कल,
बौखलाई सी भाग रही थी
एक माँ
सडकों पर इधर- उधर
अपने ही जाये दो बेटों की तलाश में
और बुदबुदा रही थी मन ही मन
चल पड़े हैं दोनों
बाप के रस्ते
बरसों परेशां रही हूँ उस करमजले से
रोज रात का देर से आना
पूरी कमाई को शराब मे उड़ाना
घर के खाने की थाली फेंकना
और
बाहर दुकान पर छुछुआना
सारी उम्र यही आदत रही है
मुए की
पर आज ये दोनों भी बाप के रस्ते
निकल पड़े ?
अचानक ट्रक चालकों के झुण्ड में
दिख गए बेटे पर
लात घूंसों से टूट पडी
उस माँ का
स्वर तेज़ हो जाता है
उबल पड़ती है -
नहीं बनने दूँगी करम्कूटों शराबी- कबाबी
तुमको
ना हीं रहने दूँगी अनपढ़ गवांर
काट दूँगी ये जबान
जो लालच से लदे है
काट दूँगी ये हाँथ जो
ठेंगा दिखाते हैं
काट दूँगी ये पांव
जो बाप के रस्ते निकल पडे हैं
बाबू बहुत देह तोड़ी है
इन कमीनो को जनने मे
जाने कितनी बार
कितनो से और
कहाँ कहाँ लड़ी हूँ
कि ये संवर जाएँ
क्यों सिखाते हो इन्हें माँ के सपनों को
आँख दिखाना
क्यों बैठाते हो इन्हें जूठी गिलास के इंतज़ार मे
मेरे दोनों हाथ तुम्हारे पांव पड़ते हैं
लौटा दो इन्हें मेरी नाव पर
और टूट पड़ती है फ़िर वो उनको सवांरने
के लिए
अपने ही दोनों जायों पर
जो निकल पड़े हैं बाप के रस्ते
............................................ अलका
Tuesday, October 18, 2011
Monday, October 17, 2011
नए घर का जश्न
पच्चीस की उम्र के बाद
बद्ल लिया था मैने
घर
उनकी मनुहार पर जिन्होंने
जन्म दिया था, पाला था और लाडली
कहकर परायों के लिये सहेज़ कर रखा था मुझे
एक दिन बहुत दुलार से
करीब आकर कहा के
मेरे लिये अब जरूरी है
बदलना घर
क्योंकि यही है दस्तूर
मैने सब मान लिया एक कुलीन पिता और संस्कारी माँ के लिये जो याचक थे मेरे सामने
उस रोज
घर बदलना भी जश्न था सबके लिये
पर
घर बदलने के इस जश्न में कहां शामिल् थी मैं कहां शामिल थी मेरी अत्मा
अगर कुछ शामिल था तो
सुर्ख लिबास वाला अस्थि पंजर
और एक मरा हुआ मन
ये घर और वो घर
दोनों की जरूरतें
पिता की तरफ से
मुझे दान कर देने का
दृढ़ संकल्प
मैं ठीक उसी वक्त पिता की आखों की चमक देख बैठी
और गहरे विशाद में डूब
स्तब्ध सोच रही थी
जैसे जीवन का
एक अध्याय खत्म
किसको अह्सास था मेरी पीर का
अरे एक पत्ता भी कराहता है छू लेने भर से
मैं तो जडों से उखडी थी
और
चली आयी थी एक पीर ले
उस घर से इस घर
दस्तूर निभाने
अगला पिछला सब भूल के
चली आयी थी इस उम्मीद से
के
एक घर होगा
मैं हूंगी
कुछ सपने होंगे लाल गुलाबी नीले पीले
जहां कुछ रिश्तों की पग्डंडियां मेरी तरफ आयेंगी
सहेज कर रखेंगी कुछ हम चलेंगे और कुछ वो
और
रखेंगे एक नीव बद्लाव की
पर ये क्या? घिर गयी हुँ रिश्तों के जाल में
जो बदलने पर आमदा हैं मुझे ही रोज थोडा - थोडा
............................ अलका
बद्ल लिया था मैने
घर
उनकी मनुहार पर जिन्होंने
जन्म दिया था, पाला था और लाडली
कहकर परायों के लिये सहेज़ कर रखा था मुझे
एक दिन बहुत दुलार से
करीब आकर कहा के
