मेरे कवि मित्र प्रेम चन्द गान्धी ने नरेश सक्सेना जी की यह् कविता फेसबुक पर कुछ इन विचारों के साथ शेयर की थी :: मेरे प्रिय कवि आदरणीय नरेश सक्से ना की यह कविता पढ़कर भीतर तक हिल गया हूं... कई दिनों से ऐसी ही एक कविता के बिंब ज़ेहन में तैर रहे थे... अब लगता है उसे लिखने की कोई ज़रूरत नहीं। ::
मित्रों, इस कविता पर कुछ लिखने से पहले मैं यह बता दूं कि इस कविता की लयबद्धता , शब्द , साहित्य , लक्षणा व्यंजना मेरी आलोचना का केन्द्र नहीं है बल्कि मेरे लिये इस कविता का केन्द्र बिन्दु स्त्री, उसकी सामाजिक स्थिति. पुरुष वर्चस्व साथ ही स्त्री आज तक जो लिखी गयी है, स्त्री जो आज तक धर्म और समाज में जो बांची गयी है, वह जिस तरह से तैयार की गयी, उसके मानसिक जगत को जिस तरह से गढने की कोशिश रही है, जिन प्रक्रियाओं से वह गुजरी है ......वह है. मिलाकर कहूं तो मैं इस कविता के सामाजिक पक्ष को लिखने की कोशिश कर रही हूं.
नरेश जी की यह कविता कुछ इस तरह है -
मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिनमें स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है
स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हेंग
उनके मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढ़े नहीं मिलता
…………………….नरेश सक्सेना
सच कहूं तो यह कविता पढ कर मैं बेहद हैरान हूं. इतनी हैरान कि इस कविता की कुल जमा 8 लाइनों को मैं हज़ार बार पढ चुकी हूं और सोच रही हूं कि नरेश सक्सेना ने यह कविता किस मनोदशा में लिखी होगी ? एक स्त्री होने के नाते मुझे नरेश सक्सेना की कविता और उसके विषय से नाइत्तफाकी है. और हैरानी से सोच रही हूं कि कभी किसी महिला ने पुरुष के मेनोपाज़ पर कविता लिखने की हिम्मत की है? क्या कभी उसने इस सम्बन्ध में धर्म को समझने की कोशिश की है ? .... और क्या उसी दखल और विश्वास से किसी स्त्री ने भी इस विषय को सबके साथ साझा किया है जिस विश्वास से नरेश जी ने किया है? अगर कभी किया है तो क्या उसे उतना समर्थन और उत्कृष्ट कमेंट पुरुषों की तरफ से मिले हैं जैसे कि इस कविता पर देखने को मिले ? वैसे मुझे याद नहीं आता कि कोई ऐसी कविता मेरी नज़रों से गुजरी है अब तक ..........
बहर हाल मेरी हैरानी की कुछ और भी वजहें हैं ......मैं बडी हैरानी से सोच रही हूं कि एक पुरुष कितने दखल के साथ एक स्त्री ही नहीं बल्कि स्त्रियों की दुनिया के विषय में लिखता है, कितने दखल से स्त्री और उसकी दुनिया को जानने की बात करता है , कितने विश्वास से वह अपनी समझ, स्त्रियों के सम्बन्ध में अपने ज्ञान को दुनिया में बांटता है.मुझे हैरानी इस बात से भी है कि उसे अपनी समझ, अपने ज्ञान पर किस कदर भरोसा है ................और हैरान इसलिये भी हूं कि पुरुष और उसकी कलम स्त्री पर किस हद तक और किस तरह नज़र रखती है. मेरी हैरानी यहीं खत्म नहीं होती यह और भी बहुत से मसलों पर कायम रहती है............यह हैरानी स्त्री को तब तक होती रहेगी जब तक उसके विषय में लिखा जाने वाला हर शब्द उसके भावों से सही अर्थों में मेल नहीं खायेगा.
