Tuesday, September 27, 2011

फिलहाल यह नोट

फिलहाल यह नोट : पिछले दो दिनों तक मेरे एक मित्र ने फेस बुक पर मेरी कविता " पांचाली और वैदेही संवाद' और 'ई जिनगी अकारथ हो गईल' पर लम्बी चर्चा चलाई थी. मुझे इस बात की ख़ुशी है के चर्चा न केवल लम्बी थी बल्कि कविता की बारीकियों से इतर महिला और उसके अस्तित्व पर चर्चा ठहर गयी. कुछ पाठक कविता के विषय के पक्ष मैं और कुछ विपक्ष मे खड़े थे. यहाँ यह समझाना आवश्यक है के कविता के पक्ष मे खड़े लोग जाहिर है उस संवेदना से जुड़े थे जो स्त्री को और उससे जुड़े सवालों को समझने और समझाने मे लगे हैं किन्तु एक बड़ा वर्ग आज भी वहीन खड़ा है जहाँ एक अबाध संवेदनहीनता का राज है. मैं ये नहीं कहती के वहां सिर्फ और सिर्फ पुरुष खड़े हैं वहां महिलाएं भी हैं किन्तु ये जरूर कहूँगी के वो महिलाएं परिवार मे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत बनाये गए पदानुक्रम और समाज मे गढ़े गएपरंपरा का हिस्सा हैं. बाहर हाल, यहाँ मैं अपनी कविता और उसपर आये कमेन्ट के कुछ अंश और सभी का सार आप सबके सामने रखने का प्रयास करती हूँ.

मेरी कविता जो पोस्ट की गयी थी -

1

पांचाली!!
सवालों के भंवर में तो मैं भी फंसी हूँ
दो युग बीत गए
प्रायश्चित की इच्छा भी है और एक खंजर भी
जो धंसा है ठीक मन के फाड़ में
पर तुमसे मैं भी सवाल करूँ क्या ?
पूछूं के भरी सभा मे अपनों के ही बीच
नग्न कर दी गयी तुम ?
पूछूं के
सारा पुरुषार्थ कहाँ मर गया था
जब बिलखती रही तुम ?
पूछूं के
एक साथ पांच पांच शौर्यों की क्या थी तुम ?
पूछूं के
तुम्हारे संकल्प को उसी सभा में क्यों नहीं पूरा कर पाए भीम
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
अर्जुन के बाण कैसे रहे शांत
तुम्हारी हृदय विदारक गुहार पर
यदि पत्नी थीं तुम ?
पूछूं के
कहाँ मर गया था धर्म राज का धर्म
तुम्हारी असहायता पर
बताओ
यदि पत्नी थीं तुम ?
कहाँ थे नकुल ?
और
कहाँ थे सहदेव?
और तात श्री उनकी तो आँखों का पानी ही मर गया था
चेतना सुप्त थी और भीष्म प्रतिज्ञा की चमक फीकी
कैसे वचन और कैसी मर्यादा मे बंधे थे
क्या धरती तब नहीं हिला सकते थे
जब हो रहा था इतना बड़ा अनाचार ?
क्या सभा में विरोध का भी साहस नहीं जुटा पाए
इस व्यभिचार पर ?
हे पांचाली!
मुझे भी चाहिए बहुत से सवालों के जवाब
उन सभी कथ्यों से इतर जो बचाते रहे हैं धर्म, राज और व्यवस्थाएं
उन छद्मों से अलग जो रचते हैं मार्यादा का जाल
क्या दे पाओगी जवाब?

2

कल ललमतिया की माई
बुखार में जलती
लाल लाल आंख लिये
कहंर रही थी
मैली कुचैली परदनी पहने
दरवाजे पर
मैने कहा रोज बोखार , बेमारी
और पांच पांच गो बच्चा और फेर ई पेट में?
उसकी बडी बडी आखें
दर्द से कराह उठीं
बोली -
बोटी है औरत के देह बोटी
आद मी के खतिर
का कहें ए मलकिन
रोज मजूरी करत, मांग मांग खात - पहिनत
अकेल्ले जीयत
ई जिनगी अकारथ हो गयील
मलकिन
ई जिनगी अकारथ हो गयील
( दोनों लम्बी कविता है अलका-सिंह .ब्लागस्पाट.कॉम पर देखें )

इस कविता को राघवेन्द्र अवस्थी द्वारा अपने वाल पर चर्चा के लिए शेयर किया गया था इस कविता पर जो कमेन्ट आये वो बेहद महत्वपूर्ण थे.

