‘बुलबुल’ इसी नाम से मेरे मा – बाप और बडे- बुजुर्ग मुझे घर में पुकारते थे. पापा को छोडकर अब इस नाम से बुलाने वाले इक्का- दुक्का बचे हैं. कई बार कान तरस जाते हैं यह नाम किसी के मुंह से सुनने को. पर आज इस हवेली के हर कोने आवाज आ रही है जैसे कितने ही लोग बुला रहे है. उपर बालकनी से नानी की आवाज़ सुनाई दे रही है और नीचे दरोखे से भंडारी की आवज़ आ रही है ‘ ए बूलबूल बबुनी आ गयीनी’ . चौका अनगना से ललमतिया की माई कह रही हैं कि ए बुलबुल बबुनी हाल्दी हाल्दी हाथ गोड धो लीं........ बीजे बाद में होई रउआ भूख लागल होई खा लीं तनी त खेलम....... सुनी ना का खायेम .... चना के सतुई और धी चीनी........ मैं जवाब देती हूं जैसे ....इस खंडहर हो गयी हवेली की एक एक ईंट में जैसे मेरी यादों का खज़ाना है सब किसी फिल की रील की तरह चल रही है मेरी आंख के सामने. मैं यहां इस बार 1992 के बाद आयी हूं.... इससे पहले नानी की मृत्यु पर आयी थी तब यह नहीं सोचा था कि अगली बार जब आउंगी तब यह इस कदर खंडहर हो चुकी होगी. नहीं सोचा था कि बचपन के सब चेहरे फिर देखने को नहीं मिलेंगे. ललमतिया, सुमतिया, सुदमवा, देवंतिया, संवरिया किसी से मुलाकात नहीं होगी......सोचा नहीं था कि ललमतिया की माई कभी नहीं दिखेंगी .आज सब याद आ रहे हैं. वो सारे चेहरे जिसने मुझे प्यार दिया , खाना खिलाया, मेरे ननिहाल पहुंचने पर ऐसे न्योछवर हुए जैसे मैं उनकी अपनी औलाद हौउ. मुझे अपने ननिहाल का ये देश, यहां के लोग, उनकी जबान, उनका चरित्र, उनके भाव, ये ताड के पेड, यहां मिट्टी की सुगन्ध, यहां का लोक संगीत , यहां की भाषा कुछ इस कदर प्यारे हैं कि मैं इसे दिल एं लिये फिरती हूं. इसी लिये आज जब यहां आयी हूं अभी तक अपनी हवेली के भीतर नहीं गयी हूं. बस बाहर बाहर घूम रही हूं ......... उन चेहरों को खोज रही हूं जो मेरी स्मृतियों को रंग देते हैं. जो मेरे अनतर में जमें बैठे हैं. जो मुझे शब्द देते हैं , सुर देते हैं राग रागिनियों से परिचय कराते हैं और लिखने का अकूत साहस देते हैं........ मैं उनको ही खोज रही हूं बेचैन होकर .......रधिकवा, उसकी माई, भोलवा, शोभवा याद कर कर के सबसे पूछ रही हूं कि कहीं से कोई धागा मिले तो मैं वो मोती पिरोना शुरू करूं ...........पर उनमें से बस एक दो मिली हैं और मेरे अन्दर जैसे एक हूक उठ रही है ......एक कराह ..... एक ऐसी कराह जिसे मैं किसी को सुना भी नहीं सकती ना ही किसी से साझा कर सकती हूं ...............चुपचाप एक पेड के नीचे खडी हो सोच रही हूं कि क्या समय इतना पीछे चूट गया .इतना पीछे .........सब कुछ इतना बदल गया ? इतना बदल गया ? आखिर इतने दिनों के बीच मैं क्यों नहीं आयी यहां ? खां फंसी रही कि नहीं आ पायी ? खुद से सवाल करती रही घंटों .....कोसती रही अपने आप को तभी लगा जैसे पीछे से किसी ने बुलाया ..............बुलबुल चिरई आ गयीली का ? आरे हमर बाछी .......आ गयीनी रउआ ......... आवाज़ इतनी धीमी थी कि शक्क हुआ अपने आप पर कि ये मैं कैसे सुन सकती हूं ? कई बार सोचा कान बज रहे हैं मेरे इसी उमर में ..........पर तभी एक वृद्ध हाथ मे मुझे छुआ .....जैसे आत्मा तृप्त हो गयी ...........मेरी आंखे और उनकी आंखे मिलीं और ........ काहे एज़वा बईठल् बानी बबुनी ? काहे ?
देवंतिया के माई रउआ हमरा पहचान गयीनी ? कइसे ? एतना दिन बाद ?
ए बाबू भला रउआ के ना पहचानेम ? ए हमर बाछी देखी ना केतना बढियां लागता ..... राउर पाहुन केने बानी ? उंहों के आयेल बानी नूं ?
बचपन का कोई मिल जाय तो मन वैसा ही उमँग उठता है.
ReplyDeleteबहुत अच्छे बचपन के दिन , भुलाए नही भूलते
ReplyDeleteशुक्रिया अनंत ............मैं आपके मंच पर जरूर ट्हलूंगी
ReplyDeleteबचपन की यादें और उनमे खो जाने की आकांक्षा सदैव रहती है.
ReplyDeleteसुंदर लेखन.