Thursday, November 17, 2011

सुशीला पुरी की थारू औरतें और एक नज़र मेरी

(मित्रो ! मैं बिहार के एक बहुत छोटे शहर छपरा में हूँ, यहां भी शहर में रहना कम ही हो पाता है दिन - रात भटकती रहती हूँ कभी इस ठांव तो कभी उस ठांव. यही कारण है कि कई मित्र नराज़ भी रहते हैं कि मैं उनसे बात नहीं करती. जब पटना में होती हूँ तो नेट सही रहता है और मैं बहुत आसानी से सबसे मुखातिब हो पाती हूँ. यहां जब भी फेसबुक् पर आती हूँ तो इस लालच में होती हूँ कि मेरे दिमाग को कुछ चारा मिल जाये तकि उर्जा बनी रहे और दिन भर की थकान मिट जाये.)


कल इसी क्रम में फेसबुक पर सुशीला पुरी की 'कथाक्रम' पत्रिका के अक्तूबर-दिसंबर 2011 के विशेषांक में प्रकाशित कविता --- ‘’थारू औरतें’’ ---- पढी. पढकर जैसे मैं ठहर गयी. थारुओं के विषय में मैने अपने अध्य्यन काल में खूब पढा था . जितना उनकी संस्कृती को जाना था उतना ही इतिहास में उनको पढा था. इसलिये इस कविता पर रुकना, रुककर उसपर सोचना, एक बार कविता पर ठहरना जैसे मेरे लिये जरूरी हो गया था. ऐसा इसलिये भी था क्योंकि कई आदिवासी समाजों के साथ रह्कर उनके साथ –साथ काम करने का लम्बा अनुभव था. जहां तक मैने आदिवासी समाजों को पढा और जाना था उन सबकी संस्कृति के तत्व लग्भग एक तरह के थे. यह कविता मेरी नज़र के सामने आज गोंड और कोरकू, कोल और बैगा आदिवासियों के साथ काम करने के मेरे अनुभव के कोई 7 साल बाद आयी है. इसीलिये यह कविता पढते ही मैं जैसे उस पूरे समाज के एक एक दृश्य मेरी आंखों के सामने आ गये,
सच कहूँ तो एक लम्बे अरसे बाद एक ऐसी कविता पढी है जिसने मुझे कई कित्तों में छेड़ दिया. मजबूर किया कि मैं विचरूं अपने इतिहास में, इतिहास में होने वाले युद्ध में, मजबूर किया कि युद्ध काल में औरत की स्थितियों पर भी सोचती चलूँ. साथ ही आदि वासी समाज उसके दर्द और उसकी संस्कृति के तुकडे भी बटोरूँ और आज की राजनीति क़ा शिकार हुई एक पूरी जाति पर भी बात करूँ. क्यों?
कल रात से इस कविता को पढ़कर मैं एक अजीब मानसिक स्थिति में हूँ. एक अजीब उलझन है मन में. मैं कविता को कई बार पढ चुकी हूँ. लग रहा है कि इस कविता से जैसे कोई लाइन गुम हो गयी है. रात बहुत देर तक सोचती रही इस कविता के बारे में. क्यों ? इन सभी सवालों पर विचार करने के पहले सुशीला पुरी की कविता - ‘’थारू औरतें’’-

वे थारू औरतें हैं
जो आती हैं हर साल
रोपती हैं धान
गाती हैं गीत भरी आँखों से
और खेतिहर हो पाने की उनकी आस
बंजर धरती सी
नहीं उगा पाती
दूब का एक तिनका तक

उनकी नियति में धँसी होती हैं
कुछ खानाबदोश पगडंडियाँ
कुछ ज़मीनें
जो छीन ली गईं उनसे
उन्हें भूख की सौगात देकर

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह

वे भटकती हैं इस गाँव से उस गाँव
अंजुरी भर जीवन
और अपने दुधमुहों को
पुरानी धोतियों से बांध
पीठ पर लादे

खुददी -चावलों से
वे बनाती हैं जांड (एक नशीला पेय )
और सुबह से रात तक
उसके बजबजाते खमीरी नशे में
उदास चिड़ियों सी खोजती हैं
अपना कुल -गोत्र
इस डाल से उस डाल

