Friday, April 5, 2013

एक महल की दास्तान ---- मेरे बचपन के दिन

‘बुलबुल’ इसी नाम से मेरे मा – बाप और बडे- बुजुर्ग मुझे घर में पुकारते थे. पापा को छोडकर अब इस नाम से बुलाने वाले इक्का- दुक्का बचे हैं. कई बार कान तरस जाते हैं यह नाम किसी के मुंह से सुनने को. पर आज इस हवेली के हर कोने आवाज आ रही है जैसे कितने ही लोग बुला रहे है. उपर बालकनी से नानी की आवाज़ सुनाई दे रही है और नीचे दरोखे से भंडारी की आवज़ आ रही है ‘ ए बूलबूल बबुनी आ गयीनी’ . चौका अनगना से ललमतिया की माई कह रही हैं कि ए बुलबुल बबुनी हाल्दी हाल्दी हाथ गोड धो लीं........ बीजे बाद में होई रउआ भूख लागल होई खा लीं तनी त खेलम....... सुनी ना का खायेम .... चना के सतुई और धी चीनी........ मैं जवाब देती हूं जैसे ....इस खंडहर हो गयी हवेली की एक एक ईंट में जैसे मेरी यादों का खज़ाना है सब किसी फिल की रील की तरह चल रही है मेरी आंख के सामने. मैं यहां इस बार 1992 के बाद आयी हूं.... इससे पहले नानी की मृत्यु पर आयी थी तब यह नहीं सोचा था कि अगली बार जब आउंगी तब यह इस कदर खंडहर हो चुकी होगी. नहीं सोचा था कि बचपन के सब चेहरे फिर देखने को नहीं मिलेंगे. ललमतिया, सुमतिया, सुदमवा, देवंतिया, संवरिया किसी से मुलाकात नहीं होगी......सोचा नहीं था कि ललमतिया की माई कभी नहीं दिखेंगी .आज सब याद आ रहे हैं. वो सारे चेहरे जिसने मुझे प्यार दिया , खाना खिलाया, मेरे ननिहाल पहुंचने पर ऐसे न्योछवर हुए जैसे मैं उनकी अपनी औलाद हौउ. मुझे अपने ननिहाल का ये देश, यहां के लोग, उनकी जबान, उनका चरित्र, उनके भाव, ये ताड के पेड, यहां मिट्टी की सुगन्ध, यहां का लोक संगीत , यहां की भाषा कुछ इस कदर प्यारे हैं कि मैं इसे दिल एं लिये फिरती हूं. इसी लिये आज जब यहां आयी हूं अभी तक अपनी हवेली के भीतर नहीं गयी हूं. बस बाहर बाहर घूम रही हूं ......... उन चेहरों को खोज रही हूं जो मेरी स्मृतियों को रंग देते हैं. जो मेरे अनतर में जमें बैठे हैं. जो मुझे शब्द देते हैं , सुर देते हैं राग रागिनियों से परिचय कराते हैं और लिखने का अकूत साहस देते हैं........ मैं उनको ही खोज रही हूं बेचैन होकर .......रधिकवा, उसकी माई, भोलवा, शोभवा याद कर कर के सबसे पूछ रही हूं कि कहीं से कोई धागा मिले तो मैं वो मोती पिरोना शुरू करूं ...........पर उनमें से बस एक दो मिली हैं और मेरे अन्दर जैसे एक हूक उठ रही है ......एक कराह ..... एक ऐसी कराह जिसे मैं किसी को सुना भी नहीं सकती ना ही किसी से साझा कर सकती हूं ...............चुपचाप एक पेड के नीचे खडी हो सोच रही हूं कि क्या समय इतना पीछे चूट गया .इतना पीछे .........सब कुछ इतना बदल गया ? इतना बदल गया ? आखिर इतने दिनों के बीच मैं क्यों नहीं आयी यहां ? खां फंसी रही कि नहीं आ पायी ? खुद से सवाल करती रही घंटों .....कोसती रही अपने आप को तभी लगा जैसे पीछे से किसी ने बुलाया ..............बुलबुल चिरई आ गयीली का ? आरे हमर बाछी .......आ गयीनी रउआ ......... आवाज़ इतनी धीमी थी कि शक्क हुआ अपने आप पर कि ये मैं कैसे सुन सकती हूं ? कई बार सोचा कान बज रहे हैं मेरे इसी उमर में ..........पर तभी एक वृद्ध हाथ मे मुझे छुआ .....जैसे आत्मा तृप्त हो गयी ...........मेरी आंखे और उनकी आंखे मिलीं और ........ काहे एज़वा बईठल् बानी बबुनी ? काहे ?
देवंतिया के माई रउआ हमरा पहचान गयीनी ? कइसे ? एतना दिन बाद ?
ए बाबू भला रउआ के ना पहचानेम ? ए हमर बाछी देखी ना केतना बढियां लागता ..... राउर पाहुन केने बानी ? उंहों के आयेल बानी नूं ?

