Tuesday, November 15, 2011

एक दरवाजा खुलना जरूरी है बाप बेटी के बीच

( मित्रों, कुछ लिखने, बहुत से सवाल करने और उसका उत्तर खोजने से पहले अपने विषय में भी मैं पाठकों को बताना मेरा नैतिक दायित्व है और मै इसे जरूरी समझती हूँ. पेशे से मैं एक समाज विज्ञानी हूँ और आधुनिक इतिहास की छात्रा रही हूँ. लोग इस तरह कह सकते हैं के सहित्य और मेरा दूर – दूर तक कोई औपचारिक नाता नहीं है किंतु मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जहां सहित्य ही सहित्य था. अपने बचपन से जाने – माने कहानीकारों, कवियों और शायरों का ऐसा जमवडा घर में देखा कि कभी जाना ही नही कि साहित्य अलग से भी पढने की चीज़ होती है. इसलिये अनौपचारिक रूप से ही सही मैँ सहित्य की ऐसी छात्र रही कि जैसे सहित्य मेरी रगों में बैठ गया सो बैठ गया और उसी समझ और जीवन के अपने अनुभवों (व्यक्तिगत और सामाजिक) और अनुभूति के बल पर ही कलम उठाने की हिमाकत गाहे – बगाहे करती रहती हूं और आज भी कर रही हूँ.)
आज जो कुछ मैं लिखने जा रही हूँ उसका सन्दर्भ मेरी कविता ’पिता पुत्री के बीच एक रिश्ता है’’ पर आयी एक टिप्प्णी से है. यह टिप्प्णी मुरादाबाद के हिन्दू कालेज के एसोसियेट प्रोफेसर श्री धीरेन्द्र पी सिंह जी इस कविता पर हुई चर्चा के दौरान दाली थी. आप पाठ्क मेरी यह कविता मेरे ब्लाग पर देख सकते हैं आप सभी से अनुरोध है कि इस टिप्प्णी को पढने के बाद ही मेरे आलेख पर ध्यान दें. नीचे टिप्पणी है के -

‘’पिता के लिए उसकी संतान (चाहे वह बेटा हो या बेटी) उसकी प्रतिछवि होती है. पालन-पोषण के बीच ख़ुशी और नैराश्य के ऐसे अनेक क्षण आते हैं जब आपसी संवाद में कमी आ सकती है. उसे सुधारा जाता है और अनूठे रिश्ते की डोर दिनों-दिन मजबूत होती जाती है. इसमें कोई जटिल अनुबंध नहीं है. सब कुछ बहुत सरल और आत्मीय होता है. यहाँ कोई सवाल और कोई जवाब अनसुलझा और अबूझ नहीं होता. यह सम्बन्ध नदी या सागर की गहराई पा सकता है, पाता भी है किन्तु इसे पार करने का कोई प्रश्न ही नहीं ! इसे तो साथ साथ जीना होता है......उस वक़्त भी जबकि बेटी किसी विवाह उपरांत किसी और घर चली जाती है. बदलते वक़्त के बदलते पिता अथवा बदलती बेटी जैसे पिता और बेटी के बीच किसी अर्थहीन और लाचार सम्बन्ध की मै कल्पना नहीं कर पाता.
क्या कहूँ मै ? यह कविता सारे विषय का एक ऐसा चित्रण करती दिखती है जिसमे किसी दूषित सम्बन्ध की बू आती है ! एक तरफ गहन आत्मीय तो दूसरी ओर अत्यंत प्रदूषित भी’’ !
............ श्री धीरेन्द्र पी सिंह
एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दू कालेज
मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश


मैने पिता पर कई कवितायें लिखी हैं. मेरी कविताओं पर आम सहमति होगी ऐसा मैं कभी नही सोचती किंतु जिन लोगों तक मेरी बात पहुँचती है वो प्रतिक्रिया देते हैं कभी विरोध में कभी पूरे दिल से समर्थन में. पिता पर मेरी एक लम्बी कविता को जब मैने ‘कवियों की पृथ्वी’ पर पोस्ट की तो पहला ही कोमेंट युवा कवि नीलकमल का था कि ‘’ पिता ऐसा निर्मम नहीं हो सकता’’. क्यों? यह सवाल मेरे मन में बार - बार उठा किंतु तब मैनें यह पूछना मुनासिब नहीं समझा. उसका एक कारण था. सहित्य की दुनिया में आज तक जितनी भी रचनायें ‘पिता’ पर प्रकाश में आयी हैं उसमें पिता उसकी भूमिका, संतानों से उसके सम्बन्ध और उस भूमिका पर संतानो की प्रतिक्रिया या विचार पर बहुत गिनिचुनी ही कवितायें आयी हैं. ऐसा क्यों है ? यह अपने आप में एक अलग विशद और गहरा विषय है बात करने के लिये किंतु ’ पिता ऐसा निर्मम नहीं हो सकता’’ यह मेरे लिये सोचने वाला मुद्दा था क्योंकि हर रोज मै पिता की निर्ममता के किस्से अपने आस पास से लेकर अखबारों के पन्ने तक में टंका पाती हूँ इसलिये मुझे बार – बार लगता था कि इस पर बात तो करनी ही होगी. क्योंकि हर पल पिता – पुत्री के सम्बन्ध के बीच समाज के भीतर निर्ममता का भी एक रिश्ता साफ साफ मुझे दिखाई पडता है और मुझे लगता है कि शायद सबको यह दिखता भी है किंतु सब आंख मूद् कर उसे नज़रन्दाज करते हैं. या फिर ऐसा होता रहे वो यह चाहते हैं. मुझे दुख है कि यह रिश्ता बहुत कम लोगों को दीखता है और यह दुख तब और बडा हो जाता है जब अपने काल खण्ड का परिचय देने वाले लेखक कवियों की जमात की कलम भी कभी कुछ भी बोलने से और कभी साफ साफ बोलने से या तो बचती है या परहेज़ करती है.

बहर् हाल, मेरी कविता पर फेसबुक पर यह अकेली टिप्पणी थी जिसने मुझे अन्दर तक झिझोड दिया कि इस सम्बन्ध पर कुछ लिखा जाये. मुझे अचरज बिल्कुल भी नही होता ऐसी कोई टिप्पणी ,आने पर् किंतु अश्चर्य हुआ वो इसलिये क्योंकि यह् टिप्पणी एक कालेज के प्रोफेसर ने लिखी थी और वो भी उस क्षेत्र में रहने वाले जहाँ पिता – पुत्री सम्बन्धों की दस्तान पूरे देश को हिला देती है.जहाँ खाप पंचायतें होती हैं जो अक्सर हमरे देश के अखबारों में सुर्खियाँ बनाती हैं, जहां संतानों में अपने – अपने पिताओं पर इतना क्रोध होता है कि वो जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं. अभी कुछ ही साल पहले एक लड्की ने अपने माता पिता दोनो की हत्या कर दी थी. और ऐसे में एक एसोसियेट प्रोफेसर की यह टिप्पणी मुझे मजबूर करती है कि मैं अपनी कविता पर कई बार सोचू. मजबूर् करती है कि पुत्री होने के अर्थ को भी समझूं, और इन सबके साथ - साथ पिता होने के अर्थ को भी न केवल अकेले समझूँ बल्कि साथ साथ साझा करूँ. यह समझना इसलिये भी जरूरी है कि अगर समाज के सभी दोष, नकारत्मक तत्व और सारे विकार पित्रिसत्तात्मक व्यवस्था के नाम है तो आखिर पिता उस नकरात्मक प्रभाव से मुक्त कैसे हो सकता है.? जबकि वह इसी समाज का जीव है. यह इसलिये भी जरूरी है क्योंकि पिता एक व्यक्ति भी है तो वह व्यक्तिगत भवनाओं उसमें लिपटे भावों और अभिव्यक्तियों से मुक्त कैसे हो सकता है? वह हमारा जन्मदाता है उस कारण उसके हमारे बीच एक सश्क्त भवनात्मक ताना भी होता है इसलिये पिता के चरित्र को समझना बेहद जरूरी है.





पिता कौन है ? पिता और परिवार का सम्बन्ध क्या है? पिता और परम्परा का सम्बन्ध क्या है और कैसे है? समाज और स्त्री का रिश्ता क्या है? समाज में पुत्री का चरित्र कैसे परिभषित है? और अंत में कि समाज पिता पुत्री के सम्बन्ध के बीच भी क्या कहीं है ? अगर है तो उसकी भूमिका क्या है ? ये कुछ मूल सवाल हैं जो उठाये जाने चहिये. पर जिन लोगों ने आज तक इन सवालों को कभी भी उठाया है उसे एक खास कोने में खडा कर दिया गया है और उंपर ठप्पा लग दिया गया है महिलावादी होने का. ऐसे सवाल जब पुरुषों ने भी उठाये वो भी महिला वादी ही कहलाये. क्या ये सवाल एक बेह्तर समाज बनाने के लिये नही उठाये जाने चहिये? क़्या सामाज में आज जो पिता की भूमिका है वह पूरे तौर पर एक आदर्श पिता की भूमिका है ? ( मैं ये सवाल बिना पुत्र – पुत्री का भेद किये पिता की भूमिका के सन्दर्भ में पूछ रही हूँ. और चाहती हूँ कि पाठक बिना व्यक्तिगत हुए इन सवालोन से गुजरें और उनपर् बात करें) मुझे लगता है पिता की भूमिका पर थोडा ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है.

दरअसल एक व्यक्ति जब पिता बनता है तो वह दो अवस्थाओं से गुजरता है
1. एक व्यक्ति की
2. एक चरित्र की
व्यक्ति के रूप में वह अपनी संतान से ना केवल जुडा होता है बल्कि उसके अन्दर भव्नाओं का एक पुंज होता है और वो उससे ओत – प्रोत होता है किंतु जैसे ही वह चरित्र में प्रवेश करता है एक पूरी की पूरी व्यवस्था जीता है. इसी स्वरूप में वह परिवार का मुखिया होता है, इसी चरित्र के साथ वह परिवार में लोगों का व्यव्हार निर्धारित् करता है, वह समाज का सम्मानित सदस्य होता है.और सम्मान पाता है. यह सारा कार्य व्यापार तब तक ही चलता है जब तक घर की महिलायें खास्कर पुत्रियां घर ने जो नियम निर्धारित किये हैं उसके हिसाब से चलती हैं. घर के मुखिया को यह समाज ने सम्झया होता है कि यदि घर की स्त्री ने समाज के नियम से अलग चलने की कोशिश की वैसे ही सारे नियम कायदे ध्वस्त हो सकते हैं. यह डर पिता के चरित्र में कुछ इस कदर बैठा होता है कि वह अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये पहले तो घर के अन्दर ही वो सब करने के लिये तैयार रहता है जो कभी कभी अम्आंवीय भी होता है और गैरकानूनी भी. देखा जाये तो व्यक्ति समाज और उसके विचार में इतना गुथ जाता है कि उसे अपने किये में कभी कुछ गलत नहीं लगता और ना ही दिखता है. ऐसा इस्लिये भी है कि वह कई सारे भ्रम के बीच बान्ध दिया गया होता है जिसे वह पूरा तोद पाने में असमर्थ होता है. अक्सर घर की महिलयें पुरुश के इस नियम , भ्रम और बहुत सी मज्बूरियोन का शिकार होती हैं. इसीलिये मर्क्स कहता है “ औरत अंतिम उपनिवेश है.’’ औरत के इस उपनिवेश बनने का सबसे बडा करण है दुनिया भर की औरतों का अर्थिक रूप से पिता, पति और पुत्र पर अश्रित होना. आज भी दुनिया की ज्यादातर महिलायें इसी अर्थिक स्थिति में जीती हैं किंतु पिता के साथ पुत्री की एक खास अवस्था होती है. और धीरेन्द्र पी सिंह और बहुत से पिताओं का भ्रम यहीं से शुरु होता है. क्योंकि वो पिता के व्यक्ति रूप और चरित्र रूप को सीधे सीधे विभाजित नहीं कर पाते. यहां मैं कुछ उदाहरण से बात आगे बढाना चाहूंगी.
1. अभी 2 -3 दिन पहले मैनें स्वप्निल जैन की वाल पर एक कविता देखी थी-
‘’उम्रभर लिखता रहा वह
प्रेम-पत्र व प्रेम-कविताएँ,

