Monday, December 24, 2012
सदियों से दुनिया में
आदमी है, सडके हैं, गाडी है, घोडा है
पर एक भय भी है
सब यूं ही साथ साथ
शह और मात का खेल खेलते चलते रहे हैं
आदमी आदमी से डरता रहा है
पर ‘वो’
वो जो सबसे पीछे है
सेनानियों के बीच
कौन है वो ?
वो जो बिल्कुल अकेली
हिरनी सी कांप रही है
कौन है वो ?
वो लुटेरों के हाथ पड गयी
घबरायी सी सिमट रही
आक्रांत, आतंकित सी,
कौन है वो ?
सडक के किनारे
चित्कार करती वो
ना जाने कब से
टकटकी लगाये इंतज़ार करती
कि
आयेगा एक राजकुमार
बाटने उसका सुख - दुख
कौन है वो ?
इस सारे सवालों के जवाब में हर जगह , हर बार खुद को देखती हूं
एक आंसू जो सदियों पहले
मेरी आंख की कोरों से बह गया था
आज भी अनवरत
वहीं से बह रहा है
वो चित्कार
जो निकली थी सदियों पहले
आज भी गूज रही है
अनवरत
एक आस लेकर जो
मैं खडी थी
राजा के पास
मंत्री के पास
सारे दरबार के सामने
आज भी उसी चौखट पर
दम तोड रही है
सोचो ना, सदियों से
दुनिया में मैं हूं
तुम हो
हमारा साथ है
फिर भी मैं भयभीत हूं
तुमसे , तुम्हारे होने से और
तुम्हारे ना होने से भी
ये सडके अकेले नहीं डराती मुझे
जब भी
कोई परछाई उसके साथ
चलने लगती है
डराने लगती है मुझे
पर
यह परछाई
उस आदमी को भी डराती हैं
जो आदमी अकेला है
जो दूसरों के लिये परछाई है
और जो दुनिया को लूट अकेले खाता है
सुनसान सडको को दोष देने से पहले
उस परछाई को खोजो
जो उन सबसे मिलती है
जो हम जैसे हैं
......................................................अलका
..............................
Thursday, September 27, 2012
मेरे आँखों की नीद उड़ गयी है जैसे चिंदी चिंदी हो बिखर गयी है यहाँ वहां कल से कल से कुछ डरी सहमी आँखों की दुनिया उससे परिचय के बाद नीद का बिखरना बिखर कर उड़ जाना जैसे तै था शब्द खोज रही हूँ परिभाषा तलाश रही हूँ इधर उधर नज़रें दौड़ा रही हूँ कि क्या शब्द दूं उसे जिसकी आँखों में भाई था क्या नाम दूं जिसकी आँखों में चमक थी क्या लिखूं जो ठुमक ठुमक कर चाय पिला रही थी जिस दुनिया को देख कर आयी हूँ वह सब समझ लेने की कोशिश में उचट कर दूर दूर घूम आयी है नीद एक आँख बस मुझे ही तक रही है लाचार , बेबस , अनजान और डरी सहमी और ले उडी है नीद लिखूँगी एक व्यथा , एक कथा , एक दर्द औरत होने की सजा वो कमरा , वो लोग और वो दुनिया जहाँ संस्कृति , सभ्यता और मां मर्यादा की सारी परिभाषाएं मुह छुपाती हैं और सिसकती रहती है एक औरत और उसकी देह ......................अलका (लिखी जा रही कविता से )
Tuesday, June 19, 2012
‘तुम’
मेरे अबोध मन पर
हर रोज़ लिखे जाते रहे हो
कभी सुन्दर राज कुमार के नाम से
कभी खूबसूरत अहसास के नाम से
कभी प्यार के नाम से
‘तुम’
अक्सर छापे जाते रहे हो
मेरे मन की स्लेट पर
मेरे सम्मान और सुरक्षा का हवाला दे
मेरे हर डर और भय की दवा के रूप में
‘तुम’
बिना देखे ही मुझसे अधिक
मेरी माँ की आंख के तारे हो
वह ख्वाब में भी तुम्हें देख किसी -किसी दिन
खुश हो जाती है और मुस्कुराती है
इस तरह जैसे नगीना
पा लिया हो उसने
‘तुम’
मुझसे अधिक नसीब हो मेरे पिता के
मेरे जन्म के पहले दिन से वह
कल्पना करते हैं तुम्हारे पदचाप की
जैसे प्रभु को पा लेंगे उस दिन
जब तुम आओगे
‘तुम’
इसीलिये , एक अनगढ सा, अनूठा सा खाब थे
आते जाते बाद्लों में जिसे तलश कर बडी हुई
पत्ते पत्ते पर जिसे लिखा और पढा
हर दिन एक अहसास को जिया
बीन बीन अंजुरी में भरा
‘तुम’
कौन हो ? एक अनाम अहसास
किस दुनिया के हो ? अनजान
रह्ते कहाँ हो ? खोजता रहा है ये मन
बोध हुआ है जब से अपने होने का
कि एक लडकी हूँ
उस अबोध मन की स्लेट
पर लिखी इबारत के साथ
‘तुम’से मिलने का
जब वह दिन आया
तो जैसे पासा ही पलट गया
माँ की मुस्कुराहट झरती रही
पिता का नसीब रोता रहा और
‘तुम’
किसी बहुमूल्य हीरे की तरह रख दिये गये
एक शीशे के जार में
जिसे मैं बस लालची आंखों से देख
ख्वाब में पाने की कल्पना कर
निहार सकती थी
तुम मुस्कुराते रहे
‘तुम’
आज भी गढे जाते हो
हर लडकी के मन में
उसके अपनो के बनाये खाब के सहारे
और सजाये जाते हो
राजकुमार की तरह जाने क्यों
और लडकियाँ
अपनी जमीन पर अंखुआने से पहले ही
धान की रोप का अहसास कर
तलाशने में लग जाती हैं
‘तुम’ को
मुझे कुछ स्याह पन्ने दिखते हैं
कुछ सजल आंखे जो इस तुम की तलाश का
सबसे स्याह इबारत है
इसलिये
इस तलाश की जगह
कुछ नया रोपा जाना जरूरी है
उस अबोध स्लेट पर जिसकी
हर इबारत अबतक
‘तुम’ को खोजती रही है
.............................अलका
Monday, June 11, 2012
मैं नहीं भूल पाती सालों जीया जिन्दगी का वह खण्ड
जहाँ हिरनी की तरह दौडती मेरी टागों को देख माँ मंत्रमुग्ध हो जाया करती थी...