Tuesday, April 2, 2013

अकेले होने के दर्द

लाडली होने का सुख
अकेले होने के दर्द से
बहुत कमतर होता है
लेकिन दुनिया
मेरे अकेले होने को
मेरे सुखी और सौभाग्यशाली
होने से जोडकर देखती रही है
जबकि मैं
इस अकेलेपन की व्यथा
लिये भटकती रही हूं
इधर – उधर
तीन भाइयों के बीच
मेरे मन का हर कोना
टकटकी लगाये देखता रहा है
उनके खेल, उनका बल, उनका मन
उनके आपस का एका
उनकी खुशी , खुशी की कुलांचे
उनके होने से मनो सौभाग्य का बोझ लिये मैं
चुप चाप गिनती रही हूं
अपना सुख
छिपाती रही हूं
अकेलापन
अपनी व्यथा – कथा
आंखों की नमकीन होती कोर
और एक कमजोर मन

...............................................अल्का

Saturday, March 16, 2013

तुम मिले

तुम अनाम थे, अनजान
मिलने से पहले
तुम स्वप्न थे हथेलियों पर
मिलने से पहले

तुम मिले तो
जहन में अचानक
एक नाम तैरने लगा
पहचाना पहचाना
अनजान यह शब्द
गुम हो गया था
तेज़ हवाओं के साथ

तुम मिले तो
जैसे
स्वप्न हथेलियों पर उतर आये
हकीकत बनके
अनजान वह नाम
रफ्ता रफ्ता
हकीकत की तहरीर
लिखने लगा


तुम मिले तो
जिन्दगी जैसे गुनगुनी धूप सी
पसर गयी थी
पोर पोर में
गहरे उतर कर
मन की चाक पर जिन्दगी के
शब्द गढने लगे
तुम्हारे इर्द गिर्द


तुम मिले तो
मरमरी, मखमली अहसास
हवा में तैर गये थे
हौले हौले
क्या तुमने भी
ऐसा ही महसूस किया था
मुझसे मिलने के बाद ?
क्या तुम्हारे लिये भी
मेरे मायने वही हैं ?


तुम्हारी प्रश्न वाचक निगाहों से
पता चल रहा है कि
मेरे सवाल तुमको बेचैन कर रहे हैं
तुम असमंजस में हो
पर क्या करूं
मन में सवाल है
सो पूछ लिया


जवाब चहती हूं
तुमसे
क्योंकि तुम मिले तब से
गुम हो गयी थी मैं

आज खोज़ा है
कई सवालों के
बीच
अकेली खडी खुद को


.................................................अलका








Friday, March 8, 2013

स्त्रियों की कलम से

फेसबुक पर एक मित्र ने मेरी एक पोस्ट पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कमेंट करते हुए कहा था कि साहित्य में भी लिंग भेद ? कई दिग्गजों ने उनका समर्थन किया था ...............पिछले कुछ दिनो से स्त्री विमर्श पर कुछ नयी स्त्री कवियत्रियों को पढ रही हूं .....और कुछ पुरुष रचनाकारों को भी सभी की रचनाओं में उनके होने का ही नहीं बल्कि उनके अहसास , उनके सोचने और उनके परिवेश का रंग साफ साफ नज़र आता है. स्त्रियों ने अपने अह्सास को लिखा है , अपने प्रश्न उठाये हैं और अपनी बात क इस विषय पर उसके पकड की कमी साफ साफ ही है वहीं दूसरी तरफ पुरुष अभी स्त्री को कई मायनों में समझने की प्रक्रिया एं ही है,उसके मन , उसकी अनुभूति और उसके मंथन से दूर बस समझ रहा है उसे.............. स्त्री होने के अब तक के अर्थ और स्त्री के सवाल स्त्रियों ने किस तरह उठाये हैं महिला दिवस पर कम से कम 3 कवियत्रियों की कलम को पढिये ---------
पहली कवियत्री हैं अनामिका ................ दूसरी कवियत्री हैं अपर्णा मनोज और तीसरी कवियत्री हैं लीना मल्होत्रा राव ...........

