१.
देखिये
चारो दिशाओं में वो रथी हो गए हैं
आजकल
और हम विरथी
कैसी विडम्बना है ना
हमारे ही दिए रथ पे सवार वो
राजसूय यज्ञ के लिए निकल पड़े हैं
और
हम
घँसे जा रहे हैं
दो गज ज़मीन में
कोई खाली पेट , कोई पिचके गाल और कोई
नंग - धडंग
बिना पनही के भाग रहे हैं सब
दाल - भात रोटी के लिए
इधर - उधर
और महरूम होते जा रहे हैं
अपनी हिस्सेदारी से
२.
लगभग एक दशक हो गया
जब कुछ अपने ही
झोंक दिए गए थे
अपनी ही जमीन पर
गाजे - बाजे के साथ
सबक सिखाने के लिए
और आज पूरा क़ा पूरा दशक बीत गया
टक - टक
बूटों के साए तले चीखते-चिल्लाते
कुछ परिजन आज भी
दर -दर गुहार कर
छान रहे हैं ख़ाक
न्याय की देहरी पर
एक फैसले के लिए
कुछ सजे धजे रथों के साथ
यात्रा शुरू है वहां
३.
यात्रा यहाँ भी शुरू है
गरीब रेखा के नीचे
गुज़र - बसर करने वाले
एक गरीब प्रदेश में
लकदक करोड़ों की यात्रा
टूटी -फूटी खटिया पर
बिन बिस्तर के बैठी उस बुधिया से बतियाते
औचक है उनकी यात्रा
लाव लश्कर के साथ
मरते हुए बच्चों, पिचके गलों
और धंसी हुई आँखों वाले लोंगों के बीच
वो यात्रा कर रहे हैं
यह जानने के लिए कि
कैसी है जनता ?
४.
एक यात्रा क़ा
अभी ब्लू प्रिंट बन रहा है
एक दलित की बेटी की यात्रा क़ा ब्लू प्रिंट
जिसके रस्ते बुहार दिए जाते हैं
हर रोज
उसके गुजरने के पहले
और धो दी जाती है सड़कें
गैलनो पानी से
ताकि मेहनत कशों और गरीबों की
बेवाइयों से निकालने वाली आह को
साफ़ किया जा सके
और टहल सकें कुछ लोग
उन साफ़ सुथरी सडकों पर
गरीबी मिटाने क़ा नारा ले
अभी बाकी है उनकी
यात्रा
५.
कुछ यात्रायें
अभी आरम्भ नहीं हुई हैं
कयास लग रहे हैं कि
होगी जल्द ही
एक राजकुमार की यात्रा
शायद राजतिलक के बाद
और एक राजमाता की भी
तब सब देखेंगे
कौन है पुरसाहाल और कौन मालामाल
और तब कर पाएंगे हम
यात्राओं क़ा सही गुना - भाग
.
६.
चारो तरफ सज़ गए है रथ
झूठ के वादे और कुछ नए सौदे के साथ
कितनी हसीन है ना ये यात्रायें
और इतनी महीन भी
................................................अलका
Thursday, November 10, 2011
विमलेश त्रिपाठी की कविताओं से गुजरते हुए
'विमलेश त्रिपाठी' जिन्हें मैं एक कवि के रूप में ही जानती थी कल ठीक से उनकी प्रोफाइल देख रही थी तो जैसे अचानक DEPARTMENT OF ATOMIC ENERGY पर नज़र ठहर गयी. कविता और Atomic Energy? जैसे दो विपरीत दिशाओं के गुण और योग्यताएं. यह तो जैसे दो विधाएं हैं बिलकुल विपरीत. ऐसा आमतौर पर माना जाता रहा है देश के सबसे पुराने कालेजों मे से एक प्रेसीडेंसी कालेज के छात्र रहे विमलेश ये दो विपरीत मानी जाने वाली योग्यता साथ लेकर चलते हैं. सोचती हूँ ये कैसे होता होगा कि अपने आफिस में काम करते हुए मन से कविता करता हो और वो भी भावों में उतर कर इतनी गहरी और गंभीर कवितायेँ ? आश्चर्य होता ही है और मुझे भी हुआ
यहाँ मैं पहले ही साफ कर दूं कि इस आलेख में मैं विमलेश की कविताओं पर बारीक साहित्यिक टिपण्णी से अधिक एक समाजविज्ञानी के रूप में कविताओं से गुजर रही हूँ. हांलांकि अगर गंभीरता से देखा जाये तो दोनों तरह से कविता की विवेचना में बड़ा फर्क नहीं है किन्तु फ़िर भी समाजविज्ञान की दृष्टी का अपना भी एक रूख है और मैं यहाँ उस रूप से ही साक्षात् कर पा रही हूँ. विमलेश की पहली रचना जिसने मुझे इस बात के लिये मज्बूर किया कि मैं उसपर कुछ लिखूं वो थी '' मै सुबह तक जिन्दा था'' इस रचना ने मुझे ये समझ दी की एक समाज से जुडी कवितओं का महत्व कितना व्यापक है और एक कवि तब कितना सार्थक हो जाता है जब वो समाज और उसके साथ रू - ब- रू होता है.