पट पट चलती मेरी जुबान पर पिता को गर्व होता था
मेरी कलम पर कईयों को नाज़ था
मेरे जवान होते बदन को माँ अपलक निहारा करती थी
उसको सज़ाने के सारे संसाधन जुटाती थी
कुछ सहेज़ती थी और कुछ निकालती थी ..........जैसे कहानी लिखती थी
भाईयों के साथ खेली छुपम छुपायी भी नहीं भूलती
छीना – झपटी , लडना झगडना भी कहाँ भूल पायी हूँ
नहीं भूल जाने वाले वो पल जैसे कैद हो गये हैं
यादों के बद दरवाज़ों में
या फिर जबरन बन्द होने को मजबूर कर दिये गये हैं
सच कहूँ तो
कभी सोचा भी नहीं था कि
एक दिन
परायी हो जयेंगी वो दीवारें जिस पर मैने कई इबारतें लिखीं थीं
परायी हो जयेगी वो देहरी जहाँ पैर रखते ही अपनेपन का अहसास होता था
पराये हो जायेंगे वो रिश्ते जिनके खून में मैं रची बसी हूँ
कभी सोचा भी नहीं था कि हक से हर रोज लडने वाला वो भाई
‘मेरे’ कहे जाने वाले इस घर के कोने में किसी और की ‘हाँ’ के
इंतज़ार में खडा रहेगा
बेबेस , अधिकार हीन , लाचार सा
पिता जिसे रोज रोज बना के खिलाया था , आज मेरे यहाँ पानी पीने में भी
संकोच से हाथ उठायेंगे
रोज मेरा रोज़नामचा जानने को आतुर आज आंख नीची कर वक्त का इंतजार करेंगे
ऐसे हालात देखे थे पहले भी पर तब वहाँ किरदार वहीं थे पर चेहरे अलग थे
पीडा वही थी किंतु लोग अलग थे
कई बार अपने घर की औरतों की आंखों की गीली कोरें देखी थीं
किंतु अहसास अलग थे
कई बार सुना था पर जाना नहीं था
आज वही दृश्य , वही भाव और वहीं एक चेहरा बदली भूमिका में
मेरे सामने खडा है
सोच रही हूँ
औरत के आंख के पानी को परम्परा के पानी में बन्धे लोगों ने
कब देखा ?
कब जाना ? कब समझा?