बेटी ने क़लम उठाई तो
घर में बवाल हो गया ‘’



2. ‘’‘पापा’ और मैं. एक अज़ीब रिश्ता है हमारा. सच कहूँ तो दुनिया में मै माँ के बाद किसी से सबसे अधिक प्यार करती हूँ तो वो हैं पापा. पर हमारे रिश्ते के जैसे दो हिस्से हैं एक दिल के बहुत करीब तो दूसरा अघोषित युद्ध सा दिल से उतना ही दूर. सच कहूँ तो विचारों से हम बहुत दूर हैं
माँ के गुजरने के बाद मेरा और उनका रिश्ता और भी करीब हो गया. कोई ऐसा दिन नहीं होता जब हम आपस में घंटों बैठ अपना दुख दर्द ना बांटा हो. पापा ने अपने दुख, अपना अकेलापन, अपनी जिम्मेदरियों के बोझ का सारा दर्द अगर किसी से सबसे अधिक बांटा है तो वो मुझसे. उनके मजबूत कन्धों पर् मुझे आज भी जब वो 70 की उम्र पार कर चुके हैं, बहुत भरोसा है. वो जब भी बीमार पडते हैं मै 500 किलोमीटर दूर से भी उन तक एक दिन के भीतर पहुंच जाती हूँ. अपना बचपन याद करती हूँ तो बहुत कुछ याद आ जाता है. कितना कुछ गुजर जाता है आंख के साम्ने से. मुझे आज भी याद है कि अपने कन्धों पर बैठा कर दुनिया उन्होने ने ही दिखायी है. जीने के कई हर्फ सिखाये हैं. उसके अलावा भी बहुत कुछ है जहाँ मैं नि:शब्द हूं. कलम भी चुप ही रहना चहती है. किंतु दिल से इतने करीब होते हुए भी हम विचारों से बहुत दूर हैं. सामजिक मन्यतओं को लेकर मेरा और उनका 36 का आँकडा है. पहली कक्शा से लेकर उच्च शिक्शा पाने तक जैसे जैसे मैने चौखटे और दरवाज़े तोडने शुरु किये हमारे बीच खाई बढती चली गयी जो कई स्तरों पर आज भी है. उनको सालों पता ही नही चला कि मैं लिखती भी हूँ. अखबारों में छपने के बाद भी उन्होनें मुझे शायद् ही कभी पढा होगा.सबसे मजे की बात है कि मुझे भाषा की तमीज़, लिखने की तमीज़ और मंच पर चढ्कर बोलने की तमीज़ उन्होने ने ही सिखायी.’’
3. पिता कहता है ‘’बाबुल की दुआयें लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले.’’
4. वही पिता बेटी को नसीहत देता है – मैं पिता हूँ तुम्हरा कभी तुम्हारे लिये गलत नही सोचुंगा, यह लडकियों को शोभा नहीं देता,
उपर दिये गये 4 उदाहरण में पहला उदाहरण दो ऐसी तठ्स्थ आंखों का है जो स्थितियों को सही सही देख पा रहा है और जिसमें कहने का साहस है कि बेटी पिता के लिये क्या है और समाज बेटी और उसमें रिश्ता क्या है? वह यह भी कह पा रहा है कि पुत्र और पुत्री में भेद क्या है और यह भी कि पिता बनने की अवस्था क्य है और परिवार में बेटी की आज़ादी का आकाश क्या है.