......इन तमाम प्रश्नों और कौतूहल के बाद भी यह कविता अपने समस्त भावों के साथ पूरा ध्यान खींचती है. ध्यान खीचने की कई वज़हें है –
• यह मेरी जैसी महिला को यह कहने के लिये मजबूर करती है कि कविता स्त्री की दयनीयता को दर्शाने के बहाने ही सही पुरुष , पुरुष वाद और धर्म के साथ पुरुष के सम्बन्ध पर बात करती है ,
• दूसरे स्त्री की दयनीयता उसके दुख को सबके सामने लाने की कोशिश करती है
• यह पुरुष उसके स्वभाव , उसकी नज़र में स्त्री , स्त्री पर उसके वर्चस्व पर बात करती है
• सबसे महत्व्पूर्ण है कि वह इन तीनो स्त्री, पुरुष और धर्म तीनो के अंतर सम्बन्धों पर बात करती है.
• साथ ही साथ यह स्त्रियों की आधी आबादी के प्रति पुरुषों की आबादी की समझ उसकी दुनिया से अज्ञानता भी दिखाती है
मैं यह नहीं जानती कि नरेश सक्सेना जी स्त्री की दुनिया को कितना जानते हैं , कितना समझते है, मैं ये भी नहीं जानती कि उनका स्त्री को लेकर दृष्टि कोण क्या है, उन्होने क्यों बंजर स्त्री की दशा का इस तरह चित्रण किया... किंतु यह कविता अगर पुरुष की दुनिया का स्त्री की दुनिया की समझ और उसकी स्थिति को दर्शाने के लिये है तो तो निश्चय ही कविता कवि के स्त्री की दुनिया की कम जानकारी होने का खुलासा भी करती है. मेरे यह कहने का अपना पर्याप्त कारण और समझ है. अगर मैं कहूं कि एक स्त्री होने के नाते
• स्त्री होने की अपनी स्वानुभूति है
• स्त्रियों की दुनिया की बेहतर समझ है
• मीनोपाज जैसे मसलों पर स्त्रियों की राय जानने का दावा है
• तो शायद मैं ना तो गलत हूं और ना ही मेरी गुस्ताखी है क्योंकि स्वयम स्त्री होने के साथ् लम्बे समय से स्त्रियों के बीच काम करते हुए स्त्री की दुनिया को कमोबेश कवि से बेहतर जानने के दावा तो कर ही सकती हूं
• और अगर यह दावा करती हूं तो मीनोपाज के सम्बन्ध में निम्न बात भी दावे के साथ कह सकती हूं
‘’स्त्रियों के साथ सामाजिक क्षेत्र में काम के 20 साल के अपने अनुभव और ज्ञान को अगर मैं इस कविता के बहाने साझा करूं तो मेरा अनुभव मेनोपाज़ से गुजर रही महिलाओं के सम्बन्ध में बिल्कुल इतर है या यूं कहें कि ठीक इसके विपरीत है. बेतुल की उन अनपढ आदिवासी महिलाओं से लेकर दिल्ली की पढी लिखी विद्वान महिलाओं सहित किसी भी 45 से 50 की उमर की महिला जो मासिक धर्म छूटने के कगार पर है को दुखी होते नहीं देखा. ना ही धर्म से घबराते और डरते देखा है. मैने अधिकतर स्त्रियां इसे स्त्री जीवन के मुक्ति काल के रूप में देखती हैं........
मेनोपाज स्त्री जीवन का एक महत्व्पूर्ण काल होता है जिससे गुजरते हुए वह शारीरिक तौर पर जरूर थोडी कठिनाई महसूस करती है किंतु स्त्री के जीवन की बहुतेरी वर्जनायें इस पडाव तक आते आते खत्म हो जाती हैं इसलिये इस दौर में देखा जाये तो वह ना तो धर्म से डरती है और ना ही समाज से.........इस काल तक आते आते वह घर, घर के पदानुक्रम और व्यक्तिगत रूप से कहीं अधिक मुखर हो जाती है. तो जहां तक मीनोपाज पर बात है मेरे मन में स्त्री के इस चक्र को लेकर कवि के अनुभव और ज्ञान पर शंका उत्त्पन्न होती है.
