स्त्री सीखचों मे जीती है
बरसों बरस एकांगी
इक मन , कई भाव
रिश्ते , आंसू और सैकड़ों प्रलाप
पर वो दुनिया कभी नहीं जीती
या कहें उसे जीने नहीं दिया जाता
बालात बांध दिया जाता है
इक नक़्शे में जहाँ की धुरि कह
हमेशा उसके अस्तित्व से सोख लिए जाते हैं
उसके सारे तत्त्व और बना दी जाती है वो समिधा
धीरे धीरे वो भूलती जाती है
अपनी गंध, अपने होने का अर्थ और अक्सर अपना नाम
और नाम से बुलाने पर चौंकती है
जैसे वो जानती ही नहीं अपना नाम
पर आज अदालत मे खड़ी वो स्त्री
कुम्भलाये चेहरे के साथ
आधे अधूरे मन से
खोज रही थी सालों पीछे छोड़ आयी
अपना नाम
अपने अस्तित्व की तलाश करती
औरतों के राह मे अदालतें
अक्सर ही रास्ता काट जाती हैं
तो कभी वो ही धकेल दी जाती हैं
अदालतों के दरवाजे
और कभी परिस्थितियां जाल बुन
बुला लाती हैं उनको अपने दरवाजे
पर हर बार वो उतनी ही अनजान होती हैं
इस अदालतों के जाल से
जैसे आज वो अनजान सी
बड़ा सा डर लिए
भटक रही थी इधर - उधर
निरीह सी
क्या जिरह चाबुक होती हैं
जो चलती है अक्सर
औरतों के कपड़ों पर , कभी मन पर और अक्सर
उनके चरित्र पर
जिसे संभालने मे उम्र गुजार देती हैं
मां , वो खुद और पिता भी
आज देखा उसे
हर प्रश्न पर मरते हुए
हकला कर बयान देते
सबकी नज़रों से बच
पल्लू सम्भालते
और आदालत के बाहर
जोर जोर से चिघाड़ते
... .................. अलका
बहुत सटीक अभिव्यक्त किया है आपने स्त्री को, धन्यवाद.
ReplyDeleteटिप्पणी से शब्दपुष्टिकरण हटा देवें इससे टिप्पणी देनें में असुविधा होती है. (विधि : लागइन-डैशबोर्ड-सेटिंग-कमेंट-वर्ड वेरीफिकेशन-नो)
ReplyDeleteबेहद मार्मिक मगर सशक्त अभिव्यक्ति।
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