Sunday, September 4, 2011

हसरतें

जैसे जैसे मेरे लिए घर के दरवाजे और खिड़कियों पे ताला लगाना शुरू हुआ मेरे अन्दर रोज नयी - नयी हसरतें पैदा होने लगीं. इस हसरत को बढ़ाने का काम मेरा एकलौता दोस्त रेडिओ करता था. मुझे गायकों मे मुहम्मद रफ़ी बहुत पसंद थे और गायिकाओं मे गीता दत्त. मैं जैसे उनकी दीवानी थी. जब गीता दत्त का गाना आता 'एल्लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे काहे का झगडा बालम नयी - नयी प्रीत रे' मैं जैसे झूम जाती. कभी कभी महसूस करती जैसे मैं उसपर एक्ट कर रही हूँ और जब रफ़ी साहेब गाते तो मैं आँखें बंद करके उन्हें सुनती. जब हमारे घर मे रेदिओ नहि था तो मैन कान लगाये रहती जब पडॉसी के रेडिअअ पर उंनका गाना बजता तो. मेरी और उस मर्फी रेडिओ की दोस्ती कुछ इस कदर बढ़ गयी थी कि सोते जागते वो मेरे साथ रहता. इस दौरान एक नयी आदत मेरे अन्दर घर कर रही थी. अब मैं बहुत सी बातें अम्मा पापा से छुपाने लगी थी. डर लगता था कि अगर उंनसे कहा तो डांट पड़ेगी. अक्सर मैं अपने कपड़ों को काटपीट कार ऐसा सिलने की कोशिश करती जैसा के मैं पहनना चाहती थी. छुप छुप कर डायरी लिखती. चूल्हे मे कुछ ऐसा बनाने की कोशिश करती जैसा मैं खाना चाहती. सबसे ख़राब आदत जो इस समय बन रही थी वो थी चूल्हे पर चढ़ा कुछ भी हो उसे बिना उतारे चख लेने की. मेंरी ये सारी हरकतें आप्पत्ति जनक थी अम्मा और नानी की नज़रों मे. अम्मा कहती: चूल्हे पर चढ़ा खाना नहीं खाना चाहिए. चूल्हे पर चढ़ा खाना विष्णु भगवान् को भोग लगता रहता है. यह पाप है. मेरी समझ मे उसका ये शास्त्र नहीं आता था और मैं ये गलती बार बार कर देती थी. पर अम्मा की नज़र भी कम तगड़ी नहीं थी वो पकड़ ही लेती थी और धर देती थी दो चमाट.
इन दिनों मेरी जिंदगी मे अजीब -अजीब घटनाएँ भी घटने लगीं थीं और नए- नए अनुभव भी मेरी झोली मे आने लगे थे. पुरुष को मैंने पिता और भाई के रूप मे ही अब तक जाना था जो मुझे दुनिया से मुझे बचाता था (छिपता था). जो अगर कोई बुरी नज़र से मुझे देखने की कोशिश करे तो उसकी आँखे फोड़ने को उतारू हो जाता था. मैं कैसे उठूँ कैसे बैठूं या क्या पहनू इसके नियम बानाता था. मैं क्या देखूं ये भी उसके दायरे मे आता था. पुरुष को मैंने कुछ इसी रूप मे जाना और समझा था चाहे अपने लिए या फिर अपने आस -पास की दूसरी महिलाओं के सन्दर्भ मे भी. पर इस दौर मे मुझे पुरुष के और उसकी आँखों के साथ एक और अनुभूति होने लगी थी जो मुझे हर रोज रोम - रोम पुलकित भी करती और डर भी पैदा करती. ऐसी अनुभूति जिसे किसी के कहने से अनायास ही शर्म का अनुभव होने लगता था. मैं इस अहसास को किसी के साथ बांटना नहीं चाहती थी.
मैं आगरा के भगवती देवी जैन श्चूल मे ९ वीं के छटा थी मेरा घर मेरे स्कूल से काफी दूर था इसलिए मैं बस से स्कूल जाती थी. बस हमें पहली ट्रिप मे लेती थी इसलिए १० बजे के स्कूल के लिए भी हमें ७ बजे सुबह तैयार होकर खड़ा हो जाना पड़ता था. मैं हर रोज ७ बजे तैयार हो कर एक खास जगह पर खड़ी हो जाती थी. एक दिन मैंने देखा कि जहाँ मैं खड़ी होती हूँ उसके ऊपर की छत पर से कोई मुझे बराबर देखे जा रहा है. मैंने नज़र घुमा ली और सोचने लगी ये आदमी क्यों देख रहा है मुझे? थोरी देर मे बस आयी और मैं उसपर चढ़ कर चली गयी. दूसरे दिन मैंने देखा के वो दो आँखें लगातार मुझे घूर रही हैं. तीसरे दिन भी और फ़िर रोज़ रोज़. मन मे डर भी लगता पर कहीं न कहीं एक सुखद अनुभूति भी होती. अम्मा से कहूं ? और अन्दर से जवाब आता नहीं. एक और बड़ा परिवर्तन मेरे अन्दर आने लगा. मैं स्कूल जाने के लिए जब तैयार होती तो बहुत ध्यान देने लगी अपने पर. अम्मा अपने बिस्टर से मुझे बराबर घूरती रहतीं. उनकी दोनों ऑंखें डर पैदा करती थी मुझमे. पर मन था कि मानता नहीं था. एक दिन मेनन जब दो की जगह एक छोटी करके स्कूल जाने लगी तो अम्मा उबल पड़ी - बोलीं स्कूल जा रही हो या तफरी करने ? मैंने उनको टालते हुए जवाब दिया टाइम नहीं है न दो छोटी करने मे समय लगेगा और वो चुप हो गयीं. पर कहीं नकहीं वो मुझ पर शक कर बैठीं कि कोई न कोई बात तो है. आज सोचती हूँ माँ की निगाहें कितनी तेज होती हैं अपने बच्चों को लेकर. उन्होंने पापा से कुछ भी शेयर नहीं किया पर मुझपर नज़र रखने लगीं.
यह अनुभूति कुछ इतनी सुखद थी के मैं भी उन दो नज़रों का इंतज़ार करने लगी. स्कूल जाने से पहले एक बार उन आँखों को देखने की ख्वाहिश मन मे पैदा होने लगी. जिस दिन वो आँखे मुझे नज़र नहीं आतीं या चुप चाप पढ़ रही होतीं मुझे बहुत दुःख होता और गुस्सा भी आता. अब मैं अपने चेहरे के निखार, अपने बालों की सुन्दरता का खास ख्याल रखने लगी. हर रोज़ उबटन , तेल और नयी नयी तरकीब की जुगत मे लगी रहती जिससे मैं और सुन्दर दीखने लगूं.

No comments:

Post a Comment