'विमलेश त्रिपाठी' जिन्हें मैं एक कवि के रूप में ही जानती थी कल ठीक से उनकी प्रोफाइल देख रही थी तो जैसे अचानक DEPARTMENT OF ATOMIC ENERGY पर नज़र ठहर गयी. कविता और Atomic Energy? जैसे दो विपरीत दिशाओं के गुण और योग्यताएं. यह तो जैसे दो विधाएं हैं बिलकुल विपरीत. ऐसा आमतौर पर माना जाता रहा है देश के सबसे पुराने कालेजों मे से एक प्रेसीडेंसी कालेज के छात्र रहे विमलेश ये दो विपरीत मानी जाने वाली योग्यता साथ लेकर चलते हैं. सोचती हूँ ये कैसे होता होगा कि अपने आफिस में काम करते हुए मन से कविता करता हो और वो भी भावों में उतर कर इतनी गहरी और गंभीर कवितायेँ ? आश्चर्य होता ही है और मुझे भी हुआ
यहाँ मैं पहले ही साफ कर दूं कि इस आलेख में मैं विमलेश की कविताओं पर बारीक साहित्यिक टिपण्णी से अधिक एक समाजविज्ञानी के रूप में कविताओं से गुजर रही हूँ. हांलांकि अगर गंभीरता से देखा जाये तो दोनों तरह से कविता की विवेचना में बड़ा फर्क नहीं है किन्तु फ़िर भी समाजविज्ञान की दृष्टी का अपना भी एक रूख है और मैं यहाँ उस रूप से ही साक्षात् कर पा रही हूँ. विमलेश की पहली रचना जिसने मुझे इस बात के लिये मज्बूर किया कि मैं उसपर कुछ लिखूं वो थी '' मै सुबह तक जिन्दा था'' इस रचना ने मुझे ये समझ दी की एक समाज से जुडी कवितओं का महत्व कितना व्यापक है और एक कवि तब कितना सार्थक हो जाता है जब वो समाज और उसके साथ रू - ब- रू होता है.
विमलेश की रचना देखें -
''सुबह मैं जिन्दा था
इस सोच के साथ कि एक कविता लिखूंगा
दोपहर एक भरे पूरे घर में
मैं अकेला था और जिंदा
कुछ परेशान-हैरान शब्दों के साथ
मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
उसकी मां ने पहले उसे चुप कराया
फिर उसे पीटने लगी
और फिर उसके साथ खूब-खूब रोई
जैसे अक्सर इस गरीब देश की मां रोती है''
विमलेश को मैं इक अरसे से पढ़ रही हूँ और उनकी कविताओं से गुजरते हुए लगता है जैसे आप भावों के एक अर्थपूर्ण गहरे समन्दर से गुजर रहे हैं जो जितना ही शांत है उसके भीतर एक उतनी ही बड़ी हलचल है जिसकी तहों तक जाने की जरूरत समन्दर में जाने के बाद ही महसूस होती है और इसलिए मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ के विमलेश भाव के कवि हैं जो दिल की कलम से लिखते हैं. किन्तु भाव के साथ ही विमलेश की एक और विशेषता उनकी कविताओं में साथ साथ दिखती है वो है उनकी चेतना जो बराबर उनकी रचना धर्मिता को धार देती रहती है. इसीलिए जब विमलेश कहते हैं कि -
मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