Alka Ji, dukh ki baat yah hai ki mahilaon ko purush se zyada mahilayein hi pratadit karati hain... santaan na ho to sabase zyada taane mahilaon se hi sunane padate hain kisi bhi stri ko aur atyachar bhi mahilayein hi karati hain ek dusare par...
(सुनील ठाकुर एक फेसबुक पाठक)

जब से मैं महिलाओं के विषय को लेकर संवेदनशील हुई तब से ही एक सवाल बार बार लोंगों ने मेरे सामने रखा जो यहाँ सुनील ने भी रखा के महिलाओं को पुरुषों से अधिक महिलाएं ही सताती हैं, ताना मरती हैं आदि आदि.
एक स्कूल छात्रा के रूप में ये सवाल शायद मैंने भी कई- कई बार उठाये थे कई - कई बार मंच पर बैठे विद्वानों के सामने सुनील की ही तरह इन स्थितियों को रखा भी था . अपने आस पास बहुत बार औरतों को ऐसी अभिव्यक्तियों से लड़ते देखा था. लगता भी था के महिलाओं को सबसे अधिक महिलाओं द्वारा ही सताया जाता है. लम्बे समय तक मैं भी इन विचारों की पक्षधर रही. इसलिए जब सुनील ने बहुत तीखे अंदाज मे अपनी बात रखी तो यह लगा के समाज का एक बड़ा वर्ग ठीक उसी तरह औरत और उसकी परेशनियों के दुश्चक्र को नहीं समझ पाता जैसे सुनील और खुद मैं लम्बे समय तक समझ पाने मे असमर्थ थी. इसलिए यहाँ बात पुरुष बनाम महिला न होकर सिर्फ मुद्दा समझने की है और ये भी के हमारा समाज कैसे बनता और शक्ल लेता है.

सबसे पहले मैं यहाँ यह कहना चाहूंगी के "महिलाओं के अधिकार मानवाधिकार हैं" इसे बस समझाने और समझाने की जरूरत. आखिर सुनील ने इस सवाल पर बल क्यों दिया के महिलाओं के अत्याचार में पुरुष का कोई हाथ नहीं और उसकी प्रताड़ना के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं.

यहाँ बात को समझाने के लिए मैं दूसरा कमेन्ट को रखना चाहूंगी जो संजय राय जी ने रखा वो कहते हैं -

हमने पुरे सम्मान के साथ जूझे रखा ...ये तुझे बुरा लगा ..तुमने आज़ादी मागी ...वह हमने खुसु खुसी दी ...अब तेरे लब आज़ाद है ....तेरे चोलियो के दस्त्बर तेरे ..तेरे उरोजो की गरमिया तेरी ..तेरा हुस्न तेरा ..ये कातिलाना अंदाज़ तेरा ......
मै तो आईना हू केवल बोलता हू ................ अपने समाज और उसकी संरचना की बात.
(संजय राय - एक पाठक फेसबुक पर )

संजय कहते हैं तुमने आज़ादी मांगी. उनका ये मनन इस बात का सबूत है के समाज परिवार और उससे संचालित सभी गति विधियाँ अंतिम रूप से पुरुष द्वारा ही संचालित होती हैं इसलिए वो अपने को मालिक समझा कह बैठता है के उसने आज़ादी दी जबकि वास्तव में आज़ादी देने का हक़ उसे भी नहीं यह आज़ादी या तो औरत खुद ले सकती है या फिर पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर पड़ने वाला दबाव और परिस्थितियों के कारण परिवार देगा.

