Monday, December 24, 2012
सदियों से दुनिया में
आदमी है, सडके हैं, गाडी है, घोडा है
पर एक भय भी है
सब यूं ही साथ साथ
शह और मात का खेल खेलते चलते रहे हैं
आदमी आदमी से डरता रहा है
पर ‘वो’
वो जो सबसे पीछे है
सेनानियों के बीच
कौन है वो ?
वो जो बिल्कुल अकेली
हिरनी सी कांप रही है
कौन है वो ?
वो लुटेरों के हाथ पड गयी
घबरायी सी सिमट रही
आक्रांत, आतंकित सी,
कौन है वो ?
सडक के किनारे
चित्कार करती वो
ना जाने कब से
टकटकी लगाये इंतज़ार करती
कि
आयेगा एक राजकुमार
बाटने उसका सुख - दुख
कौन है वो ?
इस सारे सवालों के जवाब में हर जगह , हर बार खुद को देखती हूं
एक आंसू जो सदियों पहले
मेरी आंख की कोरों से बह गया था
आज भी अनवरत
वहीं से बह रहा है
वो चित्कार
जो निकली थी सदियों पहले
आज भी गूज रही है
अनवरत
एक आस लेकर जो
मैं खडी थी
राजा के पास
मंत्री के पास
सारे दरबार के सामने
आज भी उसी चौखट पर
दम तोड रही है
सोचो ना, सदियों से
दुनिया में मैं हूं
तुम हो
हमारा साथ है
फिर भी मैं भयभीत हूं
तुमसे , तुम्हारे होने से और
तुम्हारे ना होने से भी
ये सडके अकेले नहीं डराती मुझे
जब भी
कोई परछाई उसके साथ
चलने लगती है
डराने लगती है मुझे
पर
यह परछाई
उस आदमी को भी डराती हैं
जो आदमी अकेला है
जो दूसरों के लिये परछाई है
और जो दुनिया को लूट अकेले खाता है
सुनसान सडको को दोष देने से पहले
उस परछाई को खोजो
जो उन सबसे मिलती है
जो हम जैसे हैं
......................................................अलका
..............................
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