Thursday, September 27, 2012
मेरे आँखों की नीद उड़ गयी है जैसे चिंदी चिंदी हो बिखर गयी है यहाँ वहां कल से कल से कुछ डरी सहमी आँखों की दुनिया उससे परिचय के बाद नीद का बिखरना बिखर कर उड़ जाना जैसे तै था शब्द खोज रही हूँ परिभाषा तलाश रही हूँ इधर उधर नज़रें दौड़ा रही हूँ कि क्या शब्द दूं उसे जिसकी आँखों में भाई था क्या नाम दूं जिसकी आँखों में चमक थी क्या लिखूं जो ठुमक ठुमक कर चाय पिला रही थी जिस दुनिया को देख कर आयी हूँ वह सब समझ लेने की कोशिश में उचट कर दूर दूर घूम आयी है नीद एक आँख बस मुझे ही तक रही है लाचार , बेबस , अनजान और डरी सहमी और ले उडी है नीद लिखूँगी एक व्यथा , एक कथा , एक दर्द औरत होने की सजा वो कमरा , वो लोग और वो दुनिया जहाँ संस्कृति , सभ्यता और मां मर्यादा की सारी परिभाषाएं मुह छुपाती हैं और सिसकती रहती है एक औरत और उसकी देह ......................अलका (लिखी जा रही कविता से )
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
सब समझ लेने की कोशिश मे
उचट कर दूर दूर घूम आई है नींद…
:)
डॉक्टर साहिबा अलका सिंह जी
नमस्कार !
नींद तो नहीं उचटी हमारी , लेकिन … आपकी लिखी जा रही यह कविता हमारे लिए भी पहेली बन रही है …
बहुत समय हो गया है …
अब इसे पूरी कर ही दें …
:)
शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार