Friday, October 5, 2018

नासिरा शर्मा को सुनते हुए

नासिरा शर्मा को सुनते हुए ....................


जन संस्कृति मंच अक्सर तमाम मतभेदोँ ,बहस मुबाहिसोँ के बाद भी हमेँ एक बेहतर मानसिक खुराक देने का आयोजन कर ही देता है . 17/9/18 ऐसा ही एक मौका था जब हम उर्दू अदब मेँ बायीँ पसली यानि उर्दू साहित्य मेँ औरत पर चर्चा करने के लिये लखनऊ के निशात गंज स्थित कैफी आज़मी सभागार मेँ इकट्ठे हुए थे. यहाँ जुटना इस बात की सूचना थी कि अब सभी समाजोँ मेँ औरत सामूहिक रूप से अपने मुद्दोँ पर जुटकर सोच रही है और बता रही है कि बहुतेरी चुप्पियाँ या तो टूट चुकी हैँ या फिर वो तोडने की मुहिम मेँ है. यह भी कि वह अपनी चौखटोँ के पार भी दुनिया देख और समझ रही है

......लेकिन इस सेमिनार की मुख्य अतिथि ने अपने उद्बोधन मेँ स्त्री के सन्द्र्भोँ को जिस तरह रेखांकित किया वह हतप्रभ करने वाली बात थी . सच कहूँ तो उनकी बातोँ ने स्त्री , उसकी पहचान, उसके व्यक्ति होने की लडाई की इतने सालोँ की कवायद को कई मायनोँ मेँ सीधे सीधे कटघडे मेँ खडा कर दिया. मुझे उनकी बातोँ ने पूरी तरह कई स्तरोँ पर निराश किया. यह निराशा सिर्फ मुझे हुई या फिर औरोँ को भी ये मुझे पता नहीँ पर औरतोँ के साथ काम करते हुए जितना भी मैने सीखा समझा और जाना है उसमेँ नासिरा जी की बहुतेरी बातेँ फिट नहीँ बैठती या कहूँ कि कोई भी बात न तो जँचती है न गले से उतरती है. मै समझ नहीँ पा रही कि उम्र के इस पडाव पर आकर नासिरा शर्मा इस तरह एक स्त्री के रूप मेँ अपनी हार व्यक्त कर रही थीँ , विवशता व्यक्त कर रहीँ थीँ या फिर उनके तजुर्बोँ ने उन्हेँ य्ह बताया कि स्त्री जैसी है उसे उससे निकलने की जरूरत नहीँ? या फिर बात भारत जैसे देश मेँ अल्प्संख्यक समाज की स्त्री को रेखांकित कर गयी ??? बहर हाल, उनकी बात का जो भी मतलब रहा हो लेकिन नयी स्त्री, नये स्त्री विमर्श और नयी चेतना वाली जेनेरेशन की व्याख्याओँ मेँ उनकी बात आलोचनाओँ के घेरे मेँ अधिक और ग्रहणीय कम ही लगती रही . क्योँकि वह बार बार नयी स्त्री , उसके लेखन , उसके काम और स्त्री विमर्श की अगुआ स्त्रियोँ को कटघरे मेँ खडा करती रही थीँ.

मुझे लगता है नासिरा जी के वक्तव्योँ पर आने से पहले कुछ अपनी बातेँ भी रखती चलूँ ताकि भारत के अन्दर नयी स्त्री, उसका लेखन, उसके विचार को रेखांकित कर सकूँ . अपनी बात इसलिये भी कि उर्दू अदब , अल्प सँख्यक मुस्लिम समाज , उस समाज की स्त्री इन सब तक पहुँचना मेरे लिये एक समय तक टेढी खीर ही थी. स्वतंत्र भारत मेँ जन्मी मैँ ने बहुत बाद मेँ जाना कि भारत एक जटिल समाजोँ के सामुच्च्य से बना देश है. बहुत बाद मेँ ही मुझे यह भी पता चला कि इन जटिल समाजोँ के बीच एक बडी मानसिक दूरी भी है. इसलिये जब हम भारत मेँ स्त्रियोँ, उनकी स्वतंत्रता , की बात करते हैँ तो वो समाज, उसके नियम कानून और उन समाजोँ की विशेषता और धर्म अनायास ही इस पूरी बात चीत का हिस्सा ब्नन जाते हैँ . नासिरा जी की बातोँ मेँ मुझे धर्म और राजनीति दोनोँ के प्रभाव और दबाव दोनोँ साफ साफ नज़र आ रहा था. उनकी बातोँ मेँ मुझे अल्प्संख्यक समाज का गुस्सा, तेवर और अपनी अलग पह्चान बनाये रखने की जिद भी दीखी.
तमाम विश्लेषनोँ के बावजूद यह भी सच है कि अपने समाज, अपने समूह, वर्ग अपने इलाके मेँ, धर्म –जाति और अपने साहित्य मेँ औरत पर चर्चा करना दुनिया का सबसे पेचीदा और दुरूह काम है और जोखिम भरा भी. ऐसा इसलिये है क्योंकि औरत लम्बे समय से एक ऐसे जीवन की आदी रही है जिसमेँ उसके स्वतंत्र होने की चेतना कहीँ गुम थी. वह आमतौर पर एक बेहतर श्रमिक थी और आर्थिक रूप से पराश्रित भी और अब वह जब इसे तोडने की कवायद मेँ जुटी है तो अक्सर लोगोँ के सामने उसे और उसकी परिस्थितियोँ के बेहतर और सटीक रेखांकन का संकट खडा हो जाता है . पित्रिसत्तात्मक ढांचे मेँ पले बढे हम जाने अनजाने कई बारीक बातोँ को या तो समझ नहीँ पाते या फिर समझते हुए भी उसको रेखांकित नहीँ कर पाते. अब जबकि स्त्री पढ रही है ताकि वह अपने इंसान होने के अर्थ को न केवल जान सके बल्कि अपने अनुभवोँ के माध्यम से अप्नी परिस्थितियोँ का आंकलन कर सके . वह लिख रही है ताकि वह समाज मेँ अपनी स्थिति उसकी जटिलता को लोगोँ के सामने रख सके , लोगोँ को बता सके. वह अब बोल भी रही है ताकि वह अपनी सोच और वास्तविक स्थिति वह इन का सही खाका खाका खीँच सके.किंतु फिर भी उसके इर्द गिर्द कई संकट हैँ. वह इजन संकटोँ से जूझ रही है, ....इसी लिये जब मैँ जोखिम भरा कहती हूँ तो मेरे सामने स्त्री, उसके जीवन, उसकी खामोशी, उसकी आवाज़, उसके संघर्ष और उसके प्रतिकार के बहुत से चित्र उभर आते हैँ जो धर्म , समाज, जाति और समूह द्वारा कभी प्रतिबन्धित कभी बाधित तो कभी पूरी तरह नजरअन्दाज किये जाते रहे हैँ. लम्बे समय तक स्त्री ने या तो सवाल किये ही नहीँ और अगर किये भी तो उसे चुप करा दिया गया. इसलिये जब कलमकार जब उसके पक्ष को लेकर सामने आता है, उसकी बात लिखता है तो वह कई अर्थोँ मेँ महत्वपूर्ण हो जाता है.
. ... और जब मैँ चर्चा के इस सिलसिले मेँ दुरूह और पेचीदा शब्द का प्रयोग करती और कहती हूँ तो मुझे स्त्री और स्त्रीवादी दोनोँ की मुश्किलेँ भारत जैसे बहु जातिय , बहु वर्गीय और बहु धर्मीय समाज वाले देश मेँ साफ साफ नजर आती है. .....जब् यह चर्चा उस अल्प संख्यक कहे जाने वाले वर्ग के हवाले से हो तब तो यह पेचीदगियाँ संकरे सामाजिक राजनीति हलकोँ से गुजरते हुए कई और भी कठिनाइयाँ पैदा करती हैँ. दरअसल स्त्री पर चर्चा उस पूरी सामाजिक संरचना पर चर्चा है जिसमेँ स्त्री येन केन प्रकारेण जीती आयी है .........और किसी भी देश मेँ अल्प संख्यक समाज की स्त्री , उसके अधिकार पर चर्चा उस देश की सत्ता , सामाजिक आर्थिक सरोकारोँ और कई तरह की जटिल स्थितियोँ पर चर्चा बन जाती है. मुझे लगता है कम से कम भारत के सन्दर्भ मेँ बहुत कुछ ऐसा ही है.