तो महसूस होता है कि वो एक जागते हुए कवि हैं जो अपने आसपास के परिवेश से बेचैन होते हैं, उनको शब्द देते हैं और सबसे बड़ी बात कि वो उसे लोंगों के सामने उसी पीड़ा और परिवेश के साथ लाने की कोशिश करते हैं जैसाकि वो देखते हैं. यह कविता इसी कड़ी की कविता है. यह छद्म से परे एक इमानदार कोशिश है जो इस देश के कवि की आवश्यकता भी है और दायित्व भी. यह वास्तव में एक तरह क़ा ऐसा साहित्य है जो आपके काल खंड को आनेवाली पीढ़ियों के सामने उसके सामाजिक आर्थिक परिवेश को भी रखता है. इसीलिए इस समय में कविता लिखते हुए जो संवेदना होनी चाहिए वो विमलेश की इस कविता में बखूबी मिलती भी है. यहाँ बरबस धूमिल की इक पंक्ति याद आ गयी. धूमिल कहते हैं के
"एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।"
निश्चय ही 'मैं सुबह तक जिन्दा था' यह कहकर विमलेश इस कविता को सार्थक वक्तव्य बनाते हैं और जब यह कहते हैं कि
एक आम आदमी होने के नाते जो बचे-खुचे शब्द थे
मेरी स्मृतियों में
इतिहास की अंधी गली से जान बचाकर भाग निकले
उनके सहारे
फिर मैंने इस देश के सरकार के नाम
एक लंबा पत्र लिखा
उस पत्र में आंसू थे क्रोध था गालियां थीं
और सबसे अधिक जो था वह डर था
तब वो अपनी इस कविता में अपनी चेतना की उपरोक्त कड़ी को जोड़ते हैं तब वो धूमिल के एक और वक्तव्य को सार्थक करते हैं कि ''कविता भाष़ा में आदमी होने की तमीज है। '' कोइ भी पाठक विमलेश की इस कविता से उनकी भाषा और आदमी होने की तमीज़ पर प्रश्नचिंह नहीं लगा सकता.
विमलेश की एक खासियत और भी है जब वो कविताओं के लिए शब्दों के जाल बनाते हैं तो कभी कभी वो विशुद्ध देशज शब्दों को जैसे जीवित कर देते हैं उसके पूरे बिम्ब के साथ. उनकी इस काबिलियत के लिए आप उनकी ये रचना देख सकते हैं -
माटी की दियरी में रूई की बाती से
हर ताखे चौखट घर आंगन में
जब जगमग होती रोशनी
एक दिया जलती हम सब की आंखों में
एक दिया हृदय में
मन के गहन अंधेरे में भी एक दिया
एक दिया गाय के खूंटे पर
एक दिया चरनी के उपर
एक दिया चौबारे पर तुलसी के नीचे
मैंने इस कविता में प्रयोग किये गए कुछ शब्द अपने बचपन में अपने ननिहाल में सुने थे. इस कविता को पढ़ जैसे अपनी पूरी संस्कृति से गुजर रही हूँ. शायद हर वो पाठक इस मनःस्थिति से गुजरेगा जो इन शब्दों से जुड़ा होगा. माटी की दियरी, चरनी. ताखा ये सभी शब्द कम से कम शहर से तो लुप्त हो गए हैं और गाँव में भी बचे नहीं रहेंगे ये आने वाली संस्कृति कह रही है . तो उस दौर में ये कविता आनेवाली पीढ़ियों को ये बताएगी के चरनी क्या होती थी? और तब बच्चा पूछेगा क्यों होती थी ? और फ़िर सवाल करेगा कि अब ख़तम क्यों हो गयी ? इतना ही नहीं यह कविता हमारे पुराने घरों की बनावट रहनसहन को भी सामने लाने क़ा प्रयास करती है. यानि कह सकते हैं कि इक पूरा दृश्य सबके सामने रखती है और उसके महत्व को भी भी बताती है. बच्चा जान पायेगा ताखा , चरनी के माध्यम से पूरा ग्रामीण परिवेश और साथ ही वो अपने प्रश्नों के सहारे अपनी पूरी संस्कृति से गुजरेगा और एक दृश्य बनाएगा मन में. विमलेश कवि के इस दायित्व को जाने अनजाने निभा ही रहे हैं यह कविता और इस तरह की कविता की आनेवाले वक्त में शिद्दत से जरूरत होगी.