मेरे लिये अब जरूरी है
बदलना घर
क्योंकि यही है दस्तूर
मैने सब मान लिया एक कुलीन पिता और संस्कारी माँ के लिये जो याचक थे मेरे सामने
उस रोज
घर बदलना भी जश्न था सबके लिये
पर
घर बदलने के इस जश्न में कहां शामिल् थी मैं कहां शामिल थी मेरी अत्मा
अगर कुछ शामिल था तो
सुर्ख लिबास वाला अस्थि पंजर
और एक मरा हुआ मन
ये घर और वो घर
दोनों की जरूरतें
पिता की तरफ से
मुझे दान कर देने का
दृढ़ संकल्प
मैं ठीक उसी वक्त पिता की आखों की चमक देख बैठी
और गहरे विशाद में डूब
स्तब्ध सोच रही थी
जैसे जीवन का
एक अध्याय खत्म
किसको अह्सास था मेरी पीर का
अरे एक पत्ता भी कराहता है छू लेने भर से
मैं तो जडों से उखडी थी
और
चली आयी थी एक पीर ले
उस घर से इस घर
दस्तूर निभाने
अगला पिछला सब भूल के
चली आयी थी इस उम्मीद से
के
एक घर होगा
मैं हूंगी
कुछ सपने होंगे लाल गुलाबी नीले पीले
जहां कुछ रिश्तों की पग्डंडियां मेरी तरफ आयेंगी
सहेज कर रखेंगी कुछ हम चलेंगे और कुछ वो
और
रखेंगे एक नीव बद्लाव की
पर ये क्या? घिर गयी हुँ रिश्तों के जाल में
जो बदलने पर आमदा हैं मुझे ही रोज थोडा - थोडा
............................ अलका
Sunday, October 16, 2011
औरत से कलम का नाता
सोचती हूँ,
औरत और कलम आखिर क्यों
दूर दूर चलते रहे सदियों तक
दो किनारों से
क्यों कलम के विषयों मे
औरत
केंद्र बिंदु रही है
और लिखती रही कलम
वो पूरा पुलिंदा
औरत पर, औरत के लिए, औरत का
और वो
पूरा का पूरा धर्म ग्रन्थ, नियम कायदे और एक रणनीति
जिसपर चलेगी औरत् अनवरत
सोचती हूँ
कलम का औरत से रिश्ता कितना पुराना है
पर औरत का कलम से ?
अजीब विडम्बना है औरत की
जब भी मांगती थी कलम
सोचती थी लिख दूं
अपना भी दर्शन
अपना विज्ञान
अपना इतिहास
मन के उदगार
रिश्ता , दर्द
और जीवन के
तमाम बिंदु
कलम दूर खडी
उनके हाथ में
मुस्कुराती रही
जो उसे टापू बनाते रहे
आज कलम जब औरत के हाथ में है
एक सन्नाटा है
जब लिखती है वो अपना इतिहास
विरोध के स्वर भी हैं
जब उकेरती है अपने दर्द
अब भी तनती हैं भृकुटियाँ
जब परम्पराओं पर कलम तोड़ती है
धर्मग्रंथों की समीक्षा पर
उखड जाता है समाज
दिशायें ठिठक जाती हैं शब्द शब्द सहस पर
आज
ऐसी है औरत की कलम
सोचती हूँ,
औरत से कलम का नाता
दिन पर दिन रंग लायेगा
वो रचेगी अपना इतिहास
लिखेगी प्रेम गीत
उकेरेगी अपने भाव
और जरूर पूछेगी
को क्यों नहीं दी गयी कलम
सदियों तक उसके हाथ
कहेगी
गर दी गयी होती तो
शायद
संसार और औरत का अभिलेख ही
कुछ अलग होता
...............................................................................अलका
औरत और कलम आखिर क्यों
दूर दूर चलते रहे सदियों तक
दो किनारों से
क्यों कलम के विषयों मे
औरत
केंद्र बिंदु रही है
और लिखती रही कलम
वो पूरा पुलिंदा
औरत पर, औरत के लिए, औरत का
और वो
पूरा का पूरा धर्म ग्रन्थ, नियम कायदे और एक रणनीति
जिसपर चलेगी औरत् अनवरत
सोचती हूँ
कलम का औरत से रिश्ता कितना पुराना है
पर औरत का कलम से ?