कि
हर दिन दूसरे के घर को अपना कहने और बनाने की लाचारी क्या होती है
तिनका तिनका जोडने और बिना हक उसे अपना कहने की बेबेसी क्या होती है
पुत्र के सहारे घर में जगह पा लेने की जिद्दोजहद क्या होती है
प्यार के नाम पर हर रोज कुछ रिसने की लाचारी क्या होती है
दूसरों के बल पर जीने की हकीकत क्या होती है
जब भी सोचती हूँ
अपनी मजबूरी के नाम एक खत लिखने का खयाल आता है
माँ के नाम माफीनामा लिखने का खयाल आता है
अपनी चाहरदीवारी पर अपना नाम लिखने का खयाल आता है
इन बेपरवाहों के बीच परवाह की एक नयी कहानी लिखूँ
अक्सर खयाल आता है
.........................................अलका
Sunday, April 29, 2012
एक कविता अपने शहर के नाम......................आप सब से साझा कर रही हूँ ............उम्मीद है आप अपनी प्रतिक्रिया के साथ पसन्द भी करेंगे ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
सोचती हूँ
ऐसे वक्त पर जीवन में
एक शहर
रौशनी का नुमाइन्दा बन
अपने पूरे वजूद के साथ
प्रवेश करता गया अंतर तक
जब मन तमाम अठखेलियाँ करता
कभी मचलता , कभी भटकता , आवारागर्दी करता
गुजर रहा था कई ठिकानों से
तब किसी पितामह की तरह
सख्त हो अच्छे बुरे के फर्क को साझा करता
सामने खडा समझाता रहा बरसों
वह सब जो
मन की स्लेट पर लिखी
सबसे उम्दा इबारत है
जानती हूँ पिता नहीं था वह
फिर भी स्नेह वैसा ही था
जानती हूँ माँ नहीं था वह फिर भी
ममत्व से भरा
तमाम नसीहतों के साथ
एक अज़ीज़ दोस्त सा वो शहर
आज भी है
दिल के करीब अपनी तमाम रौशनी के साथ
भाषा, संस्कृति और संस्कार के बहाने
जीवन के कई रंग , अर्थ और जटिलतायें
उसके साथ ने ही समझा दिये थे जाने - अनजाने
आज भी उसके साथ का दम
मजबूत करता है
मेरा संकल्प, मेरी दृष्टी और बढने के हौसले को
कई बार सोचती हूँ सलाम करूँ वहाँ के देवी देवताओं को
माटी को और संगम को
सलाम करूँ बटवृक्ष को और बेणीमाधव को
पर अचनाक याद आते हैं
वहाँ के लोग, दोस्त –यार
याद आते हैं बडे - बुजुर्ग
और वो वटवृक्ष जिसकी शाखायें
बने हम फैले हैं चारो ओर
बस झुक जाती हूँ मन ही मन
करोडो धन्यवाद के बोल ले
बढ जाती हूँ उस तरफ जहाँ के लिये
वादा किया था
‘उससे’ बरसों पहले मन ही मन
अनवरत
खुश नसीब हूँ कि पली हूँ वहाँ
खुश नसीब हूँ कि बढी हूँ वहाँ
सच ! खुश नसीब हूँ कि पढी हूँ वहाँ
जहाँ से सब ओर आदमीयत की
परिभाषा जाती है
संस्कार की भाषा जाती है
सच कहूँ तो इस खुश नसीबी पर फखर करने से बेहतर
इसे बोना चहती हूँ
बंजर ज़मीनों में
एक आस्ताना उगाने के लिये
आदमियत का
.........................................अलका
Monday, April 16, 2012
पुतुल की कविता अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ?
देश की अंतरिक सुरक्षा खतरे में है यही कारण है कि आज इसी मुद्दे पर दिल्ली में सभी मुख्य मंत्रियों की बैठक बुलायी गयी. अब सवाल है कि देश की अंतरिक सुरक्षा को खतरा किस बात से है ? प्राप्त सूचना के अनुसार भारत के अन्दर 19 बडी इंसर्जेंसीज चल रही हैं. यानि कि देश के भीतर ही बडे बडे खतरे पैदा हो गये हैं. आज की इस पूरी मीटिंग में जिन खतरों को गिनाया गया उसमें नक्सालवाद की तरफ इशारा करते हुए उसे आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बडा खतरा बताया गया. अभी कोई दो तीन दिन पहले एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश ने एक कार्यक्रम पेश किया था. इस कार्यक्रम का शीर्षक था ‘’क्या नक्सल्वादियों के आगे झुक गयी सरकार ?’’
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. मेरे लिये यह जटिल इसलिये हो रहा है क्योंकि देश का प्रधान कहता है कि नक्सलवाद सबसे बडी समस्या है,,,,,,,,,,,, देश का एक पूर्व जनरल कहता है कि नक्सल्वादियों को अब चीन हथियार देने की योज़ना बना रहा है............. और देश अब सभी राज्यों को लेकर आंतरिक सुरक्षा के मद्दे नज़र अब इस नक्सलवाद से जुडे लोगों के खिलाफ एक बडी रणनिति बनाने की योज़ना बना रहा है क्योंकि बकौल पूर्व जनरल ’ कि इस पूरे इलाके में आज तक कोई पेनीट्रेट नहीं कर पाया’’किंतु इन सभी के बीच निर्मला कुछ सवाल रखती हैं और कहती हैं कि –
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. पर क्या टी.वी पर चर्चा में शाम्मिल होने वाले उतनी ही सवेदना और चश्में से उस समस्या को देख पाते हैं जिस सम्वेदना की जरूरत होती है उस इलाके के लोगों को ? आप देखें कि एक तरफ देश की आंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल, एक तरफ नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने की रणनीति और एक तरफ उस पूरे इलाके के लोगों के मूलभूत सवाल.... सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर इस सभी की नज़र नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते तो उनकी चर्चाओं में समस्या को समझने का नज़रिया और इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती. निर्मला की कविता महज़ एक कविता नहीं है. यह कविता देश के उस बडे हिस्से की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि उसकी नाक चिपटी है, वह काला है, उसके पावों में बिवाई है और् इसलिये वह देश के विभिन्न सुविधाओं के लिये लगने वाली कतार में सबसे पीछे खडा होता है. लोग उसके पावों की बिवाई को समझने की जगह फब्ती कसते हैं .जोरदार ठहाका लगाते है ...........निर्मला की इस आवाज़ में एक दर्द है और यह प्रश्न भी कि यदि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्ता करते?
