रेम बचा है इसलिये कहता है ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा, बरसता है और कमाल, खिली धूप सा’’ देखा जाये तो. यह एक पुरुष की स्वीकारोक्ति से अधिक अनुभूति की स्थिति हो सकती है किंतु ध्यान देने वाली बात है कि अब दोनों के आपसी प्रेम में सिर्फ औरत है पुरुष ने इससे अपने को अलग कर लिया है और तुम्हारे पर आकर ठहर गया है. इस सच को इस कविता की अगली पंक्तियां विस्तार देती हैं और कहती हैं -

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

‘’तुम्हारा घर’’, ‘’दुनियावी जिम्मेदारी’’ ‘’कनस्तर’’ और ‘’बिटिया'' रेपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो क़ा प्रयोग निश्चय ही बहुत चकित कर देने वाला है. यह इसलिये क्योकि जो घर हमरा होना चहिये था वह अब ‘’तुम्हारा’’ हो गया. यह स्थिति न केवल दुखद है बल्कि एक औरत के लिये जहां अकेले की जिम्मेदारियों को वहन करते हुए बोझ सा भी है. साथ ही उसकी अनकही पीडा भी है. महिलओं के लिये बहुत कठिन ये भी है के हमेशा ही उन्हें ग्रिहस्ती की जिम्मेदारियों के नाम पर सारे बोझ को ढोने की शिक्षा और सलाह के साथ चुप करा दिया जाता है. यही वज़ह है कि वह इसी में खुशी तलाशने को कई बार विवश भी होती रही हैं और महिलयें आज भी होती हैं. क्या वास्तव में घर की ऐसी शक्ल सही है ? क्या स्त्री पर ये जिम्मेदरियां इसलिये हैं कि वो परिवार में आर्थिक सहयोग नहीं करती? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो आज भी भी ज्यों के त्यों खडे हैं और् जवाब में या तो एक बडी चुप्पी है या फिर परम्परा और औरत की जिम्मेदारी का कुछ परम्परागत पहाडा. और ऐसे जवाब सच कहा जाये तो संतुष्ट् तो कतई नहीं करते. इस कविता की सबसे महत्वपूर्ण पंक्तियां जो एक सम्बन्ध की अगली स्थिति को विस्तार देते हुए पति की स्वीकरोक्ति और औरत के चरित्र को भी परिभाषित करते हुए बहुत कुछ कहती हैं.



बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
हो सकता है लोग या बहुत से पाठ्क इसे स्त्री की महनता के रूप में देखें कि वह बहुत कुछ देखते हुए नहीं देखती किंतु वास्तव में यदि देखा जाये तो यह स्थिति सोचने वाला विषय है कि अखिर बहुत कुछ देखते हुए वह क्यों नही देखती वह्? क्या उसमें लडने का साह्स नहीं? य फिर वह डरती है ? डरती है तो किससे? पति के हिंसक हो जाने से ? या समाज में उपहास से? या फिर आपसी सम्बन्धों के विकट हो ज़ाने की कल्पना से? यदि गम्भीरता से देखा जाये तो यह स्त्री की एक दयनीय स्थिति की तरफ इशारा करता है. उसकी यह दयनियता हर स्तर पर दिखती है. चाहे वो सामाजिक स्तर पर हो, व्यक्तिगत् स्तर पर हो या फिर किसी भी मोर्चे पर किंतु सबसे बडी दयनीयता आर्थिक स्तर की है. इसीलिये स्त्री चुप रहती है और नही देखती य कहें नही देखना चाहती.
पुरुष अपने व्यव्हार और उसके सच को जानता है और यह भी जानता है के उसके अनदेखा करने और सम्बन्धों की थाती सहेज के रखने से ही यह सब जो दिख रहा है सब सहज़ है. बहुत रूक कर सोचने वाला वक्तव्य जो इस कविता का है वो है कि ‘’ तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम’’. आखिर ऐसा क्यों है कि ‘उसका’ इन्हें प्रेम करने के लायक बनाता है? क्या यह प्रेम करने की विवशता है ? या फिर यह अपनी गलती के अह्सास की स्वीकरोक्ति? वैसे ये कुछ भी हो गलती की स्वीकरोक्ति जैसा नही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह कतई नही होता कि -
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
मुझे लगता है अब उपरोक्त पंक्तियों को परिभषित करने की अव्यशकता नहीं है. ना ही कुछ कहने की बस इतना कि कुलमिलाकर कहा जाये तो समय के साथ हम 21वीं सदी में जरूर पहुंच गये हैं किंतु समाजिक और अर्थिक रूप से स्त्री के जीवन में, स्त्री पुरुश सम्बन्धों और उसके दयित्वों में बहुत परिवर्तन नही आया है. पुरुष परिवार में घुसकर जीने की जगह दूर खडा हो अपनी विशेष् स्थिति में जीने का आदी है जिससे निकलना या तो वो चहता नहीं या फिर ना निकल पाऊँ इसकी परिस्थितियां उत्त्पन्न करता रहता है तकि स्त्री डर कर वहीं रहे जहां उसके पैरों में हज़ार जंजीरें बन्धी रहे. और वह धर्मपत्नी बनी रहे.