वे मन ही मन बुदबुदाती हैं
एक ऐसी प्रार्थना
जिसमें ईश्वर का कोई वजूद नही होता
वहाँ होती है
सियारों की हुक्का-हुआं
और ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।
-------- सुशीला पुरी

इस कविता को पढ्ते हुए कई बार मेरी नज़र बस एक ही पक्ति पर जैसे अटक जा रही थी ‘वे थारू औरतें हैं’ - इस एक पंक्ति के माध्यम से मैं पूरे ‘थारु’ इतिहास से गुजर भी रही थी और इस कविता को समझने की कोशिश भी कर रही थी. दरअसल कोई भी पाठक जब इस कविता की पहली पंक्त पढेगा रुक कर पूछेगा जरूर कि ये ‘’थारु औरत’’ का मतलब क्या होता है? और जरूर ठहरेगा ‘थारु’ शब्द पर ? और अगर उसे ये कह के संतुष्ट् किया जयेगा कि यह एक आदिवासी जाति है तो फिर सवाल करेगा कि क्या उनके समाज में उनकी औरतों का काम जगह – जगह घूम कर धान रोपना है ? क्या थारू औरत इसी के लिये जानी जाती है? और अगर परम्परागत रूप से उंका यही काम है तो कविता में उन औरतों का इतना दर्द क्यों बिखरा पडा है ? आखिर इस दर्द का करण क्या हो सकता है? क़्या महज़ धान रोपने का अनवरत श्र्म ? उससे उपजी पीडा या फिर कुछ और? क्योंकि जैसे ही कविता का पहला खण्ड आता है सवाल उठने शुरु हो जाते हैं. आप देखें –
वे थारू औरतें हैं
जो आती हैं हर साल
रोपती हैं धान
गाती हैं गीत भरी आँखों से
और खेतिहर हो पाने की उनकी आस
बंजर धरती सी
नहीं उगा पाती
दूब का एक तिनका तक

यहां कुछ भी कहने से पहले जरूरी है पहले जाने कि ‘थारु’ शब्द का मतलब क्या है? तो जवाब जहै कि थारू एक ऐसी जाति है जिसका अपना एक इतिहास है. एक ऐसा इतिहास जो इस जाति की औरतों से ही आरम्भ होता है और बताने की कोशिश करता है कि युद्ध की स्थितियां स्त्री के सामने कैसी कैसी चुनौतियां रखती हैं. इसलिये सबसे पहले थारू जाति के छोटे किंतु रोचक इतिहास को जानते हैं.
थारु जाति भारत के कुछ हिस्सों और नेपाल के पूरे तराई के क्षेत्र में बसी एक जनजाति है किंतु इनका इतिहास अन्य आदिम जातियों की तरह बहुत पुराना नही है. इनकी लोक कथाओं के अनुसार इनकी उत्पत्ति 16 वी शताब्दी में मुगलों के आने के बाद हुई है. इस सम्बन्ध में बडी रोचक कथा भी है कि 16 वीं शतब्दी में जब मुगल भारत में आये तो किसी मुगल बाद्शाह ने राजस्थान के एक राजपूत घराने की कन्या से शादी करने का प्रस्ताव भेजा क्योंकि वह उस कन्या से विवाह का इक्शुक था यह बात राजपूतों को प्सन्द नही आयी और वो युध के लिये कूच कर गये किंतु अपनी औरतों और बच्चों को अपने परिवार के विश्वास पात्र सेवकों की सुरक्शा में घने जंगलों में छिपा दिया. जब महिलओं ने सुना कि सब पुरुष मारे गये और वो नही लौटेंगे ऐसी स्थिति में महिलओं ने अपनी सुरक्शा में रह रहे सेवकों से ही विवाह कर लिया और नेपाल के घने जंगलों में रहने लगीं.
यही वज़ह है कि थारु समाज में वैचरिक रूप से स्त्रियों का एक अलग स्थान है और आज की बदलती स्थितियों से दो चार हो रही थारु औरत बार बार पीछे लौटकर अपने अभिमान वाले युग को याद कर बहुत सारे प्रश्न लेकर हमारे सामने लाती है इसीलिये यह कविता अपना विशद अर्थ लेकर हमरे सामने आती है जो थारु औरतों के साथ साथ इतिहास से लेकर कई और विषयों की अनेक गांठ गिरह खोलने को मजबूर करती है. हलांकि सुशीला ‘की इस कविता से पहली बार गुजरने पर लगता है कि सुशीला ’थारु औरतों’’ की वर्तमान स्थिति का एक सीधा शब्द चित्र खींच रही हैं. वह बता रही है कि आज की थारु औरत क्या है ? उसका दुख क्या है ? उस दुख से कैसे निपटती हैं. किंतु इस कविता को उसके इस सीमित अर्थ तक रखना इस कविता के साथ अन्याय करना होगा क्योंकि इस् कविता के गर्भ में इस दौर और उससे जुडे विषयों के गूढ अर्थ भी हैं इसलिये यह एक दुखद उपन्यास की तरह जैसे एक पूरी गाथा है उसके पूरे इतिहास और भूगोल के साथ सम्झने की जरूरत है.