अजीब विडम्बना है औरत की
जब भी मांगती थी कलम
सोचती थी लिख दूं
अपना भी दर्शन
अपना विज्ञान
अपना इतिहास
मन के उदगार
रिश्ता , दर्द
और जीवन के
तमाम बिंदु
कलम दूर खडी
उनके हाथ में
मुस्कुराती रही
जो उसे टापू बनाते रहे
आज कलम जब औरत के हाथ में है
एक सन्नाटा है
जब लिखती है वो अपना इतिहास
विरोध के स्वर भी हैं
जब उकेरती है अपने दर्द
अब भी तनती हैं भृकुटियाँ
जब परम्पराओं पर कलम तोड़ती है
धर्मग्रंथों की समीक्षा पर
उखड जाता है समाज
दिशायें ठिठक जाती हैं शब्द शब्द सहस पर
आज
ऐसी है औरत की कलम
सोचती हूँ,
औरत से कलम का नाता
दिन पर दिन रंग लायेगा
वो रचेगी अपना इतिहास
लिखेगी प्रेम गीत
उकेरेगी अपने भाव
और जरूर पूछेगी
को क्यों नहीं दी गयी कलम
सदियों तक उसके हाथ
कहेगी
गर दी गयी होती तो
शायद
संसार और औरत का अभिलेख ही
कुछ अलग होता
...............................................................................अलका
Saturday, October 15, 2011
इतिहास की मुडेर
आज बीस बरस पीछे
अपने ही इतिहास की मुडेर पर खडी
अपने ही अतीत की झोली से एक एक पल
निकाल कर
गहरे मौन में खुद को खोजती रही
बीस बरस के नीले समुद्र सा मेरा इतिहास
खुद में मुझे समेटे
मेरे ही अन्दर बार बार झांकता
ऐसे निकल रहा था कुछ् जैसे
सीप से मोती निकलता हो कोई
आज अजब है मेरा मौन
जैसे गहरी तली में बैठा
भारी मन
जैसे नीरव जंगल
उसका आभास
इतिहास कुरेदता है
मौन पर जैसे एक कंकरी फेंकी हो
और सामने तैरती है
एक कथा
ये आज किसको देख लिया अपने इतिहास में
मेरी ही मुडेर पर जैसे फिर बोल गया कागा
बीस बरस पुराना
वही कागा
पर आज मैं चहकी नहीं
और इतिहास मेरी ही छत पे चढ़ मुझे देख रहा है
मेरे मौन और उसकी प्रतिक्रिया को पढ़ रहा है
बस अश्चर्य से कहता है
वाह !!!
....................................................अलका
अपने ही इतिहास की मुडेर पर खडी
अपने ही अतीत की झोली से एक एक पल
निकाल कर
गहरे मौन में खुद को खोजती रही
बीस बरस के नीले समुद्र सा मेरा इतिहास
खुद में मुझे समेटे
मेरे ही अन्दर बार बार झांकता
ऐसे निकल रहा था कुछ् जैसे
सीप से मोती निकलता हो कोई
आज अजब है मेरा मौन
जैसे गहरी तली में बैठा
भारी मन
जैसे नीरव जंगल
उसका आभास
इतिहास कुरेदता है
मौन पर जैसे एक कंकरी फेंकी हो
और सामने तैरती है
एक कथा
ये आज किसको देख लिया अपने इतिहास में
मेरी ही मुडेर पर जैसे फिर बोल गया कागा
बीस बरस पुराना
वही कागा
पर आज मैं चहकी नहीं
और इतिहास मेरी ही छत पे चढ़ मुझे देख रहा है
मेरे मौन और उसकी प्रतिक्रिया को पढ़ रहा है
बस अश्चर्य से कहता है
वाह !!!
....................................................अलका
Thursday, October 13, 2011
घर
घर !
एक पूरा का पूरा रण था
मेरे लिए
और घर के लोग दूसरे पाले में खड़े सिपाही
वो पहरुए थे
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
दूसरी ओर खड़ी मैं
अपनी चाह और इच्छा से
मजबूर, अडिग
हर रोज उनसे टकराने को तैयार
कभी तन के सवाल पर
कभी मन के सवाल पर
कभी कपड़ों पर
तो कभी अपने इरादों पर
फिर
कभी इस बात पर
कभी उस बात पर
जैसे तय था
टकराना हर रोज
अपने लिये
माँ !