मैँ यह बात अनायास नहीँ कर रही बल्कि इस सेमिनार की मुख्य अतिथि और अदब मेँ बाईँ पसली जैसे संकलन को लेकर आने वाली एक बडी लेखिका नासिरा शर्मा को सुनते हुए इस बात का आभास मुझे साफ साफ होता है. मुझे नासिरा जी के लेक्चर के कई पहलुओँ ने हतोत्साहित किया जिसमेँ स्त्री, उसके लेखन की आलोचना के साथ ..... नई राजनीति से उलझी उनकी टिप्पणियोँ ने जो सन्देश दिया वह अन्दर तक हिला देने के लिये काफी था.
सच कहूँ तो मैनेँ अपनी जेनेरेशन की अल्प संख्यक स्त्रियोँ की आवाज़ मेँ वह ताप सुनी थी जो मेरी आवाज़ से मेल खाती थी. मुझे उनमेँ वही छट्पटाहट दिखती थी जो कभी मेरे अन्दर भी उछाल मारती थी. उनकी हिम्मात अक्सर मुझे हौसला देती थी कि हम अकेले नहीँ .... सच ! मुझे मेरी वो तीन मुस्लिम दोस्त याद आ रही थीँ जो बात बात पर अपनी सामाजिक जकडन को , पढने के लिये अपनी जिद्दोजहद को बार बार बयान करती थीँ. वह अक्सर कहती थीँ कि ‘’ हमने कितनी चौखटेँ , खिडकियाँ और कितने ही दरवाजे तोडे हैँ यह दूसरे क्या जानेँ. अपनी जिद्दोजहद का बखान करते हुए कई बार बताती थीँ कि उनकी दिक्कतेँ क्या हैँ ,तब मुझे पता चला था कि वह भी उन्हीँ स्थितियोँ से लड रही हैँ जिससे हम सब गुजर रहे हैँ. उन्होँने ही मेरा परिचय उर्दू की कहानियोँ, उसमेँ महिलाओँ खासकर मुस्लिम महिलाओँ के किरदारोँ से कराया था. उन्होनेँ ही मुझे बहुतेरी लेखिकाओँ के नाम बताये थे और पात्रोँ के चरित्रो के रेखांकन की बात की थी. वर्ना मेरा नाता ऊर्दू अदब से दूर की दुआ सलाम जैसा ही रहा था.

लिपि न आने की दिक्कतोँ के कारण अक्सर उर्दू साहित्य तक पहुँचने का सहारा मेरे लिये अनुवाद ही रहा है. मुझे याद है पहली बार उर्दू साहित्य को छुआ तो इस्मत चुगताई की आत्मकथा “ कागजी है पैराहन ‘’ पढी ....और लगा कि इस साहित्य की महिला कलमकारोँ मेँ कुछ बात है ....कागजी है पैराहन पढ्ते हुए बार बार दिल ने कहा - क्या लिखती है ये महिला ! फिर तो खोज खोज कर वो सारे अनुवाद पढ डाले जो इस्मत चुगताई ने लिखे थे. मुझे हमेशा लगा कि मेरी जिन बातोँ का जवाब मेरे घर की औरतेँ नहीँ दे पातीँ वह इस्मत देती हैँ और बस मैँ उनकी मुरीद बनती चली गयी ........... फिर एक दिन कुर्तुलैन हैदर का एक कहानी संग्रह हाथ लग गया “ अगले जनम मोहे बिटिया न कीज़ो’’ के नाम से और फिर उनको भी पढ डाला और यह सिलसिला चलता रहा ..........फिर एक लगाम लग गयी क्योंकि भाषा आडे आ गयी .......इस बीच जिसे पढा वो थीँ नासिरा शर्मा जो हिन्दी और उर्दू दोनोँ मेँ समान रूप से सम्मानित रहीँ.... जिनकी ‘ठीकरे की मंगनी’ ने मुझे अपना दिवाना बना दिया था फिर शल्मली फिर बहुत कुछ ......और अंत मेँ तस्लीमा को खूब पढा. इस तरह उर्दू अदब की बायीँ पसलियोँ ने ही मुझे बताया कि बायीँ पसली ही असली ताकत है, उसकी कलम मेँ दम है, वह अपनी बात बेबाकी से रखना जानती है. वह एक इंसान है इस मुहिम की आवाज़ है.