यही करण है कि इस्की पहली ही लाइन ‘’वे थारू औरतें हैं’’ रुक कर सोचने की स्थिति पैदा करती है.
देखा जाये तो यह कविता जहां एक तरफ थरुओं के पूरे इतिहास के साथ थारु औरत को जानने के लिये बेचैन करती है ठीक वैसे ही उसके आगे की लाइने ‘’जो आती हैं ............................ गाती हैं गीत भरी आंखों से’’ आदिवासी समाजों में काम को लेकर टूट्ते मानदण्डों और उन मानदण्डों को तोडने की विवशता का भी खाका खींचती है साथ उसके टूट्ने से उपजती परिस्थितियों से गुजरती औरतों के दर्शन भी कराती है. (दरअसल आदिवासी समाजों में दूसरे के घरों में औरतों का काम करना या दूसरे के लिये कोई काम करना अच्छी बात नहीं मानी जाती, वो अपनी स्वतंत्रता से सम्झौता नहीं करते, जहां तक थारु समाज का प्रश्न है उनके समाज में महिलाओं के सम्मान का एक कारण् ये भी था कि कथित रूप से उनकी महिलायें बडी जाति की थीं और कभी उनकी माल्किन हुआ करती थीं ) देखा जाये तो बात इतनी सी भी नहीं बल्कि यह कविता की यह पंतियां उस दौर के बीत जाने की कहानी भी कहती है जब वह मल्किन के अभिमान के साथ अपने खेतों में धान बोती थीं (जैसा कि नेपाल की तराई धान की खेती के लिये जानी जाती है और आदिवासी समाज ‘जूम की खेती’ किया करता था’) धान और पूरे जंगल को अपना घर समझता था आज छिन गया है. किंतु जैसे ही कविता अपने अगले हिस्से में पहुंचती है –
उनकी नियति में धँसी होती हैं
कुछ खानाबदोश पगडंडियाँ
कुछ ज़मीनें
जो छीन ली गईं उनसे
उन्हें भूख की सौगात देकर

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह


एक कामगार औरत से अधिक एक पूरे पूरे आदिवासी समाज के दर्द, उस समाज की औरत का दर्द और उसकी सघन पीडा को जैसे आपके सामने बिछा देती है. ये पंतियां आदिवासी समजों और उसके बदलते चरित्र का भी एक रेखाचित्र आपके सामने रखती हैं और मजबूर करती हैं बहुत से आयामो पर एक साथ सोचने को. किंतु औरत की पीडा से अधिक कविता का यह पहला हिस्सा एक और चित्र बडी सघनता से हमारे सामने उभारता है वह है पर्यावरण का और घटते और कटते जंगलों का जो आदिवासी समाज की आज़िविका का सबसे बडा श्रोत था. आज दुनिया के लग्भग सभी आदिवासी समाज इस दिक्कत से गुजर रहे हैं और विकास के नाम पर होने वाला प्रकृति के इस् शोषण और इस शोष्ण के समर्थन में रोज रोज बन रहे कानून आदिवासियों को न केवल उनके घर बल्कि उनकी पूरी संस्कृति से दूर कर रहे हैं. इन सभी स्थितियों के साथ औरत की स्थिति और उसके दर्द से लिपटते हुए दूर कहीं जाकर बडे पैमाने पर आज की दुनिया की कई गिरह खोलती है हुई आगे बढती है. देखे -
वे भटकती हैं इस गाँव से उस गाँव
अंजुरी भर जीवन
और अपने दुधमुहों को
पुरानी धोतियों से बांध
पीठ पर लादे

