Tuesday, June 19, 2012
‘तुम’
मेरे अबोध मन पर
हर रोज़ लिखे जाते रहे हो
कभी सुन्दर राज कुमार के नाम से
कभी खूबसूरत अहसास के नाम से
कभी प्यार के नाम से
‘तुम’
अक्सर छापे जाते रहे हो
मेरे मन की स्लेट पर
मेरे सम्मान और सुरक्षा का हवाला दे
मेरे हर डर और भय की दवा के रूप में
‘तुम’
बिना देखे ही मुझसे अधिक
मेरी माँ की आंख के तारे हो
वह ख्वाब में भी तुम्हें देख किसी -किसी दिन
खुश हो जाती है और मुस्कुराती है
इस तरह जैसे नगीना
पा लिया हो उसने
‘तुम’
मुझसे अधिक नसीब हो मेरे पिता के
मेरे जन्म के पहले दिन से वह
कल्पना करते हैं तुम्हारे पदचाप की
जैसे प्रभु को पा लेंगे उस दिन
जब तुम आओगे
‘तुम’
इसीलिये , एक अनगढ सा, अनूठा सा खाब थे
आते जाते बाद्लों में जिसे तलश कर बडी हुई
पत्ते पत्ते पर जिसे लिखा और पढा
हर दिन एक अहसास को जिया
बीन बीन अंजुरी में भरा
‘तुम’
कौन हो ? एक अनाम अहसास
किस दुनिया के हो ? अनजान
रह्ते कहाँ हो ? खोजता रहा है ये मन
बोध हुआ है जब से अपने होने का
कि एक लडकी हूँ
उस अबोध मन की स्लेट
पर लिखी इबारत के साथ
‘तुम’से मिलने का
जब वह दिन आया
तो जैसे पासा ही पलट गया
माँ की मुस्कुराहट झरती रही
पिता का नसीब रोता रहा और
‘तुम’
किसी बहुमूल्य हीरे की तरह रख दिये गये
एक शीशे के जार में
जिसे मैं बस लालची आंखों से देख
ख्वाब में पाने की कल्पना कर
निहार सकती थी
तुम मुस्कुराते रहे
‘तुम’
आज भी गढे जाते हो
हर लडकी के मन में
उसके अपनो के बनाये खाब के सहारे
और सजाये जाते हो
राजकुमार की तरह जाने क्यों
और लडकियाँ
अपनी जमीन पर अंखुआने से पहले ही
धान की रोप का अहसास कर
तलाशने में लग जाती हैं
‘तुम’ को
मुझे कुछ स्याह पन्ने दिखते हैं
कुछ सजल आंखे जो इस तुम की तलाश का
सबसे स्याह इबारत है
इसलिये
इस तलाश की जगह
कुछ नया रोपा जाना जरूरी है
उस अबोध स्लेट पर जिसकी
हर इबारत अबतक
‘तुम’ को खोजती रही है
.............................अलका
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