यह कविता पूरे तौर पर 21वीं सदी में भरतीय समाज , उसमें औरत और उसकी स्थिति को चित्रित करती है साथ ही यह व्यपक रूप से एक परिवार, उसमें स्त्री की स्थिति , पुरुष् की परिवार के प्रति सोच, उसका चरित्र सब कुछ परिभाषित करने में सफल रही है यही वज़ह है कि यह कविता जब भी 21वीं सदी के पति के चरित्र को परिभाषित किया जयेगा लोगोन द्वारा जरूर पढी जयेगी.

.................................. डा. अलका सिहं

15 comments:

  1. कविता का सटीक एवं वृहद् विश्लेषण!
    अच्छा लगा पढ़ना!

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  2. जी ये कविता पहले भी पढी थी शायद ब्लोग पर एक बेहद गहन दृष्टिकोण है।

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  3. जितना कविता ने मेसमराइज़ किया , उतना ही इस विषद व्याख्या ने . अलका जी ने नारी विमर्श को देखते हुए कविता में लिपटे जटिल सवालों के उत्तर दिए हैं , जो कहीं कविता में ही छिपे थे . बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना. अलका जी और अरुण जी को शुभकामनाएँ और बधाई !

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  4. 'पत्नी के लिए' कविता पर डॉ. अलका सिंह की विस्तृत व्याख्या पढ़ कर संतोष हुआ. एक पूरी कविता में कई ऐसे स्थल होते हैं जिनकी व्याख्याएं मुश्किल होती है या फिर उसकी कई व्याख्याएं होती है.. कई बार रचनाएं रचनाकार के अवचेतन से संचालित होती हैं और एक सीमा के बाद रचनाकार खुद अवश हो जाता है.. इसलिए कवि को कई बार माध्यम भी कहा गया है.
    कविता का सम्मोहन उसके पूरे वितान में न जाने कहाँ रहता है कि उसका अहसास भर होता है.. वह ठीक ठीक कहाँ है बताया नही जा सकता.
    डॉ अलका सिंह ने इस कविता का एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक पाठ लिखा है जिससे कि यह कविता दूर तक खुलती है और इससे रचना के प्रति उत्सुकता भी बढती है.. समाज में स्त्री और विवाह-संस्था के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बाते कही गई हैं.
    कुल मिलाकर अलका सिंह के आलोचकीय विवेक और सच कहने के साहस ने मुझे प्रभावित किया है.. आभार

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  5. बहुत अच्छी टिप्पणी क्या व्यख्यान अच्छी लगी कविता और उस पर १०० गुना अधिक अच्छा व्याख्यान बधाई अलका जी आपको