विमलेश की रचना देखें -
''सुबह मैं जिन्दा था
इस सोच के साथ कि एक कविता लिखूंगा
दोपहर एक भरे पूरे घर में
मैं अकेला था और जिंदा
कुछ परेशान-हैरान शब्दों के साथ
मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
उसकी मां ने पहले उसे चुप कराया
फिर उसे पीटने लगी
और फिर उसके साथ खूब-खूब रोई
जैसे अक्सर इस गरीब देश की मां रोती है''
विमलेश को मैं इक अरसे से पढ़ रही हूँ और उनकी कविताओं से गुजरते हुए लगता है जैसे आप भावों के एक अर्थपूर्ण गहरे समन्दर से गुजर रहे हैं जो जितना ही शांत है उसके भीतर एक उतनी ही बड़ी हलचल है जिसकी तहों तक जाने की जरूरत समन्दर में जाने के बाद ही महसूस होती है और इसलिए मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ के विमलेश भाव के कवि हैं जो दिल की कलम से लिखते हैं. किन्तु भाव के साथ ही विमलेश की एक और विशेषता उनकी कविताओं में साथ साथ दिखती है वो है उनकी चेतना जो बराबर उनकी रचना धर्मिता को धार देती रहती है. इसीलिए जब विमलेश कहते हैं कि -
मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
तो महसूस होता है कि वो एक जागते हुए कवि हैं जो अपने आसपास के परिवेश से बेचैन होते हैं, उनको शब्द देते हैं और सबसे बड़ी बात कि वो उसे लोंगों के सामने उसी पीड़ा और परिवेश के साथ लाने की कोशिश करते हैं जैसाकि वो देखते हैं. यह कविता इसी कड़ी की कविता है. यह छद्म से परे एक इमानदार कोशिश है जो इस देश के कवि की आवश्यकता भी है और दायित्व भी. यह वास्तव में एक तरह क़ा ऐसा साहित्य है जो आपके काल खंड को आनेवाली पीढ़ियों के सामने उसके सामाजिक आर्थिक परिवेश को भी रखता है. इसीलिए इस समय में कविता लिखते हुए जो संवेदना होनी चाहिए वो विमलेश की इस कविता में बखूबी मिलती भी है. यहाँ बरबस धूमिल की इक पंक्ति याद आ गयी. धूमिल कहते हैं के
"एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।"
निश्चय ही 'मैं सुबह तक जिन्दा था' यह कहकर विमलेश इस कविता को सार्थक वक्तव्य बनाते हैं और जब यह कहते हैं कि
एक आम आदमी होने के नाते जो बचे-खुचे शब्द थे
मेरी स्मृतियों में
इतिहास की अंधी गली से जान बचाकर भाग निकले
उनके सहारे
फिर मैंने इस देश के सरकार के नाम
एक लंबा पत्र लिखा
उस पत्र में आंसू थे क्रोध था गालियां थीं
और सबसे अधिक जो था वह डर था
तब वो अपनी इस कविता में अपनी चेतना की उपरोक्त कड़ी को जोड़ते हैं तब वो धूमिल के एक और वक्तव्य को सार्थक करते हैं कि ''कविता भाष़ा में आदमी होने की तमीज है। '' कोइ भी पाठक विमलेश की इस कविता से उनकी भाषा और आदमी होने की तमीज़ पर प्रश्नचिंह नहीं लगा सकता.
विमलेश की एक खासियत और भी है जब वो कविताओं के लिए शब्दों के जाल बनाते हैं तो कभी कभी वो विशुद्ध देशज शब्दों को जैसे जीवित कर देते हैं उसके पूरे बिम्ब के साथ. उनकी इस काबिलियत के लिए आप उनकी ये रचना देख सकते हैं -
माटी की दियरी में रूई की बाती से
हर ताखे चौखट घर आंगन में
जब जगमग होती रोशनी
एक दिया जलती हम सब की आंखों में
एक दिया हृदय में
मन के गहन अंधेरे में भी एक दिया
एक दिया गाय के खूंटे पर
एक दिया चरनी के उपर
एक दिया चौबारे पर तुलसी के नीचे
मैंने इस कविता में प्रयोग किये गए कुछ शब्द अपने बचपन में अपने ननिहाल में सुने थे. इस कविता को पढ़ जैसे अपनी पूरी संस्कृति से गुजर रही हूँ. शायद हर वो पाठक इस मनःस्थिति से गुजरेगा जो इन शब्दों से जुड़ा होगा. माटी की दियरी, चरनी. ताखा ये सभी शब्द कम से कम शहर से तो लुप्त हो गए हैं और गाँव में भी बचे नहीं रहेंगे ये आने वाली संस्कृति कह रही है . तो उस दौर में ये कविता आनेवाली पीढ़ियों को ये बताएगी के चरनी क्या होती थी? और तब बच्चा पूछेगा क्यों होती थी ? और फ़िर सवाल करेगा कि अब ख़तम क्यों हो गयी ? इतना ही नहीं यह कविता हमारे पुराने घरों की बनावट रहनसहन को भी सामने लाने क़ा प्रयास करती है. यानि कह सकते हैं कि इक पूरा दृश्य सबके सामने रखती है और उसके महत्व को भी भी बताती है. बच्चा जान पायेगा ताखा , चरनी के माध्यम से पूरा ग्रामीण परिवेश और साथ ही वो अपने प्रश्नों के सहारे अपनी पूरी संस्कृति से गुजरेगा और एक दृश्य बनाएगा मन में. विमलेश कवि के इस दायित्व को जाने अनजाने निभा ही रहे हैं यह कविता और इस तरह की कविता की आनेवाले वक्त में शिद्दत से जरूरत होगी.
विमलेश शुद्ध कविता और उसके शिल्प और उसके गहरे भाव के लिहाज़ से भी बहुत ही परिपक्व कवितायेँ लाते हैं हमारे सामने उदहारण के लिए ये रचना देखें :
लिखता नहीं कुछ
कहता नहीं कुछ
तुम यदि एक सरल रेखा
तो ठीक उसके नीचे खींच देता
एक छोटी सरल रेखा
फिलहाल इसी तरह परिभाषित करता
तुमसे अपना संबंध
यह एक बहुत ही गहरे भाव से लिखी गयी एक परिपक्व रचना है. जो कवि के व्यक्तित्व से भी परिचय करती है और संबंधों को लेकर उसके नज़रिए को भी. और अब बात शब्दों के महीन धागे की जिसके साथ विमलेश महाकाव्य लिखेंगे -
शब्दों के महीन धागे हैं
हमारे संबंध
कई-कई शब्दों के रेशे-से गुंथे
साबुत खड़े हम
एक शब्द के ही भीतर
एक शब्द हूं मैं
एक शब्द हो तुम
और इस तरह साथ मिलकर
एक भाषा हैं हम
एक ऐसी भाषा
जिसमें एक दिन हमें
एक महाकाव्य लिखना है....