1.
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!
Anamika







2.
तुम स्वीकार करते हो
लिप्साओं के संसार में तुम एक ययाति
याचक
प्रेमी
पति
पिता भी तो हो तुम


तुम्हारा स्वार्थ एक कायांतर पुरु की देह से गुज़रते हुए
शर्मिष्ठा तक !


मैं स्वीकार करती हूँ तुम्हारा अपरिमित स्नेह जैसे "बुद्ध"
मेरी अधीरता के महल से बाहर गमन करता
दुखों को मांजता
अतियों के दुर्निवार जंगल में
सरल रास्ता
जिस पर चल सके आम्रपाली .

हम दो ..
कई अंतर विरोधों में जीते -मरते
अंतत: उस बिंदु पर रुक जाते हैं सहसा
जहाँ से मैं टकटकी लगाये देखती हूँ
अपने भीतर का सुन्दरतम पुरुष कमियों के साथ
और तुम ठगे से चाहते हो भरपूर एक स्त्री मौन में प्रतिवाद करती
अपने भीतर गहन .


अहम् की स्लेटों की अदला -बदली करते
दोनों की निश्छल हंसी और निश्चिन्तता सहज हो लिखती है
सान्द्र प्रेम ..
सूख -सूख पट्टी
चन्दन घट्टी...


बीत चुकी है मावट की बरसात
सूख रही हैं हमारी छोटी -छोटी स्वीकृतियां गुनगुनी धूप में बाहर

कितनी पूरक ..


अपर्णा manoj



3.
ओह बहुरूपिये पुरुष !

पति
एक दिन
तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए
मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तो पर भटक गई
निष्ठा के गहरे गह्वर में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था
उसके विष का गुणधर्म वैसा ही था
जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे
इतनी
कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें.
तभी जान पाई मै कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का
और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर ..
मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी
कुल बढ़ाने वाली बेल
और अर्धांगिनी
तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार
तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा
और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूंगी

मेरे और तुम्हारे बीच
फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग
और इस बार
मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का

यह जानने के बाद
तुम
थे पशु ...
मै वैश्या दुराचारिणी ..

ओ प्रेमी!
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार

तुमने फेका फंदा
वृन्दावन की संकरी गलियों के मोहपाश का
जिनकी आत्मीयता में खोकर
मैंने सपनो के निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर
गर्वीली नई धरती पर प्यार की फसलों का वैभव फूट रहा था
तुमने कहा
राधा !
राधा ही हो तुम..
और
प्रेम पाप नही..

जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..

-लीना मल्होत्रा

Sunday, February 24, 2013

अपनी भतीजी पाखी के नाम

(अपनी भतीजी पाखी के नाम )

मत रम मेरी बच्ची मत रम
फैशन की
इस अन्धेरी दुनिया में
मत रम
ये तुझे दफ्न कर देंगे
जिन्दा
उस कब्रगाह में जो इसी रास्ते
जाता है

मैं तुझे कलम देती हूं
और कुछ किताबें
जो तुझे अवसर देंगे
नये सूरज में
नये तरीके से संवरने के


ले ये हथियार और लिख
नयी इबारतें
पुरानी कब्रगाह में दबी
कुछ जिन्दगियों के नाम
और बदल डाल सारे नक्शे
अपनी जिन्दगी के