विमलेश शुद्ध कविता और उसके शिल्प और उसके गहरे भाव के लिहाज़ से भी बहुत ही परिपक्व कवितायेँ लाते हैं हमारे सामने उदहारण के लिए ये रचना देखें :
लिखता नहीं कुछ
कहता नहीं कुछ
तुम यदि एक सरल रेखा
तो ठीक उसके नीचे खींच देता
एक छोटी सरल रेखा
फिलहाल इसी तरह परिभाषित करता
तुमसे अपना संबंध
यह एक बहुत ही गहरे भाव से लिखी गयी एक परिपक्व रचना है. जो कवि के व्यक्तित्व से भी परिचय करती है और संबंधों को लेकर उसके नज़रिए को भी. और अब बात शब्दों के महीन धागे की जिसके साथ विमलेश महाकाव्य लिखेंगे -
शब्दों के महीन धागे हैं
हमारे संबंध
कई-कई शब्दों के रेशे-से गुंथे
साबुत खड़े हम
एक शब्द के ही भीतर
एक शब्द हूं मैं
एक शब्द हो तुम
और इस तरह साथ मिलकर
एक भाषा हैं हम
एक ऐसी भाषा
जिसमें एक दिन हमें
एक महाकाव्य लिखना है....
मैं यहाँ इस कविता की आलोचना से इतर विमलेश की इस कल्पना के विषय में सोच रही हूँ के '' एक महाकाव्य लिखना है '' कैसा होगा वो महाकाव्य ? शब्दों के महीन धागे वाले इस महाकाव्य में कैसे परिभाषित किया जायेगा संबंधों को ? जब वो कहते हैं के ''एक शब्द हो तुम और एक मैं और साथ मिलकर एक भाषा है '' तो विमलेश की इस भाषा क़ा विकास कैसा और किन - किन पड़ावों को छुएगा और छूते हुए गुजरेगा ? यह महाकाव्य भाषा के विकास के मायने कैसे तय करेगा ? उस तुम को किस तरह से परिभाषित करेगा? आने वाले दिनों में वो जिस महाकाव्य से हमारा परिचय कराएँगे उसमें समाज कैसा होगा ? किन किन कोनो से ले आजेंगे शब्दों के पुंज इस महीन रेशे से गुथे इस महाकाव्य को पूरा करने के लिए. यह कविता निश्चय ही एक बड़ा अर्थ लिए हुए है और उम्मीद भी. दरअसल ये विमलेश के लिए एक चुनौती है आनेवाले दिनों के लेखन के लिए और हम सबको इंतज़ार रहेगा के वो अपने लिए खुद खडी की गयी इस चुनौती से कैसे दो चार होते हैं.
वैसे सच कहा जाये तो मुझ जैसे पाठक के लिए बहुत रोचक होता है इक ऐसे कवि और उसकी रचनाओं से गुजरना जो शब्दों उसके भाव और समाज से जुड़े अपने सरोकारों को कविता के माध्यम से सार्थक करता है. उसकी कविता और उसके भाव सिर्फ सवागत भाव ना होकर वो उससे ऊपर उठ सामाजिक सरोकारों से भी पाठक को जोड़ती है. विमलेश की हर कविता में कहीं ना कहीं समाज से इक जुडाव साफ़ साफ़ दिखता है चाहे वो शब्दों के माध्यम से हो या सीधे हो. इसीलिए मेरे जैसे पाठक के लिए विमलेश की रचनाओं से गुजरना बहुत सुखद होता है क्योंकि वो बहुत से नए बिम्ब और ताजापन देते हैं अपनी कविताओं में - और अपने सामाजिक सरोकारों को स्वीकार करते हुए लिखते हैं लिखते हैं -
''महज़ लिखनी नहीं होती कविताये ''
.................................डॉ. अलका सिंह
Apne gaharayi se kavitaao ko atmsaat kiya hai.Badhai.
ReplyDeleteVimlesh sir ki kavitaye mai hamesha padhti hu par aaj inka visleshan padhna aur sukhad laga ! kyoki kavitaye hamesha anubhut ki jati hai aur unka srijan bhi anubhuti dwara hi hota hai to is dristikon se aapka sadharanikaran kavitao ke sath nirvises dhang se huaa hai ! Dhanyavaad itni sundar vyakhya padhvane hetu !!
ReplyDeleteकविताओं से गुजरते हुए किया गया आपका विश्लेषण अच्छा लगा..!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
अलका जी ने बहुत विस्तार से मेरी कुछ कविताओं के आदार पर लिखा है। वह उनका स्नेह है। मैं हृदय से आभारी हूं...
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