मैं यहाँ इस कविता की आलोचना से इतर विमलेश की इस कल्पना के विषय में सोच रही हूँ के '' एक महाकाव्य लिखना है '' कैसा होगा वो महाकाव्य ? शब्दों के महीन धागे वाले इस महाकाव्य में कैसे परिभाषित किया जायेगा संबंधों को ? जब वो कहते हैं के ''एक शब्द हो तुम और एक मैं और साथ मिलकर एक भाषा है '' तो विमलेश की इस भाषा क़ा विकास कैसा और किन - किन पड़ावों को छुएगा और छूते हुए गुजरेगा ? यह महाकाव्य भाषा के विकास के मायने कैसे तय करेगा ? उस तुम को किस तरह से परिभाषित करेगा? आने वाले दिनों में वो जिस महाकाव्य से हमारा परिचय कराएँगे उसमें समाज कैसा होगा ? किन किन कोनो से ले आजेंगे शब्दों के पुंज इस महीन रेशे से गुथे इस महाकाव्य को पूरा करने के लिए. यह कविता निश्चय ही एक बड़ा अर्थ लिए हुए है और उम्मीद भी. दरअसल ये विमलेश के लिए एक चुनौती है आनेवाले दिनों के लेखन के लिए और हम सबको इंतज़ार रहेगा के वो अपने लिए खुद खडी की गयी इस चुनौती से कैसे दो चार होते हैं.
वैसे सच कहा जाये तो मुझ जैसे पाठक के लिए बहुत रोचक होता है इक ऐसे कवि और उसकी रचनाओं से गुजरना जो शब्दों उसके भाव और समाज से जुड़े अपने सरोकारों को कविता के माध्यम से सार्थक करता है. उसकी कविता और उसके भाव सिर्फ सवागत भाव ना होकर वो उससे ऊपर उठ सामाजिक सरोकारों से भी पाठक को जोड़ती है. विमलेश की हर कविता में कहीं ना कहीं समाज से इक जुडाव साफ़ साफ़ दिखता है चाहे वो शब्दों के माध्यम से हो या सीधे हो. इसीलिए मेरे जैसे पाठक के लिए विमलेश की रचनाओं से गुजरना बहुत सुखद होता है क्योंकि वो बहुत से नए बिम्ब और ताजापन देते हैं अपनी कविताओं में - और अपने सामाजिक सरोकारों को स्वीकार करते हुए लिखते हैं लिखते हैं -
''महज़ लिखनी नहीं होती कविताये ''
.................................डॉ. अलका सिंह
यहाँ मैं पहले ही साफ कर दूं कि इस आलेख में मैं विमलेश की कविताओं पर बारीक साहित्यिक टिपण्णी से अधिक एक समाजविज्ञानी के रूप में कविताओं से गुजर रही हूँ. हांलांकि अगर गंभीरता से देखा जाये तो दोनों तरह से कविता की विवेचना में बड़ा फर्क नहीं है किन्तु फ़िर भी समाजविज्ञान की दृष्टी का अपना भी एक रूख है और मैं यहाँ उस रूप से ही साक्षात् कर पा रही हूँ. विमलेश की पहली रचना जिसने मुझे इस बात के लिये मज्बूर किया कि मैं उसपर कुछ लिखूं वो थी '' मै सुबह तक जिन्दा था'' इस रचना ने मुझे ये समझ दी की एक समाज से जुडी कवितओं का महत्व कितना व्यापक है और एक कवि तब कितना सार्थक हो जाता है जब वो समाज और उसके साथ रू - ब- रू होता है.
विमलेश की रचना देखें -
''सुबह मैं जिन्दा था
इस सोच के साथ कि एक कविता लिखूंगा
दोपहर एक भरे पूरे घर में
मैं अकेला था और जिंदा
कुछ परेशान-हैरान शब्दों के साथ
मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
उसकी मां ने पहले उसे चुप कराया
फिर उसे पीटने लगी
और फिर उसके साथ खूब-खूब रोई
जैसे अक्सर इस गरीब देश की मां रोती है''
विमलेश को मैं इक अरसे से पढ़ रही हूँ और उनकी कविताओं से गुजरते हुए लगता है जैसे आप भावों के एक अर्थपूर्ण गहरे समन्दर से गुजर रहे हैं जो जितना ही शांत है उसके भीतर एक उतनी ही बड़ी हलचल है जिसकी तहों तक जाने की जरूरत समन्दर में जाने के बाद ही महसूस होती है और इसलिए मैं पूरे विश्वास के साथ कहती हूँ के विमलेश भाव के कवि हैं जो दिल की कलम से लिखते हैं. किन्तु भाव के साथ ही विमलेश की एक और विशेषता उनकी कविताओं में साथ साथ दिखती है वो है उनकी चेतना जो बराबर उनकी रचना धर्मिता को धार देती रहती है. इसीलिए जब विमलेश कहते हैं कि -
मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में
जो एक छोटी बच्ची है
जिसके दूध का बोतल खाली था
वह ऐसे रो रही थी
जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है
तो महसूस होता है कि वो एक जागते हुए कवि हैं जो अपने आसपास के परिवेश से बेचैन होते हैं, उनको शब्द देते हैं और सबसे बड़ी बात कि वो उसे लोंगों के सामने उसी पीड़ा और परिवेश के साथ लाने की कोशिश करते हैं जैसाकि वो देखते हैं. यह कविता इसी कड़ी की कविता है. यह छद्म से परे एक इमानदार कोशिश है जो इस देश के कवि की आवश्यकता भी है और दायित्व भी. यह वास्तव में एक तरह क़ा ऐसा साहित्य है जो आपके काल खंड को आनेवाली पीढ़ियों के सामने उसके सामाजिक आर्थिक परिवेश को भी रखता है. इसीलिए इस समय में कविता लिखते हुए जो संवेदना होनी चाहिए वो विमलेश की इस कविता में बखूबी मिलती भी है. यहाँ बरबस धूमिल की इक पंक्ति याद आ गयी. धूमिल कहते हैं के
"एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।"
निश्चय ही 'मैं सुबह तक जिन्दा था' यह कहकर विमलेश इस कविता को सार्थक वक्तव्य बनाते हैं और जब यह कहते हैं कि
एक आम आदमी होने के नाते जो बचे-खुचे शब्द थे
मेरी स्मृतियों में
इतिहास की अंधी गली से जान बचाकर भाग निकले
उनके सहारे
फिर मैंने इस देश के सरकार के नाम
एक लंबा पत्र लिखा
उस पत्र में आंसू थे क्रोध था गालियां थीं
और सबसे अधिक जो था वह डर था
तब वो अपनी इस कविता में अपनी चेतना की उपरोक्त कड़ी को जोड़ते हैं तब वो धूमिल के एक और वक्तव्य को सार्थक करते हैं कि ''कविता भाष़ा में आदमी होने की तमीज है। '' कोइ भी पाठक विमलेश की इस कविता से उनकी भाषा और आदमी होने की तमीज़ पर प्रश्नचिंह नहीं लगा सकता.