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  6. डा.अलका सिंह वाकई बहुत अच्छा तार्किक विश्लेषण इस कविता का कर गयी ...उन्होंने स्त्री की चिंता की,कमोबेश बदलते हालात मैं भी स्त्री की हालत वही है जहा से हमने उसे देखना शुरू किया ...बहुत अछाये लगा की डा. अलका सिंह का ये विश्लेषण एक स्त्री की तरह सोचा हुआ नहीं था ..वे अपना विचार इसमे कही नहीं लिखती ,वे कविता के दायरे मैं रह कर ,सीद्धे सीधे कविता के अर्थो को परिभासित करती है ,इससे उनकी व्याख्या बहुत ही विश्लेष्णात्मक और समझने की प्रक्रिया के एक बिंदु को हमारे साथ करने मैं वे सफल हो जाती है ,और बहुत मुश्किल होजाता है उनसे इतर कुछ सोचना ,लगता है की ये विश्लेषण इस कविता को संतुष्ट कर गया ,अब कोई अन्य विश्लेषण लिखना आवश्यक नहीं ,इसके लिए मैं डा.अलका सिंह की बहुत तारीफ़ करता हूँ ,और मेरे मन मैं जो पूर्व से उनके लिए ,उनकी रचनाओ को लेकर जो सम्मान है वो यथावत रहता है ,उनकी भाषा भी बहुत संयत है ,सुनियोजित है परिष्कृत है ...शायद इसलिए उनसे मेरी शिकायत भी प्रारंभ होती है ..क्युकी शिकायत भी उनसे की जाती है जो अपेक्षाएं जगाने मैं सक्षम हो ,उन्होंने कविता का समय की विषमताओ और स्त्री जीवन की विसंगतियों और परिवारिक स्तर पर पुरुष द्वारा स्त्री से की जाने वाली अपेक्षाओ के सन्दर्भ तक ही अपना दायर सिमित किया ,उन्होंने पुरुष लिंग व् स्त्री लिंग के प्रेम शास्त्र के बारे मैं कोई टिपण्णी देना और काव्य की द्रष्टि से कविता की शेली व् काव्य शास्त्र के सन्दर्भ मैं ,पुरुष के अन्य स्त्री के प्रति आकर्षण व् स्त्री के वात्सल्य व् स्त्री-पुरुष के सेक्स संस्कार व् भारतीयता की द्रष्टि से भारत देश के पुरुष व् स्त्री संबंधो के इतिहास की द्रष्टि से इस कविता पर कोई विचार नहीं किया .....जहा इस विचार का मौका आया वे कुशलता से उस सन्दर्भ को टाल आगे बढ़ गयी ....अगर उन्होंने इन बिन्दुवो के परिप्रेक्ष्य मैं कुछ और कहा होता तो हम जान पाते की ये कविता ना तो कही मस्का लगाती है न ये कविता परिहास करती है व् न ये कविता अपने पारिवारिक जिम्मेदारी से बचती है ,न ये स्त्री को तुम कह कर उसे अलग अकेला छोडती है ,बल्कि ये कविता गहन प्रेम मैं डूबे उस पति के गान की तरह है जो इस आर्थिक युगमें परिवार के रूप मैं मिले श्रीफल की सच्ची वंदना के रूप मैं उभरती है ,जो पुरुष को सामंतशाही के युग से निकल सच्चे होने पर मजबूर करती है ,और अपने सेक्स संस्कारों मैं आये विकारों के अंधे कुवे मैं भी पत्नी की गूंज को सुरक्षित रख उसको सम्मानित करती हुई भी अपने पुरुष लोलुपता के संस्कारों से छुटकारा पाने की सच्ची कोशिस करने की इमानदार कोशिस के रूप मैं उभरती हुई जान पड़ती hai ..इसके अतिरिक्त काव्य मैं प्रयुक्त शब्द व् उनके संयोजन इस खूबी से किये गए है की आपको ये अपनी कविता लगती है ...चाहे इसे पुरुष पढ़े ,चाहे स्त्री ,ये दोनों लिंगो को अपनी कविता लगती है ,कमाल है ये इस कविता का ..क्युकी अक्सर, बल्कि बहुधा -ये देखा गया है की लिंग विशेष द्वारा लिखी गयी कविता किसी एक लिंग को ही अपना बयां लगती है दूसरा पक्ष कटघरे मैं खड़ा दीखता है मगर इस कविता मैं या तो दोनों कटघरे मैं है या दोनों का सच्चा दर्द ध्वनित होता है ....कविता की और भी खूबिया है जो इसे कविता बनाती है और उन बयानों से इस कविता को मुक्त करती है जो इस कविता के सहारे किसी प्रकार का समाज शास्त्रीय विवेचन करने को मजबूर करे ....कविता अपनी गूंज देर तक छोड़ने मैं सक्षम है ..और इसकी सहजता उपयुक वातावरण बनाने मैं .....अन्य बातो का उलेख करने मैं मैं समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ क्युकी मैं कविता के बारे मैं वे सब कहने में अभी सिद्झ्हस्त नहीं हुआ हूँ जो ये समझा सके की ...नहीं कविता के बारे मैं यों विश्लेषण... कविता की शक्ति को ,उसके मिजाज़ को, उसके सलीके को ,उसके जायके को कम करता है ..खासकर जब हम उसकी समग्रता से इतर ,उसकी प्रतिध्वनी ,उसकी गूंज ,उसके अलोक के परिप्रेक्ष्य मैं न देख .. पड़ावों को ठहर ठहर कर विश्लेषित करे ..उसके लिए फिर हमें ये समझना होगा की कविता क्या है ...कविता पढने का सलीका क्या है ..कविता या कला के लिए किस प्रकार की सहृदयता की आवश्यकता है ..अभी इतना ही ....अरुण जी की कविता को समझते हुए व् डा.अलका सिंह जी की सच्चाई से भरी अत्यंत उपयोगी और निष्ठावान भावना का सम्मान करते हुए ......एक बार पुनः डा.अलका सिंह जी को धन्यवाद की उनके इस लेख के कारन मैने कविता को पुनः गले लगाया ......