...........................अलका


Thursday, February 21, 2013

कवि नरेश सक्सेना की कुछ पंक्तियां और मेरी कलम की गुस्ताखी

मेरे कवि मित्र प्रेम चन्द गान्धी ने नरेश सक्सेना जी की यह् कविता फेसबुक पर कुछ इन विचारों के साथ शेयर की थी :: मेरे प्रिय कवि आदरणीय नरेश सक्से ना की यह कविता पढ़कर भीतर तक हिल गया हूं... कई दिनों से ऐसी ही एक कविता के बिंब ज़ेहन में तैर रहे थे... अब लगता है उसे लिखने की कोई ज़रूरत नहीं। ::
मित्रों, इस कविता पर कुछ लिखने से पहले मैं यह बता दूं कि इस कविता की लयबद्धता , शब्द , साहित्य , लक्षणा व्यंजना मेरी आलोचना का केन्द्र नहीं है बल्कि मेरे लिये इस कविता का केन्द्र बिन्दु स्त्री, उसकी सामाजिक स्थिति. पुरुष वर्चस्व साथ ही स्त्री आज तक जो लिखी गयी है, स्त्री जो आज तक धर्म और समाज में जो बांची गयी है, वह जिस तरह से तैयार की गयी, उसके मानसिक जगत को जिस तरह से गढने की कोशिश रही है, जिन प्रक्रियाओं से वह गुजरी है ......वह है. मिलाकर कहूं तो मैं इस कविता के सामाजिक पक्ष को लिखने की कोशिश कर रही हूं.
नरेश जी की यह कविता कुछ इस तरह है -
मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिनमें स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है

स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हेंग
उनके मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढ़े नहीं मिलता
…………………….नरेश सक्सेना

सच कहूं तो यह कविता पढ कर मैं बेहद हैरान हूं. इतनी हैरान कि इस कविता की कुल जमा 8 लाइनों को मैं हज़ार बार पढ चुकी हूं और सोच रही हूं कि नरेश सक्सेना ने यह कविता किस मनोदशा में लिखी होगी ? एक स्त्री होने के नाते मुझे नरेश सक्सेना की कविता और उसके विषय से नाइत्तफाकी है. और हैरानी से सोच रही हूं कि कभी किसी महिला ने पुरुष के मेनोपाज़ पर कविता लिखने की हिम्मत की है? क्या कभी उसने इस सम्बन्ध में धर्म को समझने की कोशिश की है ? .... और क्या उसी दखल और विश्वास से किसी स्त्री ने भी इस विषय को सबके साथ साझा किया है जिस विश्वास से नरेश जी ने किया है? अगर कभी किया है तो क्या उसे उतना समर्थन और उत्कृष्ट कमेंट पुरुषों की तरफ से मिले हैं जैसे कि इस कविता पर देखने को मिले ? वैसे मुझे याद नहीं आता कि कोई ऐसी कविता मेरी नज़रों से गुजरी है अब तक ..........
बहर हाल मेरी हैरानी की कुछ और भी वजहें हैं ......मैं बडी हैरानी से सोच रही हूं कि एक पुरुष कितने दखल के साथ एक स्त्री ही नहीं बल्कि स्त्रियों की दुनिया के विषय में लिखता है, कितने दखल से स्त्री और उसकी दुनिया को जानने की बात करता है , कितने विश्वास से वह अपनी समझ, स्त्रियों के सम्बन्ध में अपने ज्ञान को दुनिया में बांटता है.मुझे हैरानी इस बात से भी है कि उसे अपनी समझ, अपने ज्ञान पर किस कदर भरोसा है ................और हैरान इसलिये भी हूं कि पुरुष और उसकी कलम स्त्री पर किस हद तक और किस तरह नज़र रखती है. मेरी हैरानी यहीं खत्म नहीं होती यह और भी बहुत से मसलों पर कायम रहती है............यह हैरानी स्त्री को तब तक होती रहेगी जब तक उसके विषय में लिखा जाने वाला हर शब्द उसके भावों से सही अर्थों में मेल नहीं खायेगा.
......इन तमाम प्रश्नों और कौतूहल के बाद भी यह कविता अपने समस्त भावों के साथ पूरा ध्यान खींचती है. ध्यान खीचने की कई वज़हें है –
• यह मेरी जैसी महिला को यह कहने के लिये मजबूर करती है कि कविता स्त्री की दयनीयता को दर्शाने के बहाने ही सही पुरुष , पुरुष वाद और धर्म के साथ पुरुष के सम्बन्ध पर बात करती है ,
• दूसरे स्त्री की दयनीयता उसके दुख को सबके सामने लाने की कोशिश करती है
• यह पुरुष उसके स्वभाव , उसकी नज़र में स्त्री , स्त्री पर उसके वर्चस्व पर बात करती है
• सबसे महत्व्पूर्ण है कि वह इन तीनो स्त्री, पुरुष और धर्म तीनो के अंतर सम्बन्धों पर बात करती है.
• साथ ही साथ यह स्त्रियों की आधी आबादी के प्रति पुरुषों की आबादी की समझ उसकी दुनिया से अज्ञानता भी दिखाती है

