Sunday, April 29, 2012
एक कविता अपने शहर के नाम......................आप सब से साझा कर रही हूँ ............उम्मीद है आप अपनी प्रतिक्रिया के साथ पसन्द भी करेंगे ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
सोचती हूँ
ऐसे वक्त पर जीवन में
एक शहर
रौशनी का नुमाइन्दा बन
अपने पूरे वजूद के साथ
प्रवेश करता गया अंतर तक
जब मन तमाम अठखेलियाँ करता
कभी मचलता , कभी भटकता , आवारागर्दी करता
गुजर रहा था कई ठिकानों से
तब किसी पितामह की तरह
सख्त हो अच्छे बुरे के फर्क को साझा करता
सामने खडा समझाता रहा बरसों
वह सब जो
मन की स्लेट पर लिखी
सबसे उम्दा इबारत है
जानती हूँ पिता नहीं था वह
फिर भी स्नेह वैसा ही था
जानती हूँ माँ नहीं था वह फिर भी
ममत्व से भरा
तमाम नसीहतों के साथ
एक अज़ीज़ दोस्त सा वो शहर
आज भी है
दिल के करीब अपनी तमाम रौशनी के साथ
भाषा, संस्कृति और संस्कार के बहाने
जीवन के कई रंग , अर्थ और जटिलतायें
उसके साथ ने ही समझा दिये थे जाने - अनजाने
आज भी उसके साथ का दम
मजबूत करता है
मेरा संकल्प, मेरी दृष्टी और बढने के हौसले को
कई बार सोचती हूँ सलाम करूँ वहाँ के देवी देवताओं को
माटी को और संगम को
सलाम करूँ बटवृक्ष को और बेणीमाधव को
पर अचनाक याद आते हैं
वहाँ के लोग, दोस्त –यार
याद आते हैं बडे - बुजुर्ग
और वो वटवृक्ष जिसकी शाखायें
बने हम फैले हैं चारो ओर
बस झुक जाती हूँ मन ही मन
करोडो धन्यवाद के बोल ले
बढ जाती हूँ उस तरफ जहाँ के लिये
वादा किया था
‘उससे’ बरसों पहले मन ही मन
अनवरत
खुश नसीब हूँ कि पली हूँ वहाँ
खुश नसीब हूँ कि बढी हूँ वहाँ
सच ! खुश नसीब हूँ कि पढी हूँ वहाँ
जहाँ से सब ओर आदमीयत की
परिभाषा जाती है
संस्कार की भाषा जाती है
सच कहूँ तो इस खुश नसीबी पर फखर करने से बेहतर
इसे बोना चहती हूँ
बंजर ज़मीनों में
एक आस्ताना उगाने के लिये
आदमियत का
.........................................अलका
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