दूसरा उदाहरण कुछ कहने की जगह नही देता वहां सब साफ है.
तीसरा उदाहरण पिता के चरित्र, समाज और् पुत्री तीनो की कहनी कहता है

और चौथा भी साफ है.


तो कितना जटिल है ना पिता का रूप? यह रूप मैनें अपने साथ की लड्कियों अपने बाद की पीढी की लड्कियों और आज भी जब मैं लड्कियों के बीच काम करती हूँ उनके पिताओं को कभी कभी शत प्रतिशत और कभी कभी 90 प्रतिशत तक ठीक उसी रूप में पाती हूँ जैसे कि मेरे पिता का चरित्र था उनकी कहानी थी मेरे और मेरे पिता के रिश्ते की कहानी. जैसी ही दिखती है. कभी कभी मैं चौक कर खडी हो जाती हूँ और अचानक मुह से निकल जाता है कि मेरे पिता ऐसे नही थे. और मैं उनकी खूबियाँ गिनने लगती हूँ. इन खूबियों के बीच उनका एक चेहरा और उभरता है जो उस पिता का नही होता या फिर उस पिता के ठीक विप्रीत होता है जो अभी – अभी भाव्नाओं में गोते लगा रहा था. ऐसा नही है कि पुत्र के साथ पिता बहुत सहज़ है किंतु पुत्री के साथ जिन जतिलताओं से गुजरता है उसके कारण थोडे अलग हैं.

भारतीय समाज में पुत्री की स्थिति देखें - तो यह आज भी ग्रमीण समज में बची – खुची परम्पराओं में से एक है कि पिता बेटी की कमाई से अपने को ऐसे अलग रखाता है जैसे उसकी संतान की नही किसी अछूत की कमाई हो. वह बेटी के ससुराल का पानी भी नहीं पीता क्योंकि वह उसे दान कर चुका है. वह ससुराल में उसपर अन्याय होने पर भी चुप रहता है क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह चुप चाप अपनी मेहनत की कमाई दामाद के परिवार को देने के लिये विवश है क्योंकि वह बेटी का पिता है. यह सिल सिला यहीन खत्म नही होता.
वह बेटी की इच्छा के खिलाफ से आगे पदहने से रोकता है क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह उसे उसके मन का नहीं करने देता क्योंकि वह बेटी का पिता है. वह उसे चुप चाप उस व्यक्ति से वइवाह करने के लिये विवश करता है क्योंकि यह ही होना सही है. क्या एक पिता इन सारी परिस्थितियों से नही गुजरता? या वह कुछ कम कुछ ज्यदा ऐसा नही करता? मुझे लगता है कि बहुत कम पिता होंगे जो 100 प्रतिशत इससे अलग होगे.

किंतु वह पिता आपका जन्म्दाता है इसलिये वह कई बार मनवीय सम्वेदनओं के बशीभूत यह सब नही करना चहता. कई पिता अपने चरित्र के ऐसे कई बन्धों को तोड्कर बेटी को एक खिड्की जरूर देते हैं और बेटियां उस जालिदार खिड्की से दुनिया देख बहुत खुश हो पिता पर वारी जाती हैं और पिता के पछ में खडी हो कई सकारत्मक दलील दे रही होती हैं

किंतु अब पुत्री का चरित्र देखें –

एक बेटी अपने पिता को बहुत प्यार करती है क्योंकि वह जाया है, वह पिता का बहुत खयाल रखती है क्योंकि वह जाया है, वह ऐसा बहुत कुछ करती है जो पिता के दिल को छू जाता है और वह संतानों में सबसे प्रिय और विश्वसनीय हो जाती है. वह अपने पिता के दुख से दुखी होती है, पिता की खुशी में सुख खोजती है, पिता का हर कहना मानती है किंतु वही बेटी बाहर की दुनिया में कोई फैसला पिता की इच्छा के अनुसार ही पढ्ती है, पहनती है, बाहर जाती है, कोई फैसला पिता से पूछे लेने से डरती है, उसकी मुहर के बिना एक पत्ता भी नही ख्ड्का पाती.