खुददी -चावलों से
वे बनाती हैं जांड (एक नशीला पेय )
और सुबह से रात तक
उसके बजबजाते खमीरी नशे में
उदास चिड़ियों सी खोजती हैं
अपना कुल -गोत्र
इस डाल से उस डाल

उपर का पूरा हिस्सा इस बात का जैसे वक्तव्य है कि आज के दौर में जिन भी समजों को उनकी जडों से काटा जा रहा है उन समाजों की महिलायें इसी तरह भटकने के लिये मजबूर हैं. उदाहरण के रूप में आप नर्मदा बचाओ से लेकर वेदंता तक के तमाम उदाहरणों के चित्र आंखों में समेट सकते हैं. दूसरी बात जो कविता के मध्यम से सोचने के लिये मज्बूर करती है कि भारत और उसके पडोसी देशों के बीच भारत को किस तरह की भूमिका के निर्वहन की आवश्यकता है. आप देखें कैसे बांग्ला देश की सीमा पार से आये लोग भारत में भटक रहे हैं क्योंकि ही देश में जहां जनता को अर्थिक सुरक़्शा मुहैया नही है वो ना केवल खनबदोश हैं बल्कि असहाय भी और ऐसी स्थितियों के दुश्परिणामों का शिकार अक्सर महिलायें और बच्चे ही होते हैं. और इसिलिये थारु औरतें पीठ पर बच्चा ले काम की तलाश में इधर – उधर गांव – गांव भट्कने को मजबूर हैं. नीचे की पंक्तियां बरबस आकर्षित करती हैं इसलिये नहीं कि यहां कविता के ललित्य पर मुग्ध हुआ जाये बल्कि इसलिये कि यह हमारे पढे- लिखे लोगों की ऐसे आदिवासी समाजों की जीवन शैली, भाषा , संस्कृति से दूरी और अज्ञानता को प्रदर्शित करता है, यह यह भी दर्शाता है कि हम उनके बारे में कैसे सोचते हैं और कैसे उन्हें देखते हैं. यह बताता है कि हम उनके ईश्वर से परिचित नहीं हैं, उनकी पूजा शैली से भी अनभिज्ञ हैं. यही वज़ह है कि हम दूर खडे उनके जीवन के सबसे मत्वपूर्न पेय के लिये बज़बज़ाने से बेह्तर शब्द नहीं खोज पाते जबकि वो सारे पेय बज़बज़ाते हैं जो हमारे समाजों के लोग भी पीते हैं.

वे मन ही मन बुदबुदाती हैं
एक ऐसी प्रार्थना
जिसमें ईश्वर का कोई वजूद नही होता
वहाँ होती है
सियारों की हुक्का-हुआं
और ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।

दरअसल् आदिवासी समाजों में ईश्वर की वैसी कल्पन नहीं है जैसा हमारे समाजों में है. अधिकतर आदिवासियों के देवता कुछ इस तरह से हमारे सामने आते हैं जिनसे हमरा औपचारिक परिचय नहीं होता और ना ही हम उनकी प्रर्थना के तरीके से हमारा कोई परिचय होता है इसलिये उनकी प्रार्थना जो वो बुदबुदाती हैं हमारे पढ़े लिखे समाज के लिये बुदबुदाने जैसा होता है. अब बात करते हैं कविता के सबसे महत्वपूर्न हिस्से की जो औरत के इतने सारे दर्द का चरम है -

वहाँ पल पल छली जा रही
उनकी अस्मिता की चीखें होती हैं
साथ ही साथ
महुवाई गंध में लिपटे उनके पैरहन भी
जो रोज़ रोज़ नोचे जाते हैं
द्रोपदी के लाज की तरह