देखिये नरेश जी का पहला बन्ध –
मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को
डराते हैं धर्मग्रंथ
जिनमें स्त्रियों को
पुरुषों की खेतियां बताया जाता है
किंतु इस कविता का सबसे सकारात्मक पक्ष है इस कविता स्त्री की दयनीयता के बहाने पुरुष की दुनिया के सच को सामने रखना. आप देखें की कविता सभी जगह स्त्री के जीवन उसके जीवन के महत्व पूर्ण प्राकृतिक पडाव पर बात करती है वहीं दूसरी तरफ वह यह भी रहस्य खोलती है कि इस संसार में स्त्री क्या है ? वह इस दुनिया में खुद नहीं डरती .....उसे डराने के लिये , उसे सहमा कर रखने के लिये पुरुष और उसके वाद ने मिलकरएका बनया हुआ है और वह एका धर्म जैसी एक चीज है ......... मजे की बात है कि यह धर्म नाम की चीज़ को विश्वास के साथ जोडा गया है और स्त्री को जबरन इसपर विश्वास करने के लिये बाध्य किया गया...... उन्हें कई मसलों पर रस्सियों पर गतर गतर कर बान्धा गया और उनके द्वारा ना माने जाने की स्थिति में जो उपबन्ध किये गये ...वह ना केवल सोच में डराने वाले रहे बल्कि उस डर को सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाया गया ....... और यही कारण है कि नरेश जी कहते हैं मीनोपाज के निकट पहुंचती स्त्रियों को डराते हैं धर्मग्रंथ .........किंतु तमाम डर , टमाम भय के बाद भी स्त्री की दुनिया का अपना एक सच है .....स्त्री की दुनिया की अपनी एक खुशी है .और अपना एक मन ....सही जो ना तो धर्म से संचालित होता है ना ही किसी ग्रंथ से ..........उसकी खुशी को किसी ने अभी तक जाना ही नहीं और उसके सही दुख को भी .........
अब अगर धर्म पर आधारित उपबन्धों को देखा जाये तो दुनिया भर के सभी धर्मग्रंथ सभी स्त्रियों के लिये बहुत से उपबन्ध लिखते हैं किंतु धर्म के अधिक डराने वाले उपबन्ध रजस्वला स्त्री के लिये हैं ‘जिनमें स्त्रियों को पुरुषों की खेतियां बताया जाता है. किंतु कविता की यह दूसरी पंक्ति पूरे पुरुष समाज, उसके वाद और धर्म से उसके अंतर सम्बन्ध को बयान करती है और सोचने को मजबूर करती है कि आखिर यह पुरुष है कौन ? स्त्री कैसे उसकी खेती हो सकती है ?इस कविता के बहाने मैं यह सोच रही हूं कि --
कौन है पुरुष ? कैसे हुआ पुरुष और पुरुष वाद का उद्भव और विकास ? क्या यह एक सहज़ उद्धभव और विकास था या फिर एक रणनीति के तहत किया गया विकास था? अगर यह एक सहज़ विकास था तो फिर यह समाज पर इतना हावी और प्रभावी कैसे हो गया ? क्या पुरुष वाद और धर्म एक दूसरे के पूरक का काम करते हैं? अगर यह पूरक है तो क्या पुरुष और धर्म दोनो ही स्त्री, स्त्री वादी और स्त्री समर्थकों के विरुद्ध हैं ? या फिर उन सबके विरुद्ध जो पुरुष और पुरुषवाद के आलोचक हैं?
