Wednesday, November 30, 2011

एक और बहादुर शाह

एक और बहादुर शाह
गद्दी नशीन है और लिख रहा है देश की तकदीर
उधार में ली गयी कलम से
उस कलम की स्याही भी उधार की ही है
जो अर्थशास्त्र को नये तरीके से परिभाषित करती है
इस परिभाषा के सारे शब्द काले और सारे सफे चमकीले दीखते हैं
उस चमक के दीवाने लोग पढ नही पा रहे काले शब्दों को
क्योंकि इस बार इस बूढे बहादुर शाह के पीछे खडी हैं शक्तियां देश के भीतर भी और बाहर भी
और वो दे रहा है दस्तखतों का तोहफा कभी इसको कभी उसको
इस बार का बहादुर शाह दो गज़ ज़मीन के लिये गुहार नही करेगा
ना ही इधर - उधर देश के बाहर दफ्न होने पर आंसू बहायेगा
क्योंकि उसकी दाढी कई तिनको से भरी है जिसे वो सहेज़ के बान्धता है बार बार
ताकि लोग भटकते रहें कई गुफाओं में
अन्धेरी गलियों में
ठांव ठांव
और वो कलम चलाता रहे देश की गर्दन पर
और लिखता रहे देश की तकदीर हाथ मिला – मिला
...............................................अलका

2 comments:

  1. मारक शक्ति संपन्न है .. आपके शब्द ...

    ReplyDelete
  2. अलका जी शुक्रिया मुझे आपका ब्लाग मिल गया ।
    इस रचना मे जफर के आशय से आपने मौजूदा परिस्थितियो का सुन्दर भाव अन्कित किया है ।अच्छा लगा।

    ReplyDelete