मैं यह नहीं जानती कि नरेश सक्सेना जी स्त्री की दुनिया को कितना जानते हैं , कितना समझते है, मैं ये भी नहीं जानती कि उनका स्त्री को लेकर दृष्टि कोण क्या है, उन्होने क्यों बंजर स्त्री की दशा का इस तरह चित्रण किया... किंतु यह कविता अगर पुरुष की दुनिया का स्त्री की दुनिया की समझ और उसकी स्थिति को दर्शाने के लिये है तो तो निश्चय ही कविता कवि के स्त्री की दुनिया की कम जानकारी होने का खुलासा भी करती है. मेरे यह कहने का अपना पर्याप्त कारण और समझ है. अगर मैं कहूं कि एक स्त्री होने के नाते
• स्त्री होने की अपनी स्वानुभूति है
• स्त्रियों की दुनिया की बेहतर समझ है
• मीनोपाज जैसे मसलों पर स्त्रियों की राय जानने का दावा है
• तो शायद मैं ना तो गलत हूं और ना ही मेरी गुस्ताखी है क्योंकि स्वयम स्त्री होने के साथ् लम्बे समय से स्त्रियों के बीच काम करते हुए स्त्री की दुनिया को कमोबेश कवि से बेहतर जानने के दावा तो कर ही सकती हूं
• और अगर यह दावा करती हूं तो मीनोपाज के सम्बन्ध में निम्न बात भी दावे के साथ कह सकती हूं
‘’स्त्रियों के साथ सामाजिक क्षेत्र में काम के 20 साल के अपने अनुभव और ज्ञान को अगर मैं इस कविता के बहाने साझा करूं तो मेरा अनुभव मेनोपाज़ से गुजर रही महिलाओं के सम्बन्ध में बिल्कुल इतर है या यूं कहें कि ठीक इसके विपरीत है. बेतुल की उन अनपढ आदिवासी महिलाओं से लेकर दिल्ली की पढी लिखी विद्वान महिलाओं सहित किसी भी 45 से 50 की उमर की महिला जो मासिक धर्म छूटने के कगार पर है को दुखी होते नहीं देखा. ना ही धर्म से घबराते और डरते देखा है. मैने अधिकतर स्त्रियां इसे स्त्री जीवन के मुक्ति काल के रूप में देखती हैं........
मेनोपाज स्त्री जीवन का एक महत्व्पूर्ण काल होता है जिससे गुजरते हुए वह शारीरिक तौर पर जरूर थोडी कठिनाई महसूस करती है किंतु स्त्री के जीवन की बहुतेरी वर्जनायें इस पडाव तक आते आते खत्म हो जाती हैं इसलिये इस दौर में देखा जाये तो वह ना तो धर्म से डरती है और ना ही समाज से.........इस काल तक आते आते वह घर, घर के पदानुक्रम और व्यक्तिगत रूप से कहीं अधिक मुखर हो जाती है. तो जहां तक मीनोपाज पर बात है मेरे मन में स्त्री के इस चक्र को लेकर कवि के अनुभव और ज्ञान पर शंका उत्त्पन्न होती है.
देखिये नरेश जी का पहला बन्ध –
मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिनमें स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है
किंतु इस कविता का सबसे सकारात्मक पक्ष है इस कविता स्त्री की दयनीयता के बहाने पुरुष की दुनिया के सच को सामने रखना. आप देखें की कविता सभी जगह स्त्री के जीवन उसके जीवन के महत्व पूर्ण प्राकृतिक पडाव पर बात करती है वहीं दूसरी तरफ वह यह भी रहस्य खोलती है कि इस संसार में स्त्री क्या है ? वह इस दुनिया में खुद नहीं डरती .....उसे डराने के लिये , उसे सहमा कर रखने के लिये पुरुष और उसके वाद ने मिलकरएका बनया हुआ है और वह एका धर्म जैसी एक चीज है ......... मजे की बात है कि यह धर्म नाम की चीज़ को विश्वास के साथ जोडा गया है और स्त्री को जबरन इसपर विश्वास करने के लिये बाध्य किया गया...... उन्हें कई मसलों पर रस्सियों पर गतर गतर कर बान्धा गया और उनके द्वारा ना माने जाने की स्थिति में जो उपबन्ध किये गये ...वह ना केवल सोच में डराने वाले रहे बल्कि उस डर को सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाया गया ....... और यही कारण है कि नरेश जी कहते हैं मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को डराते हैं धर्मग्रंथ .........किंतु तमाम डर , टमाम भय के बाद भी स्त्री की दुनिया का अपना एक सच है .....स्त्री की दुनिया की अपनी एक खुशी है .और अपना एक मन ....सही जो ना तो धर्म से संचालित होता है ना ही किसी ग्रंथ से ..........उसकी खुशी को किसी ने अभी तक जाना ही नहीं और उसके सही दुख को भी .........