विमलेश की एक खासियत और भी है जब वो कविताओं के लिए शब्दों के जाल बनाते हैं तो कभी कभी वो विशुद्ध देशज शब्दों को जैसे जीवित कर देते हैं उसके पूरे बिम्ब के साथ. उनकी इस काबिलियत के लिए आप उनकी ये रचना देख सकते हैं -
माटी की दियरी में रूई की बाती से
हर ताखे चौखट घर आंगन में
जब जगमग होती रोशनी
एक दिया जलती हम सब की आंखों में
एक दिया हृदय में
मन के गहन अंधेरे में भी एक दिया
एक दिया गाय के खूंटे पर
एक दिया चरनी के उपर
एक दिया चौबारे पर तुलसी के नीचे
मैंने इस कविता में प्रयोग किये गए कुछ शब्द अपने बचपन में अपने ननिहाल में सुने थे. इस कविता को पढ़ जैसे अपनी पूरी संस्कृति से गुजर रही हूँ. शायद हर वो पाठक इस मनःस्थिति से गुजरेगा जो इन शब्दों से जुड़ा होगा. माटी की दियरी, चरनी. ताखा ये सभी शब्द कम से कम शहर से तो लुप्त हो गए हैं और गाँव में भी बचे नहीं रहेंगे ये आने वाली संस्कृति कह रही है . तो उस दौर में ये कविता आनेवाली पीढ़ियों को ये बताएगी के चरनी क्या होती थी? और तब बच्चा पूछेगा क्यों होती थी ? और फ़िर सवाल करेगा कि अब ख़तम क्यों हो गयी ? इतना ही नहीं यह कविता हमारे पुराने घरों की बनावट रहनसहन को भी सामने लाने क़ा प्रयास करती है. यानि कह सकते हैं कि इक पूरा दृश्य सबके सामने रखती है और उसके महत्व को भी भी बताती है. बच्चा जान पायेगा ताखा , चरनी के माध्यम से पूरा ग्रामीण परिवेश और साथ ही वो अपने प्रश्नों के सहारे अपनी पूरी संस्कृति से गुजरेगा और एक दृश्य बनाएगा मन में. विमलेश कवि के इस दायित्व को जाने अनजाने निभा ही रहे हैं यह कविता और इस तरह की कविता की आनेवाले वक्त में शिद्दत से जरूरत होगी.
विमलेश शुद्ध कविता और उसके शिल्प और उसके गहरे भाव के लिहाज़ से भी बहुत ही परिपक्व कवितायेँ लाते हैं हमारे सामने उदहारण के लिए ये रचना देखें :
लिखता नहीं कुछ
कहता नहीं कुछ
तुम यदि एक सरल रेखा
तो ठीक उसके नीचे खींच देता
एक छोटी सरल रेखा
फिलहाल इसी तरह परिभाषित करता
तुमसे अपना संबंध
यह एक बहुत ही गहरे भाव से लिखी गयी एक परिपक्व रचना है. जो कवि के व्यक्तित्व से भी परिचय करती है और संबंधों को लेकर उसके नज़रिए को भी. और अब बात शब्दों के महीन धागे की जिसके साथ विमलेश महाकाव्य लिखेंगे -
शब्दों के महीन धागे हैं
हमारे संबंध
कई-कई शब्दों के रेशे-से गुंथे
साबुत खड़े हम
एक शब्द के ही भीतर
एक शब्द हूं मैं
एक शब्द हो तुम
और इस तरह साथ मिलकर
एक भाषा हैं हम
एक ऐसी भाषा
जिसमें एक दिन हमें
एक महाकाव्य लिखना है....
मैं यहाँ इस कविता की आलोचना से इतर विमलेश की इस कल्पना के विषय में सोच रही हूँ के '' एक महाकाव्य लिखना है '' कैसा होगा वो महाकाव्य ? शब्दों के महीन धागे वाले इस महाकाव्य में कैसे परिभाषित किया जायेगा संबंधों को ? जब वो कहते हैं के ''एक शब्द हो तुम और एक मैं और साथ मिलकर एक भाषा है '' तो विमलेश की इस भाषा क़ा विकास कैसा और किन - किन पड़ावों को छुएगा और छूते हुए गुजरेगा ? यह महाकाव्य भाषा के विकास के मायने कैसे तय करेगा ? उस तुम को किस तरह से परिभाषित करेगा? आने वाले दिनों में वो जिस महाकाव्य से हमारा परिचय कराएँगे उसमें समाज कैसा होगा ? किन किन कोनो से ले आजेंगे शब्दों के पुंज इस महीन रेशे से गुथे इस महाकाव्य को पूरा करने के लिए. यह कविता निश्चय ही एक बड़ा अर्थ लिए हुए है और उम्मीद भी. दरअसल ये विमलेश के लिए एक चुनौती है आनेवाले दिनों के लेखन के लिए और हम सबको इंतज़ार रहेगा के वो अपने लिए खुद खडी की गयी इस चुनौती से कैसे दो चार होते हैं.
