Friday, November 4, 2011

वह जैबुनिस्सा है,

१.
वह जैबुनिस्सा है,
जैसे देश से अलग
देश के संविधान से अलग
और देश में रह रही स्त्रियों की जात से भी अलग थलग
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है
लगता है वह
धर्म जीती है, कौम जीती है और अल्लाह जीती है
पर राष्ट्र नहीं जीती
वह जैबुनिस्सा है
घर जीती है , मर्यादा जीती है, शौहर जीती है और बच्चे भी
पर इस देश में कानून नहीं जीती
वह जैबुनिस्सा है
२.
कल जब निकल पडी थी कुछ और चुन के लाने
अपनी कलम के लिए
अचानक कुछ खटक गए क्षणों ने रोक लिया
उसके पास
दुप्पटे को जिस्म पर लपेट लपेट
उसकी आवाज़ अकेले पड़ गयी थी
कुछ नाशुक्रों से लड़ते लड़ते
के तभी दूसरे नाशुक्रों की टोली
खड़ी हो गयी उसे बचाने के नाम पर
मैं ठिठक गयी उसके हाथ को पकड़
दो किनार्रों की कट्टर दो टोलियाँ
उनका द्वन्द युद्ध
देखने लगे हम हाथ पकड़
अगर कभी देखा इधर
हमारी औरतों पर आंख उठाते आसान नहीं होगा आना
जैसे धमकी थी एक की दूसरे के लिए और
दूसरी भी उबल पडी धौकनी की तरह
और बोल गए संभाल के रखो उसे
कमीनी साल्ली निकल पड़ती है
जब - तब, इधर - उधर
बस तय हो गयी जैबुनिस्सा की रेखा

३.
ऐसा नहीं है के वो खूब सुरक्षित है
उन सबकी साये तले जो बचाने आये हैं उसे
वो वहां भी वैसे ही तोली जाती है जैसा आज उन नाशुक्रों ने तोला था उसे
वहां भी छुई जाती है उसकी देह
लालच् से भर
वहां भी नज़रें उसपर गिरती हैं घिनौनी ही
वहां भी लोंगों की आँखों मे नाखून ही नाखून हैं
वहां भी होते है खिलवाड़ उसकी अस्मिता से
वह सुरक्षित नहीं है
ना इस पार ना उस पार
जानती है वो
पर फिर भी वह मजबूर है रहने के लिए
उस पार
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है

4.
मौलवी की दहलीज़ पर खडी
जैबुनिस्सा
तलाक के कगार पर है
वज़ह नहीं जानती क्यों
गुनाह नहीं जानती क्या
पर तलाक के कगार पर खडी
तीन शब्द गिन रही है
तलाक तलाक तलाक
वह खुद अपनी वकील
एक फरियादी भी
कौन पूछता है उसे
ना देश, ना संविधान ना ही ...........
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है,
जैसे देश से अलग
देश के संविधान से अलग
और देश में रह रही स्त्रियों की जात से भी अलग थलग

5
अनपढ़ है जैबुनिस्सा
नहीं जानती कलम
अलिफ़ बे पे ते
नहीं जानती
अ आ इ ई
पर सवाल बहुत करती है
जवाब के लिए
सब चुप है
कौन देता है जवाब
क्योंकि वह जैबुनिस्सा है,
जैसे देश से अलग
देश के संविधान से अलग
और देश में रह रही स्त्रियों की जात से भी अलग थलग

.............................................................अलका

4 comments:

  1. बहुत खूब अलका जी आपकी जैबुनिस्सा ने मुझे आपका प्रसंसक बना दिया मैं आपको यकीं दिलाता हूँ की जैसे भी मुझसे पड़ सके और जितना भी मेरी हद में होगा जैबुनिस्सा जैसा दर्द किसी भी कारण से मुझसे आपकी जैबुनिस्सा को नहीं मिलेगा
    आपकी इस रचना के लिए आपको साधुवाद

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  2. बड़ी मार्मिक कविता है. ज़ेबुन्निसा के चरित्र की विशिष्टताओं को को बहुत सहानुभूतिपूर्वक उकेरा गाया है. अनपढ़ होना उसके समझदार होने की राह का रोड़ा नहीं बनता. वैसे भी पढ़ने-लिखने और दुनियावी समझदारी के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध होता भी नहीं. बधाई, अच्छी कविता से रू-बी-रू करने के लिए. ज़ेबुन्निसा याद रहेगी काफ़ी समय तक.

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  3. every woman on this earth irrespective of caste,creed,economic status is jebonissa in one sense or other.the only difference is some we see and we can not even recognise- but we are only responsible for this plight of woman because we always learn to surrender as daughter,sister,wife and mother
    i want to post in hindi but sorry

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  4. बेहद अच्छी कविता है, यह बात सही है कि हम स्त्री को पहले उसके धर्म और फिर जाति से जोड़ कर देखते हैं , बाद में उसके बारे में कुछ सोचते हैं, ये सोच समाज में इतने अन्दर तक पैठ गयी है कि स्त्री भी बचपन से दूसरी स्त्री को इसी तरह से आंकने लगती है, अच्छा ये मुस्लमान है, अच्छा ये पंडित है, ओह तो ये तो बनिया हैं, और अगर ये ऐसी हैं तो इनके ये गुण और ये अवगुण होंगे ही !

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