पहली पहरेदार थी
जैसे एक दीवार
पर
कभी समझती सी
कभी समझाती सी
कभी लाल लाल आँखों से
धमकाती सी
कभी अपने ही बरसों पुराने सपनो को लेकर
खुद से लड़ती सहमी आंखे लिए
सामने खडी
दुविधा में हर पल जीती
चिंतित, व्यथित
कभी सख्त , बेहद सख्त
मेरे लिए
वही एक ताना थी जहाँ से
हर रोज तोड़ती थी
मैं वो एक् घेरा
कभी लड़कर
कभी अधिकार से
कभी चुपचाप उसे अनदेखा कर
मेरे लिये वही एक ताना थी
जहाँ नव जाती थी
अक्सर
खुद को उसकी जगह
रख कर
भाई दूसरे पहरुए
पिता सरीखे
इरादों में पक्के
सख्त बुलंद हौसलों के साथ
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
नए पहरेदार
जैसे सारा बोझ उनके कन्धों पर आन पड़ा हो
पर
फिर भी एक दुविधा
उनकी आँखों में हर पल तैरती
एक बड़े आकार का भय भी
शायद
पुरुषों की दुनिया का
जहाँ की हर आँख में
नाखून दिखते हैं
पैने और तीखे
उन नाखूनों से बचाने के लिए
रक्षा में खड़े
भाई
बिफर उठते थे
कभी इक्षाओं की उड़ान पर
कभी इरादों की दृढ़ता पर
और कभी मेरी चपलता
और ठिठोली पर
पिता !
जैसे किले की दीवार
चप्पे चप्पे पर नज़र रखने वाला
सबसे सजग पहरेदार
घर जैसे उसकी जागीर
और मैं उस घर की सबसे कमजोर कड़ी
बहनें उसके खूंटे की गाय
उसके सामने जैसे हिरनी
आपकी इक्षाएं क्या है
बेमतलब
आपके इरादे
बेमानी
और घर एक मंदिर
जो सुरक्षित है
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा को बनाये रखने से
पर
मैं हर रोज़ फांदती
उस किले की दीवार
हर रोज टकराती
उन गर्वीली आँखों से
अनंत इक्षाओं के साथ
कई बार सन्नाटे चीरते
क्रोधित शब्दों की अवहेलना कर
घर के बाकी सब चौकस
चौकीदार
मेरी गलतियों की तलाश में भटकते
इधर - उधर
ताकि परोस सकें कुछ ऐसा
जो पहरे लगा सके मुझ पर
उमर भर के,
घर में बसना आज भी
एक प्रण है
मेरे लिए
हर पल एक रण
पूरा का पूरा रण
................................................ अलका
एक पूरा का पूरा रण था
मेरे लिए
और घर के लोग दूसरे पाले में खड़े सिपाही
वो पहरुए थे
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
दूसरी ओर खड़ी मैं
अपनी चाह और इच्छा से
मजबूर, अडिग
हर रोज उनसे टकराने को तैयार
कभी तन के सवाल पर
कभी मन के सवाल पर
कभी कपड़ों पर
तो कभी अपने इरादों पर
फिर
कभी इस बात पर
कभी उस बात पर
जैसे तय था
टकराना हर रोज
अपने लिये
माँ !
पहली पहरेदार थी
जैसे एक दीवार
पर
कभी समझती सी
कभी समझाती सी
कभी लाल लाल आँखों से
धमकाती सी
कभी अपने ही बरसों पुराने सपनो को लेकर
खुद से लड़ती सहमी आंखे लिए
सामने खडी
दुविधा में हर पल जीती
चिंतित, व्यथित
कभी सख्त , बेहद सख्त
मेरे लिए
वही एक ताना थी जहाँ से
हर रोज तोड़ती थी
मैं वो एक् घेरा
कभी लड़कर
कभी अधिकार से
कभी चुपचाप उसे अनदेखा कर
मेरे लिये वही एक ताना थी
जहाँ नव जाती थी
अक्सर
खुद को उसकी जगह
रख कर
भाई दूसरे पहरुए
पिता सरीखे
इरादों में पक्के
सख्त बुलंद हौसलों के साथ
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा के
नए पहरेदार
जैसे सारा बोझ उनके कन्धों पर आन पड़ा हो
पर
फिर भी एक दुविधा
उनकी आँखों में हर पल तैरती
एक बड़े आकार का भय भी
शायद
पुरुषों की दुनिया का
जहाँ की हर आँख में
नाखून दिखते हैं
पैने और तीखे
उन नाखूनों से बचाने के लिए
रक्षा में खड़े
भाई
बिफर उठते थे
कभी इक्षाओं की उड़ान पर
कभी इरादों की दृढ़ता पर
और कभी मेरी चपलता
और ठिठोली पर
पिता !