वैसे सच कहा जाये तो मुझ जैसे पाठक के लिए बहुत रोचक होता है इक ऐसे कवि और उसकी रचनाओं से गुजरना जो शब्दों उसके भाव और समाज से जुड़े अपने सरोकारों को कविता के माध्यम से सार्थक करता है. उसकी कविता और उसके भाव सिर्फ सवागत भाव ना होकर वो उससे ऊपर उठ सामाजिक सरोकारों से भी पाठक को जोड़ती है. विमलेश की हर कविता में कहीं ना कहीं समाज से इक जुडाव साफ़ साफ़ दिखता है चाहे वो शब्दों के माध्यम से हो या सीधे हो. इसीलिए मेरे जैसे पाठक के लिए विमलेश की रचनाओं से गुजरना बहुत सुखद होता है क्योंकि वो बहुत से नए बिम्ब और ताजापन देते हैं अपनी कविताओं में - और अपने सामाजिक सरोकारों को स्वीकार करते हुए लिखते हैं लिखते हैं -
''महज़ लिखनी नहीं होती कविताये ''
.................................डॉ. अलका सिंह
Wednesday, November 9, 2011
पिता, पुत्री के बीच इक रिश्ता है
पिता और पुत्री का सम्बन्ध
वक्त की रेत पर
भावनाओं में उलझी
इक टेढ़ी मेढ़ी किताब है
इक जटिल अनुबंध
जिसपर अबोध दस्तखत के साथ
पढ़ते - पढ़ते
जवान हो जाती हैं बेटियां
और तब भी रह जाता है कुछ
अनसुलझे सवाल की तरह
यह सम्बन्ध जैसे इक बहता हुआ झरना है
जो तब्दील होता जाता है इक
बड़ी सी नदी में
और जीते जी इसे पार करने का साहस
पैदा करना होता है
बेटियों को अकेले ही
अपने आत्म विशवास के रथ पर चढ़ कर
पर अक्सर भावनाएं इस पर चढ़
लगाम कसती हैं
पिता के साथ बेटियों का सम्बन्ध
जैसे इक गाथा है
किश्तों में लिखी इक किताब
जिसके कई पन्ने पूरे तो
कई आधे -अधूरे
बेटियां इस किताब के पन्नों को
पढ़ती और स्तब्ध होती रहती हैं
उम्रभर
कई बार यह सम्बन्ध
आकाश में चमकते झिलमिल तारों सा
लगता है
जिसे निहारते - समझते
आँखों में उतर गए आंसुओं के साथ
बेटियां बांधती और सहेजती रहती हैं
वक्त के कुछ पन्ने
इक अर्थहीन और लाचार सम्बन्ध भी है
पिता और पुत्री का
जो लाचार सा चलता है उम्रभर
कभी चट्टान सा पिता
मोम की तरह पिघलता रहता है
जैसे बेटियां कारण हों लाचारगी का
जैसे पीड़ा हों उम्रभर की
जैसे
मरते हुए सम्बन्ध का मरता हुआ
पन्ना हों
सच कहूँ तो
बदलते वक्त के बदलते पिताओं में
अब भी बचे हैं
शेष के अंश
उसे वो अब भी सहेज रहा है
और
बेटियां अब भी पढ़ रही हैं
इक टेढ़ी किताब
सीधा समझ समझ
.......................................अलका
वक्त की रेत पर
भावनाओं में उलझी
इक टेढ़ी मेढ़ी किताब है
इक जटिल अनुबंध
जिसपर अबोध दस्तखत के साथ
पढ़ते - पढ़ते
जवान हो जाती हैं बेटियां
और तब भी रह जाता है कुछ
अनसुलझे सवाल की तरह
यह सम्बन्ध जैसे इक बहता हुआ झरना है
जो तब्दील होता जाता है इक
बड़ी सी नदी में
और जीते जी इसे पार करने का साहस
पैदा करना होता है
बेटियों को अकेले ही
अपने आत्म विशवास के रथ पर चढ़ कर
पर अक्सर भावनाएं इस पर चढ़
लगाम कसती हैं
पिता के साथ बेटियों का सम्बन्ध
जैसे इक गाथा है
किश्तों में लिखी इक किताब
जिसके कई पन्ने पूरे तो
कई आधे -अधूरे
बेटियां इस किताब के पन्नों को
पढ़ती और स्तब्ध होती रहती हैं
उम्रभर
कई बार यह सम्बन्ध
आकाश में चमकते झिलमिल तारों सा
लगता है
जिसे निहारते - समझते
आँखों में उतर गए आंसुओं के साथ
बेटियां बांधती और सहेजती रहती हैं
वक्त के कुछ पन्ने
इक अर्थहीन और लाचार सम्बन्ध भी है
पिता और पुत्री का
जो लाचार सा चलता है उम्रभर
कभी चट्टान सा पिता
मोम की तरह पिघलता रहता है
जैसे बेटियां कारण हों लाचारगी का
जैसे पीड़ा हों उम्रभर की
जैसे
मरते हुए सम्बन्ध का मरता हुआ
पन्ना हों
सच कहूँ तो
बदलते वक्त के बदलते पिताओं में
अब भी बचे हैं
शेष के अंश
उसे वो अब भी सहेज रहा है
और
बेटियां अब भी पढ़ रही हैं
इक टेढ़ी किताब
सीधा समझ समझ
.......................................अलका
Tuesday, November 8, 2011
'औरतें '
दूसरे के घरों में
बर्तन माजते , कपडे धोते, झाडू लगाते, पोंछा करते
ऐसे बहुत से चरित्र हैं
जिसे जीती हैं छोटी जात की औरतें
और वो
जो दिखती है गहनों से लदी
बिना पैसे के उम्र भर
लगाती है दिन रात पोंछा , झाड़ू
धोती है कपडे
ये तो सब की सब हैं
छोटी जाती की
'औरतें '
बर्तन माजते , कपडे धोते, झाडू लगाते, पोंछा करते
ऐसे बहुत से चरित्र हैं
जिसे जीती हैं छोटी जात की औरतें
और वो
जो दिखती है गहनों से लदी
बिना पैसे के उम्र भर
लगाती है दिन रात पोंछा , झाड़ू
धोती है कपडे
ये तो सब की सब हैं
छोटी जाती की
'औरतें '
Monday, November 7, 2011
छोटी जाति की औरतें
१.