यह किसी भी समाज से अधिक इन परिस्थितियों से गुजर रही औरत का सबसे बडा दंश है. चाहे वो थारु औरत हो या छ्तीस गढ से आकर बेल्दारी का काम करने वाली बिलासपुरी औरत या फिर मनिपुर से आकर दिल्ली में पढ रही लड्कियां हो अपने कुल गोत्र से दूर जाने पर एक तरह से ये सज़ा औरत के लिये मुकर्र्र है जिसे आप हम सबको किसि न किसि रूप से गुजरना ही होता है. जहां तक थारु औरतों का सम्बन्ध है उसकी अस्मिता की चीख इसीलिये-

‘’ठिठुरती रातों के सन्नाटे
उनके सपनों की कराहों से
उड़ जाती है पास बहती नदी की नींद
और थरथराते हैं पहाड़...।‘’

कुल मिलाकर देखा जाये तो यह कविता आज के विकास, उससे जुडे प्रश्न, उस विकास की भेंट चढ रहे पर्यावरण, मनुष्य और खास कर औरतों और बच्चों पर प्रभाव को बहुत गम्भीरता से सामने लाती है. यह बताती है कि कैसे विकास के नाम पर भेंट चढ रही भूमि से एक पूरी संस्क्रिती अपने कुल गोत्र के साथ न केवल गायब हो रही है बल्कि अपनी अस्मिता के साथ रोज़ रोज़ हो रहे खिलवाड को सह रही है. और हम रोज़ विकास के नये प्रतिमान बना रहे हैं. नदियों, पहडों और तमाम जीव जंतुओं के साथ आदमी के वज़ूद के साथ खिलवाड कर रहे हैं.

सच कह जाये तो यह कविता सिर्फ थारु औरत की कराह के रूप में नहीं बल्कि दुनिया भर के आदिवासी समाजों के साथ हो रही क्रूरता , अत्यचार और उंके जीवन में आये ग्रण के लिये पढी जानी चहिये. इतना ही नही बल्कि इस कविता को दो देशों के राजनयिक् सम्बन्ध के बीच आदिवासी समाजों की समस्या को रखते हुए भी पढा जाना चाहिये. और यह सोचने के लिये पढा जाना चहिये कि हमारे विकास के क्या मानद्ण्ड् होने चाहिये.
मेरे जैसी पाठक के लिये इस पूरी कविता में सिर्फ एक बात की मांग करती है वो है थारू इतिहास का जिक्र का होना. हलांकि कविता उस जिक्र के बिना भी अपनी बात कहने में सक्षम है किंतु उसका थोडा सा जिक्र इस कविता को सिर्फ थारु समाज ही नही बल्कि अन्य समाजों पर कविता लिखने और पढ्ने वालों के भीतर एक रुचि जगाता ना केवल आदिवासी समाज और उसकी समस्या को समझने बल्कि अपने समाज से जोड के देखने और उनका भी इतिहास जानने को. फिर भी यह कविता पूरी तरह एक सफल कविता है
................ डा. अलका सिंह

4 comments:

  1. rongte khade ho gaye puri bat padhkar..aur inke bare me aur bhi janna chaheenge alkaji..aap ek bat ko sahi tarike se pesh karna bakhubi janti hai..bahut hi hraday sparshi..

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  2. कविता आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी अपने संविधान और सरकार के साथ अंतिम व्यक्ति तक 'भारत' की 'रीच' की पोल खोलती है, सम्पदा / संसाधनों के एक तरफ़ा ध्रुवीकरण की बदौलत हाशिये पर आदमी /औरत /मनुष्यमात्र की स्थिति ये है कि उनकी प्रार्थनाओं में हुक्का-हुआं करते सियार ही इकलौते तारणहार हैं .

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  3. ek privesh ko apni smpoornta ke sath ujagr krti ye kvita jitni mrmsprshi bn pdi hai utna hi prbhavshali aapka vishleshn .
    susheela ka smyk vyktitv hi vicharo ki th tk jata hai our jo bhi uske is roop se prichit hai vh is kvita ki ghrai ko bkhoobi smjh payega .
    aap dono hi apne utkrisht krititv ke liye prshnsa ki hkdar hai .
    bhut bhut bdhai is aasha ke sath ki aage bhi aisa hi kuchh jbrdst mnn krne ko milega .

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  4. वाकई, यह कविता थारू प्रदेश की जीवंत तस्वीर खिंचती है। इसकी बेहतरीन विवेचना के लिए अलका जी को बधाई।

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