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है किंतु जब इस प्रकरण का जिक्र अभिज्ञान प्रकाष के कार्य्क्रम में एक प्रोफेसर करने की कोशिश करता है जिसने 8 साल सरकार और उन लोगों के बीच सेतु बनने का काम किया जो आज सरकार के लिये समस्या बन गये हैं .....तो उसे एक नेता द्वारा यह कहकर चुप रहने के लिये कहा जाता है कि ‘’ प्रोफेसर साहब उपदेश ना दें’’ म्मतलब यह कि इस देश की राजनिति यह समझने के लिये तैयार नहीं है कि इस देश के गरीब और आदिवासी जीवन की मूल्भूत आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हैं. वह यह समझने के लिये तैयार नहीं है इस समस्या के पीछे के कारण से निपट्ने के लिये उन लोगों की बात को भी सुनना जरूरी है जो इस समस्या पर अपने महत्व्पूर्ण विचार संजीदगी से रख सकते हैं..
दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर कई स्वाल पैदा किये. वह कुछ ऐसे मूल भूत सवाल हैं जिसे हर उस नागरिक का पूछने का हक बनता है जो इस देश में इस देश के सम्विधान के मतलब को समझता है. किंतु बात जब आदिवासी जन की आती है तो वह हमारी दोहरी नीति, दोहरे आचरण और सामंत्वादी तौर तरीकों की तरफ इशारा करता है. हमारे विकास, विकास की अवधारणा और इस विकास के खांचे से दूर लोगों की आकंक्षाओं की टकराट की भी बात उठती है. इसीलिये जब निर्मला कहती है कि -
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
सच कहूँ तो अभिज्ञान के कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे झकझोर कर रख दिया....
इसीलिये मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......लेकिन इस देश में उस आदिवासी की बात सुनना तो दूर उसकी तरफ ध्यान से देखा नहीं जाता जिसकी परम्परा में कभी भीख नहीं मांगना जैसे एक मिशन है, जिसकी परम्परा में मेहनत एक इबादत है .......और अपने आस पास की प्रकृति की रखवाली करना एक पूजा है..............लेकिन आज़ादी के 65 सालों बाद एक एक कर उनकी संस्कृति को तोडा है, उनके मिशन को तोडा है और उनकी इबादत गाह को नष्ट किया है .तो ऐसे में क्या सरकारों , नेताओं, पार्टियों को उन सवालों पर सोचना नहीं चाहिये जहाम वह कह रहे हैं कि -.
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? या देश के उस प्रधान से जो आज भषण दे रहा था ? या प्फिर देश के उन नागरिकों से जो देश के बडे शहरों में बडी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए कहते हैं कि ‘ जो जाति देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकती वह तो इसी स्थिति में ही रहे गी ना ? या फिर उन कुछ बेहद स्वार्थ से भरे लोगों से जो कहते हैं कि देश के विकास के लिये बाक्साईट जैसे खनिज़ के लिये उनकी जमीन पर सरकार पर कब्ज़ा तो करना ही पडेगा ? किससे ? या फिर सभी से ? सीधे तौर पर देखा जाये तो यह सवाल पुतुल सबसे करती हैं कि जो देश अपनी जीडीपी को 8 प्रतिशत दिखाने का दावा कर वाह्वाही पा रहा है उस देश में आज़ादी के 65 साल बाद भी अगर एक तबके का जीवन इस हाल में है तो अगर यह जीवन आप जी रहे होते तो क्या करते? हाँलाकि देखा जाये तो इस देश में यह सवाल एक शास्वत सवाल है किंतु यह सवाल जब अपनी जमात की तरफ से पुतुल करती हैं तो इन सवालों की त्रासदी दोगुनी हो जाती है क्योंकि वह इन सवालों के साथ साथ हालात का भी बयान करती हैं -
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
------------------------और देखा जाये तो जो हालात पुतुल ने अपनी कविता के माध्यम्म से रखे हैं वह आज भी ज्यों के त्यों हैं ..................चाहे रांची का नम्कुम हो, मध्यप्रदेश का बेतुल और छोन्दवादा हो, छत्तीसगढ का दंतेवाडा हो या उत्तर प्रदेश का शंकरगढ हर जगह सवाल यही हैं पर समाधान कुछ नहीं, हर जगह उनके जनजीवन की मांसलता को ही नापा जा रहा है और देखे जा रहे हैं छाती के उभार . चाहे वो बाम्क्साईड के रूप में हों , चाहे जंगल के रूप में -
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
किंतु अब वह बेखबर नहीं रह गया है क्योंकि वह सवाल करने लगा है कि ‘’अगर तुम मेरी जगह होते’’ सोचो क्या करते
.............................डा. अलका सिह
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. मेरे लिये यह जटिल इसलिये हो रहा है क्योंकि देश का प्रधान कहता है कि नक्सलवाद सबसे बडी समस्या है,,,,,,,,,,,, देश का एक पूर्व जनरल कहता है कि नक्सल्वादियों को अब चीन हथियार देने की योज़ना बना रहा है............. और देश अब सभी राज्यों को लेकर आंतरिक सुरक्षा के मद्दे नज़र अब इस नक्सलवाद से जुडे लोगों के खिलाफ एक बडी रणनिति बनाने की योज़ना बना रहा है क्योंकि बकौल पूर्व जनरल ’ कि इस पूरे इलाके में आज तक कोई पेनीट्रेट नहीं कर पाया’’किंतु इन सभी के बीच निर्मला कुछ सवाल रखती हैं और कहती हैं कि –
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. पर क्या टी.वी पर चर्चा में शाम्मिल होने वाले उतनी ही सवेदना और चश्में से उस समस्या को देख पाते हैं जिस सम्वेदना की जरूरत होती है उस इलाके के लोगों को ? आप देखें कि एक तरफ देश की आंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल, एक तरफ नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटने की रणनीति और एक तरफ उस पूरे इलाके के लोगों के मूलभूत सवाल.... सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर इस सभी की नज़र नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते तो उनकी चर्चाओं में समस्या को समझने का नज़रिया और इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती. निर्मला की कविता महज़ एक कविता नहीं है. यह कविता देश के उस बडे हिस्से की आवाज़ है जो यह महसूस करता है कि उसकी नाक चिपटी है, वह काला है, उसके पावों में बिवाई है और् इसलिये वह देश के विभिन्न सुविधाओं के लिये लगने वाली कतार में सबसे पीछे खडा होता है. लोग उसके पावों की बिवाई को समझने की जगह फब्ती कसते हैं .जोरदार ठहाका लगाते है ...........निर्मला की इस आवाज़ में एक दर्द है और यह प्रश्न भी कि यदि तुम्हारे साथ ऐसा होता तो तुम क्ता करते?