पिता की इच्छा के खिलाफ प्रेम करने पर खुद् पिता और भाईयों के हाथों कत्ल कर दी जाती है. क्या यह पुत्री के प्रति पिता का प्रेम है? एक बहुत बडा जवाब है नहीं. पुत्री के साथ यह क्रूरता पिता का चरित्र करता है, व्यक्ति और जन्म दाता नहीं. इसीलिये --

पिता और पुत्री का सम्बन्ध
वक्त की रेत पर
भावनाओं में उलझी
इक टेढ़ी मेढ़ी किताब है
इक जटिल अनुबंध
जिसपर अबोध दस्तखत के साथ
पढ़ते - पढ़ते
जवान हो जाती हैं बेटियां
और साफ और सीधी बात के लिये एक नये दरवाजे की जरूरत है जो दोनो को दोनो से सही मायने में मिलाये तब जहिर है तब बेटियों द्वारा लिखी जाने वाली कवितायें कुछ और शक्ल अख्तियार करेंगी.



..................................................................डा. अलका सिंह

4 comments:

  1. बहुत सूक्ष्म विश्लेशण किया आपने और सटीक भी!..
    मैंने इसे अपनी मनोदशा से परखा तो मुझे अपने विचारों के काफ़ी करीब लगा !
    वास्तव में ऐसा ही सोचता है एक बेटी का पिता..कहीं गहरे अंदर..
    भले ही उदारता का नक़ाब लगा ले समाज में विचरने वाले हिंस्र पशुओं से डरता भी और निर्भीक रहने की सलाह भी देता हुआ ...आभार

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  2. पिता और पुत्री के सम्बन्ध का बहुत सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है आपने और ये प्रश्न वाजिब भी हैं…………हर सम्बन्ध की मर्यादा तो होती ही है मगर समान दृष्टिकोण नही हो पाता तभी सम्बन्ध मे प्रश्न उठ खडे होते हैं जो सोचने को मजबूर करते हैं आपके विश्लेषण ने सोचने को मजबूर किया है देखें क्या निकल कर आता है।

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  3. अचानक मार्क्स और पिता कि विवसता पिता और पुत्री के स्नेहिल परन्तु सामाजिक पुरानी रस्मो के बिम्बो के सहारे एक ऐसा दर्शन प्रस्तुत किया जो मेरे अन्तर्मन काफ़ी देर तक हिला गया / आपको मेरी ओर से ध्न्यावाद

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  4. Read your post, your poem and the comment of Prof D. Singh also.... So what I want to say is, both of you are true in your thoughts i.e you and Prof D. Singh.... Look, Prof D Singh accepts that whether their wards are son or daughter both of 'em are images of their dads.... what he misses is that he forgets mentioning moms....so thing is actually sons and daughters are images of their parents....i.e if we accept the relationship goes like....dads see her mother in daughters, while to daughters her dad remain the most able person in the world, capable of taking all sorts of action for family welfare, to daughters their dads are their hero, and so she fall in love with her hero while sons love her mother more than he could any woman and that's why boys generally fall in love in their later age with girls, or seek to marry a girl that matches his mom's qualit ies.... I would here like to quote Taylor Swift's song.... "My daddy says I'm her Juliet" Yeah, if it is not so dads' didn't get jealous of their sweethearts or had fear of boys who follows their daughters....no daddy would like to lose her sweetheart to a boy or say to a man who only love her daughter for her looks!! There is nothing wrong in this relationship if we accept the relationship, them as true lovers!!

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