जैसे किले की दीवार
चप्पे चप्पे पर नज़र रखने वाला
सबसे सजग पहरेदार
घर जैसे उसकी जागीर
और मैं उस घर की सबसे कमजोर कड़ी
बहनें उसके खूंटे की गाय
उसके सामने जैसे हिरनी
आपकी इक्षाएं क्या है
बेमतलब
आपके इरादे
बेमानी
और घर एक मंदिर
जो सुरक्षित है
परंपरा, संस्कृति और मर्यादा को बनाये रखने से
पर
मैं हर रोज़ फांदती
उस किले की दीवार
हर रोज टकराती
उन गर्वीली आँखों से
अनंत इक्षाओं के साथ
कई बार सन्नाटे चीरते
क्रोधित शब्दों की अवहेलना कर
घर के बाकी सब चौकस
चौकीदार
मेरी गलतियों की तलाश में भटकते
इधर - उधर
ताकि परोस सकें कुछ ऐसा
जो पहरे लगा सके मुझ पर
उमर भर के,
घर में बसना आज भी
एक प्रण है
मेरे लिए
हर पल एक रण
पूरा का पूरा रण
................................................ अलका
Tuesday, October 11, 2011
एक खिड़की
एक अधखुली खिड़की और उलझे बालों वाली वह
दोनों हर रोज
तेज तेज साँसों के साथ
जंग करती हैं
एक फोफड के पार की दुनिया से नाता जोड़ने को
अपनी खिड़की से कई बार देखती हूँ
एक बौराई सी आँख
उसमें अम्बार सी चाह
अलबेले सपने
फटे पुराने कपडे
तकरार और एक करारा थप्पड़
आंसू और मुरझाया हुआ एक बिस्तर
अगली सुबह
फिर वही चाह
फिर वही जंग
और बौराई सी आंख
अपनी खिड़की से देखती हूँ एक और खिड़की
एक पूरा दृश्य
रगीन लिबास में लिपटे मेहदी वाले हाथ
सिन्दूर
पायल और दो जोड़े ऑंखें
निहारती हैं जो खिड़की के पार
हुलसकर ताज़ी हवा के लिए
तभी अचानक बन्द हो जाती है खिड़की
खटाक
जैसे सिटकनी चढ़ा दे गयी हो
दो पहर बाद
खुल जाती है खिड़की चुप चाप
धीरे से
ताज़ी हवा और परिंदों से
नाता जोड़ने के लिए
एक खिड़की और देखती हूँ
जो बन्द है ज़माने से
सूरज को तरस गयी सी
जहाँ से बार बार आती है
एक भयानक आवाज़
जैसे मातम मानती सी
इन सबके बीच
एक घर खुला देखती हूँ
खिड़की दरवाज़ों के साथ
जिसमे बन्द है उम्मीद
एक दस्तक
सभी खिड़कियों तक पहुँचने की
.................................................................अलका
दोनों हर रोज
तेज तेज साँसों के साथ
जंग करती हैं
एक फोफड के पार की दुनिया से नाता जोड़ने को
अपनी खिड़की से कई बार देखती हूँ
एक बौराई सी आँख
उसमें अम्बार सी चाह
अलबेले सपने
फटे पुराने कपडे
तकरार और एक करारा थप्पड़
आंसू और मुरझाया हुआ एक बिस्तर
अगली सुबह
फिर वही चाह
फिर वही जंग
और बौराई सी आंख
अपनी खिड़की से देखती हूँ एक और खिड़की
एक पूरा दृश्य
रगीन लिबास में लिपटे मेहदी वाले हाथ
सिन्दूर
पायल और दो जोड़े ऑंखें
निहारती हैं जो खिड़की के पार
हुलसकर ताज़ी हवा के लिए
तभी अचानक बन्द हो जाती है खिड़की
खटाक
जैसे सिटकनी चढ़ा दे गयी हो
दो पहर बाद
खुल जाती है खिड़की चुप चाप
धीरे से
ताज़ी हवा और परिंदों से
नाता जोड़ने के लिए
एक खिड़की और देखती हूँ
जो बन्द है ज़माने से
सूरज को तरस गयी सी
जहाँ से बार बार आती है
एक भयानक आवाज़
जैसे मातम मानती सी
इन सबके बीच
एक घर खुला देखती हूँ
खिड़की दरवाज़ों के साथ
जिसमे बन्द है उम्मीद