सोच रही हूं कि ‘पुरुष’ यह शब्द रोज सुना जाने वाला एक जाना पहचाना शब्द है. एक ऐसा शब्द जिसे हम अपने जीवन से जुडा शब्द समझते हैं. सैधांतिक रूप से इस शब्द की व्याख्या जब जब और जहां जहां की गयी है एक मानव नर रूप की कल्पना ही की गयी है जो बलिष्ठ है, जो अपराजेय है, बुद्धिमान है मतलब इस शब्द के साथ शारीरिक सौष्ठव, बल, वर्चस्व , और विराट का एक ऐसा मिश्रित रूप गढा गया है जो एक अपराजेय नर की ही कल्पना को मूर्त करता है. इस असाधारण नर की कलपना और उसके द्वारा सम्पादित सभी कार्यों को भी कार्य की उत्तम श्रेणी में रखा गया. इस तरह इस नर ‘पुरुष’ द्वारा सम्पादित कार्य को उसका ‘पौरुष’ कहा गया. विराट पुरुष की यह परिकल्पना सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर समाज, हर देश, जाति, वर्ग औत क्षेत्र में किसी ना किसी रूप में की गयी है. विराट पुरुष की इस परिकल्पना में दुनिया के सभी धर्म अद्भुत रूप से समान नज़र आते हैं. इस कल्पना को दुनिया के सभी समाज एक खास तरह के सम्मान और प्रतिष्ठा से नवाज़ते हैं. किंतु आश्चर्य जनक यह है कि विराट पुरुष की इस परिकल्पना के साथ किसी ऐसी विराट स्त्री की परिकल्पना नहीं की गयी विराट पुरुष की इस व्याख्या को पढने पर कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न दिमाग में आते हैं और वो प्रश्न अपना समुचित जवाब मांगते हैं. पहला प्रश्न जो मन को उद्वेलित करत है वो है कि इस अपराजेय, बलिष्ठ और बुद्धिमान नर के सम्बन्ध में पुरुष’ और पौरुष’ की यह परिकलपना सृष्टि के आरम्भ से ही थी ? दूसरा जो मतव्पूर्ण प्रश्न दिमाग को कुरेदता है वह यह कि आखिर इस मानव समाज में नर की प्रधानता की कल्पना क्यों और किन परिस्थितियों में की गयी ? और सबसे महत्व्पूर्ण प्रश्न कि जब इस विराट नर की यह कल्पना की जा रही थी, जब यह कल्पना समाज में आरोपित हो रही थी तब स्त्रियां कहां थीं और वह इस पुरुष की कल्पना और समाज में इसकी स्थापना को किस रूप में ले रही थीं ? देखा जाय तो विराट पुरुष की परिकल्पना के विषय में उपरोक्त सभी प्रश्न जायज़ प्रश्न हैं और गहरे पड्ताल की मांग करते हैं किंतु वहीं दूसरी तरफ इस पुरुष के विराट, उसके पौरुष की व्याख्या और उसके शारीरिक सौष्ठव के विषद वर्णन दुनिया के सभी धर्न ग्रंथों में किसी ना किसी रूप में भरे पडे हैं. सवाल यह भी कि यदि यह ग्रंथ ईश्वर ने नहीं लिखे जैसा कि जाहिर है कि उसने नहीं लिखे तब यह ग्रंथ लिखे किसने हैं ? यह ग्रंथ क्यों लिखा गया ? इस तरह के बहुतेरे सवाल मन में उठते हैं और उन सवालों की पडताल करते करते जो सिरा निष्कर्ष तक पहुंचता है कि क्या धर्म और पुरुष दोनो ने मिलकर स्त्री को पुरुषों की दासी बनाने का काम किया है ? तो इसका मतलब कोई भी धर्म ग्रंथ अपौरुषेय नहीं है. कोई भी धर्म ग्रंथ आसमानी किताब नहीं है. यह पुरुषों के द्वारा स्त्री को नियंत्रित करने का जरिया है. बहर हाल यह कविता यह उत्तेजना पैदा करने में सफल है कि मैं इस हद तक सोचू , समझूं और दुनिया से साझा करूं और यही इस कविता की विशेषता है. कारण यह कि यह कविता किसी भी सजग और चिंतंनशील स्त्री को इसी तरह सोचने को मजबूर करेगी.