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है किंतु जब इस प्रकरण का जिक्र अभिज्ञान प्रकाष के कार्य्क्रम में एक प्रोफेसर करने की कोशिश करता है जिसने 8 साल सरकार और उन लोगों के बीच सेतु बनने का काम किया जो आज सरकार के लिये समस्या बन गये हैं .....तो उसे एक नेता द्वारा यह कहकर चुप रहने के लिये कहा जाता है कि ‘’ प्रोफेसर साहब उपदेश ना दें’’ म्मतलब यह कि इस देश की राजनिति यह समझने के लिये तैयार नहीं है कि इस देश के गरीब और आदिवासी जीवन की मूल्भूत आवश्यकताओं के लिये जूझ रहे हैं. वह यह समझने के लिये तैयार नहीं है इस समस्या के पीछे के कारण से निपट्ने के लिये उन लोगों की बात को भी सुनना जरूरी है जो इस समस्या पर अपने महत्व्पूर्ण विचार संजीदगी से रख सकते हैं..
दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर कई स्वाल पैदा किये. वह कुछ ऐसे मूल भूत सवाल हैं जिसे हर उस नागरिक का पूछने का हक बनता है जो इस देश में इस देश के सम्विधान के मतलब को समझता है. किंतु बात जब आदिवासी जन की आती है तो वह हमारी दोहरी नीति, दोहरे आचरण और सामंत्वादी तौर तरीकों की तरफ इशारा करता है. हमारे विकास, विकास की अवधारणा और इस विकास के खांचे से दूर लोगों की आकंक्षाओं की टकराट की भी बात उठती है. इसीलिये जब निर्मला कहती है कि -
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
सच कहूँ तो अभिज्ञान के कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे झकझोर कर रख दिया....
इसीलिये मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......लेकिन इस देश में उस आदिवासी की बात सुनना तो दूर उसकी तरफ ध्यान से देखा नहीं जाता जिसकी परम्परा में कभी भीख नहीं मांगना जैसे एक मिशन है, जिसकी परम्परा में मेहनत एक इबादत है .......और अपने आस पास की प्रकृति की रखवाली करना एक पूजा है..............लेकिन आज़ादी के 65 सालों बाद एक एक कर उनकी संस्कृति को तोडा है, उनके मिशन को तोडा है और उनकी इबादत गाह को नष्ट किया है .तो ऐसे में क्या सरकारों , नेताओं, पार्टियों को उन सवालों पर सोचना नहीं चाहिये जहाम वह कह रहे हैं कि -.