एक दस्तक
सभी खिड़कियों तक पहुँचने की
.................................................................अलका
Monday, October 10, 2011
एक दुहस्वप्न
मैं देख रही हूँ
दो सभ्यताओं का द्वंद युद्ध
दो संस्कृतियों की टकराहट
दो धाराओं का जीवन
दो आचार
दो विचार
एक तरफ दिशाहीन किन्तु प्रगति
एक तरफ मृत्यु किन्तु अंतहीन
मैं देख रही हूँ
एक दुह्स्वप्न
एक अन्धकार
घुप्प अँधेरा
मन मे उपजते कई सवाल
किन्तु परिभाषा से परे
एक विकास
और उसके पीछे भागते लोग
मैं देख रही हूँ एक शहर
चकाचौंध
उसका फैलना
रफ़्तार
जश्न
लूट - खसोट
महंगाई
और मरते हुए बच्चे
बेबस ऑंखें
भूख से तड़पते लोग
और एक बड़ी सी लाचारी
मैं देख रही हूँ
मरता हुआ एक गाँव
एक पेड़
सिसकती हुई गाय
बागीचे
कठपुतली चौपाल
हर रोज खेतों का कटता अंग
लहलहाते खेतों पर रोज़ रोज़
नए प्रतिबन्ध
उसे छटपटाते, चिघारते और लाचारी से
नतमस्तक होते
खेतिहर से मजदूर बनते
चौराहे पर रोज खुद को बेचते
चूल्हा जलाने का इंतज़ार करते
थाली मे भोजन की आस मे बैठी ऑंखें
विकास की भेंट चढी
एक एक थाती
मैं देख रही हूँ
एक शहर
एक गाँव
अपना देश
दो जीवन
एक मरता
एक किलकता
एक लंगड़ा एक भगाता
एक कंगाल
एक मालामाल
मैं देख रही हूँ निःशब्द , मौन
इतना बड़ा व्यभिचार
दो नीतियाँ
एक देश
मैं देख रही हूँ
मैं देख रही हूँ
ऐसा ही कुछ हर पग
कितने ही रंग कितने ही बदरंग
पर
नहीं देख पायी खुशहाल कोना
किलकता बचपन
हर रोज बढ़ते पांव
एक प्रतिकार
मैं देख रही हूँ
एक मल्ल युद्ध
.......................................अलका
दो सभ्यताओं का द्वंद युद्ध
दो संस्कृतियों की टकराहट
दो धाराओं का जीवन
दो आचार
दो विचार
एक तरफ दिशाहीन किन्तु प्रगति
एक तरफ मृत्यु किन्तु अंतहीन
मैं देख रही हूँ
एक दुह्स्वप्न
एक अन्धकार
घुप्प अँधेरा
मन मे उपजते कई सवाल
किन्तु परिभाषा से परे
एक विकास
और उसके पीछे भागते लोग
मैं देख रही हूँ एक शहर
चकाचौंध
उसका फैलना
रफ़्तार
जश्न
लूट - खसोट
महंगाई
और मरते हुए बच्चे
बेबस ऑंखें
भूख से तड़पते लोग
और एक बड़ी सी लाचारी
मैं देख रही हूँ
मरता हुआ एक गाँव
एक पेड़
सिसकती हुई गाय
बागीचे
कठपुतली चौपाल
हर रोज खेतों का कटता अंग
लहलहाते खेतों पर रोज़ रोज़
नए प्रतिबन्ध
उसे छटपटाते, चिघारते और लाचारी से
नतमस्तक होते
खेतिहर से मजदूर बनते
चौराहे पर रोज खुद को बेचते
चूल्हा जलाने का इंतज़ार करते
थाली मे भोजन की आस मे बैठी ऑंखें
विकास की भेंट चढी
एक एक थाती
मैं देख रही हूँ
एक शहर
एक गाँव
अपना देश
दो जीवन
एक मरता
एक किलकता
एक लंगड़ा एक भगाता
एक कंगाल
एक मालामाल
मैं देख रही हूँ निःशब्द , मौन
इतना बड़ा व्यभिचार
दो नीतियाँ
एक देश
मैं देख रही हूँ
मैं देख रही हूँ
ऐसा ही कुछ हर पग
कितने ही रंग कितने ही बदरंग
पर
नहीं देख पायी खुशहाल कोना
किलकता बचपन
हर रोज बढ़ते पांव
एक प्रतिकार
मैं देख रही हूँ
एक मल्ल युद्ध
.......................................अलका
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