.......और तसलीमा ने तो सबको पीछे छोड बहुत कुछ कह डाला . तस्लीमा एक स्वतंत्र चेता स्त्री है उसका लेखन अक्सर हमेँ बताता है कि किसी भी समाज की स्त्री समाज का स्वत्ंत्र हिस्सा है ही नहीँ . वह अलग अलग समाजोँ मेँ अलग अलग पहचान लिये उस खूँटे का वह सिरा है जिसे आवश्यक रूप से बान्धे रखने की कवायद हमेशा से की जाती रही है. ....इसलिये जब भी उसे पढती या समझने की कोशिश करती हूँ मुझे मार्क्स याद आते हैँ. मार्क्स स्त्री को लेकर जो मूल बात कहता है उसने मुझे उसका मुरीद बना दिया. मार्क्स कह्ता है कि स्त्री दुनिया का अंतिम उपनिवेश है. शुरुआती दौर मेँ मुझे अक्सर यह समझ्ने मेँ कठिनाई होती थी कि मार्क्स ऐसा क्योँ कहता है ? क्या मैँ भी उपंवेश हूँ? माँ भी ? .....और मैँ विचलित होती रही लेकिन धीरे धीरे स्त्री को समझते हुए यह बात समझ मेँ आयी कि वह ऐसा क्योँ कहता है और उसकी बात का असल मर्म तसलीमा और उसके जैसी कई लेखिकाओँ को पढते हुए समझ आया. ............तो मैने बायीँ अदब की बायीँ पसलियोँ को कुछ इस अन्दाज़ से जाना था. .............इस तरह अपनी इस पूरी समझ और अनुभव के साथ इस चर्चा मेँ शामिल होने और नासिरा जी को सुनने पहुँची थी. कार्ड पर नाइस हसन का नाम देखकर मेरे मन मेँ यह सवाल भी उठा कि क्या इस्लाम मेँ स्त्री को लेकर जो सामयिक चर्चायेँ हैँ, स्त्री अधिकारोँ को लेकर जो सामयिक माँग है और जो वास्तविक स्थितियाँ हैँ क्या वह भी उर्दू अदब का हिस्सा बन रही है ? मैँ यह भी जानने को उत्सुक थी कि उर्दू साहित्य मेँ स्त्री की कलम कितनी बेबाक, कितनी निडर है और यह भी कि इस खाने की कलम कार औरत को लेकर अपनी चर्चायेँ किस मुकाम तक ले जाती हैँ. पर कुछ ऐसी निराशा हाथ लेकर लौटी कि तब से सोच रही हूँ कि आखिर क्या हुआ जो उम्र के इस पडाव पर नासिरा शर्मा वहीँ खडी दिख रही हैँ जहाँ से स्त्री ने अपने अधिकारोँ की बात शुरु की थी .............क्योँकि वो कहती हैँ

‘’ नयी जेनेरेशन की स्त्रियोँ ने जो मर्द के खिलाफ जो एक गद्द लिखना शुरु किया है वो गद्द नहीँ वो विलाप है वो विलाप हम कर सक्ते हैँ , हम साथ भी दे सक्ते हैँ लेकिन आर्ट का बदा नुकसान हो जाता है ................

कहानियाँ मैँ पढती हूँ नयी जेनेरेशन की वो बडी खूबसूरती से बयान होते होते एक दम से नारे मेँ बदल जाती है. तो धक्का लगता है या तो स्त्री विमर्श कर लो या फिर गद्द लिख लो ........

और वो बहादुर औरतेँ हैँ कहाँ जो एक वक्त मेँ सबको धराशायी कर देती हैँ .. लाओ..ये मुट्ठी भर औरतेँ जो बैठी हैँ जो बडे बडे दफ्तरोँ मेँ दिख जाती हैँ दिख जाती हैँ ....


मर्दोँ को छोड दिया गया है .........उनकी , कुंठायेण क्या हैँ .......उनके गम क्या हैँ परेशानियाँ क्या हैँ वो क्या सोचते हैँ उनको तो हमदर्दी से हम इंसान समझ् कर हैन्ड्ल ही नहीँ करते .हम पैदा करते हैँ मर्दोँ को और हम अपने अगेंस्ट तालीम देते हैँ उंको कि बेटा जब बीवी आये तो ‘’




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