अब अगर धर्म पर आधारित उपबन्धों को देखा जाये तो दुनिया भर के सभी धर्मग्रंथ सभी स्त्रियों के लिये बहुत से उपबन्ध लिखते हैं किंतु धर्म के अधिक डराने वाले उपबन्ध रजस्वला स्त्री के लिये हैं ‘जिनमें स्त्रियों को पुरुषों की खेतियां बताया जाता है. किंतु कविता की यह दूसरी पंक्ति पूरे पुरुष समाज, उसके वाद और धर्म से उसके अंतर सम्बन्ध को बयान करती है और सोचने को मजबूर करती है कि आखिर यह पुरुष है कौन ? स्त्री कैसे उसकी खेती हो सकती है ?इस कविता के बहाने मैं यह सोच रही हूं कि --
कौन है पुरुष ? कैसे हुआ पुरुष और पुरुष वाद का उद्भव और विकास ? क्या यह एक सहज़ उद्धभव और विकास था या फिर एक रणनीति के तहत किया गया विकास था? अगर यह एक सहज़ विकास था तो फिर यह समाज पर इतना हावी और प्रभावी कैसे हो गया ? क्या पुरुष वाद और धर्म एक दूसरे के पूरक का काम करते हैं? अगर यह पूरक है तो क्या पुरुष और धर्म दोनो ही स्त्री, स्त्री वादी और स्त्री समर्थकों के विरुद्ध हैं ? या फिर उन सबके विरुद्ध जो पुरुष और पुरुषवाद के आलोचक हैं?
सोच रही हूं कि ‘पुरुष’ यह शब्द रोज सुना जाने वाला एक जाना पहचाना शब्द है. एक ऐसा शब्द जिसे हम अपने जीवन से जुडा शब्द समझते हैं. सैधांतिक रूप से इस शब्द की व्याख्या जब जब और जहां जहां की गयी है एक मानव नर रूप की कल्पना ही की गयी है जो बलिष्ठ है, जो अपराजेय है, बुद्धिमान है मतलब इस शब्द के साथ शारीरिक सौष्ठव, बल, वर्चस्व , और विराट का एक ऐसा मिश्रित रूप गढा गया है जो एक अपराजेय नर की ही कल्पना को मूर्त करता है. इस असाधारण नर की कलपना और उसके द्वारा सम्पादित सभी कार्यों को भी कार्य की उत्तम श्रेणी में रखा गया. इस तरह इस नर ‘पुरुष’ द्वारा सम्पादित कार्य को उसका ‘पौरुष’ कहा गया. विराट पुरुष की यह परिकल्पना सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर समाज, हर देश, जाति, वर्ग औत क्षेत्र में किसी ना किसी रूप में की गयी है. विराट पुरुष की इस परिकल्पना में दुनिया के सभी धर्म अद्भुत रूप से समान नज़र आते हैं. इस कल्पना को दुनिया के सभी समाज एक खास तरह के सम्मान और प्रतिष्ठा से नवाज़ते हैं. किंतु आश्चर्य जनक यह है कि विराट पुरुष की इस परिकल्पना के साथ किसी ऐसी विराट स्त्री की परिकल्पना नहीं की गयी विराट पुरुष की इस व्याख्या को पढने पर कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न दिमाग में आते हैं और वो प्रश्न अपना समुचित जवाब मांगते हैं. पहला प्रश्न जो मन को उद्वेलित करत है वो है कि इस अपराजेय, बलिष्ठ और बुद्धिमान नर के सम्बन्ध में पुरुष’ और पौरुष’ की यह परिकलपना सृष्टि के आरम्भ से ही थी ? दूसरा जो मतव्पूर्ण प्रश्न दिमाग को कुरेदता है वह यह कि आखिर इस मानव समाज में नर की प्रधानता की कल्पना क्यों और किन परिस्थितियों में की गयी ? और सबसे महत्व्पूर्ण प्रश्न कि जब इस विराट नर की यह कल्पना की जा रही थी, जब यह कल्पना समाज में आरोपित हो रही थी तब स्त्रियां कहां थीं और वह इस पुरुष की कल्पना और समाज में इसकी स्थापना को किस रूप में ले रही थीं ? देखा जाय तो विराट पुरुष की परिकल्पना के विषय में उपरोक्त सभी प्रश्न जायज़ प्रश्न हैं और गहरे पड्ताल की मांग करते हैं किंतु वहीं दूसरी तरफ इस पुरुष के विराट, उसके पौरुष की व्याख्या और उसके शारीरिक सौष्ठव के विषद वर्णन दुनिया के सभी धर्न ग्रंथों में किसी ना किसी रूप में भरे पडे हैं. सवाल यह भी कि यदि यह ग्रंथ ईश्वर ने नहीं लिखे जैसा कि जाहिर है कि उसने नहीं लिखे तब यह ग्रंथ लिखे किसने हैं ? यह ग्रंथ क्यों लिखा गया ? इस तरह के बहुतेरे सवाल मन में उठते हैं और उन सवालों की पडताल करते करते जो सिरा निष्कर्ष तक पहुंचता है कि क्या धर्म और पुरुष दोनो ने मिलकर स्त्री को पुरुषों की दासी बनाने का काम किया है ? तो इसका मतलब कोई भी धर्म ग्रंथ अपौरुषेय नहीं है. कोई भी धर्म ग्रंथ आसमानी किताब नहीं है. यह पुरुषों के द्वारा स्त्री को नियंत्रित करने का जरिया है. बहर हाल यह कविता यह उत्तेजना पैदा करने में सफल है कि मैं इस हद तक सोचू , समझूं और दुनिया से साझा करूं और यही इस कविता की विशेषता है. कारण यह कि यह कविता किसी भी सजग और चिंतंनशील स्त्री को इसी तरह सोचने को मजबूर करेगी.