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? या देश के उस प्रधान से जो आज भषण दे रहा था ? या प्फिर देश के उन नागरिकों से जो देश के बडे शहरों में बडी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए कहते हैं कि ‘ जो जाति देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सकती वह तो इसी स्थिति में ही रहे गी ना ? या फिर उन कुछ बेहद स्वार्थ से भरे लोगों से जो कहते हैं कि देश के विकास के लिये बाक्साईट जैसे खनिज़ के लिये उनकी जमीन पर सरकार पर कब्ज़ा तो करना ही पडेगा ? किससे ? या फिर सभी से ? सीधे तौर पर देखा जाये तो यह सवाल पुतुल सबसे करती हैं कि जो देश अपनी जीडीपी को 8 प्रतिशत दिखाने का दावा कर वाह्वाही पा रहा है उस देश में आज़ादी के 65 साल बाद भी अगर एक तबके का जीवन इस हाल में है तो अगर यह जीवन आप जी रहे होते तो क्या करते? हाँलाकि देखा जाये तो इस देश में यह सवाल एक शास्वत सवाल है किंतु यह सवाल जब अपनी जमात की तरफ से पुतुल करती हैं तो इन सवालों की त्रासदी दोगुनी हो जाती है क्योंकि वह इन सवालों के साथ साथ हालात का भी बयान करती हैं -
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
------------------------और देखा जाये तो जो हालात पुतुल ने अपनी कविता के माध्यम्म से रखे हैं वह आज भी ज्यों के त्यों हैं ..................चाहे रांची का नम्कुम हो, मध्यप्रदेश का बेतुल और छोन्दवादा हो, छत्तीसगढ का दंतेवाडा हो या उत्तर प्रदेश का शंकरगढ हर जगह सवाल यही हैं पर समाधान कुछ नहीं, हर जगह उनके जनजीवन की मांसलता को ही नापा जा रहा है और देखे जा रहे हैं छाती के उभार . चाहे वो बाम्क्साईड के रूप में हों , चाहे जंगल के रूप में -
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
किंतु अब वह बेखबर नहीं रह गया है क्योंकि वह सवाल करने लगा है कि ‘’अगर तुम मेरी जगह होते’’ सोचो क्या करते
.............................डा. अलका सिह
Friday, April 13, 2012
क्या निर्मला पुतुल के सवाल आदिवासी जीवन के मूल भूत सवाल हैं
(यह लेख एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश के कार्यक्रम, उससे उपजे मंथन और एक तरह की गहरी खीझ जिसे मैं नाराज़गी कह रही हूँ से उपजा है. सच कहूँ तो अभिज्ञान के इस कार्यक्रम में नक्सल वाद, आदिवासी जीवन , उनकी समस्या और मुख्य धारा में उनके ना होने की त्रासदी को जिस तरह से समझा और रखा गया उसने मुझे इस बीमारी की हालत में भी अपने लैपटाप पर बैठने को मजबूर कर दिया. दुर्भाग्य से मैं अभिज्ञान प्रकाश के इस कार्यक्रम को पूरा नहीं देख पायी लेकिन जहाँ से देखा उसने मेरे अन्दर सवालों की जैसे झडी लगा दी. उसने इस देश की कई त्रासदियों को ही नही बल्कि यह भी समझने में मेरी मदद की कि देश की सेना, पुलिस और नेता जनता की समस्या और मांग को कैसे देखते हैं इस पूरी चर्चा ने मुझे निर्मला पुतुल की कई कविताओं की याद दिला दी. खासकर उस कविता की जिसमें वह आदिवासी जमात की तरफ से कुछ सवाल करती हैं और कहती हैं कि : अगर तुम मेरी जगह होते ? )
मित्रों ,
आज मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......आदिवासी कभी भीख नहीं मांगता, वह मेह्नत करता है और अपने आस पास की प्रकृति का रखवाला है .............ऐसा आदिवासियों का अपने बारे में विचार है किंतु आज़ादी के बाद के 65 साल में इस देश की पूरी जनजाति के जीवन उसकी संस्कृति और सभ्यता के साथ जो कुछ हुआ है उसने आदिवासी जन के मन में मनो सवाल लादे हैं.............. यही वज़ह है कि आदिवासी जन की बात करते हुए मुझे पुतुल की कवितायें बेतरह याद आती हैं............. खासकर तब जब वह सवाल करते हुए कहती हैं कि:
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कल के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. इसी लिये आज मैं निर्मला पुतुल और उनकी एक कविता की बात करूंगी. यह इसलिये नहीं कि मैं उनकी कविता की कोई बहुत महान समीक्षा करूँगी या फिर इसलिये नहीं कि निर्मला पुतुल को एक बहुत महान कवियत्री साबित करने का इरादा है यहाँ मैं उनकी कविता और उसमें उठाये गये मुद्दे को इसलिये रख् रही हूँ क्योंकि कल देश के कुछ ख्यातनाम लोगों ने टी वी के एक् कार्यक्रम में बैठ्कर देश के एक बहुत बडे हिस्से में रहने वाले लोगों की समस्या पर अपनी राय व्यक्त की जिसमें जिसमें इस देश के एक पूर्व सेनाध्यक्ष आदिवासी बहुल इलाके के सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते है कि ‘इस पूरे इलाके में आज तक कोई भी पेनीट्रेट नहीं कर पाया है’ मैं संजय निरुपम जो कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सदस्य है की भाषा को समझने के प्रयास में हूँ जब वो प्रो. गोपाल को चुप कराने के लहज़े में कहते हैं कि प्रोफेसर साहेब इस तरह के उपदेश ना दें और इसके साथ ही मैं देश की दूसरी बडी पार्टी भाजपा का भी मंतव्य समझने का प्रयास कर रही हूँ क्योंकि इस चर्चा में उनका सुर कांगेस के सुर से अलग नहीं था जबकि वो पार्टी वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी जीवन के बहुत करीब होने का लगातार दावा करती रही है.