औरतें
बटी हैं इस देश में
जातियों में, वर्गों में, छूत - अछूत में
और बहुत सी अलग -अलग पहचानो में
कब हुआ ये बटवारा और क्यों
पता नहीं
पर पहली बार
डंके की चोट पर प्रगति कर रहे
इस प्रदेश में
जातियों में बाटी गयी औरतों के लिए
सुने कुछ संबोधन
खचाखच भरी एक दुकांन पर
जब दूकानदार ने -
'छोट जातिया हई सब
हटाव इहाँ से 'कह
उनकी आर्थिक गरीबी का मज़ाक बनाते हुए
फिकरा कसा -
'पैसा ना कौड़ी
बीच बाज़ार में दौरा -दौरी '
बौखला जाने वाले इस वक्तव्य पर भी
संकोच में वो चार
चुप चुप कोने में खडी सुनती रहीं
अपना उपहास.
२.
उसे सूप चाहिए था छठ के लिए
इच्छा थी उसकी
के इस बार सूर्य देव को
पीतल के कलसुप में अरग दिया जाये
अपनी अंती के सारे पैसे जोर बटोर के
पहुँच गयी थी
बर्तन की दुकान पर
दो ले लूंगी सोचा था उसने
बहुत लालच से उसने सूपों को देखा और उठा लिए दो
लेने के लिए
दूकानदार कनखियों से कभी उसे देखता
कभी उसके हाथ के सूपों को
चार सौ में दो मिल जायेंगे
यही सोच उठाये थे दो
पर
एक ही मिलेगा यह जान मन मसोस लिया उसने
और दुकानदार ने छीन लिया
यह कह के -
जेतना औकात हो ओतने सामान लेना चाहिए
हाथ से सूप
३.
उनके घर में,
दीवाली की रात बरामदे के
कोने में बैठी वो औरत
इंतज़ार में थी के आज मिलेगा
अच्छा खाना और कुछ अच्छे पकवान
इंतज़ार करते करते
वक्त बीतता रहा
और वो बैठी रही
सबसे अंत में
उसकी थाली में थी
सुबह की सेंकी गयी कुछ पूड़ियाँ
अंचार और कुछ पेडे
................................alka
औरतें
बटी हैं इस देश में
जातियों में, वर्गों में, छूत - अछूत में
और बहुत सी अलग -अलग पहचानो में
कब हुआ ये बटवारा और क्यों
पता नहीं
पर पहली बार
डंके की चोट पर प्रगति कर रहे
इस प्रदेश में
जातियों में बाटी गयी औरतों के लिए
सुने कुछ संबोधन
खचाखच भरी एक दुकांन पर
जब दूकानदार ने -
'छोट जातिया हई सब
हटाव इहाँ से 'कह
उनकी आर्थिक गरीबी का मज़ाक बनाते हुए
फिकरा कसा -
'पैसा ना कौड़ी
बीच बाज़ार में दौरा -दौरी '
बौखला जाने वाले इस वक्तव्य पर भी
संकोच में वो चार
चुप चुप कोने में खडी सुनती रहीं
अपना उपहास.
२.
उसे सूप चाहिए था छठ के लिए
इच्छा थी उसकी
के इस बार सूर्य देव को
पीतल के कलसुप में अरग दिया जाये
अपनी अंती के सारे पैसे जोर बटोर के
पहुँच गयी थी
बर्तन की दुकान पर
दो ले लूंगी सोचा था उसने
बहुत लालच से उसने सूपों को देखा और उठा लिए दो
लेने के लिए
दूकानदार कनखियों से कभी उसे देखता
कभी उसके हाथ के सूपों को
चार सौ में दो मिल जायेंगे
यही सोच उठाये थे दो
पर
एक ही मिलेगा यह जान मन मसोस लिया उसने
और दुकानदार ने छीन लिया
यह कह के -
जेतना औकात हो ओतने सामान लेना चाहिए
हाथ से सूप
३.
उनके घर में,
दीवाली की रात बरामदे के
कोने में बैठी वो औरत
इंतज़ार में थी के आज मिलेगा
अच्छा खाना और कुछ अच्छे पकवान
इंतज़ार करते करते
वक्त बीतता रहा
और वो बैठी रही
सबसे अंत में
उसकी थाली में थी
सुबह की सेंकी गयी कुछ पूड़ियाँ
अंचार और कुछ पेडे
................................alka
Sunday, November 6, 2011
छोटू सपने देखता है
छोटू हर दिन सपने देखता है
ढेरों .....
सोते - जागते, उठते - बैठते
उसकी आँखें भरी होती हैं अनगिनत सपनो
और उन्हें सच करने की मंशा से
पर
पेट की आग और मजबूरियां उसे ला खड़ा करती हैं
ढाबे की चौखट पर
कमा लाने के लिए चंद सिक्के
जहाँ छोटे छोटे उसके हाँथ दिनभर खेलते रहते है
प्लेट प्लेट और उंगली पकडाई
से सवाल
पर फिर भी वो सपने देखता है
हर रोज
सुनहरे सुनहरे
२
एक सपना बड़ा खींचता है उसे
वो दौड़ता रहता है उसके पीछे
नीद में पूरी रात
के एक स्कूल उसका भी है
बड़ा सा मालिक के बच्चे वाले सा
वो स्कूल जाता है
सुबह सुबह
सुन्दर साफ़ सुथरी ड्रेस पहन
एक डक वाली बोतल और
सुन्दर से टिफिन बॉक्स और बड़ा सा बस्ता ले
काले- काले जूते , सफ़ेद मोज़े
अहा !
वो चहकता है यह देख के
उसे छोड़ने
रोज आती है मां
बस तक
और वो बाय कह
हर रोज वैन में चढ़ जाता है
और छन्न न न
टूट जाती है इक प्लेट
जमीन पर गिर
मालिक तो जैसे सनक जाता है
उसका कान हाथ में ले पूछ बैठता है
साले आज फिर टूट गयी ?
