Monday, April 8, 2013

मेरे बचपन के दिन

अब मुझे सज़ा मिलने वाली थी .............सज़ा ......एक कडी सज़ा ......... मेरे अन्दर अज़ीब अज़ीब भाव आ रहे थे. डर भी लग रहा था और समझ में भी नहीं आ रहा था कि घर पर क्या होगा. 5-6 साल के बच्चे का मन दुनिया को समझने की जुगत में लगा रहता है. यह जानने की कोशिश में लगा रहता है कि इस दुनिया में उसके कौन सी हरकत मान्य है और कौन सी अमान्य.


मैं कई तरह के बाल उहा- पोह में थी कि मेरी इस गलती के लिये नानी की सज़ा क्या होगी मेरे लिये ? सच कहूं तो मुझे अपनी ये गलती गलती लग ही नहीं रही थी क्योंकि आज़मगढ में तो अक्सर मैं ऐसा करती थी और मां मुझे कोई सज़ा नहीं देती थी. उल्टे सवाल करती थी, आज क्या क्या खेला? कहां कहां गयी? किस किस दोस्त के साथ खेला? वगैरह वगैरह ...... मैं सोच रही थी जीजी डांटेंगी या फिर् मेरी मां से शिकायत करेंगी, या फिर रात का खाना बन्द करने की धमकी देंगी जैसा कि वो अक्सर करती थीं.......... यही सब सोचते सोचते मैं दुरूखे पर आ गयी थी और उस व्यक्ति ने मेरी बांह जो उपर से पकड र्खी थी छोड्कर अब कलाई पकड ली थी और मेरी तरफ अज़ीब भाव से देखते हुए कहा ...... अब घरे आ गयीनी नूं जाईं अब बबुई जी के दरबार में ..... मैं उसकी बात सुन उसे पलट कर देखते हुए आगे बढ ही रही थी कि मेरी घिग्घी बन्ध गयी.........जैसे शेर के सामने मेमेना ...... रास्ते भर मिलीं सारी की सारी घमकियां एक एक करके आंखों के आगे आ गयीं. नानी से मेरी इतनी अधिक मानसिक दूरी थी कि मैं उनसे कुछ कह पाने में सह्ज़ नहीं थी दूसरे मेरे अन्दर एक तरह का बाल स्वाभिमान (ईगो) भी था. मैं बस आंख नीची किये उनके सामने खडी रही ......कोई पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि सज़ा सुना दी गयी ..........भंडारी को यह हुक्म दे दिया गया कि मुझे घर के भंडार घर में बन्द कर दिया जाये...........और मैं उस घर में बन्द कर दी गयी. घर के अन्य किसी सदस्य ने इसका कोई विरोध भी नहीं किया. यहां तक की मां ने भी नहीं.
मेरा बच्चा मन जिस लोक राग में रमा लगा बाज़ार तक चला गया था वह मुझ बच्चे को ही नहीं नानी के कानों को भी खूब भाता था. मैने अक्सर उन्हें भगत लोगों को रोककर देवी गीत सुनते देखा था. प्रशंसा करते देखा था तो फिर सज़ा किस बात की थी यह समझ्ने के लिये नानी ने मुझे खासा वक्त दिया था.
मैं भंडार घर में बन्द कर दी गयी थी. भंडार घर का माहौल मेरे जैसे बच्चे को डराने के लिये काफी था. बडे बडे बोलो में भरे मकई, चावल, दाल, चना, तेल , सरसों, तीसी और भी तरह के दूसरे सामान..............कमरे में बन्द होने के बाद मेरा खूराफाती दिमाग यह सोचने में लगा था कि यहां बितने वाला वक्त आखिर कैसे काटूंगी........ यह सोचने में भी लगा था कि आखिर कब तक बन्द रहूंगी.........सारे बच्चे ऐसे ड्अरे सहमें थे कि कोई दरवाजे तक आने की हिम्मत नहीं कर रहा था .................और मैं सोच रही थी कि क्या करूं अब ?
मैने उस कमरे की उंची ऊंची खिडकियों की तरफ देखा और उसी पर जाकर बैठ गयी..इस जुगत में कि अगर चट्खनी खुल गयी तो मैं यहां से ही निकल भागूंगी लेकिन वो इतनी ऊंची थीं कि मेरे बस की नहीं थीं ..........फिर भी मैं कोशिश कर रही थी ............ बीच बीच में चूहों की ची ची से मैं सिहर जाया करती थी .............और मां का इंतजार करने लगती थी .......................... अचानक मेरे गुस्से ने अपना काम करना शूरू किया और फिर मैने हनुमान जी की तरह उस घर में रखे कई बोरों को नुकसान पहुंचाया .........सरसों का तेल गिराया..............उसपर तरह तरह के सामान को गिराया जो भी हाथ में मिला उससे बोरियां फाड डालीं फिर सब्से उंचे बोरे पर चढ कर बैठ गयी ........................ कोई दो तीन घंटे बाद दरवाज़ा खुला ............... और मुझे बाहर निकाला गया .....................
इस घटना ने मुझे कई नसीहतें दी थीं......... इस घर के तौर तरीकों और कानून कायदों का अहसास कराया था .............

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