देखा जाये तो इस पूरी चर्चा में प्रो. हरगोपाल को छोड्कर चर्चा में भाग लेने वाला कोई भी दिग्गज़ उस बडे हिस्से में रहने वाले लोगों के सवालों का कोई भी जवाब देने में ना केवल अक्षम था बल्कि उन सीधे साधे सवालों के पास भी नहीं पहुंच पाया था . मैं निर्मला की कविता को यहाँ इसलिये रख रही हू क्योंकि आज भी आम आदिवासी के वही सवाल हैं जो निर्मला उठा रही हैं और इन्हीं कुछ मूल प्रश्नो को भी इस चर्चा में रखने का प्रयास किया गया था जिसे एक नेता ने कुछ इस तरह दबाने का प्रयास किया जैसे उस प्रोफेसर ने उन मूल सवालों को उठाकर गुनाह कर दिया हो? पढिये निर्म्मला की कलम से आदिवासी जमात के कुछ मूल सवाल ---------
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? किससे ?क्योंकि जब भी इस कविता को ध्यान से पढा है और समझने की कोशिश की है तो लगा है जैसे कि यह सवाल तो इस देश का अधिकांश नागरिक पूछ रहा है. जरा गौर से पढिये पुतुल को ............क्या यह सवाल उत्तर प्रदेश के उस गाँव के किसानों के नहीं हैं जिसके खेत का सरकार अधिग्रह्ण कर बिल्डर्स को देती है ? क्या यह सवाल सुदूर हिमांचल में रहने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गवाँर सम्मझे जाने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गरीब हरिजन के नहीं हैं ? हाँलाकि देखा जाये तो यह सभी सवाल पुतुल अपनी जमात की तरफ से कर रही हैं किंतु यह सवाल एक शास्वत सवाल है
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है . आप इस कविता की निम्न पंक्तियों को पढे कई बातें और उसकी परतें साफ साफ खुलती जातीं हैं -
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
पर यहाँ मैं इस कविता को सिर्फ और सिर्फ आदिवासी जीवन, उसके सवाल और उसके आक्रोश से जोडकर ही देखने की कोशिश करूंगी ताकि हम आदिवासी सवाल से उसके आक्रोश और फिर नक्सल वाद तक के उनके सफर और साथ ही साथ दिल्ली दरबार , उसकी फितरत और वहा बैठे साझ्दारों की समझ के भी सफर की झलक देख सकने की कोशिश कर सकें...... यह इसलिये भी कि यह आलेख कल की चर्चा के आलोक में लिख रही हूँ
............... शेष अगले भाग मे^
.
मित्रों ,
आज मैं गहरी सोच में हूँ. एक तरह की नारज़गी में. बार बार यह समझने की कोशिश में हूँ कि देश का मतलब क्या होता है? नागरिक का मतलब क्या होता है? और यह भी समझने की लगातार कोशिश कर रही हूँ कि क्या एक देश के नागरिक और उसके प्रश्न क्या होने चाहिये? यह भी कि नागरिक सुरक्षा का मतलब क्या है? सालों से यह सवाल मुझे बेतरह परेशान करते रहे हैं किंतु जबसे मैनें आदिवासी जीवन को करीब से देखा है उसे जाना है ये सवाल हर वक्त मेरे जेहन में किसी कीडे की तरह रेंगते रहते हैं कि इस देश में आदिवासी होना क्या आपको पूरी सुरक्षा देता है ? क्या आपके सवालों को दिल्ली दरबार तक पहुंचाता है ? ..........और सच कहूँ तो जब एक आदिवासी के घर में खडे होकर मन में यह सवाल उठते हैं तो मन बडी शिद्द्त से जवाब मांगता है क्योंकि मध्यप्रदेश से लेकर अन्ध्रा तक उत्तर प्रदेश से लेकर उडीसा तक आदिवासी जीवन की त्रासदी एक सी है और सवाल , मांगें और उम्मीदें भी एक सी हैं.......आदिवासी कभी भीख नहीं मांगता, वह मेह्नत करता है और अपने आस पास की प्रकृति का रखवाला है .............ऐसा आदिवासियों का अपने बारे में विचार है किंतु आज़ादी के बाद के 65 साल में इस देश की पूरी जनजाति के जीवन उसकी संस्कृति और सभ्यता के साथ जो कुछ हुआ है उसने आदिवासी जन के मन में मनो सवाल लादे हैं.............. यही वज़ह है कि आदिवासी जन की बात करते हुए मुझे पुतुल की कवितायें बेतरह याद आती हैं............. खासकर तब जब वह सवाल करते हुए कहती हैं कि:
“जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?”