कविता का दूसरा बन्ध पूरी तरह स्त्री की सामाजिक स्थिति की बात करती है. दूसरा बन्ध कहता है –
स्त्रियां जानती हैं
बंजर ज़मीनों का हश्र, जिन्हें
उनके मालिक
बेच देना चाहते हैं
लेकिन ग्राहक ढूंढ़े नहीं मिलता
कविता का यह दूसरा हिस्सा पढते हुए भी मन कवि से सवाल करने को कहता है. कई ऐसे सवाल जो कविता के अंतर से निकल कर चिल्लाते हैं. सोचती हूं कि स्त्री और पृथवी में साम्य अवश्य हैं किंतु उतने ही गहरे विभेद भी ....स्त्रियां अगर बंजर जमीनों का हश्र जानती हैं तो अपने होने का अर्थ भी तो जानती हैं.. तो क्या कविता का यह बन्द स्त्री की लाचारगी भर बयान करती है ? किंतु मैं इन पंक्तियों को मीनोपाज से बंजर हुई महिलाओं के सम्बन्ध में समग्र रूप से नहीं देख पा रही. लेकिन सोच रही हूं कि यह कविता एक पुरुष की कलम से निकली हुई कविता है जहां स्त्री के सम्बन्ध में पुरुष के मन, पुरुष के समाज उसकी स्त्री के प्रति उसकी भावना को समझने की कोशिश की जा सकती है............ऐसा इसलिये क्योंकि तमाम लाचारियों के बाद भी स्त्री को अपने होने का सच पता है, उसे परिवार में अपने होने का अर्थ पता है. वह मीनोपाज के करीब पहुंच कर अपनी एक दुनिया अपने जीवन के संघर्ष से रच चुकी होती है......अगर स्त्री अकेली है तो भी वह इस काल तक आते आते अपना एक जीवन जी चुकी होती है ....... इसलिये अपनी भूमिका भी उसे पता है तो ऐसे में उसका पति जो अपने सारे अर्थों में पुरुष है उसे अन्य मालिक हो सौंप देगा इस तरह की कोई व्यवस्था किसी समाज में होगी इसपर प्रश्न चिन्ह है ............यदि स्त्री एक ऐसे पेशे में है जो सेक्स पर आधारित है तब भी वह इस दौर तक आते आते ऐसी स्थिति में कम ही रह जाती है कि उसे कोई बेच सके ............... तो कविता की इन पंक्तियों को मैं कुछ इस तरह से समझने के प्रयास में हूं ............ दुनिया भर में आज तक जो भी लिखा गया और समझा गया है वह पुरुष की नज़र से, उसकी कलम से , उसकी कलम ने स्त्री को स्त्री बनाया है, उसके लिये बिम्ब गढे हैं , उसकी परिवार और समाज में भूमिका बतायी है, स्त्री को कई खानों में बांटा, अच्छी –बुरी स्त्री बनायी , यह तय किया है कि वो किन स्थितियों में खुश रहेगी, कब डरेगी , कब हंसेगी. दुनिया भर की सभी प्रेम कवितायें उसकी नज़र से लिखी गयी है, उसके डर क्या हैं ये उसकी कलम ने बयान किये हैं. तो सही मायनों में देखा जाये तो स्त्री का दिमाग , उसका मन और उसके रहने , जीने और तमाम भावों की स्थितियां पुरुष ने ही तैयार की हैं ऐसे में पुरुसः यह कैसे जान सकता है कि स्त्री का अपना स्वतंत्र मन क्या है और वह किन बातों पर वास्तव में खुश और दुखी होती है ...........धर्म के तमाम उपबन्धों और दबावों के बाद भी स्त्री का मन जिन बातों पर खुश होता है वह इस बारे में खुद लिखे गी ...........क्योंकि उसका ग्रंथ जिसे वह धर्म कहेगी वह लिखा जाना अभी बाकी है ................
इसलिये सही मायनों में बंजर होने का दुख स्त्री का नहीं पुरुष और उसके समाज का है. कहीं ना कहीं उसे अपना बंजर काल भी याद आता है किंतु वह और उसका ग्रंथ दोनो मिलकर स्त्री के बंजर काल को रेखांकित करते हैं. पुरुष के लिये स्त्री का बंजर काल भले ही काम की चीज़ ना हो लेकिन हर स्त्री का अपना जीवन उसके लिये खुशी का सबब तो है.
कुलमिलाकर देखा जाये तो यह कविता स्त्री के दुख से अधिक पुरुष मन, उसके अंदर के भय और उसके वाद के सच को बेहतर खोलती है.
अलका
Alakaa,, strityoka sach bhi ourush batayeGe aur striyaa bhi sach maane..
ReplyDeleteapki kalam ne gushtakhi nahi ki hai .... kadwa sach bayaan kiya hai .... kavita par sateek tippani di hai apne ... badhai !!
ReplyDeleteबहुत अच्छी और सटीक व्याख्या ,इसमें गुस्ताखी कहाँ है ...हो सकता है लेखक का अपना नजरिया रहा हो ....लेकिन मेरे विचार से अगर कोई पुरुष , स्त्री पर लिखता है तो वह अपने विचार थोप कर ही लिखता है
ReplyDeleteबहुत सही विवेचना सहमत हूँ आपसे की इक स्त्री मिनोपोज़ तक जाते जाते सभी वर्जनाओं से मुक्ति पा लेती है और इसे समझने के लिए इक पुरुष को स्त्री होना होगा ................