रोज तोड़ता है एक प्लेट ?
कौन भरेगा पैसे ? तेरा बाप?
बस
उसकी आँखों में इक दुःख भी तैर जाता है
वैसे ही जैसे वो
सपना देखता है
सोते - जागते, उठते- बैठते
३.
ऐसी डांट के बाद
अक्सर
जब भी कोइ पूछता है
स्कूल क्यों नहीं जाता रे ?
जबाब में
सर झुका देता है धीरे से
और पलट कर पूछता है
क्या चहिये साब ?
चाय -समोसा , वाटता बड़ा , डोसा, इडली - संभार
और ............
इसी तरह इक बड़ी सी लिस्ट ले
हर दिन विनम्र हो
सबके सामने खड़ा रहता
अपने सपनो की देह पर
ऑर्डर मिलते ही पलट कर
हिरन हो जाता है वो
कभी सर झुकाए और कभी
होले से मुस्कुरा
४.
आज किसी ने टिप दी है उसे
५ रुपये की
और वो विफर रहा है
जार - जार
साहब कम से कम आप तो मत दीजिए
भीख
रोज सोचता हूँ
आपसे कहूँगा अपना वो सपना
और पूछूँगा के कैसे सच होगा
वो
अगर टिप देनी ही है तो
रास्ता दीजिए मुझे
मेरे सपनो पर चलने का
एक स्कूल चाहिए मुझे
एक बस्ता
और कुछ किताबें भी
पानी की बोतल और टिफिन ना भी हो
तो चलेगा
................................................ अलका
ढेरों .....
सोते - जागते, उठते - बैठते
उसकी आँखें भरी होती हैं अनगिनत सपनो
और उन्हें सच करने की मंशा से
पर
पेट की आग और मजबूरियां उसे ला खड़ा करती हैं
ढाबे की चौखट पर
कमा लाने के लिए चंद सिक्के
जहाँ छोटे छोटे उसके हाँथ दिनभर खेलते रहते है
प्लेट प्लेट और उंगली पकडाई
से सवाल
पर फिर भी वो सपने देखता है
हर रोज
सुनहरे सुनहरे
२
एक सपना बड़ा खींचता है उसे
वो दौड़ता रहता है उसके पीछे
नीद में पूरी रात
के एक स्कूल उसका भी है
बड़ा सा मालिक के बच्चे वाले सा
वो स्कूल जाता है
सुबह सुबह
सुन्दर साफ़ सुथरी ड्रेस पहन
एक डक वाली बोतल और
सुन्दर से टिफिन बॉक्स और बड़ा सा बस्ता ले
काले- काले जूते , सफ़ेद मोज़े
अहा !
वो चहकता है यह देख के
उसे छोड़ने
रोज आती है मां
बस तक
और वो बाय कह
हर रोज वैन में चढ़ जाता है
और छन्न न न
टूट जाती है इक प्लेट
जमीन पर गिर
मालिक तो जैसे सनक जाता है
उसका कान हाथ में ले पूछ बैठता है
साले आज फिर टूट गयी ?
रोज तोड़ता है एक प्लेट ?
कौन भरेगा पैसे ? तेरा बाप?
बस
उसकी आँखों में इक दुःख भी तैर जाता है
वैसे ही जैसे वो
सपना देखता है
सोते - जागते, उठते- बैठते
३.
ऐसी डांट के बाद
अक्सर
जब भी कोइ पूछता है
स्कूल क्यों नहीं जाता रे ?
जबाब में
सर झुका देता है धीरे से
और पलट कर पूछता है
क्या चहिये साब ?
चाय -समोसा , वाटता बड़ा , डोसा, इडली - संभार
और ............
इसी तरह इक बड़ी सी लिस्ट ले
हर दिन विनम्र हो
सबके सामने खड़ा रहता
अपने सपनो की देह पर
ऑर्डर मिलते ही पलट कर
हिरन हो जाता है वो
कभी सर झुकाए और कभी
होले से मुस्कुरा
४.
आज किसी ने टिप दी है उसे
५ रुपये की
और वो विफर रहा है
जार - जार
साहब कम से कम आप तो मत दीजिए
भीख
रोज सोचता हूँ
आपसे कहूँगा अपना वो सपना
और पूछूँगा के कैसे सच होगा
वो
अगर टिप देनी ही है तो
रास्ता दीजिए मुझे
मेरे सपनो पर चलने का
एक स्कूल चाहिए मुझे
एक बस्ता
और कुछ किताबें भी
पानी की बोतल और टिफिन ना भी हो
तो चलेगा
................................................ अलका
Saturday, November 5, 2011
'पेट्रोल' के दाम बढ़ गए हैं
गुनगुनी धूप में सड़क के किनारे
रोज जलते हैं कुछ चूल्हे
उन सिरकियों के पास जो उन मेहनत कशों की है
जो बनाते हैं ताज, संसद बहुमंजिली ईमारत और हजारों कोठियां
पर अपने लिए इक घर नहीं बना पाते
और बिखरे रहते हैं बड़े शहर की चकाचौंध में
इधर - उधर
आज सुबह सुबह इन्हीं सिरकियों के बसेरे में
एक चूल्हा इंतज़ार में था
उन चूड़ियों वाले उस हाथ का जो सारी ममता ले
जोरेगी इक आंच परिवार के लिए और सेंकेगी कुछ
रोटियां सोंधी सोंधी
पर
आज सुबह सुबह ही वो
सर पर हाथ रख सुन रही थी
समाचार
कल रात थकी मांदी सो गयी थी जल्दी
काम पर जाना है कह
क्या हो गया है इसे
चूल्हा सोच में था
और मालकिन सोच में थी के
क्या बोल रहे हैं देश के प्रधान और क्या होता है
डीरेगुलेशन
२
'पेट्रोल'
क्या करूँ इसका
हर रोज उछल जाता है और मेरा घर
कहीं रुक कर गिनने लगता है
हाथ में आने वाली महीने की रकम
और उनके चेहरे पर उभर आतीं हैं कई लकीरें
आड़ी - टेढ़ी
उनके चेहरे का भूगोल बिगड़ जाता है
और मेरे लिए खुल जाती है फिर से
अर्थशास्त्र की किताब जिसे
हर बार पेट्रोल की बढ़ी कीमत के साथ
समझती हूँ घंटों
इस साल ११ बार उछल चुका है और मैं हर बार
समझने लगती हूँ इतिहास , भूगोल और अर्थशास्त्र
मैं तो गृहविज्ञान की छात्र थी
क्या जानू अर्थ शास्त्र
पर इस साल सचमुच समझ गयी हूँ
पूरा का पूरा अर्थशास्त्र
देश के प्रधान का
डीरेगुलेशन फंडा भी
३.