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि इमानदार कवितायें किसी भी बात , भाव या समस्या को बेहतर तरीके से समझने और उसके तह तक जाने का सबसे अच्छा जरिया होती हैं. सच कहूँ तो एन डी टी वी के कल के कार्यक्रम ने मेरी इस अवधारणा में एक और पहलू जोड दिया कि एक देश , उसकी सत्ता और वहाँ की जनता की समस्या को समझने के लिये इमानदार कवियों , लेखकों के लेखन से गुजरना उतना ही जरूरी है जितना कि किसी इलाके में जाकर कर वहाँ के मुद्दों को जानना है. इसी लिये आज मैं निर्मला पुतुल और उनकी एक कविता की बात करूंगी. यह इसलिये नहीं कि मैं उनकी कविता की कोई बहुत महान समीक्षा करूँगी या फिर इसलिये नहीं कि निर्मला पुतुल को एक बहुत महान कवियत्री साबित करने का इरादा है यहाँ मैं उनकी कविता और उसमें उठाये गये मुद्दे को इसलिये रख् रही हूँ क्योंकि कल देश के कुछ ख्यातनाम लोगों ने टी वी के एक् कार्यक्रम में बैठ्कर देश के एक बहुत बडे हिस्से में रहने वाले लोगों की समस्या पर अपनी राय व्यक्त की जिसमें जिसमें इस देश के एक पूर्व सेनाध्यक्ष आदिवासी बहुल इलाके के सम्बन्ध में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहते है कि ‘इस पूरे इलाके में आज तक कोई भी पेनीट्रेट नहीं कर पाया है’ मैं संजय निरुपम जो कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सदस्य है की भाषा को समझने के प्रयास में हूँ जब वो प्रो. गोपाल को चुप कराने के लहज़े में कहते हैं कि प्रोफेसर साहेब इस तरह के उपदेश ना दें और इसके साथ ही मैं देश की दूसरी बडी पार्टी भाजपा का भी मंतव्य समझने का प्रयास कर रही हूँ क्योंकि इस चर्चा में उनका सुर कांगेस के सुर से अलग नहीं था जबकि वो पार्टी वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी जीवन के बहुत करीब होने का लगातार दावा करती रही है.
देखा जाये तो इस पूरी चर्चा में प्रो. हरगोपाल को छोड्कर चर्चा में भाग लेने वाला कोई भी दिग्गज़ उस बडे हिस्से में रहने वाले लोगों के सवालों का कोई भी जवाब देने में ना केवल अक्षम था बल्कि उन सीधे साधे सवालों के पास भी नहीं पहुंच पाया था . मैं निर्मला की कविता को यहाँ इसलिये रख रही हू क्योंकि आज भी आम आदिवासी के वही सवाल हैं जो निर्मला उठा रही हैं और इन्हीं कुछ मूल प्रश्नो को भी इस चर्चा में रखने का प्रयास किया गया था जिसे एक नेता ने कुछ इस तरह दबाने का प्रयास किया जैसे उस प्रोफेसर ने उन मूल सवालों को उठाकर गुनाह कर दिया हो? पढिये निर्म्मला की कलम से आदिवासी जमात के कुछ मूल सवाल ---------
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
निर्मला की इस कविता पर बात कहाँ से शुरु करूँ समझ नहीं पा रही. सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कवितायें देश का प्रधान नहीं पढता ? सोच रही हूँ कि इस तरह की कवितायें देश का सेनाध्यक्ष नहीं पढता? और यह भी सोच रही हूँ कि क्या इस तरह की कविताओं पर देश की पुलिस की भी नज़र नहीं जाती? अगर नहीं जाती तो यह इस देश का दुर्भाग्य ही है क्योंकि अगर वह इस तरह के साहित्य से गुजरे होते इस तरह की चर्चाओं में उनके बयान की गम्भीरता कुछ और ही होती
मैने इस कविता को पहले कई बार पढा है और जब भी पहले इसे पढा तो सोचती रही कि निर्मला के सारे सवाल आखिर किससे हैं? क्या गैर आदिवासियों से ? या फिर सत्ता और उसके आस पास बैठे उनसे जो कल चर्चा का हिस्स थे ? किससे ?क्योंकि जब भी इस कविता को ध्यान से पढा है और समझने की कोशिश की है तो लगा है जैसे कि यह सवाल तो इस देश का अधिकांश नागरिक पूछ रहा है. जरा गौर से पढिये पुतुल को ............क्या यह सवाल उत्तर प्रदेश के उस गाँव के किसानों के नहीं हैं जिसके खेत का सरकार अधिग्रह्ण कर बिल्डर्स को देती है ? क्या यह सवाल सुदूर हिमांचल में रहने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गवाँर सम्मझे जाने वाले लोगों के नहीं हैं? क्या यह सवाल गरीब हरिजन के नहीं हैं ? हाँलाकि देखा जाये तो यह सभी सवाल पुतुल अपनी जमात की तरफ से कर रही हैं किंतु यह सवाल एक शास्वत सवाल है
अगर इस कविता के माध्यम से सिर्फ आदिवासी जमात की ही बात की जाये तो भी कविता कुछ मूल भूत व्यव्हारिक बात को हमारे सामने सरलता से लाती है. देखा जाये तो यह कविता एक ही देश में हो रहे नागरिकों के बीच की भयानक दूरी, कुंठा, क्षोभ और गहरे आक्रोश को व्यक्त करती है . आप इस कविता की निम्न पंक्तियों को पढे कई बातें और उसकी परतें साफ साफ खुलती जातीं हैं -
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
पर यहाँ मैं इस कविता को सिर्फ और सिर्फ आदिवासी जीवन, उसके सवाल और उसके आक्रोश से जोडकर ही देखने की कोशिश करूंगी ताकि हम आदिवासी सवाल से उसके आक्रोश और फिर नक्सल वाद तक के उनके सफर और साथ ही साथ दिल्ली दरबार , उसकी फितरत और वहा बैठे साझ्दारों की समझ के भी सफर की झलक देख सकने की कोशिश कर सकें...... यह इसलिये भी कि यह आलेख कल की चर्चा के आलोक में लिख रही हूँ
............... शेष अगले भाग मे^
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