ReplyDeleteअलका जी आपने व्याख्या अच्छी की है वैसे मैने एक धर्म ग्रंथ की तहरीर पढी है जिसमे यह लिखा है कि औरते पुरूषॊ की ख्रेतियां है कवि नरेश की पंक्तियां यहां उसी पक्ष को उजागर करती है और शायद चोट भी करती है जो आज भी कोई खास नही बदला पाया है । बहरहाल आपके व्याख्या से यह और भी स्पष्ट हो गया है यह सब पुरूषो द्वारा लिखित है आसमान से नही टपका है इस नजरिये मे बदलाव की अपेक्षा है । शुक्रिया सह आभार
ReplyDeleteअलका जी आपने व्याख्या अच्छी की है वैसे मैने एक धर्म ग्रंथ की तहरीर पढी है जिसमे यह लिखा है कि औरते पुरूषॊ की ख्रेतियां है कवि नरेश की पंक्तियां यहां उसी पक्ष को उजागर करती है और शायद चोट भी करती है जो आज भी कोई खास नही बदला पाया है । बहरहाल आपके व्याख्या से यह और भी स्पष्ट हो गया है यह सब पुरूषो द्वारा लिखित है आसमान से नही टपका है इस नजरिये मे बदलाव की अपेक्षा है । शुक्रिया सह आभार
ReplyDeleteअलका जी, आपका विश्लेषण बहुत सारे कन्फ्यजन पैदा करने वाला है। एक ओर आप इस कविता के सकारात्मक पहलुओं की बात करती हैं, वहीं स्त्री विमर्श के अन्य सवालों के बहाने एक ऐसे कवि को मर्दवादी साबित करने का प्रयास कर रही हैं, जिन्होंने आपके और मेरे जन्म से पहले एक ऐसी स्त्री से विवाह किया था, जिसकी आज के समाज में भी कोई हिम्मत नहीं कर सकता... पेशे से इंजीनियर और प्रगाढ़ वैज्ञानिक चेतना के कवि हैं नरेश सक्सेना... आप इस कविता के उस पक्ष को नहीं देख रही हैं, जो कवि का अभिप्रेत है... तसलीमा नसरीन ने कहीं लिखा है कि 60 वर्ष की आयु में पुरुषों में कुछ पौरुष हार्मोन्स की मात्रा बढ़ जाती है, जिसकी वजह से वे समझने लगते हैं कि उनकी जवानी लौट रही है। इसी समय उनकी स्त्रियां मीनोपाज के निकट पहुंच रही होती हैं... और ठीक इसी समय बहुत से पुरुष कम उम्र की लड़कियों से विवाह कर लेते हैं। ... इस आलोक में आप बंजर ज़मीन वाले बिंब को देखेंगे तो बहुत सी चीजें साफ हो जाएंगी। ... कविता में हमेशा बहुत कुछ अनकहा होता है, वह सुधी पाठक तक पहुंच जाता है... हथियार लेकर जाने से कविता कभी नहीं खुलती, उसके लिए कुछ अतिरिक्त भी चाहिये होता है, जो गैर ज़रूरी विश्लेषणों में नहीं होता। ... आपका लेख बहुत अच्छा है, लेकिन वह कविता नहीं है...
ReplyDeleteनरेश जी की कविता आज के सन्दर्भ में प्रासंगिक नहीं है ,पहले कभी ऐसा रहा है कि बच्चे पैदा करना ही एक स्त्री का धार्मिक कर्तव्य होता था ! अब तो राजोमुक्ति को एक रहत ही समझा जाता है ! आपकी टिप्पणी से सहमत हूँ अलका जी !
ReplyDeleteकवि की अपनी समझ अनुभव व बेबाकी दिख रही हैं, पर अकविता औरअसमाजिक नहीं कहा जा सकता
ReplyDeleteमुझे यह कविता स्त्री के द्वारा पुरुष की नीयत की पहचान की कविता लगती है कि वह उन्हें ताड़ गई है, उन्हें पहचान गई हैं कि वे ऐसी ही घटिया सोच वाले होते हैं।
ReplyDeleteयह स्त्री द्वारा पुरुष मन के विश्लेषण की कविता है, न कि पुरुष द्वारा स्त्री-मन की। रचनाकार का 'जेण्डर' भूल कर कविता को कविता की तरह पाठकेन्द्रित दृष्टि से देखना होगा।