पहले समझते हैं की परिवार क्या है ?
कई परिभाषाएं ये मानती हैं के परिवार समाज की पहली इकाई है जो मनुष्य की पहली पाठशाला है और जहाँ मनुष्य को पहली शिक्षा मिलाती है तो अब बहुत से लोग कहेंगे के माँ ही पहली गुरु है. बात भी बिलकुल सच है . तो समझाना होगा के ये पहली इकाई कहाँ से संचालित होती है और कैसे ? क्या यह पूरी तरह लोकतान्त्रिक इकाई है? या फिर इस पहली इकाई से ही हम दो मानसिकताओं और दो समाज के लोग बना दिए जाते हैं- स्त्री और पुरुष ? अब यहीं से पितृसत्ता और समाज में उसकी पकड़ को समझाना होगा.
सबसे पहले थोडा स्त्री पुरुष का जीवन समझ लें इतिहास में या यूं कहें मानवशास्त्र के माध्यम से समझा लें.
ऐसा इतिहास में दर्ज है के स्त्री पुरुष अपने जीवन के आरंभिक दौर में एक सामान जीवन व्यतीत करते थे (शिकार युग )
दोनों शिकार पर जाते थे. काम का ऐसा कोई बटवारा नहीं था जिससमे स्त्री पुरुष के विभाजन को स्पष्ट किया जा सके सिवाय anatomycal biological structure के. जैसे जैसे समय बीता स्त्री पुरुष दोनों ने तय किया के स्त्रियाँ (विशेष कर गर्भवती ) शिकार पर नहीं जाएँगी. ऐसा इसलिए था क्योंकि अब धीरे धीरे एक संरचनात्मक व्यवस्था का गठन हो रहा था और इसमे स्त्रियों को गर्भ कल में शिकार के खतरों से बचाने के उपाय को सर्वोपरी मना गया और यह दोनों की सहमती से हुआ. किन्तु स्त्री द्वारा इस स्वीकारोक्ति का विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी. सबसे रोचक ये है के इसी दौर में स्त्रियों ने कृषि की खोज की. अपने गर्भकाल के दौरान घर बैठने के समय ने स्त्रियों ने जंगलों को समझा और उन् बीजों की खोज की जो मनुष्य के उपयोग के थे और जिसे उपजा कर खाया जा सकता था. यहीं से स्त्री और पुरुष के जीवन दो धाराओं में विभाजित हो गए. कृषि में स्त्रियों के अभिनव प्रयोग ने एक नए युग को जन्म दिया और अब मानव जीवन कृषि और उसके अधिशेष पर चलने लगा. यहाँ जीवन शिकार युग से आराम दायक और सभ्यता के विकास के लिए समय देने वाला था. और यहीं से संगठित पारिवारिक संरचना का विकास हुआ. अपने आरंभिक दौर में परिवार इतने अलोकतांत्रिक नहीं थे किन्तु कालांतर में एक पूरी पूरी सोच विक्सित हुई जिसे हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहते हैं. इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का एक सबसे मजबूत अंग बाज़ार भी बना कालांतर में क्योंकि अब स्त्रियों ने अपने को घर चलने में लगा लिया था और पुरुष बाहर की दुनिया में व्यस्त हो गया.
अब जब पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिशा की गयी.
दूसरी तरफ पुरुषों को उसी समाज में व्यवस्था सञ्चालन का कार्य सौंपा गया.इसीलिए वो परिवार का मुखिया बना या फिर बनाया गया. उसके मन को भी इस बात के लिए तैयार किया गया के स्त्री पर नियंत्रण बनाये रखने से व्यवस्था में व्यवधान नहीं आयेगा. इस काम में उसकी मदद धर्म जैसी संस्थाओं ने खूब दिया.

अब बात रही के औरतें ही औरतों को सताती है की -परिवार एक व्यवस्था और एक सोच पर चलने वाली संस्था है और वह सोच है पितृसत्ता. इस सोच का हिस्सा अकेले पुरुष नहीं हैं इस सोच से महिलाओं का भी गहरा सम्बन्ध है. और यदि गौर से देखा जाये तो वही इस संस्था की संचालक और शक्ति हैं.
अब सवाल है के ऐसा क्यों है ?
जैसा मैंने ऊपर कहा के " पितृसत्ता ने एक तरफ स्त्री को धीरे धीरे घर के अंदर कैद कर बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया वहीँ उसके घरेलू श्रम का अवमूल्यन भी किया। दूसरी तरफ रोज रोज गढ़े जा रहे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों-मान्यताओं और संस्कारों को महिलाओं के अन्दर अवस्थित किया जाने लगा और उसके जरिये शोषण को एक सहज एवं स्वाभाविक मान्यता के रूप में मन-मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश की गयी"
यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं थी और दूसरी बात बिना महिलाओं के सहयोग के इस पूरी व्यवस्था को लागु करना बेहद मुश्किल था. इसलिए दुनिया के लगभग हर देश में ऐसे ऐसे साहित्य की रचना की गयी जिसे आदर्श बनाया जा सके और जिसके माध्यम से इन व्यवस्थाओं को लागू किया जा सके. इसी क्रम में भारत में पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ रचे गए

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