सदियों गाँव मस्त थे
अपनी दुनिया में सारे तीन तिकड़म से
अनजान
सुबह की पहली किरण के साथ उठ हर रोज
गढ़ते थे अपनी किस्मत
आज उनके माथे पर भी बल हैं
होठों पर हजारों गलियां
कभी अपने पर, कभी अपनी बेबसी पर
और कभी अपनी ही चुनी सरकार पर
फिर बढ़ गए पेट्रोल के दाम
जैसे हवा हो गयी थी खबर
चर्चा गरम थी चौपाल में
के
अब डीज़ल के भी दाम बढ़ेंगे
ऐसा देश के प्रधान कह रहे थे
सब समझने को आतुर थे
डीरेगुलेशन का मर्म
और सारी की सारी औरतें हैं यहाँ
बेखबर
४.
देश के सन्नाटे को चीरती
एक गाडी अभी अभी गुज़री है
बेधड़क, बेख़ौफ़ और बिना चिंता
कुछ गुलाबी लाल चेहरों के साथ
जैसे सारी मलाई इनके खाते में हो
जैसे पेट्रोल इनके कब्जे में हो
डीज़ल बांदी हो
महंगाई इनके चरण में बैठ भजन गाती हो
जैसे सारा रिमोट वो लिए बैठे हैं
तभी तो
वो कहते हैं तो वो बोलते हैं
वो लिखते हैं तो वो गाते हैं
वो देते हैं तो वो पढ़ाते हैं
डीरेगुलेशन के मायने
देश को, जहाँ को
और कोने में पडी वो बुढिया
गरियाती है
ये मुआ क्या समझा रहा है
अलिफ़ बे पे ?
................................................अलका
रोज जलते हैं कुछ चूल्हे
उन सिरकियों के पास जो उन मेहनत कशों की है
जो बनाते हैं ताज, संसद बहुमंजिली ईमारत और हजारों कोठियां
पर अपने लिए इक घर नहीं बना पाते
और बिखरे रहते हैं बड़े शहर की चकाचौंध में
इधर - उधर
आज सुबह सुबह इन्हीं सिरकियों के बसेरे में
एक चूल्हा इंतज़ार में था
उन चूड़ियों वाले उस हाथ का जो सारी ममता ले
जोरेगी इक आंच परिवार के लिए और सेंकेगी कुछ
रोटियां सोंधी सोंधी
पर
आज सुबह सुबह ही वो
सर पर हाथ रख सुन रही थी
समाचार
कल रात थकी मांदी सो गयी थी जल्दी
काम पर जाना है कह
क्या हो गया है इसे
चूल्हा सोच में था
और मालकिन सोच में थी के
क्या बोल रहे हैं देश के प्रधान और क्या होता है
डीरेगुलेशन
२
'पेट्रोल'
क्या करूँ इसका
हर रोज उछल जाता है और मेरा घर
कहीं रुक कर गिनने लगता है
हाथ में आने वाली महीने की रकम
और उनके चेहरे पर उभर आतीं हैं कई लकीरें
आड़ी - टेढ़ी
उनके चेहरे का भूगोल बिगड़ जाता है
और मेरे लिए खुल जाती है फिर से
अर्थशास्त्र की किताब जिसे
हर बार पेट्रोल की बढ़ी कीमत के साथ
समझती हूँ घंटों
इस साल ११ बार उछल चुका है और मैं हर बार
समझने लगती हूँ इतिहास , भूगोल और अर्थशास्त्र
मैं तो गृहविज्ञान की छात्र थी
क्या जानू अर्थ शास्त्र
पर इस साल सचमुच समझ गयी हूँ
पूरा का पूरा अर्थशास्त्र
देश के प्रधान का
डीरेगुलेशन फंडा भी
३.
सदियों गाँव मस्त थे
अपनी दुनिया में सारे तीन तिकड़म से
अनजान
सुबह की पहली किरण के साथ उठ हर रोज
गढ़ते थे अपनी किस्मत
आज उनके माथे पर भी बल हैं
होठों पर हजारों गलियां
कभी अपने पर, कभी अपनी बेबसी पर
और कभी अपनी ही चुनी सरकार पर
फिर बढ़ गए पेट्रोल के दाम
जैसे हवा हो गयी थी खबर
चर्चा गरम थी चौपाल में
के
अब डीज़ल के भी दाम बढ़ेंगे
ऐसा देश के प्रधान कह रहे थे
सब समझने को आतुर थे
डीरेगुलेशन का मर्म
और सारी की सारी औरतें हैं यहाँ
बेखबर
४.
देश के सन्नाटे को चीरती
एक गाडी अभी अभी गुज़री है
बेधड़क, बेख़ौफ़ और बिना चिंता
कुछ गुलाबी लाल चेहरों के साथ
जैसे सारी मलाई इनके खाते में हो
जैसे पेट्रोल इनके कब्जे में हो
डीज़ल बांदी हो
महंगाई इनके चरण में बैठ भजन गाती हो
जैसे सारा रिमोट वो लिए बैठे हैं
तभी तो
वो कहते हैं तो वो बोलते हैं
वो लिखते हैं तो वो गाते हैं
वो देते हैं तो वो पढ़ाते हैं
डीरेगुलेशन के मायने
देश को, जहाँ को
और कोने में पडी वो बुढिया
गरियाती है
ये मुआ क्या समझा रहा है
अलिफ़ बे पे ?
................................................अलका
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