Tuesday, October 18, 2011

वो माँ और मैं बेटी

वो जो लिखती थी
रोज मैं उसे पढ़ती थी
वो जो कहती थी
रोज मैं उसे सुनती
वो जो जीती थी
उसकी गवाह थी मैं
गवाह भी ऐसी की सब लिख लिया दिल पर
वो आंसुओं से लबरेज जमीन पर
कुछ उकेरती फिर मिटाती और फ़िर उकेरती
जैसे पूछती हो सवाल खुद ही लिखती हो जवाब
मैं उसे रोज निहारती
और वो मुझे निहारती
दर्द से लबरेज़ उसकी आँखें मुझ पर टिक जातीं
वो मुझे सहलाती
और मैं उसे
हमारा एक रिश्ता था
तन का भी मन का भी और अपने पन का भी
इसलिए
उसका सिसकना, रोना , फडफडाना
पस्त होकर कमरे मे बंद होना
हथेलियों मे मुंह दाब अपने आप को कोसना
सब मेरी आँखों में दर्ज है
उसकी चूड़ियों से मुझे खन्न की जगह
मन की आवाज़ आती थी
जो रोज रात टूटतीं
और हर सुबह लहू लुहान मिलतीं
हर सुबह दोनों जिन्दा हो जाते
एक दूसरे के साथ
वो मुझमे अपना कल देखती
और मैं उसमें
हमारा एक रिश्ता था
वो हर रोज बुनती
और हर रोज मैं गुनती
वो माँ और मैं बेटी
..............................................अलका

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