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  7. सुन्दर और समझ-बूझ भरी विश्लेषणात्मक समीक्षा की है अलका जी ने !अपनी बात कहते हुए कविता उनके सामने से हटी नहीं ,यह एक और अच्छी बात रही ! अरुण जी को बडाई और अलका जी को साधुवाद इस् प्रस्तुति के लिए !

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  8. कविता का, कविता के पात्रों (पति-पत्नी) का साहसिक आलोचनात्मक सटीक विश्लेषण! अलकाजी का आलेख पठनीय है.. जहाँ तक अरुणजी की कविता का सम्बन्ध है.. कविता अपने आप में बोलती है. यह कविता स्वयमेव जीता जागता मेरे आपके समाज के अधिकतर परिवारों का चित्रण है, जिसे अलकाजी ने मुखर शब्दों में सहजता से, सरलता से और शालीनता से विवेचित किया है.. बहुत प्रभावशाली.. कविता भी, और लेख भी.. अरुणजी को, अलकाजी को बधाई और शुभकामनाएं.

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  9. arun ji ki kavita ko agar aise tarkik dhang se sochne wale critic mil jayen to arun ki kavitayen amar ho jayengi...vaqayi bahut achcha aur vishleshnatamak lekh hai.....arun ji ko aur aap ko dono ko badhai.


    sultan

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  10. आपकी यह विशद व्‍याख्‍यामूलक टिप्‍पणी प्रभावित करती है लेकिन मैं इसे स्‍त्री की बजाय पुरुष मन की कविता कहना पसंद करुंगा....दुर्लभ कविताएं हैं जो स्‍त्री पुरुष संबंधों के बीच पुरुष मन की बात करती हैं...स्‍त्री के मिस....

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  11. सर आपकी कविता " पत्नी के लिए " काफी रोचक लगी । ' कनस्तर ' और 'बिटिया की रिपोर्ट कार्ड बाँचने ' के बीच दुनियावी जिम्मेदारी को निभा रही औरत की अनकही पीड़ा और उसके प्रति पुरुष की सोच को बड़े ही सक्षम ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए आपको बधाई ।

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  12. आपकी यह समाजशास्त्रीय व्याख्या काफी रुचिकर है. मेरे विचार से कवि अरुण देव ने कविता लिखते समय या बाद में भी जिन पहलुओं पर विचार नहीं किया होगा, वे यहाँ उपस्थित हैं और पूरे तेज के साथ प्रकाशित हैं. आपकी इस टिपण्णी से में बहुत प्रभावित हुआ हूँ और इसी लिए कविता को 2 - 3 बार पढ़ने के लिए विवश हुआ हूँ.
    आपको धन्यवाद और आपके माध्यम से कवि अरुण देव को बधाई.
    - शून्य आकांक्षी

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  13. मेरे पाठक मन के लिये उपहार है आपकी ये व्याख्या....अरुण जी का लेखन तो अदभुत है.....बधाई....

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  14. वाकई बेमिसाल कविता है भाई अरुण देव बधाई और शुभकामनायें

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  15. बहुत ही अच्‍छा विश्‍लेषण है और एक कविता को अनेक संभव कोणों से खोलकर देखने की कोशिश है। सबसे बड़ी बात यह कि अत्‍यंत निरपेक्ष भाव से पूरी ईमानदारी के साथ लिखा गया है यह आलेख, जो आज की समीक्षा में दुर्लभ है। बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

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