कविता का दूसरा बन्ध पूरी तरह स्त्री की सामाजिक स्थिति की बात करती है. दूसरा बन्ध कहता है –
स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हें
उनके मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढ़े नहीं मिलता

कविता का यह दूसरा हिस्सा पढते हुए भी मन कवि से सवाल करने को कहता है. कई ऐसे सवाल जो कविता के अंतर से निकल कर चिल्लाते हैं. सोचती हूं कि स्त्री और पृथवी में साम्य अवश्य हैं किंतु उतने ही गहरे विभेद भी ....स्त्रियां अगर बंजर जमीनों का हश्र जानती हैं तो अपने होने का अर्थ भी तो जानती हैं.. तो क्या कविता का यह बन्द स्त्री की लाचारगी भर बयान करती है ? किंतु मैं इन पंक्तियों को मीनोपाज से बंजर हुई महिलाओं के सम्बन्ध में समग्र रूप से नहीं देख पा रही. लेकिन सोच रही हूं कि यह कविता एक पुरुष की कलम से निकली हुई कविता है जहां स्त्री के सम्बन्ध में पुरुष के मन, पुरुष के समाज उसकी स्त्री के प्रति उसकी भावना को समझने की कोशिश की जा सकती है............ऐसा इसलिये क्योंकि तमाम लाचारियों के बाद भी स्त्री को अपने होने का सच पता है, उसे परिवार में अपने होने का अर्थ पता है. वह मीनोपाज के करीब पहुंच कर अपनी एक दुनिया अपने जीवन के संघर्ष से रच चुकी होती है......अगर स्त्री अकेली है तो भी वह इस काल तक आते आते अपना एक जीवन जी चुकी होती है ....... इसलिये अपनी भूमिका भी उसे पता है तो ऐसे में उसका पति जो अपने सारे अर्थों में पुरुष है उसे अन्य मालिक हो सौंप देगा इस तरह की कोई व्यवस्था किसी समाज में होगी इसपर प्रश्न चिन्ह है ............यदि स्त्री एक ऐसे पेशे में है जो सेक्स पर आधारित है तब भी वह इस दौर तक आते आते ऐसी स्थिति में कम ही रह जाती है कि उसे कोई बेच सके ............... तो कविता की इन पंक्तियों को मैं कुछ इस तरह से समझने के प्रयास में हूं ............ दुनिया भर में आज तक जो भी लिखा गया और समझा गया है वह पुरुष की नज़र से, उसकी कलम से , उसकी कलम ने स्त्री को स्त्री बनाया है, उसके लिये बिम्ब गढे हैं , उसकी परिवार और समाज में भूमिका बतायी है, स्त्री को कई खानों में बांटा, अच्छी –बुरी स्त्री बनायी , यह तय किया है कि वो किन स्थितियों में खुश रहेगी, कब डरेगी , कब हंसेगी. दुनिया भर की सभी प्रेम कवितायें उसकी नज़र से लिखी गयी है, उसके डर क्या हैं ये उसकी कलम ने बयान किये हैं. तो सही मायनों में देखा जाये तो स्त्री का दिमाग , उसका मन और उसके रहने , जीने और तमाम भावों की स्थितियां पुरुष ने ही तैयार की हैं ऐसे में पुरुसः यह कैसे जान सकता है कि स्त्री का अपना स्वतंत्र मन क्या है और वह किन बातों पर वास्तव में खुश और दुखी होती है ...........धर्म के तमाम उपबन्धों और दबावों के बाद भी स्त्री का मन जिन बातों पर खुश होता है वह इस बारे में खुद लिखे गी ...........क्योंकि उसका ग्रंथ जिसे वह धर्म कहेगी वह लिखा जाना अभी बाकी है ................
इसलिये सही मायनों में बंजर होने का दुख स्त्री का नहीं पुरुष और उसके समाज का है. कहीं ना कहीं उसे अपना बंजर काल भी याद आता है किंतु वह और उसका ग्रंथ दोनो मिलकर स्त्री के बंजर काल को रेखांकित करते हैं. पुरुष के लिये स्त्री का बंजर काल भले ही काम की चीज़ ना हो लेकिन हर स्त्री का अपना जीवन उसके लिये खुशी का सबब तो है.

कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता स्त्री के दुख से अधिक पुरुष मन, उसके अंदर के भय और उसके वाद के सच को बेहतर खोलती है.

अलका



Wednesday, February 6, 2013

औरतों के हिस्से का सूरज

औरतों के हिस्से का सूरज
उगा नहीं है अभी
कब उगेगा
ये पता भी नहीं
कुछ काले बादलों ने उसे
छेक रखा है
जारी है जंग इन बादलों से


औरतों ने उधार ली है
कुछ रौशनी पडोस से
पर उस पर भी कानून
और धर्म के पहरे हैं
पर्दा बनाया गया है ढकने को
पर वो लड रही हैं
अनवरत
अन्धेरों से
अपना सूरज उगाने के लिये

औरतों ने उधार की
इस रौशनी से
छांट डाले हैं
आधे से अधिक बादल
दूर से कोई देख रहा है
औरतों की इस जंग को
कुछ शैतानी आत्मा
काबिज़ होना चाहती है
सूरज के इस रथ पर
कि उनके हिस्से का सूरज
उगने से पहले अस्त हो जाये


पर उगेगा
चमकेगा और दमकेगा भी
औरतों के हिस्से का सूरज
इसी के उम्मीद में हैं
दुनिया भर की औरतें
.........................................अल्का